माहवारी, पैड और मैं (13 जुलाई, 2021 की डायरी)

नवल किशोर कुमार

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महिलाओं का जीवन पुरुषों के जीवन से बिल्कुल अलग होता है। यह इसके बावजूद कि दोनों इंसान हैं और दोनों के पास लगभग समान तरह के अंग होते हैं। दोनों के बीच में एक बड़ा अंतर यह है कि महिलाएं जननी हैं। वह गर्भ धारण करती हैं और बच्चों को जन्म देती हैं। महिलाओं की यही विशेषता उन्हें पुरुषों से अलग कर देती है। ना केवल शारीरिक रूप से बल्कि भावनात्मक रूप से भी। शारीरिक स्तर पर यह कि वे कमजोर होती हैं। उनके शरीर को गर्भ धारण के लिए अतिरिक्त ऊर्जा का इस्तेमाल करना पड़ता है। उनके अंगों का विकास पृथक तरीके से होता है। इसका असर उनके जीवन पर पड़ता ही है। उनका पहनावा और जीने का अंदाज अलग होता है।

मेरा अनुमान है कि अन्य प्राणियों की मादाओं के जीवन में भी ऐसा ही होता होगा।

यदि हम पुरुषों के बारे में सोचें तो भारतीय सामाजिक व्यवस्था में पुरुषों ने अपना स्थान ऊंचा रखा है। वह यह मानकर चलता है कि पुरुष होने के कारण उसे विशेषाधिकार हासिल है। इसी गुमान के कारण उसने अपने इर्द-गिर्द सीमाओं का निर्माण कर रखा है।

एक खास बात यह कि मैं आज तक माहवारी को मासिक धर्म कहे जाने के बारे में सोचता रहता हूं। इस वैज्ञानिक क्रिया को मासिक धर्म किसने कहा और क्यों कहा। निश्चित रूप से इसके पीछे ब्राह्मणवादी पितृसत्ता है जो महिलाओं पर अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए इस तरह की बेढ़ंगी दलीलें देता रहता है।

मैं भी कोई अपवाद नहीं हूं। हालांकि मैंने कई बार इन सीमाओं को तोड़ने का प्रयास किया है। इसके पीछे मेरा मकसद केवल इतना रहा है कि मेरे घर में लैंगिक आधार पर भेदभाव न हो।

परंतु, मैं ऐसा नहीं था जो कि आज हूं। बिहार की राजधानी पटना के जिला मुख्यालय से करीब 12 किलोमीटर दूर एक गाँव मेरा संसार था। गाँव में ही नक्षत्र मालाकार हाई स्कूल और गाँव में ही खेलने और भैंस चराने को पर्याप्त मैदान। देश दुनिया की खबरों में दिलचस्पी पिता जी की वजह से बढ़ी। निरक्षर होने के बावजूद वे अखबार खरीदते थे। पढ़ कर सुनाने का काम मेरे बड़े भाई कौशल किशोर कुमार करते थे। पापा को मेरी तोतली आवाज पसंद थी, इसलिए भैया को इस काम से मुक्ति मिल गयी।

बचपन में अखबारों को पढ़ते समय कई अवसर पर तब विज्ञापन भी पढ़ जाया करता था। एक विज्ञापन निरोध का था। सरकार की ओर से जारी विज्ञापन में निरोध का महत्व बताया गया था। याद नहीं कि उस वक्त पापा की प्रतिक्रया क्या थी। लेकिन मैंने अपने हमउम्र साथियों को निरोध को गुब्बारा बनाने से रोका था। मेरा तर्क था कि यह गंदा है और सरकारी है। इसका इस्तेमाल हम बच्चे नहीं कर सकते।

“97-98 फीसदी बिहारी महिलायें घर का कपड़ा करती हैं इस्तेमाल।” संयोग ही कहिये कि 5 महीने के बाद राज्य सरकार ने सरकारी स्कूलों में सैनिटरी पैड किशोरी बच्चियों के मध्य वितरित करने का फैसला लिया। लेकिन यह फैसला केवल नीतीश कुमार ने अपनी छवि को बेहतर बनाने के लिया किया था। आज बिहार में इस तरह की योजनाएं बंद हो चुकी हैं।

ऐसे माहौल में ही मेरी किशोरावस्था बीती। इंटर की परीक्षा पास करने के फ़ौरन बाद शादी हो गयी। सेक्स संबंधी जानकारी का घोर अभाव था। फिर भी काम चलने लायक जानकारी गाँव और कालेज के दोस्तों ने दे दी थी। लेकिन माहवारी भी कोई चीज होती है, इसकी जानकारी तो बाद में तब मिली जब मेरी होम मिनिस्टर (मेरी पत्नी) ने पैड लाने को कहा। मेडिकल स्टोर पर गया। पैड मिला। आश्चर्य तब हुआ जब दुकानदार ने काले रंग के प्लास्टिक में लपेट कर दिया।

खैर, घर गया तो इसकी जरुरत के बारे में पत्नी से पूछा। पहले तो वह मुस्कराई। फिर पांच दिनों की जुदाई का सवाल मेरे पहले सवाल का विस्तार कर गया। हालांकि जब जवाब मिला तब मेरी हालत यह थी कि न मुस्करा सकता था और न दुखी होने का भाव चेहरे पर ला सकता था।

एक खास बात यह कि मैं आज तक माहवारी को मासिक धर्म कहे जाने के बारे में सोचता रहता हूं। इस वैज्ञानिक क्रिया को मासिक धर्म किसने कहा और क्यों कहा। निश्चित रूप से इसके पीछे ब्राह्मणवादी पितृसत्ता है जो महिलाओं पर अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए इस तरह की बेढ़ंगी दलीलें देता रहता है।

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उन दिनों जब मेरी पत्नी को पीरियड्स होते और वह रसोई आदि में जाने से मना करती तो मुझे अजीब सा लगता। मुझे अजीब तो तब भी लगता जब हर दिन मां उसे नहा-धोकर रसोई में जाने को कहती। मैं हमेशा सोचता कि सेक्स करने से पुरुष अपवित्र क्यों नहीं होते।

बहरहाल, समय बीता और समय ने सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल से पत्रकार बना दिया। नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाइजेशन के तत्वावधान में आयोजित एक कार्यक्रम को कवर करने के बाद एक खबर लिखी – “94 फीसदी बिहारी नौजवान कंडोम यूज करना नहीं जानते।”

एक प्रमाण मैं खुद था।

अखबार में खबर छपी और लोगों ने तारीफ़ की तब हौसला बढ़ा। अगली स्टोरी माहवारी पर केन्द्रित थी – “97-98 फीसदी बिहारी महिलायें घर का कपड़ा करती हैं इस्तेमाल।” संयोग ही कहिये कि 5 महीने के बाद राज्य सरकार ने सरकारी स्कूलों में सैनिटरी पैड किशोरी बच्चियों के मध्य वितरित करने का फैसला लिया। लेकिन यह फैसला केवल नीतीश कुमार ने अपनी छवि को बेहतर बनाने के लिया किया था। आज बिहार में इस तरह की योजनाएं बंद हो चुकी हैं।

बहरहाल वक्त के साथ लोगों की सोच बदली है। व्यक्तिगत तौर पर मैंने कई बार पैड खरीदा है और बिना अखबार में लपेटे या काले रंग के आवरण से छुपाये। अब कोई शर्म या हिचक नहीं होती है। हाँ, कंडोम के मामले में अभी तक अज्ञानी ही हूँ। जानने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।

 

आज एक रोमांटिक कविता जेहन में आ रही है –

एक खामोश समंदर है

हमारे दरमियान

और अतृप्त बादलों का झुंड

हमारे माथे पर।

 

लेकिन पहाड़ों से मिलता है विश्वास कि

दूरियां बेवजह नहीं होतीं

और हर ऊंचाई देती है संदेश कि

कोई आखिरी ऊंचाई नहीं।

 

मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा हूं

और मेरे हाथ में है

तुम्हारी खुश्बू लिए

खूब सारे फूल

गोया मैं इन फूलों से

पाट सकता हूं हर दूरी।

 

हां, मैं तुम्हें सोच रहा हूं

और मेरे सामने है एक नदी

जिसमें घुल रहा

तुम्हारे आलते का रंग

 

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं

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