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अपने पे हंसके जग को हंसाया, बन के तमाशा मेले में आया..

ये सभी समुदाय पूर्णतः भूमिहीन हैं और किसी भी गाँव में उनके रहने के लिए लोगों के दिल अभी तक बड़े नहीं हुए। छुआछूत और जातीय भेदभाव है लेकिन नाम मुस्लिम है इसलिए अनुसूचित जाति या पिछड़े वर्ग का होना का लाभ नहीं मिलता। न ग्रामीण भारत में विकास के नाम पर वो किसी के एजेंडे में और न ही हिन्दू-मुस्लिम या अन्य किसी जाति के लिए महत्वपूर्ण। अब समय आ गया है कि पसमांदा आन्दोलन के लोग और स्वाभिमान के लिए संघर्षरत अम्बेडकरवादी आन्दोलन के साथी इन जातियों तक पहुंचें और बाबा साहेब अम्बेडकर का सन्देश उन तक पहुंचाएँ ताकि वे सभी अपने समाज में बदलाव ला सकें और रुढ़िवादी परम्पराओं से बाहर निकलकर सम्मानपूर्वक जिंदगी जी सकें।

अपनी पुश्तैनी कलाओं को बचाने के साथ ही आर्थिक और सामाजिक सम्मान की लड़ाई लड़ रहा हैं बहुरूपिया समाज जबकि उनकी कलाओं से मालामाल हो रहे हैं अभिजन कलाकार

“झूठ बोल्यू  नहीं, सच बोलने की आदत नहीं,/ धंधा ढेले का नहीं, फुर्सत एक मिनट की नहीं,/काका की दुकान कानपुर, बाबा की बॉम्बे,/हमारो आज को कारोबार जोगिया गाँव में।

दादा जी की शादी आ गयी जी /मैं दो दो मन का लड्डू बनवा दियो, /चार चार मन की पूड़ी उतरवा दी

आटा छोड़ बाटा परोस दिया , /दो हलवाइयो ने भट्टे पे झोंक दिया,/भगवान को ठाठ है, घर में खाट भी नहीं है।

ऐसे ही चटपटे अंदाज में होती है शमशाद और नौशाद नामक दो बहुरूपियों की इंट्री। आज के दौर में लोगों को शायद ही याद हो कि बहुरुपिया क्या होता है लेकिन लोकरंग के आयोजन में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद के फाजिलनगर कस्बे से करीब 6 किलोमीटर दूर जोगिया गाँव में, राजस्थान के दौसा जिले के बांदीकुई गाँव से भाग लेने आये शमशाद और नौशाद अपने बेहतरीन अभिनय से लोगों का दिल जीत रहे थे। उनके वक्तव्यों में ह्यूमर अब आसानी से नहीं मिलता। लेकिन इस हास्य को वह जी रहे हैं और पूरे समाज का भी मनोरंजन भी करते हैं । इसके बावजूद समाज ने उन्हें क्या दिया? अस्मिताओं का संघर्ष जारी है और उसके साथ ही आर्थिक हालत गंभीर। मुझे राजकपूर के फिल्म मेरा नाम जोकर का वह गाना याद आया जिसमें वह गाते हैं : कहता है जोकर सारा ज़माना, आधी हकीकत आधा फ़साना। चश्मा उतारो, फिर देखो यारो, दुनिया नयी है चेहरा पुराना। अपने पे हंसकर जग को हंसाया, बनके तमाशा मेले में आया। हिन्दू न मुस्लिम, पूरब न पश्चिम, मज़हब है अपना हँसना हँसाना।

इतने वर्षो में मैंने कलंदर, नट, बंजारा आदि समुदायों के बीच जाकर उनकी समस्याओं को समझने का प्रयास किया और उनके सांस्कृतिक मूल्यों को भी देखा जो हमारे जीवन में हास्य का बोध कराते हैं लेकिन बदले में समाज के तिरस्कार के अलावा इन्हें कुछ नहीं मिला।  ये सभी समुदाय पूर्णतः भूमिहीन हैं और किसी भी गाँव में उनके रहने के लिए लोगों के दिल अभी तक बड़े नहीं हुए। छुआछूत और जातीय भेदभाव है लेकिन नाम मुस्लिम है इसलिए अनुसूचित जाति या पिछड़े वर्ग का होना का लाभ नहीं मिलता। न ग्रामीण भारत में विकास के नाम पर वो किसी के एजेंडे में और न ही हिन्दू-मुस्लिम या अन्य किसी जाति के लिए महत्वपूर्ण। इसलिए जब ये दो भाई पारंपरिक पोशाकों में लोगों का मनोरजन कर रहे थे तो मुझे उनकी प्रतिभा पर कोई शक नहीं हुआ लेकिन मै जानता था कि प्रतिभा के बावजूद ये लोग आर्थिक तंगी और सामाजिक पृथकता के शिकार हैं ।

लोकरंग में चर्चा के लिए इस बार का विषय  सामाजिकता के निर्माण में लोक नाट्यों की भूमिका में इन प्रश्नों पर बहुत चर्चा हुई कि कैसे लोककलाएँ ख़त्म हो रही हैं और फैशनपरस्ती ने उन्हें ख़त्म कर दिया है। लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि 14 अप्रैल के दिन की चर्चाओं में कम से कम तीन साथियों ने बाबा साहेब के जिक्र के साथ ही लोक साहित्य में दलित विमर्श के प्रश्न को भी खड़ा कर दिया। शायद ये इस कार्यक्रम की उपलब्धि रही। खैर प्रश्न इस बात का है कि लोक-संस्कृति में यदि बहुजन विमर्श गायब रहेगा तो हम इसे उसी तरह से पूजेंगे जैसे गाँधी ने भारत के गाँवों को पूजा था। इसलिए लोकसंस्कृति की बहस में अम्बेडकरी विमर्श का आना भी जरूरी है ताकि लोग लोककलाओं में पूर्वाग्रहों के महिमामंडन से बचें और उनका फ्यूज़न कर नए दौर के अनुसार उनमें बदलाव कर सकें।  लोककलाओं के परिदृश्य में बात करते समय यदि जोतिबा फुले के किसान का कोड़ा और गुलामगीरी की चर्चा न हो तो उसके कोई मतलब नहीं।

लोककलाओं को विकसित करने वाले समाज हैं बहिष्कृत

दरअसल भारत में श्रमिक समाज ने ही कला को विकसित किया और उसमें जिंदगी भर समाया रहा। उस कला को उन्होंने न बिकने दिया और न ही उसका द्वेषपूर्ण इस्तेमाल किया इसलिए ब्राह्मणों ने उसे कुत्सित माना और ऐसी जातियों को अछूत बना दिया। आज भी ऐसी जातियाँ अपनी अस्मिताओं और आर्थिक स्वावलंबन के लिए जूझ रही हैं। जब कला जाति तक सीमित थी तो उन कलाओं को वर्णाश्रम धर्म ने हिकारत की दृष्टि से देखा लेकिन सदियों बाद जब परम्पराओं का बाज़ार लगा तो इन्ही सवर्ण जातियों ने उन कलाओं की दुकान सजा दी।

शर्मनाक बात ये कि इतनी प्रतिभा के बावजूद कलंदर से लेकर नट, भाँड़, बंजारे और बहुरूपिये सभी अपने जीवन के सबसे नाजुक दौर से गुजर रहे हैं। यह बात कला तक ही सीमित नहीं है। बनारसी साड़ियाँ भले ही बाज़ार में महँगी मिलती हों लेकिन उनको बनाने वाले कारीगरों की हालात ख़राब है। यह वैश्वीकरण का दौर है जहाँ तकनीक और ज्ञान की धौंस पर ताकतवर अपना साम्राज्य खडा करते हैं और फिर उनके ‘मर्मज्ञ’ या ‘विशेषज्ञ’ बनकर उसे बचाने के लिए ‘खड़े’ होते हैं।

सवाल है कि कला के पारखी लोकसंस्कृति को बचाने के लिए इन जातियों और उनके पुश्तैनी धंधों को क्यों मज़बूत नहीं करते ? जब देश में कलाकारों का अभाव नज़र आता है तो हमारा पक्का ब्राह्मणवादी बॉलीवुड इन समुदायों में क्यों नहीं जाता?  नट, नौटंकी सभी तो सिनेमा के परदे पर आये। कहानी भी बनी लेकिन सिनेमा के कलाकार के तौर पर इन समुदायों से किसी को भी हमारे सिनेमा में कलाकार के तौर पर प्रस्तुत करने में हमारा सिनेमा पुर्णतः असफल रहा । यह इसके जातीय चरित्र को भी दिखाता है जो वस्तुतः जातिवादी और ब्राह्मणवादी है । यही हाल थिएटर वालों का भी रहा जिन्होंने अभी तक ऐसा कुछ भी प्रस्तुत नहीं किया है जहां नायक की भूमिका कोई बहरूपिया, नट, भाँड़ या बनजारा समाज का कलाकार हो। इसलिए लोककलाओं के मर्मज्ञ अगर उसे जिन्दा रखने की बात करते हैं तो इन समाजों के आर्थिक विकास और सामाजिक इन्क्लूजन पर तो कोई विचार-विमर्श करें। बहुजन समाज की कलाओं को टीप कर और उसका मार्किट लगाकर रुपैया कमाना और क्रान्तिकारी दिखाना आसान है लेकिन क्या हम लोककलाओं के विमर्श से हाशिए के समाज के जातीय उत्पीड़न, छुआछूत और बर्चस्व की सामाजिकता के प्रश्नों को अलग रख सकते है?

इतिहास में बहुरूपिया समुदाय

शमशाद और नौशाद राजस्थान के दौसा जिले के बांदीकुई गाँव से आते हैं ।उनका जातिगत पेशा ही बहुरूपिया है और यह काम उनकी सातवीं पीढ़ी कर रही है। हो सकता है इसके बाद उनके बच्चे इस पेशे में न आयें। बड़े भाई नौशाद बताते हैं कि हमारी हालत ख़राब है। सरकारी स्कूल में बच्चे को पढ़ाकर कोई लाभ नहीं और प्राइवेट में भेजने के लिए हमारे पास पैसा नहीं है। 15 हज़ार से अधिक की आबादी वाला यह समुदाय पूर्णतः भूमिहीन है। वे कहते हैं – ‘मेरी पीढ़ी ज्यादा हिन्दुओं में रही है। अपने पिता सुबराती  से मैंने यह सीखा। उनका मूल नाम शिवराज था। उन्हें गाँव में शिवराज बहुरूपिया नाम से जाना जाता है। उनके दादा का नाम गोपी।  बहुरुपिया हमारा पुश्तैनी पेशा है । आज जब उन्हें आधार कार्ड बनाने में दिक्कत हुई  तो पिता का नाम बदलकर सुबराती बहुरूपिया लिखाया।’

बहुरूपियों के इतिहास को थोड़ा टटोलना पड़ेगा। इनकी कहानी से मिलते-जुलते अन्य घुमंतू समुदाय भी इन्हीं हालात में रह रहे हैं जिनका मुख्य पेशा नौटंकी, टैटू बनाना, मदारी का खेल दिखाना, बन्दर-भालू नचाना है । सांस्कृतिक रूप से उन्होंने हिन्दू और मुसलमान दोनों परम्पराओं को अपनाया। दोनों नाम चले और महिलाए सिन्दूर और बिंदी भी लगाती हैं। बिना बहुत बड़े शोध के भी इस बात का हल्का विश्लेषण किया जा सकता है कि आखिर क्यों यह समुदाय ऐसा करता है?

कहीं ठौर नहीं है  

मैंने कुशीनगर में रहने वाली हसीना नट से यह प्रश्न पूछा था कि वह सिन्दूर क्यों लगाती हैं ? तो उनका कहना था कि क्योंकि वह अधिकतर हिन्दू लोगों में जाते हैं और उनकी परम्पराओं में ढलते है इसलिए यह एक मज़बूरी है। मुझे ऐसा लगता है कि जातिवाद की घिनौनी व्यवस्था के चलते बहुरूपियों ने इस्लाम ग्रहण किया लेकिन मुसलमानों के बड़े वर्ग ने भी उन्हें नहीं अपनाया और वे भेदभाव का शिकार रहे। मस्जिद में साथ नमाज़ पढ़ देने से ही बराबरी नहीं  आती। रोटी-बेटी और सामाजिक स्वीकार्यता आदि और भी बातें हैं जो बहुरूपियों, नटों और ऐसे अन्य समाजों को नसीब नहीं हुईं । इसलिए आर्थिक प्रश्नों के कारण उन्हें जैसा देस वैसा भेस के सिद्धांत पर चलना पड़ता है। इसलिए जैसा गाँव वैसी परम्पराएँ और वेशभूषा । सभी लोग नवरात्र, दशहरा और अन्य त्योहारों को भी मनाते हैं और ईद भी। नवरात्रों के व्रत भी रखते हैं और रोजे भी। फलस्वरूप उनके ‘जजमान’ उन्हें खुश होकर कुछ दे देते हैं ।

इसलिए इन लोगों की जिंदगी सेयह बात साबित होती है कि केवल धर्म-परिवर्तन से तो पेट नहीं भरता। अर्थ की बहुत बड़ी भूमिका है। इस समुदाय का पुश्तैनी पेशा मनोरंजन का था जिसके लिए अधिकांशतः हिन्दू सवर्णों या राजस्थान में कहें तो राजपूतों पर इनकी निर्भरता थी । शायद इसीलिये अभी बहुरूपिये मुस्लिम होने के बावजूद हिन्दू परम्पराओं और त्यौहारों को भी मनाते हैं।  हालाँकि कुछ वर्षो से हिन्दू कट्टरपंथी उन्हें मुस्लिम नाम होने के कारण अलग-थलग रखना चाहते हैं और इन समुदायों में भी परम्पराओं के नाम पर ऐसे तबके हावी हो गए जो उन्हें ऐसे ही देखना चाहते हैं, ताकि वे हिन्दू त्योहारों से दूरी बनाकर रख सकें । लेकिन अभी तक ऐसे तत्व बहुत ज्यादा नहीं हैं। मैंने शमशाद से यह प्रश्न पूछा कि क्या उनके हिन्दू पात्रों को लेकर समुदाय में कोई विरोध है तो उन्होंने कहाँ –‘हमारे समुदाय में कोई विरोध नहीं है। मेरे पिता को मुस्लिम समाज ने सम्मानित किया क्योंकि उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता की बात है। हमारा उद्देश्य कला को बचाना है। हम सामने वाले दर्शक के अनुसार काम करते है। मैंने भोलेनाथ, रामचंद्र जी, हरिश्चंद्र, नारद, श्रवण कुमार आदि के रोल किये हैं तो दूसरी और सेठ की भूमिका, लैला मजनू, जानी दुश्मन, शहंशाह अकबर आदि भी। इसलिए हमारे लिए तो हिन्दू-मुसलमान दोनों बराबर और भाई भाई हैं।’

बदलते समय में पिछड़ता गया समाज

आज के दौर में तकनीक ने जहाँ मनोरजन को नए मुकाम पर पहुंचा दिया है वहीं यह समुदाय अभी भी अपने सबसे कठिन समय से गुजर रहा है।  इस चुनौती को बताते हुए शमशाद कहते हैं – ‘पहले बहुत पैसे मिलते थे।  आजकल मनोरंजन के नए साधन आ गए हैं । इन्टरनेट आ गया है । इसलिए बहुरुपिया को लोग अच्छे से नहीं देखते लेकिन पहले लोग इंतज़ार करते थे। हमारी जजमानी थी। वे हमारे कद्रदान थे। ख्याल रखते थे। लेकिन आज लोग हमसे पूछते है कि आपमें बदलाव क्यों नहीं आया? इसका कारण है कि हमारे पास आय का कोई जरिया नहीं है। किसी भी परिवर्तन के लिए कुछ साधन चाहिए। कोई स्थाई रोजगार नहीं है। यदि स्थायी  रोजगार होता तो बहुररूपिया से अधिक बड़ा कोई कलाकार नहीं होता।’

आदिवासी के रूप में कलाकार

आज उनके मेकअप का खर्चा तक निकलना बहुत मुश्किल होता है इसलिए घर की महिलाएँ उनके कपड़े आदि स्वयं तैयार करती हैं । शमशाद के अनुसार – ‘मेकअप में चार सौ पांच सौ का खर्चा है। बाज़ार से खरीदेंगे तो हजारों का खर्च होता है। हमारे कलाकारों के पास मेकअप नहीं होता। केवल घर पर हमारी महिलाओं के जरिये ही ये कार्य होता है। वे हमारे कपड़े से लेकर अन्य मेकअप सामान तैयार करती हैं। पहले मेकअप का कांसेप्ट नहीं था, केवल नक़ल करते थे।’

अलग बर्तनों में पिलाई जाती है चाय

बहुरूपियो के साथ भी छुआछूत होती है। बहुत जातिभेद और अपमान सहना पड़ता है लेकिन शायद सवर्णों या बड़े मुसलमानों में लोग इन कलाकारों के जरिये अपने अहम की संतुष्टि भी करते थे, क्योंकि अधिकांश पैट्रन बड़े लोग थे। अतः सभी बातें ‘जाति’ की ‘सीमाओं’ और ‘महानताओं’ के गुणगान में ही होती थीं। बहुत कुरेदते-कुरेदते जब मैंने पूछा कि क्या आप लोगों कोई परिवार खाना खिलाता है या चाय पिलाता है?

इस पर शमशाद कहते है –‘मानने न मनाने की सोच दूसरो में होनी चाहिए। हम तो सबको मानते हैं ।  हमें कोई चाय नहीं पिलाता। खाना खिलाने का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। कभी-कभार चाय की गुंजाइश होती है लेकिन हमारे लिए ऐसी व्यवस्था बाहर ही होती है। मतलब यह कि हमारे लिए गिलास या थाली बाहर ही रखी होती है और उसी में चाय पीकर धोकर रखना पड़ता है।’

जब मैंने पूछा के आपने मुझसे बातचीत में यह क्यों नहीं बताया और क्यों मुझे घुमा-फिरा कर इस बात का पता करने के लिए चाय और खाने की बात पर आना पड़ा तो शमशाद कहते हैं बहुरुपिया बहुत कमजोर वर्ग है।  हमारे पास कोई संगठन नहीं है। हम किसी से कोई दुश्मनी नहीं लेना चाहते. हम मुहब्बत करते हैं। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।

खाने का ठिकाना नहीं तो कैसे दें व्यवस्था को चुनौती

हम समझ सकते हैं कि जब आपकी जीविका पूरी तरह दूसरों पर निर्भर हो तो आप ऐसी व्यवस्था को चुनौती कैसे दे सकते हैं ? हकीकत यह है कि अनुसूचित जाति जनजाति के नियमों के तहत भी अधिकांश लोग इसीलिये अपने विरुद्ध किए जाने वाले अपराधों के खिलाफ एफ़ आई आर नहीं लिखवा सकते क्योंकि आर्थिक बहिष्कार का खतरा होता है । शमशाद और नौशाद दोनों भाई कहते हैं कि ‘जनता ने बहुत सहयोग किया और अब कर्त्तव्य सरकार का है कि क्या वह भारतीय लोककला को वाकई में बचाना चाहती है? सरकार से कहना है कि यदि आपको हमारी संस्कृति को बचाना है तो बहुरुपिया, नट, भाँड़ आदि समुदायों पर विशेष ध्यान देना होगा और उनकी कला को बचाना होगा। उनके आर्थिक सशक्तीकरण पर ध्यान देना होगा।

दोनों भाइयों को बहुरूपिया बनते वर्षों हो गया। बचपन से ही अपने पिता के साथ काम करते करते आज पूरे देश में उनका नाम है। लेकिन दर्द है कि रहने के लिए छत नहीं और बच्चो को बढ़िया स्कूल में भेजने के लिए पैसे नहीं हैं । आखिर ये काम क्यों करे अगर सम्मान सहित नहीं रह सकते?

‘हमारे पिताजी 6 बच्चों को पालने वाले थे। उनके पास कोई विकल्प नहीं था। फिर भी उस समय गुजारा हो जाता है लेकिन आज बहुत मुश्किल है। वैसे भी सिनेमा, इन्टरनेट, टीवी आदि से लोगों के रोजगार पर असर पड़ा है। आज कोई उनका इंतज़ार नहीं करता इसलिए अगर पर्याप्त कमाई नहीं है तो कोई भी परिवार अपने बच्चों को इस पेशे में नहीं डालेगा। लेकिन पेट में अगर दाना नहीं तो कला का वह क्या करेगा?’

आज उनके परिवार के जिन्दा रहने के लिए सभी काम करते हैं । शमशाद कहते हैं – ‘हमारा पूरा परिवार एक साथ रहता है और एक साथ कमाता है। कभी-कभी हम भारत सरकार के संस्कृति मंत्रायल के लिए काम करते हैं। प्रति कलाकार आठ सौ से हज़ार रुपैया तक मिलता है। मेकअप और रस्ते का खर्चा नहीं मिलता। अभी तो काम मिल जाता है लेकिन और लोगों को नहीं मिलता। 6 लोगों की आमदनी सरकार देती है। लेकिन 6 महीने ही काम मिलता है।’

फिर वह अपने जजमान के पास जाते हैं जो अधिकांशतः राजपूत हैं ।  समझ सकते हैं कि सामाजिक बदलाव या मनुवादी सत्ता को अभी भी सांस्कृतिक चुनौती देने वाला कोई डायलाग हमें बहुत कम दिखाई देता है तो इसके आर्थिक कारण है । व्यक्तिगत जीवन में इन्होंने इस्लाम अपना लिया लेकिन अभी भी स्वीकार्यता और आर्थिक तंगी होने से इनकी स्थिति बहुत मुशिकल हालात वाली है क्योंकि सरकार का कोई ध्यान नहीं है।

अगर भारत में लोककलओं को जिन्दा रखना है तो उनके लिए समर्पित समाजों के लिए कार्य करने की जरुरत है। समाज में प्रतिभाओं का अम्बार लगा है लेकिन ब्राह्मणवादी ढोंगी मेरिटधारियों की नज़र इनके टैलेंट और हुनर पर नहीं जाति पर जाती है ।  कला के जरिये भारत ने ज्ञान में जातिभेद किया। लोककलाओं के पोषक और प्रवर्तक बहुजन समाज के लोग थे इसलिए उन्हें हाशिये पर रखा गया और जब ब्राह्मणों का ‘आशीर्वाद ‘ इन ‘कलाओं’  को मिल गया तो सवर्ण ‘कलाकार’ पनपने लगे और पैसों का अम्बार लग गया और नयी कला को ‘शास्त्रीय’ कह दिया गया।

इन बुरे हालात में भी बहुरूपिया जैसे प्रेम बरसाते रहते हैं। उनके साथ दो बच्चे जो लंगूर के भेष में हैं । वे सैनी बिरादरी से हैं। हालाँकि मुझे इसमें भी कुछ शक लगा क्योंकि राजस्थान में सैनी समाज तो अपने बच्चो को बहुरूपियों के साथ नहीं भेजेगा और दूसरे यह कि बच्चे बता रहे थे के वे अनुसूचित जाति से आते हैं।

हकीकत में किस जगह हैं बहुरूपिया

बहुरूपिया समाज की स्थिति यह है कि उसको किसी भी केटेगरी में नहीं रखा गया है इसलिए आरक्षण की परिधि से वह बाहर है। छुआछूत और जातीय उत्पीड़न का शिकार होने पर भी उन्हें अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम की धाराओं से कोई सुरक्षा नहीं क्योंकि मुस्लिम होने के कारण उन्हें दलित नहीं माना जाता और न ही पसमांदा आन्दोलन या मुख्यधारा का कोई और आन्दोलन उन तक पहुंचा। सवर्णों के कुछ वर्ग उनकी ‘कला’ का ‘सम्मान’ करते हैं लेकिन उससे तो उनका पेट नहीं भरता। लगभग पूरा समाज भूमिहीन है और सरकार की योजनाओं से बाहर।

सरकारी काम 6 महीने से ज्यादा का नहीं होता और बाकी छह महीने ये गाँव में जाते हैं और मज़बूरी है कि पूरे परिवार के साथ जाएँ क्योंकि बिना परिवार के इन्हें कोई रहने की जगह नहीं देता। अब आप समझ सकते हैं यदि ये लोग हमेशा इधर-उधर जाते रहेंगे तो बच्चे पढ़ेंगे कैसे ? इन 6 महीनों में गुजारा कैसे होता है?

इसके बारे में शमशाद बताते हैं- ‘गाँव में हम पूरे परिवार के साथ जाते हैं । पांच-सात दिन खेल-तमाशा करते हैं ।  पैसे के लिए अपने जजमान के पास जाते हैं। एक महीने का समय लगता है। एक महीने में तीन से चार हज़ार रुपैया कमाते हैं। जजमान हमें कुछ अनाज देते हैं।  और उसी से हमारा गुजारा चलता है।

बहुरूपिया परिवारों में महिलाओं का काम केवल घर के अन्दर का है। वे इनके कपड़े इत्यादि सिलती हैं और बच्चो की जिम्मेवारी संभालती हैं। पुरुष लोग बाहर काम करते हैं । इन्हें 52 कलाओं में पारंगत माना जाता है। मतलब यह कि 52 रूप धारण कर सकते हैं परन्तु आज के दौर में समस्या यह है कि इन लोगों को ‘बाज़ार’ के अनुसार भी चलना पड़ता है। उनके मेकअप महंगे हैं और जो रंग इत्यादि ये सजने में इस्तेमाल करते हैं उससे त्वचा इत्यादि की समस्याएँ होती हैं । रंग से इन्फेक्शन होता है और आंखें अक्सर लाल होती हैं, क्योंकि पुश्तैनी कार्य है इसलिए ये लोग कर रहे हैं और स्वयं को संतुष्ट करने के लिए ये कहते हैं कि ‘गॉड गिफ्ट’ है । सवाल इस बात का है कि भगवान आखिर अपने सबसे ज्यादा चाहने वाले ईमानदार लोगों को ही सजा क्यों देता है? आखिर उन्होंने तो राम, कृष्ण, भोले, अकबर, सलीम, सेठ आदि सभी के रोल किये हैं तो कुछ तो दया आनी चाहिए भगवान को!

भगवान नहीं भागीदारी की जरूरत है

शायद उन्हें पता चल चुका है कि यदि भगवान है भी तो इनके काम का नहीं है। इसलिए वे कह रहे हैं कि उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था हो। उनके बच्चों को नौकरी मिले, शिक्षा में भी विशेष ध्यान दिया जाए ताकि यह समाज जो सदियों से दूसरों का मनोरंजन करता आया है उसका भी विकास हो सके और वह भी सर उठा के जी सके। क्या यह गंभीर चिंतन का विषय नहीं जब भारत में मनोरंजन और कला उद्योगों में सबसे ज्यादा पैसा है तब कला के पारखी और उसको नित्य जीने वाला कलाकार समुदाय अपने जीवन में आत्मसम्मान और आर्थिक स्वावलंबन के लिए अभी भी दर-दर का मोहताज है? भारत के जातीय सामाजिक व्यवस्था की इससे ज्यादा कुत्सित बात क्या हो सकती है कला को जीने वाला और दूसरों का सस्ते में मनोरंजन करने वाला समाज आजादी के 74 वर्षों के बाद भी छुआछूत और जातीय भेदभाव के चलते हाशिये पर है और सम्मान की जिंदगी के लिए संघर्षरत है। अब समय आ गया है कि पसमांदा आन्दोलन के लोग और स्वाभिमान के लिए संघर्षरत अम्बेडकरवादी आन्दोलन के साथी इन जातियों तक पहुंचें और बाबा साहेब अम्बेडकर का सन्देश उन तक पहुंचाएँ ताकि वे सभी अपने समाज में बदलाव ला सकें और रुढ़िवादी परम्पराओं से बाहर निकलकर सम्मानपूर्वक जिंदगी जी सकें। मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत संगठनों का भी दायित्व है कि वे इन समाजों को सरकारी योजनाओं में शामिल करवाएँ ताकि उनके साथ अन्याय न हो। बहुरूपिया समाज बदलाव के लिए कराह रहा है और हम उम्मीद करते हैं कि बदलाव के सभी चाहने वाले न केवल उनकी कला को प्रोत्साहन देंगे बल्कि उनके आर्थिक-सामाजिक स्वावलंबन के लिए भी काम करेंगे!

 

 

 

गाँव के लोग
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6 COMMENTS
  1. विद्याभूषण रावत जी की लेखनी बेहतरीन रही है,नट परंपरा,बंजारे एवं बहुरूपिया पर आधारित लेख शानदार रहा।आपको साधुवाद

  2. उत्तम और यथार्थपूर्ण पोस्ट ,”। मुझे ऐसा लगता है कि जातिवाद की घिनौनी व्यवस्था के चलते बहुरूपियों ने इस्लाम ग्रहण किया लेकिन मुसलमानों के बड़े वर्ग ने भी उन्हें नहीं अपनाया और वे भेदभाव का शिकार रहे। मस्जिद में साथ नमाज़ पढ़ देने से ही बराबरी नहीं आती।”

  3. मुझे ऐसा लगता है कि जातिवाद की घिनौनी व्यवस्था के चलते बहुरूपियों ने इस्लाम ग्रहण किया लेकिन मुसलमानों के बड़े वर्ग ने भी उन्हें नहीं अपनाया और वे भेदभाव का शिकार रहे। मस्जिद में साथ नमाज़ पढ़ देने से ही बराबरी नहीं आती। रोटी-बेटी और सामाजिक स्वीकार्यता आदि और भी बातें हैं।

    बहुत खूब यथार्थ पर आधारित दिलकश पोस्ट।

  4. मुझे ऐसा लगता है कि जातिवाद की घिनौनी व्यवस्था के चलते बहुरूपियों ने इस्लाम ग्रहण किया लेकिन मुसलमानों के बड़े वर्ग ने भी उन्हें नहीं अपनाया और वे भेदभाव का शिकार रहे। मस्जिद में साथ नमाज़ पढ़ देने से ही बराबरी नहीं आती। रोटी-बेटी और सामाजिक स्वीकार्यता आदि और भी बातें हैं

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