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खिलौना रंगने वाली औरत की साठ रुपये रोज पर कैसे गुजर होती होगी?

कितनी मजदूरी मिलती है? कुछ सेकंड रुकने के बाद बहुत धीरे से बताया 60/- रोज का मिलता है। जिस दिन नहीं आती हूँ या छुट्टी होती है उस दिन का पैसा नहीं मिलता है। जो काम बताया जाता है, उस काम को करती हूँ। 60/- जिसमें एक समय का खाना भी नहीं मिलता, वह इनकी मजदूरी है। लेकिन पेट भरना है तो खाना किसे याद आता है, पेट तो दो पाव रोटी और चाय से भी भर जाता है।

बनारस के मुहल्लों में काम कर रहे श्रमिकों का कठिन जीवन – पहली किश्त 

एक 

छत पर पहुँचते ही रंग की तेज गंध नाक में घुसी। वहाँ तीन महिलाएँ और तीन पुरुष काम कर रहे थे लेकिन सबसे ज्यादा ध्यान खींचा उस बूढ़ी महिला ने जो सलवार-कुर्ता पहने थीं। सलवार के पायंचे ऊपर खिंचे हुये थे लेकिन कुर्ता इतना ढीला था कि बार-बार गले से नीचे खिसक आता था। लगता था यह उनका कुर्ता नहीं है बल्कि घर के किसी दूसरे सदस्य का कुर्ता पहन रही हैं। उनकी जर्जर देह को देखकर करुणा उमड़ती थी। उनके एक हाथ रंगा हुआ था और दूसरे हाथ से अपने कुर्ते को दुरुस्त करती और बोरे पर रखे सुग्गों को उठाकर रंग के बर्तन में डालतीं, उन्हें फेंटती और निकालकर बाहर रखतीं। मैंने पूछा- दादी आपका नाम क्या है? उन्होंने उर्वशी बताया लेकिन मुझे ओमवती सुनाई पड़ा। मैंने कन्फर्म करने के लिए ज़ोर से कहा – अच्छा, ओमवती। वे तनिक रुष्ट हुईं और ज़ोर देकर कहा – उर्वशी….

बाकी दोनों स्त्रियाँ हँस पड़ीं। मैंने भी झेंप मिटाने के लिए हँस दिया और बोली- बहुत अच्छा नाम है। आप हैं भी बहुत सुंदर।’ इस पर वे फीकी हँसी हँस पड़ीं। अभाव और यातना की एक कहानी थी वह हँसी। उन्होंने बताया कि छः महीने से वे यह काम कर रही हैं। मैंने पूछा कि आप पहले क्या काम करती थीं? उन्होंने बताया कि पहले घरों में खाना पकाती थीं और छः हज़ार रुपए तक कमा लेती थीं लेकिन पैर में चोट लग जाने से भाग-दौड़ में दिक्कत होती है। इसलिए वह काम छूट गया। काम छूट जाने के कारण एक तो घर में मन नहीं लगता था और हाथ तंग रहने लगा। हालांकि बेटे-बहू हैं लेकिन इतनी महंगाई में सबका काम करना जरूरी है। हाथ में पैसे रहने से आत्मविश्वास के साथ घर में भी माहौल सही रहता है और बाहर निकलने से समय भी कट जाता है। 70-72 वर्ष में कोई भी व्यक्ति इतनी ताकत नहीं रखता कि दिन में 8-8 घंटे काम कर सके।

उर्वशी एवं अन्य लोग सुग्गा रंगते हुए और पीछे केमिकल रंग के डिब्बों की भीड़

पहले जहां लकड़ी के खिलौनों को प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता था वहीं अब खिलौनों में रासायनिक रंग का उपयोग किया जा रहा है। वहाँ रंग के अनेक डिब्बे रखे हुए थे जिसमें से पेंट की महक आ रही थी। पूछने पर बताया कि ये फैब्रिक रंग है जिसमें पानी पड़ने पर भी तुरंत नहीं निकलता है। तसले में भरे हुए हरे रंग को हाथ से दादी ऐसे मिला रही थीं जैसे पकौड़े के लिए बेसन घोल रही हों। उस हरे रंग में लकड़ी के छोटे-छोटे सुग्गे डुबाकर एक बड़े से जाले में करीने से फैलाकर रख रही थीं ताकि धूप में अच्छी तरह सूख जाए और बतियाती भी जा रही थीं। उनकी पूरी हथेली हरे रंग से रंगी हुई थी। हाथ कैसे साफ करती हैं? पूछने पर बताया कि तारपीन का तेल उपयोग में लाना होता है जिससे हाथ में खुरदुराहट आ गई है और कभी-कभी खुजली भी होती है, जिस पर नारियल तेल या घर में उपलब्ध तेल ही हाथ में लगाकर इलाज करने की कोशिश करते हैं। डॉक्टर के पास जाने के लिए न तो पैसे होते हैं और न ही समय।

कितनी मजदूरी मिलती है? कुछ सेकंड रुकने के बाद बहुत धीरे से बताया 60/- रोज का मिलता है। जिस दिन नहीं आती हूँ या छुट्टी होती है उस दिन का पैसा नहीं मिलता है। जो काम बताया जाता है, उस काम को करती हूँ। 60/- जिसमें एक समय का खाना भी नहीं मिलता, वह इनकी मजदूरी है। लेकिन पेट भरना है तो खाना किसे याद आता है, पेट तो दो पाव रोटी और चाय से भी भर जाता है। फिर दवा और शिक्षा की बात तो दूर की कौड़ी है। इसके बारे में वे सोच ही नहीं सकते। उनके लिए यह नया काम है इसीलिए जिस दिन जो काम होता है, उसे करना होता है।

खिलौनों की रंगाई के बाद धुप में सुखाते हुए

हमारे देश के संविधान में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 भारतीय श्रम कानून से संबंधित संसद का एक अधिनियम है जो कुशल, अकुशल और अर्द्धकुशल श्रमिकों के लिए राज्य और काम की प्रकृति के हिसाब से न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करता है। किसी भी संस्थान में उससे कम मजदूरी देना अपराध की श्रेणी में आता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने राज्य में अकुशल श्रमिकों को 374.73 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से न्यूनतम मजदूरी निर्धारित की है। जिसमें 213 रुपये हर माह महंगाई भत्ता भी शामिल है। उर्वशी अपनी न्यूनतम मजदूरी के हक से छः गुना कम मजदूरी पर काम कर रही हैं। अशिक्षा, जागरूकता, साहस के अभाव और जरूरत के दबाव में नियोक्ता द्वारा तय की गई मजदूरी पर काम करने को तैयार हो जाते हैं। भयंकर बेरोजगारी के इस दौर में उन्हें यह अच्छी तरह पता है, उनके नहीं करने या मना कर देने पर नियोक्ता को कोई दूसरा मिल जाएगा। उनका काम नहीं रुकने वाला।

मैंने उनसे पूछा कि आपको वृद्धावस्था पेंशन मिलती है तो उनका कहना था कि आज तक नहीं मिली। चलते हुए उन्होंने कहा कि जब तक हाथ-पाँव चलेगा काम करना ही पड़ेगा। और कोई चारा नहीं है।

दो 

अगर आप ध्यान देंगे तो पता चलेगा कि वास्तव में बनारस संकरी और टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में बसता है। इन्हीं गलियों में पूरी दुनिया के नज़ारे देखने को मिल जाएंगे। जिन गलियों में दो लोगों का आमने-सामने से निकलना मुश्किल है वहाँ जीवन-मरण, धर्म-अधर्म, नैतिकता-अनैकतिकता, दुख-सुख, रोजी-रोजगार का कारोबार बड़े पैमाने पर होता है। बड़े-बड़े उद्योग और काम इन्हीं संकरी और छोटी-छोटी गलियों में अनेक वर्षों से हो रहे हैं। इन गलियों से बाहर जगह मिलने पर भी ये लोग अपनी पुश्तैनी जगह को किसी भी हाल में छोड़ने को तैयार नहीं होते। वास्तव में मैंने भी महसूस किया कि बनारस की सुंदरता इन्हीं गलियों में है।

बनारस में खोजवां की एक गली

इन्हीं गलियों में लकड़ी के खिलौने बनाने वाले कारीगरों को खोजते हुए हम खोजवाँ पहुंचे। साथ में बनारस के जाने-माने गाइड और शायर अलकबीर भी थे। अलकबीरजी जो बनारस की शान-शौकत एवं संस्कृति-इतिहास के साथ एक-एक गली-कूचे से बहुत अच्छी तरह वाकिफ हैं। इसीलिए जब मैं किसी कहानी को जानने निकलती हूँ तो उन्हें जरूर साथ ले लेती हूँ ताकि वे अपने अनुभव से मुझे गाइड करते रहें।  बहरहाल, खोजवाँ के कश्मीरीगंज इलाके में जब गलियों में प्रवेश किया तो यहाँ पर लकड़ी काटने वाली बिजली की मशीनों के चलने की आवाजें सुनाई दे रही थीं। मैंने गली की शुरुआत में चल रही मशीन और वहाँ काम कर रहे लोगों को झांककर देखा, जहां चार लोग सिर झुकाए काम कर रहे थे। उनमें से एक ने उठकर पूछा कि आप लोगों को क्या चाहिए। मशीन के शोर के बीच एक-दूसरे की आवाज सुन पाना बहुत मुश्किल था। बाहर आकर उन्होंने बात की, तब मैंने बताया कि लकड़ी के खिलौनों के बारे में जानना है। जवाब मिला यहाँ तो लकड़ी का खिलौना नहीं बनता है। हाँ, लकड़ी का लट्टू (जिसे हम लोग भौंरा कहते हैं) और सिंधौरा (शादी के समय उपयोग आने वाला सिन्दूरदान) जरूर बनता है। खिलौना बनाने के लिए गली में आगे जाना होगा। मेरे दिमाग में लकड़ी का खिलौना ही था। लेकिन यहाँ आने पर लकड़ी की बनी ऐसी अनेक चीजें दिखाई दीं जिसके बारे में जानती तो थी, लेकिन याद नहीं आया था।

किराए के घर और किराए की मशीन पर खुद का काम करते हुए ..

खैर, हमने शुरुआत यहीं से की। 56 वर्ष के अशोक कुमार गुप्ता सिर झुकाए मशीन पर सिंधौरा को आकार देने का काम बहुत ध्यान से कर रहे थे, क्योंकि जरा-सी चूक उनकी उंगलियों के लिए घातक हो सकती है। हाथ में लिए हुए काम को खत्म होने का मैंने इंतजार किया। एक सिंधौरा बन जाने के बाद लाल रंग की लाख की पट्टी से वे उसे रंगने का काम भी कर रहे थे। जब वे एक काम से खाली हुए तो उन्हें बाहर बुलाकर बात की।

अशोक कुमार गुप्ता,जो पिछले चालीस बरस से इसी काम में लगे हुए हैं और स्थिति जस की तस

56 वर्षीय अशोक चेहरे से बहुत थके हुए और बीमार लग रहे थे। वे  पिछले चालीस बरस से लकड़ी के काम में लगे हुए हैं। पहले वे शतरंज बनाया करते थे लेकिन अब शतरंज की मांग कम होने की वजह से इसे बंद कर सिंधौरा बनाने के काम में लगे गए। हर चीज का एक दौर होता है, शतरंज खेलने के लिए जिस धैर्य और एकाग्रता की जरूरत होती है, लगता है अब आज की तेज रफ्तार ज़िंदगी में बहुत कम लोगों के पास एकाग्र होकर कुछ खेलने का समय है। लेकिन अलकबीर कहते हैं कि लोगों के पास समय खूब है और बहुत से लोग अब मोबाइल पर ही शतरंज खेल रहे हैं।’ शायद यह भी एक कारण है। इसका सीधा असर शतरंज बनाने और बेचने वालों के व्यवसाय पर देखा जा सकता है। बातचीत में अशोक ने बताया कि इस काम में केवल किसी तरह खाना-पीना और घर का किराया ही निकल पाता है। पहले अपना घर था लेकिन कर्जा हो जाने की वजह से घर बेचकर कर्जा चुकाया। अब किराये के घर में अपने एकमात्र बेटे के साथ रह हैं। बेटे को भी यही काम सिखा रहे हैं। इनका अपना काम है। जिस जगह मशीन लगी हुई उसका मासिक किराया वे एक हजार रुपये चुकाते हैं। मतलब जगह के मालिक ने मशीन और जगह किराये पर दिया है। दस बाई दस के कमरे में चार मशीनें लगी हुईं थीं। अशोक ने बताया कि लकड़ी और कच्चा माल वे खुद खरीद कर लाते हैं और बन जाने पर महाजन यहाँ आकर खरीद कर ले जाता है। एक दिन में 30-35 छोटे-बड़े सिंधौरा बना कर 400-500 रुपया कमा लेते हैं। इसमें लकड़ी, कमरे का किराया, बिजली और मशीन के मेंटेनेंस सब खर्च निकाल कर बमुश्किल दो सौ-ढाई सौ रुपए बच पाते हैं लेकिन आज के महंगाई के इस दौर में परता पड़ना मुश्किल है।

सिंधौरा बनाने में मगन अशोक कुमार गुप्ता

मैंने उनसे पूछा कि आपको क्या-क्या सरकारी सुविधाएं मिलती हैं। वे बताते हैं कि ‘सरकार की अनेक योजनाएं हैं, जिसमें 12 दिन की ट्रेनिंग  मिलनी थी और प्रदर्शनी के लिए भी व्यवस्था थी। लेकिन मैं नहीं जा सका क्योंकि मैं अकेला कमाने वाला और रोज कमाओ-रोज खाओ की व्यवस्था में ट्रेनिंग में जाने का मतलब था अपना काम बंद करो। यह मेरे लिए संभव नहीं था। हमारी अपनी एक सीमा है। अलग-अलग जगह प्रदर्शनी लगती है लेकिन नहीं जा पाता क्योंकि जाने-आने और वहाँ रहने-खाने के लिए पैसे की व्यवस्था नहीं हो पाती।’

अशोक कुमार गुप्ता की तरह सैकड़ों लोग इस काम में लगे हैं। प्रायः सबकी जीवन-स्थितियाँ एक जैसी ही हैं। लकड़ी का खिलौना बनाते हुये कटती हुई लकड़ी के बुरादे और रंग के केमिकल आँख-नाक के रास्ते शरीर में समाता रहता है जिससे साँस और खुजली आदि चर्मरोग आम बात है। इन सबका औसत जीवन साठ साल से अधिक नहीं है और वे अंतिम साँस तक काम करने को मजबूर हैं क्योंकि बिना काम किए अपना और अपने परिवार का पेट भरना असंभव है। किसी तरह की बचत भी बहुत ऊँची बात है। किसी पेंशन का कोई ठिकाना नहीं। रोज कुआँ खोदना और रोज पानी पीना ही इनकी नियति है। जिस दिन काम नहीं उस दिन उपवास के अलावा और कोई रास्ता नहीं। बनारस में लकड़ी के काम में लगे हर मजदूर-कारीगर की ज़िंदगी ऐसी ही है।

लेकिन इन खिलौना गढ़ने वालों को लेकर गढ़े जा रहे राजनीतिक पाखंड  की दुनिया ही दूसरी है!

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।
3 COMMENTS
  1. भारत विविधताओं से भरा देश है लेकिन कभी कभी ये विविधता कष्ट देती है। अनियंत्रित आबादी और संसाधनों का असमान वितरण इस देश की बहुत बड़ी समस्याएं हैं। एक ओर जहां सम्पन्नता नए रिकॉर्ड बना रही है वहीं 60 रुपये रोज पर काम करने वाले लोग भी हैं। सोचता हूँ कि क्या कभी भारत विश्वगुरु था भी या ये सिर्फ एक मिथक गढ़ा गया है।

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