तबेले से ऊपर उठी ज़िंदगी की दास्तान
डॉ. गुलाबचंद यादव आज आईडीबीआई बैंक के राजभाषा अनुभाग के महाप्रबंधक हैं और उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं। वे जाने-माने साहित्यकार हैं, उनके लेख हिन्दी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, लेकिन एक समय जब उनकी ज़िंदगी की शुरुआत हो रही थी तब वे अपने पिता के साथ मुंबई में रहकर तबेले में काम करते और अंधेरी की नगरपालिका पाठशाला में पढ़ाई करते थे। मूलतः जौनपुर के कूसा गाँव के निवासी उनके पिता सालिक राम यादव उर्फ मखोधर यादव साठ के दशक में मुंबई आ गए और सेंचुरी मिल में काम करते थे।
मखोधर यादव परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए मिल में नौकरी करने के साथ सुबह-शाम अंधेरी के एक तबेले से दूध उठाते और लोगों के घरों में पहुँचाते थे। इस प्रकार उन्हें कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाती थी। एक सामान्य किसान परिवार से आए उस व्यक्ति के लिए यह बड़ी राहत थी हालाँकि इसके लिए उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी।
उनके बड़े पुत्र डॉ गुलाबचंद यादव बताते हैं कि पिताजी का पूरा जीवन ही परिश्रम एक उदाहरण था। इसके बावजूद वे अनथक संघर्ष कर रहे थे। हालात ने उन्हें तोड़ देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी लेकिन उन्होंने कभी पलायन नहीं किया। उन्होंने अपने संयुक्त परिवार को आगे बढ़ाने के लिए अपने को झोंक दिया लेकिन बाद में जब गाड़ी थोड़ा आगे बढ़ी तो उन्हें अपने ही भाइयों-भतीजों के असहयोग और अवसरवाद का सामना करना पड़ा। वे बुरी तरह कर्ज़ में डूब गए और अकेले पड़ गए।
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वे कहते हैं पिताजी चार भाइयों में तीसरे नंबर पर थे और कम उम्र में ही कमाने के लिए मुंबई (उन दिनों बंबई) आ गए। उस समय जौनपुर और भदोही (जो तब बनारस जिले का हिस्सा था) के लगभग हर परिवार से लोग मुंबई आते थे। ज़्यादातर लोग मेहनत-मजदूरी करते थे। यादव जाति के लोगों का एक ठिकाना मुंबई के तबेले हुआ करते थे क्योंकि क्योंकि पशुपालक होने के कारण उनमें गाय-भैंस पालने-दुहने का स्वाभाविक कौशल था।
लेकिन मखोधर यादव ने शुरू में तबेले में काम नहीं किया बल्कि सेंचुरी मिल में नौकरी शुरू की। चूँकि वे बाहर कमाने आए थे इसलिये यथासंभव ओवरटाइम काम करके कुछ अतिरिक्त आमदनी करते। इस प्रक्रिया में वे स्थानीय तबेले से सुबह शाम दूध उठाते और बेचते थे। इस प्रकार उन्हें कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाती थी।
डॉ गुलाबचन्द यादव बताते हैं कि कुछ दिनों बाद ग्राहक पिताजी से दूध की गुणवत्ता को लेकर शिकायत करने लगे। यह बात पिताजी ने तबेले के मालिक को बताई और बढ़िया दूध देने का आग्रह किया। इस पर तबेला मालिक चिढ़ गया और बोला कि बहुत बड़े दूधहारा बनने चले हो तो दस खूँटा रख क्यों नहीं लेते।
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‘यह बात पिताजी को चुभ गई। उन्होंने उसी समय यह ठान लिया कि अब तो अपने खूँटे रखकर ही दम लेंगे।’ धारा-प्रवाह बोलने वाले डॉ गुलाबचंद यादव उन दिनों की याद में कुछ देर तक कहीं खो जाते हैं। उनके चेहरे पर भावुकता और संवेदना उभर आती है। वे धीरे-धीरे बोलने लगते हैं –‘यह हमारे परिवार की कहानी का ऐसा मोड़ था जिसने जिसने बहुत कुछ बदलकर रख दिया। पिताजी के उस जुनून ने बनते-बिगड़ते समीकरणों के साथ परिवार के भविष्य की ऐसी नींव डाली कि अब तबेला हमारे लिए अतीत की एक दंतकथा भर है। हमारे परिवार में अब तबेले से किसी का दूर-दूर से कोई नाता नहीं है।
‘मेरे मझले भाई विजय कुमार का अपना व्यवसाय है जिसमें वह सफलता से आगे बढ़ रहे हैं। सबसे छोटे भाई अजय कुमार एक सफल चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं और एक प्राइवेट कंपनी के जनरल मैनेजर (ऑडिट) के पद पर कार्यरत हैं। बेटे सुनील कुमार एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में सलाहकार है और बहू दीपमाला की अपनी एक आईटी फर्म है। मुंबई में सभी के पास अपने-अपने घर हैं। बच्चे अच्छे स्कूलों में तालीम पा रहे हैं। यह इन सबकी अपनी-अपनी मेहनत और योग्यता है जिसके बल पर सब लोग यहाँ हैं। इन सबकी पटकथा पिताजी ने लिखी थी जिनकी मेहनत और परेशानियों को याद करते हुये आज भी सिहरन होती है।’
डॉ गुलाबचंद यादव बताते हैं कि ‘उस तबेला मालिक के ताने से आहत होकर पिताजी अंधेरी में स्थित भागीरथी यादवजी के तबेले में आए। वे जौनपुर के निवासी थे और थोड़े सहृदय थे। अपने जिला-जवार के लोगों की मदद करते थे। पिताजी ने उनसे अपनी इच्छा जताई और इस प्रकार उन्होंने वहाँ पर चार खूँटे ले लिए।
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इसके बाद उनकी दिनचर्या भोर में तीन बजे शुरू होती और नौ बजे वे मिल में पहुँचते। वहाँ से छूटने पर भागे-भागे अंधेरी आते और फिर से तबेले के काम में लग जाते। लेकिन अपने जुनून में उन्हें थकान होती ही नहीं थी। धीरे-धीरे उनके खूँटे बढ़ने लगे। अब हमेशा उनके जेहन में यह समीकरण रहता कि कहाँ से क्या करें कि उनकी आमदनी और बढ़े। उनके सहयोग के लिए मेरे बड़े ताऊ और चाचा भी मुंबई आ गए। काम बहुत बढ़ गया।
पिताजी मेहसाना, गुजरात से भैंस खरीद कर लाते। इस प्रक्रिया में उन्होंने काफी रुपए कर्ज़ भी ले लिए लेकिन उनका काम तेजी से चल निकला था। उस समय सहार हवाई अड्डा बन ही रहा था और वहाँ घास का विशाल मैदान था। एक ठेकेदार ने पिताजी को घास काटने का ठेका दे दिया। वहाँ असीमित घास थी जिनका चारा बनाकर पिताजी जरूरत भर अपनी भैंसों के लिए रखते और बाकी दूसरे तबेलों को बेच देते। इस काम के लिए उन्होंने भदोही के एक गुप्ताजी को बैलगाड़ी हाँकने के लिए रख लिया। मुझे याद है कि गुप्तजी बहुत शौकीन मिजाज के लहीम-शहीम आदमी थे। अच्छे कपड़े पहनते और ऊंचे सुर में गाना गाते।
एक समय ऐसा आया कि अंधेरी में पिताजी के चालीस खूँटे हो गए। काम इतना बढ़ गया कि पिताजी ने मिल से वीआरएस ले लिया और पूरी तरह तबेले में लग गए। उस मेहनत का अंत नहीं था। दुर्भाग्य से उसी वर्ष मेरे ताऊ राजाराम उर्फ मेघू यादव अँधेरी में ट्रेन से कटकर मर गए। यह हमारे परिवार पर वज्रपात था। और यहीं से एक तरह से बुरे दिनों की शुरुआत हो गई।
तबेले का हिसाब-किताब मेरे सबसे बड़े चचेरे भाई राजनाथ यादव के जिम्मे था। राजनाथ भइया की बड़ी-बड़ी मूछें थीं जिनके कारण लोग उन्हें मुसट्टा कहते थे। वे अपने बालों और मूछों में क्रीम और मलाई लगाया करते थे। खूब लंबे-चौड़े और खाने-पहनने के शौकीन थे। पिताजी इस बात से निश्चिंत थे कि काम ठीक से चल रहा है लेकिन उन पर दूसरा वज्रपात तब हुआ जब मुसट्टा भइया ने बताया कि उनके पास कोई रुपया नहीं है। यह आश्चर्य की बात थी क्योंकि पिताजी जानते थे कि उनके पास अभी पूरे साल का लेखा-जोखा है जिसमें थोड़ा बहुत कम-बेशी तो हो सकता है लेकिन भइया ने तो टाट ही उलट दिया।
‘बाद में भेद खुला कि मुसट्टा भइया कई ऐसे शौक पालते थे जो हमारे जैसे लोगों के लिए तबाही का रास्ता था। वे सिनेमा देखते। क्लब जाते और सट्टा खेलते। पहले थोड़ी रकम गई लेकिन आदत और मजबूत हो गई तो फिर तबेले की बड़ी पूंजी भी निकल गई। जब पिताजी ने ऐतराज किया तो भइया के मित्रों ने उन्हें चढ़ाया कि तुम अलग हो जाओ। अकेले करना होगा तो मखोधर की एड़ी का पसीना चोटी पर चढ़ेगा। इस प्रकार संयुक्त परिवार की बरबादी की नींव पड़ी।
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‘पिताजी कर्ज़ में डूब गए। बँटवारे में बचे खूँटों में से कई खूँटे और भैंसों को बेचकर उन्होंने तत्काल गला छुड़ाया लेकिन अब तो जीवन निर्वाह का यही एकमात्र विकल्प बचा था। लिहाजा उन्होंने एक बार फिर कोशिश की और कर्ज़ आदि लेकर कुछ खूँटे बढ़ा लिए लेकिन फिर उनकी हालत सुधर नहीं पाई।
कर्ज़ चढ़ता गया और लेनदार आकर तगादा करने लगे। कई लोग आकर अपमानजनक बातें भी कर जाते। पिताजी हींक भर मेहनत करते और अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश करते लेकिन एक चीज ठीक करते तब तक दूसरी बिगड़ जाती। वे अकेले और लाचार पड़ते गए। उन्हें अपना सम्मान और परिवार बचाना भारी पड़ने लगा। गाँव पर भी बँटवारा हो गया था। अब सबकी अलग दुनिया थी।’
ढेरों विपरीत परिस्थितियों से लड़ते-भिड़ते गुलाबचंद यादव ने बी ए और एम ए की पढ़ाई पूरी कर ली। बारहवीं करने के बाद एक बार तो लगा कि अब आगे नहीं पढ़ पाएंगे, क्योंकि शादी हो चुकी थी और परिवार की ज़िम्मेदारी सिर पर थी। दूसरे जौनपुर से आकर कई दिनों तक जमे रहनेवाले उनके कई निघरघट नाते-रिश्तेदार उनके माता-पिता पर दबाव डालते कि घर के बड़े बेटे गुलाब अब तबेला संभालें। लेकिन तबेले में खटकर मरना गुलाब को गंवारा नहीं था।
इस बीच उन्होंने मुंबई में ऑटो चलाया और कई अन्य काम भी किए। बाद में परिवार के लोगों ने दबाव देना छोड़ दिया और कहा कि आप पढ़िये-लिखिए। उन्होंने पढ़ाई-लिखाई और तैयारी में उल्लेखनीय प्रगति की। सबसे पहले न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी में उन्हें नौकरी मिली। बाद में कुछेक और जगहों से होते हुये वे आईडीबीआई के राजभाषा विभाग में आए। जीवन पटरी पर आ गया लेकिन पिता की परिस्थितियाँ देखकर उनका कलेजा छलनी हो जाता।
डॉ गुलाबचंद यादव बताते हैं कि ‘पिताजी ने चार खूँटे से शुरुआत की थी जो बढ़कर चालीस हो गए और अंत में घटकर फिर चार तक आ पहुँचे। अब भी वे जी-जान से अपने खूँटों को बढ़ाने की कोशिश में लगे थे लेकिन सिर पर लदे कर्ज़ ने उन्हें बेहाल कर दिया था। मैं उनकी बेबसी समझता था। सबकुछ के बावजूद वे हार मानने वाले प्राणी नहीं थे।
‘आखिर मैंने उनसे बात की और समझाया कि अब इस उम्र में अपमान सहकर काम करना उनके लिए बिलकुल ठीक नहीं है। अब बच्चे बड़े हो रहे हैं। तब विजय और अजय काफी छोटे थे और पढ़ाई कर रहे थे। उनके सेटल होने में कुछ वर्ष लगना लाजिमी था। इसलिए पिताजी इनकी आगे की पढ़ाई और कैरियर को लेकर चिंतित थे लेकिन मैंने उनको भरोसा दिलाया कि मैं उन्हें ठीक से पढ़ाऊंगा-लिखाऊंगा और सेटल भी करूंगा। आपके कर्ज़ भी मैं धीरे-धीरे भर दूँगा। आप अब गाँव चलकर रहिए।
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अगस्त 1998 में पिताजी को मैंने बीस हज़ार रुपए दिये और काशी एक्सप्रेस में बिठाया। वहाँ जाकर उन्होंने अपने हिस्से में मिली ज़मीन पर घर बनवाना शुरू किया और बाकी की जिंदगी गाँव में ही बिताई। 24 अक्टूबर 2009 को 75 वर्ष की उम्र में हृदयाघात से उन्होंने इस संसार को अलविदा कहा।’
डॉ गुलाबचन्द यादव बड़े भावुक हृदय से बताते हैं कि ‘तबेले का काम कैसा है यह आसानी से समझने के लिए बस इतना कह सकता हूँ कि किसी को अपनी जिंदगी को नरक बनाना हो तो वह बस तबेला खोल ले। उसकी अपनी कोई जिंदगी नहीं रह जाती। सब कुछ भैंस के अधीन हो जाता है। न उसको अपनी बीमारी की चिंता रहती है न किसी दुनियादारी की। वास्तव में यह एक कठिन ज़िंदगी है।
‘अपने परिवार को बेहतर जीवन देने के लिए पिताजी ने भी यह जीवन चुना था। अगर ताऊ न मरते और मुसट्टा भइया घपला न करते और सब एक रहते तो क्या पता मुंबई में उनका भी एक तबेला होता। मगर अब तो उस जीवन की याद भी नहीं आती।
‘लेकिन कभी-कभी जब लोकल ट्रेन की खिड़की से वेस्टर्न लाइन पर किसी तबेले पर नज़र जाती है तो पिताजी की बेसाख्ता याद हो आती है। उनकी बेहिसाब मेहनत और व्यस्तता। उनके ऊपर लदा कर्ज़ और उनकी बेबसी सबकुछ एकबारगी आँखों के सामने घूम जाती है। तबेले में बने मचानों पर अभी भी न जाने कितने लोग जीवन गुजार देते हैं जिनके लिए इस दुनिया में केवल अपने परिवार और दूसरे की भैंसों की देखभाल करना ही है!’
पिता जी सादर नमन 🙏
डाक्टर साहब आप के पिता जी के इमानदारी से किए गए कर्मों का फल आप सभी को मिला है और सबसे बड़ी बात कि आप लोग उसे दिल की गहराइयों से उस परीश्रम और उसके दर्द को महसूस किया है, यही सबसे बड़ी बात है, पिता जी को नमन् और आप सभी को भविष्य के लिए तहेदिल से शुभकामनाएं.
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