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ब्राह्मणवाद के अंधे कुएँ में भटकता बामसेफ

दिसंबर 2019 में मैं बामसेफ के एक अधिवेशन में भाग लेने गया तब मेरे मन में यह सवाल उठा कि बामसेफ के सभी धड़े क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान ही अपना-अपना सालाना अधिवेशन अलग-अलग स्थानों पर क्यों करते हैं? और क्या हासिल करना चाहते हैं? तभी से मेरे दिमाग में इस मिशन के प्रति कुछ […]

दिसंबर 2019 में मैं बामसेफ के एक अधिवेशन में भाग लेने गया तब मेरे मन में यह सवाल उठा कि बामसेफ के सभी धड़े क्रिसमस की छुट्टियों के दौरान ही अपना-अपना सालाना अधिवेशन अलग-अलग स्थानों पर क्यों करते हैं? और क्या हासिल करना चाहते हैं? तभी से मेरे दिमाग में इस मिशन के प्रति कुछ लिखने की प्रेरणा हो रही थी, लेकिन कई कारणों से लिख नहीं पाया था। पिछले लाकडाउन के समय इस पर मन बन ही गया।

इस प्रक्रिया में सबसे पहले तो यही प्रश्न उठाना स्वाभाविक है कि बामसेफ क्या है? BAMCEF अर्थात Backward (SC.ST.OBC) And Minority Community Employees Federation.

जैसा कि यह विदित तथ्य है कि मान्यवर कांशीराम आर्डनेंस फैक्ट्री पुणे में आफिसर ग्रेड में काम कर रहे थे। पंजाब के रमदसिया सिक्ख धर्म का होने के कारण निडर, परीश्रमी, जुझारू और बगावती प्रवृत्ति के थे। यहां तक कि मां-बाप से भी बगावत कर सिक्ख धर्म की पगड़ी पहनने से इन्कार कर दिया था।

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https://www.youtube.com/watch?v=isawFtnc6OA&feature=youtu.be

सन 1972 में उसी संस्थान में बाबा साहेब आंबेडकर जयंती को लेकर दीना भान और जीडी खापर्डे का प्रशासन विवाद हो गया। ज्ञातव्य है कि छः दिसंबर को बाबा साहब का परिनिर्वाण दिवस है। इन दोनों लोगों ने जब इस अवसर पर कार्यक्रम किया तो प्रशासन ने रोक दी। यह विवाद तूल पकड़ गया और मान्यवर कांशीराम तक पहुंचा। इसी बीच खापर्डेजी ने उन्हें बाबा साहेब द्वारा हिन्दू धर्म के खिलाफ लिखित कुछ पुस्तकें पढ़ने को दी जिनमें इन्हिलेशन ऑफ़ कास्ट और रिडल्स इन हिन्दुइज्म भी थीं। इन किताबों ने कांशीराम की बगावती प्रवृत्ति को और भी विस्फोटक बना दिया और वे दीनाभाना का साथ देने के लिए प्रशासन से भी बगावत कर बैठे। समाज की उस समय की दशा और दुर्दशा देखकर वे इतने दुखी हुए कि नौकरी छोड़ने तक की नौबत आ गई। इस बीच वे आरपीआई से भी जुड़ गए थे लेकिन वहां भी उनका नेताओं से तालमेल नहीं हो रहा था। वहां से कड़वा अनुभव मिलने पर उनमें एक नई सोच पैदा हुई कि क्यों न दलित-शोषित समाज के हजारों-लाखों संपन्न सरकारी कर्मचारियों को साथ में लिया जाय और एक नया संगठन बनाया जाय। साथियों से विचार-विमर्श के बाद 1973 में एक सामाजिक संस्था बामसेफ के निर्माण का विचार किया गया।

पांच साल तक गुप्त कार्य करते हुए अथक परिश्रम से जब लगभग सदस्यों की संख्या एक लाख तक हो गई तो 6 दिसंबर, 1978 को दिल्ली के लालकटोरा मैदान में विधिवत बामसेफ की स्थापना हुई और मान्यवर कांशीराम इसके अध्यक्ष बनाये गये।

क्या था बामसेफ का उद्देश्य

कांशीराम की सोच और अनुभव था कि जितनी बड़ी संख्या में पिछड़े इस देश की कार्यशील मानवीय पूँजी हैं उतनी ही उपेक्षा उनके मानवीय सम्मान और अधिकारों को लेकर है। वे अपने संवैधानिक अधिकारों का भी सम्पूर्ण रूप से उपभोग नहीं कर पा रहे थे। अपमान और उत्पीड़न की घटनाएँ कम होने का नाम नहीं ले रही हैं और पुणे ऑर्डिनेंस फैक्ट्री जैसी न जाने कितनी जगहें होंगी जहाँ उनके महापुरुषों की जयंतियां तक मनाने पर रोक होंगी। इसके साथ ही पिछड़ों में सामाजिक एकता की जगह बिखराव था। वे एकजुट नहीं थे। पूरे देश में केन्द्रीय, राज्य या अर्द्धसरकारी संस्थानों सभी जगह कर्मचारियों और अधिकारियों ने प्रशासन के सहयोग से एक संस्था SC. ST. Employee Welfare Association चल रही थी जो सिर्फ अपने स्वार्थसिद्धि और कुछ कार्यक्रमों और जयंती तक सीमित थी।

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कांशीराम का सोचना था कि जब आप को संविधान के मार्फत, रिजर्वेशन के द्वारा नौकरी मिली है तो उस बुद्धि और तनख्वाह से उस रिजर्वेशन के अंश के बराबर का योगदान (कुछ पर्सेंट 10 या 20%) उस समाज को दें जिनको रिजर्वेशन का फायदा नहीं पहुंचा है। इसके लिए उन्होंने एक नारा दिया- Pay back to Society अर्थात समाज को वापस करो

यह मिशन सफलता की राह पकड़ने लगा। मान्यवर कांशीराम की इमानदारी, लगन और मिशन के प्रति निष्ठा और कठिन परिश्रम से प्रभावित होकर सैकड़ों, हजारों और फिर लाखों लोग जुड़ने लगे। लेकिन यह एक ऐसा संगठन था जो समाज में दिखाई नहीं दे रहा था और समाज में खुलकर ओपन स्टेज से काम करने की मनाही थी। बौद्धिक चेतना के लिए लिटरेचर तैयार करना, सामाजिक परिवर्तन में सहयोग करने वाले महापुरुषों की जीवनियां और उनके द्वारा लिखे गए साहित्य को भी प्रचारित करना। एक या दो दिन तक प्रशिक्षण शिविर के द्वारा लोगों को जागरूक करना। पहली प्राथमिकता अधिकतर लोगों को इस मिशन में शामिल करना होता था। शुरुआत में 10 रुपया प्रतिमाह का योगदान रहा था।

एक रजिस्टर में मेम्बरशिप दर्ज होती थी। शुल्क आप चाहें तो हर महीने दीजिए या साल भर का एक बार दे दीजिए। रजिस्टर ही सबकुछ था, और कोई रसीद नहीं। हिसाब किताब सब उसी रजिस्टर में, सबके सामने रहता था। कोई लीडर नहीं, एक संयोजक जिलेवार होता था और फिर एक राज्यस्तरीय संयोजक होता था। बड़े कार्यक्रमों के लिए धनराशि का इंतजाम कूपन वितरण के माध्यम से होता था।

चंडीगढ़ में 14 अक्टूबर 1981 को बामसेफ का तृतीय अधिवेशन सम्पन्न हुआ। उसी दिन कांशीराम ने एक बामसेफ नाम की 24 पेज की पुस्तिका भी प्रकाशित की।

[bs-quote quote=”बामसेफ के सभी धड़े अपनी-अपनी डफली बजाते रहे, पैसा इकट्ठा करते रहे, सालाना अधिवेशन भी होता रहा, असली और सही मिशन से भटक कर सिर्फ अपनी स्वार्थसिद्धि होती रही। गंगावणे ने बामसेफ को सफल बनाने के लिए काफी मेहनत की। कैडर में नकारात्मक भावनाएं आ जाने से मुश्किल हो रही थी, फिर भी प्रमोशन की परवाह न करते हुए फुल टाइम काम करने के लिए उन्होंने सन् 1995 में नौकरी तक छोड़ दी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कांशीराम साहब तो नौकरी छोड़ चुके थे। उनपर सरकारी कर्मचारी होने की कोई बंदिश नहीं थी। कुछ लोगों की राय बनी कि इस मिशन को आम नागरिक तक भी पहुंचाया जाय, क्योंकि बामसेफ सदस्यों के काम करने का दायरा सीमित था। जिसको सैडो आर्गनाइजेशन कहा जाता था। कुछ ज्यादा एक्टिव रहने वालों की सरकार मानिटरिंग भी करने लगी थी।

इसको देखते हुए 14 अप्रैल, 1982 को DS-4 अथवा DSSSS अर्थात दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना हुई, जिसका अध्यक्ष मान्यवर खापर्डे को बनाया गया। मैं भी इसी डीएस-4 के माध्यम से बामसेफ में सम्मिलित हुआ था।

DS-4 के माध्यम से आम जनता को जागरूक किया जाने लगा। इसके माध्यम से पूरे देश में बहुत से सामाजिक आंदोलन चलाए गए। इनको भी प्रशिक्षित करने और धन मुहैया कराने की जिम्मेदारी बामसेफ की ही थी। इसका एक मुख्य स्लोगन था जो उस समय बहुत ही चर्चित हुआ था –

ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया छोड़। और बाकी सब डी यस फोर।।

कांशीराम को बाबा साहेब का एक कोटेशन ‘राजनीति एक ऐसी चाभी है, जिससे सभी समस्याओं के ताले खोले जा सकते हैं।’

बामसेफ का राजनीतिक चेहरा बनी बसपा

बामसेफ और डीएस-4 की सफलता से उत्साहित होकर कांशीराम ने दिल्ली के रामलीला मैदान में 14 अप्रैल, 1984 को बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की। अध्यक्ष भी सर्वसम्मति से कांशीराम को बनाया गया। लेकिन इसके बाद लीडरशिप की महत्त्वाकांक्षा और वैचारिक अंतर्विरोध के कारण अन्दर ही अन्दर  महाराष्ट्र के कई लीडरों में असंतोष पनपने लगा।

कांशीराम की उपस्थिति में आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए शूद्र शिवशंकर सिंह यादव

आरपीआई के कई टुकड़े होने के कारण, बुद्धिस्ट लीडरशिप काफी बदनाम हो गयी थी। इसलिए इस बदनामी के कलंक से बचने के लिए खापर्डे, मेश्राम और बोरकर की तिकड़ी ने 1985 में बामसेफ के अध्यक्ष पद से कांशीराम को हटाकर तेजिंदर सिंह झल्ली को अध्यक्ष बनाते हुए बामसेफ का रजिस्ट्रेशन भी करवा लिया। इस प्रकार पंजाब के ही एक चमार सरदार को दूसरे चमार सरदार से भिड़ा दिया। कांशीराम बहुत दुखी तो हुए, लेकिन बिना विरोध के उनके साथ जो भी समर्थक आए उनको लेकर अनरजिस्टर्ड बामसेफ चलाना शुरू कर दिया। मैं खुद कांशीराम के बामसेफ के साथ काम करने लगा। अब कांशीराम महाराष्ट्र छोड़कर अपने मिशन और बसपा को सफल बनाने के लिए उत्तर भारत की तरफ ज्यादा ध्यान देने लगे।

अब दोनों बामसेफ में कम्पटीशन चलने लगा। स्वाभाविक है कि मान्यता होने के कारण पैसा जुटाने और मेम्बर बढ़ाने में झल्ली को सफलता मिलने लगी। झल्ली ने दिसंबर 1985 में दिल्ली में पहला अधिवेशन किया। लेकिन कांशीराम के व्यक्तित्व के सामने वे सफल नहीं हो रहे थे। धीरे-धीरे DS-4 की पूरी की पूरी यूनिट्स बसपा में शामिल हो गयी। कांशीराम राजनीतिक रूप से आगे बढ़ने लगे और तब यही लोग उनका पोलिटिकली विरोध करने लगे। इन पर कांग्रेस समर्थित होने का लांछन भी लगने लगा। खुद एक बार राजीव गांधी जब कांशीराम से मिले तो कांशीराम ने पहला सवाल पूछा था कि हमारे लोगों को तोड़ने के लिए कितने में खरीदा था। यह बात वे  अपने अनेक भाषणों में कह चुके थे।

तेजिन्दर सिंह झल्ली पर अच्छा काम करने और अनरजिस्टर्ड बामसेफ को कमजोर करने का दबाव बढ़ने लगा और कहा गया कि आप भी नौकरी छोड़कर फुल टाइम काम करने की कोशिश करो। इस विषय को लेकर अनबन होने लगी। दिसंबर 1991 में पटना के राष्ट्रीय अधिवेशन में दोनों समूहों में गाली-गलौज इतनी ज्यादा हुई कि मारपीट होते होते बची। उसी अधिवेशन में खापर्डे, मेश्राम और बोरकर की तिकड़ी ने झल्ली को बामसेफ से निकाल दिया और अपने  के ग्रुप के बामसेफ का अध्यक्ष खुद न बनकर साफ छवि दिखाने के लिए एसएफ गंगावणे को अध्यक्ष बना दिया। लेकिन रजिस्टर्ड बामसेफ की पात्रता तो झल्ली साहब के पास थी इसलिए  उन्होंने भी अपनी बामसेफ चालू रखी। इस तरह गंगावणे की अध्यक्षता वाली तीसरी अनरजिस्टर्ड बामसेफ हो गई।

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वैचारिक भटकाव का शिकार होकर अंधी गली में बामसेफ

बामसेफ के सभी धड़े अपनी-अपनी डफली बजाते रहे, पैसा इकट्ठा करते रहे, सालाना अधिवेशन भी होता रहा, असली और सही मिशन से भटक कर सिर्फ अपनी स्वार्थसिद्धि होती रही। गंगावणे ने बामसेफ को सफल बनाने के लिए काफी मेहनत की। कैडर में नकारात्मक भावनाएं आ जाने से मुश्किल हो रही थी, फिर भी प्रमोशन की परवाह न करते हुए फुल टाइम काम करने के लिए उन्होंने सन् 1995 में नौकरी तक छोड़ दी। मिशन पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। इधर खापर्डे बिना किसी पद के हतोत्साहित हो रहे थे। इतने लम्बे समय से काम करने के कारण महत्त्वाकांक्षा बढ़ रही थी और गंगावणे के साथ ईगो टकरा रहा था।

दिसंबर 1996 में मुम्बई के चूना भट्टी मैदान के अधिवेशन में एसएफ गंगावणे को हटाकर खापर्डे खुद अध्यक्ष बन गये। उधर गंगावणे ने भी फुलटाइमर होने के कारण अपनी बामसेफ चालू रखी।

कांशीराम के बामसेफ से सम्बन्धित होते हुए भी कुछ जानकारी लेने के लिए दो दिन मैं इस अधिवेशन में सम्मिलित हुआ। मैंने देखा और अनुभव किया कि करीब-करीब 200-250 परिवार बीबी-बच्चो के साथ तीन दिन के अधिवेशन में शामिल होने और मुम्बई घूमने के मूड में आए हुए हैं। कुछ लोगों से बातचीत से यह भी मालूम पड़ा कि ये लोग मान्यवर कांशीराम के बामसेफ के लिए ही काम करते हैं। मैंने उत्सुकतावश कुछ सवाल भी पूछे थे कि स्टेज से तथा वक्ताओं के भाषणों से कांशीराम और मायावती की कहीं कोई चर्चा नहीं हो रही है। जबाब था कि हमलोगों को राजनीति से दूर रहना है।

वामन मेश्राम की बामसेफ यात्रा

सन 2002 में खापर्डे की मृत्यु हो गई। स्वाभाविक है कि वामन मेश्राम ने अध्यक्षता ले ली। 2003 में बामन मेश्राम के ऊपर चरित्रहीन होने का आरोप लगा। एक बार फिर इतिहास से सबक लिया गया और बामसेफ के चरित्र को साफ़-सुथरा बनाने के लिए बीडी बोरकर ने मेश्राम को बामसेफ से निकाल दिया और खुद अध्यक्ष बन गये। मेश्राम भी नौकरी छोड़कर फुल टाइम इसी पर डिपेंड थे, तो बामसेफ कैसे छोड़ते? यहां फिर दो अनरजिस्टर्ड बामसेफ हो गई। एक बामन मेश्राम की और दूसरी बोरकर जी की हो गई।

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दोनों अलग-अलग अपना सालाना अधिवेशन करते रहे। वामन मेश्राम ने 2012 में एक अपनी पोलिटिकल पार्टी बना ली। कांशीराम की इसी मुद्दे पर आलोचना करने वाले बोरकर भी कैसे पीछे रहते। कुछ भी हो प्रशासनिक अधिकारी थे। इन्होंने भी सन् 2018 में अपनी पोलिटिकल पार्टी बना ली।

कांशीराम की बामसेफ का महत्त्व उसी दिन से कम होने लगा जब उन्होंने ब्राह्मणों के साथ शोसल इंजीनियरिंग करते हुए पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई और हम लोगों का 200-400 रुपया महीना देना पार्टी की तौहीन लगने लगी। हालाँकि, सुना है अभी भी कुछ लोग इसे अपने फायदे के लिए जिन्दा रखे हुए हैं।

पिकनिक इवेंट बनता बामसेफ अधिवेशन

दिसंबर 2019 में औरंगाबाद में हुए बामसेफ के अधिवेशन में एक अतिथि वक्ता के रूप में मुझे भी सम्मिलित होने का मौका मिला। वहां अध्यक्ष अतरबीर सिंह से बातचीत में पता चला कि सर्टिफिकेट के साथ असली और प्रामाणिक बामसेफ उन्ही के पास है। वहां के अधिवेशन का भी सेम पैटर्न था यानी परिवार के साथ खुशी का माहौल। पांच दिन तक पूरे परिवार को स्टैन्डर्ड क्वालिटी का रहने का प्रबंध किया गया था। उठते ही सुबह की चाय, नाश्ता, दोपहर का खाना, रात का खाना, फिर रात को इंटरटेनमेंट, बीच में कहीं भी घूमने की आजादी। अब तो यह हालत है कि सालाना अधिवेशन परिवार के लिए मजबूरी हो गया है, मिशन के लिए ज़रूरी नहीं। मैंने अपना गेस्ट-भाषण दिया, लेकिन 10-15 कोर कमेटी के सीनियर अधिकारियों के साथ ग्रुप मीटिंग में पूरी बात समझाते हुए असंतोष भी ज़ाहिर किया था। एक महोदय का कहना था कि हमी लोगों के कारण समाज में परिवर्तन आ रहा है। मैंने पूछा कि ‘हम लोगों का यही योगदान है कि वे लोग 2 सांसद से आज 300 सांसद हो गये और हम लोग आज कहां हैं?’

झल्ली साहब जो अभी पैगाम चला रहे हैं, औरंगाबाद अधिवेशन में मेरे सम्मिलित होने की जानकारी होने पर, उनके एक खास साथी ने मुझसे कहा कि ‘ओरिजनल बामसेफ अभी भी हम लोगों के पास ही है। कोई धोखेबाजी से बना लिया है और गलत दावा कर रहा है।’ पता नहीं ऐसे कितने बामसेफ संगठन पूरे देश में चल रहे हैं।

‘कांशीराम आजिज आकर महाराष्ट्र छोड़कर उत्तर भारत में अपनी जमीन तलाशने लगे और सफलता भी मिलने लगी, आप सभी बामसेफ के लोग भी महाराष्ट्र छोड़कर कांशीराम के मिशन के पीछे पड़ते गये। महाराष्ट्र में आज भी आदिवासियों को बाबा साहेब का नाम नहीं मालूम है, उन्हें ही मूलनिवासी आज तक नहीं बना पाए और दूसरे स्टेट भी बिना किसी विरोध के खुला मैदान पड़ा है, वहां आप लोग काम क्यों नहीं करते हैं? आप सभी लोग उत्तर प्रदेश और बिहार में ही क्यों काम करते हैं? वहां तो बहुजन समर्पित पार्टियां भाजपा को चुनौती दे रही हैं।’

एक बार बामसेफ के एक बड़े अधिकारी के साथ इस पर बातचीत होने पर उनका कहना था कि ‘अपनी ताकत को बढ़ाने का सबको अधिकार है।’ मैंने कहा, ‘बेशक सामाजिक ताकत बढ़ाइए, आपको सामाजिक काम करने से कौन रोकता है? चुनाव लड़ना है तो सिर्फ गठबंधन से लड़िये। अभी अलग से चुनाव मत लड़िए। क्योंकि आप चुनाव लड़कर बहुजनों का ही वोट काटकर, परोक्ष रूप से भाजपा को फायदा पहुंचा रहे हैं।’ इस पर उन्होंने कुछ जवाब ही नहीं दिया।

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अब सवाल उठाना लाज़िम है

बामसेफ के माध्यम से मान्यवर कांशीराम ने समाज को रिटर्न में कुछ पोलिटिकल चेतना और पावर दिया, लेकिन आप सभी लोगों ने मिलकर पिछले 40 सालों में समाज को क्या रिटर्न दिया है?

शुरुआती दौर में मिशन के दो ही नायक थे, जिन्हें फुले-अम्बेडकर कहा जाता था। कांशीराम ने भी आगे चलकर दो नाम और जोड़े- शाहूजी और पेरियार। लेकिन आप लोगों ने सभी जातियों को खुश करने के लिए इतने नायक बनाए कि हैंडबिल में दो लाइन भी कम पड़ जाती है और उसी में फुले-अंबेडकर को ढूंढना पड़ता है। यही नहीं, पैसे के कलेक्शन और सदस्य बनाने की होड़ में अम्बेडकरवादी विचारधारा को छोड़कर जय भीम की जगह जय मूलनिवासी सम्बोधन करना शुरू कर दिया। ऐसा क्यों? इसका कारण पूछने पर लोगों का जवाब रहता है कि जय भीम बोलने पर ओबीसी जातियाँ नहीं जुड़ती हैं। यहाँ तक कि कोई नाराज होकर कलेक्शन बन्द न कर दे, इसलिए हिन्दू धर्म के पाखंड पर नकारात्मक टिप्पणी नहीं करना है। इसलिए सभी बामसेफियो ने कम्पटीशन में, अपने अपने सदस्य बढ़ाने और पैसा कलेक्शन को पहली प्राथमिकता दी और असली मिशन को पीछे छोड़ दिया। इस तरह जातियों के वर्चस्व को बढ़ावा देते हुए पिछले चालीस सालों में ब्राह्मणवाद और परोक्ष रूप में भाजपा को बढ़ाने का ही काम किया है। प्रमाण भी है। इसी पीरियड में भाजपा के दो लोकसभा सदस्य से बढ़ते बढ़ते पूरे देश में कब्जा कर लिया है। कांशीराम जहाँ तक मिशन को ले आए थे, वह भी नीचे सरक गया है। इसमें आप लोगों का भी सहयोग रहा है। बताने की जरूरत नहीं है, प्रमाण सामने है। हवा में बात करने और शोसल मीडिया में शोर शराबा करने से कोई फायदा नही है।

आप लोग आपस में ही लड़ते-झगड़ते और टूटते चले गये और सभी कांशीराम बनने की होड़ में सेम पैटर्न की कॉपी करते गये। अलग तरह से हटकर कुछ अलग नया करने की किसी ने नहीं सोची। कोई दावा करता है, लाखों-करोड़ों सदस्य होने की। इतने करोड़ मंथली इनकम से आप चाहते तो वंचित समाज के लिए मेडिकल, इंजीनियरिंग कालेज, दर्जनों स्माल स्केल इंडस्ट्रीज, हास्टल आदि सुचारू रूप से चलाया जा सकता था। मुझे लगता है नकारात्मक सोच के कारण सिर्फ एक ही मुद्दा बहुजन का विरोध और उसे खत्म करने के लिए मूलनिवासी अवधारणा लाए और ऊपर से एक ही मुद्दा कि ब्राह्मण विदेशी भर कहते रहे? आप कौन से संवैधानिक अधिकार के अंतर्गत ब्राह्मण को विदेशी कहते हैं? क्या कभी उसकी संसाधन हड़प-नीति के विरुद्ध कोई आन्दोलन चलाया? क्या आप भविष्य में कभी सफल हो सकते हैं? उन्हें विदेशी कहते-कहते आज नौबत यह आ गई है कि मनुवादी ही हमारे करीब 20% आदिवासी और घुमक्कड़ जातियों को विदेशी बना कर वोट से वंचित करने पर उतारू हो गए हैं।

बहुजनों के कार्यक्रम में कांशीराम के साथ शूद्र शिवशंकर सिंह यादव

दूसरी बात, बामसेफ संविधान का हवाला देते हुए कहता है कि सभी को अपनी पूजा-पाठ, आस्था का अधिकार है। हिन्दू धर्म के पाखंड, भगवान, देवी-देवता, ऊंच-नीच की मान्यता, आस्था आदि जो हमारे समाज की दयनीय स्थिति के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं, उस पर आप लोगों ने व्यावहारिक रूप में जोरदार अटैक कभी भी नहीं किया। इस विषय पर मेरी कई बार बहस भी हो चुकी है। आप लोगों का मानना है कि लोग यह सब अपने आप छोड़ देंगे। यह पूर्ण रूप से गलत अवधारणा है। आज भी बामसेफ के बहुत से नेता हिन्दू धर्म के पाखंड का अनुसरण करते हैं।

दुनिया का सबसे डरपोक और गालीबाज संगठन

सच कहिए तो मेरा खुद का बामसेफ में अनुभव व प्रमाण भी है कि बामसेफ का दुरुपयोग बहुत हुआ है, इसलिए कांशीराम ने 19 जुलाई, 1998 नेहरू मेमोरियल हॉल पुणे के राष्ट्रीय अधिवेशन में बामसेफ को ही खत्म कर दिया था। आज के तारीख में जो सरकारी नौकरी नहीं कर रहा है वह भी बामसेफ का सदस्य बना हुआ है। आज की स्थिति में दुनिया की सबसे डरपोक आर्गनाइज़ेशन बामसेफ है। कोई भी सरकारी नौकरी करने वाला बामसेफी किसी भी सार्वजनिक जगह पर सिर्फ चार अपरिचित लोगों के बीच में भी अपने को बामसेफी कहने की हिम्मत नहीं रखता है। कुछ हद तक आज के माहौल में वह जायज भी है, इसलिए ताकतवर ब्राह्मणवाद के खिलाफ सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष करने की इनसे उम्मीद रखना भी मूर्खता है। इसी कारण डीएस-फोर या दलित पैन्थर या भीम आर्मी जैसे आक्रामक संगठन भी संदेह से परे नहीं हैं। सच तो यह है कि सबकी कटु आलोचना करना जरूरी है। मिशन की सफलता के लिए, बामसेफ से सिर्फ गुप्त मंथली कंट्रिव्यूसन, दान या डोनेशन उपयोगी हो सकता है।

यह भी सही है कि कुछ हद तक इस समय सोशल मीडिया की पत्रकारिता और कई जुझारू मिशनरी कार्यकर्ताओं, वक्ताओं के कारण ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई तेज हो गई है और कुछ हद तक सफलता भी मिल रही है।

मूलनिवासी बनाम शूद्र

मूलनिवासियों की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वे अपने को मूलनिवासी मतलब, अहंकार में सबसे उच्च मान बैठे हैं। उनको लगता है कि ब्राह्मण अब उन्हें अपने से नींच नहीं समझता है। आदतन, आपस में एक-दूसरे का विरोध करते-करते बहुजन, अर्जक या शूद्र मिशन जैसे दूसरे सामाजिक संस्थाओं का बिना उचित कारण के सोशल मीडिया पर विरोध करते रहते हैं। एक चिरपरिचित विरोध इनका बराबर रहता है, जैसे ही इनके सामने कहीं शूद्र के बारे में लिखा मिलता है, वैसे ही बिना लेख को पढ़ें, समझे तुरंत कमेन्ट दे देते हैं- ‘शूद्र तो ब्राह्मणों के द्वारा दी हुई गाली है, इस पर हम गर्व क्यों करें? गर्व से कहो हम मूलनिवासी हैं।’

इनके कमेंट पर कभी-कभी हंसी भी आ जाती है। दो लाइन शुद्ध लिख भी नहीं पाते हैं।

शूद्र मिशन वाले तो जहाँ जरूरत पड़ती है वहाँ बराबर लिखते रहते हैं कि शूद्र ही इस देश का मूलनिवासी है। खुश होने के बजाय आप लोगों को तकलीफ क्यों होती है? शुरुआत में कभी नहीं किया, लेकिन अब बहुत ज्यादा विरोध करते रहते हैं। यह समझ से बाहर है। अब इनके विरोध को नजरअंदाज करते हुए, कोई जवाब नहीं दिया जाता है। लेकिन कभी इनको ब्राह्मणों की या ब्राह्मणवाद के पाखंड की खुलकर आलोचना करते नहीं देखा।

गूगल@ शूद्र शिवशंकर सिंह यादव

लेखक शूद्र एकता मंच के संयोजक हैं और मुम्बई में रहते हैं। (MTNL में सेवानिवृत्त डीजीओ)

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5 COMMENTS
  1. लक्ष्यवेध के लिए साध्य और साधन के औचित्य पर विचार किया जाता है. इसलिए बामसेफ के संदर्भ में आपके लेख पर मेरी यह टिप्पणी आपके विचार हेतु प्रस्तुत है.
    शूद्र शब्द वर्ण व्यवस्था का सूचक है. भारतीय संविधान में वर्ण व्यवस्था की सूचक शब्दावली का प्रयोग नहीं किया गया है. संविधान में सामाजिक आर्थिक और शैक्षणिक आधार पर पिछड़े लोगों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग में वर्गीकृत कर परिभाषित किया गया है. इसलिए मनुवादी सामाजिक व्यवस्था की सूचक शब्दावली का प्रयोग करके शूद्रों को ब्राह्मणवाद के विरुद्ध लामबंद करने का तरीका कितना औचित्यपूर्ण है, इस पर विचार होना चाहिए. क्या ब्राह्मणवाद अथवा मनुवाद जिसके विरूद्ध संविधान खड़ा है- का आधार लेकर अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को गोल बंद नहीं किया जा सकता है? क्या शूद्र शब्द का इस्तेमाल करके सवर्ण जाति से भिन्न अन्य जातियों को मनुवाद के विरुद्ध लामबंद करना आसान होगा? वैसे भी शूद्र शब्दावली से बना कोई संगठन संवैधानिक नहीं लगता है, क्योंकि शूद्र शब्द सवर्णों की गुलामी का सूचक है,जबकि भारतीय संविधान के मुख्य तत्व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व हैं. ब्राह्मणवाद की आलोचना तो अनेक मनीषियों एवं बुद्धिजीवियों के द्वारा बहुत की जा चुकी है. अब तो केवल सवाल संगठित होने का है. इस पर विचार होना चाहिए और काम होना चाहिए.

  2. बिना लोकतांत्रिक संस्थागत नेतृत्व के मूलनिवासी बहुजन संगठनों का कोई औचित्य नहीं है।

  3. आज मेरे ध्यान में लगभग बारह के करीब बामसेफ हे।
    जो भामन मेश्राम ने बरगलाकर बीमार खापर्डे साहब के जिंदा रहते कियाथा।
    कांसीराम साहब लिखे शिव शंकर जी।
    1 मेश्राम का बामसेफ

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