आजकल स्त्रीकाल के संपादक संजीव चंदन का एक पोस्ट, जो बिहार विधानसभा में उठाये गए भाजपा विधायक इंजी. ललन पासवान के एक सवाल से प्रेरित है, बहुजन बुद्धिजीवियों के बीच काफी चर्चा का विषय बना हुआ है। इस पोस्ट के जरिये उन्होंने साहित्य संस्थानों में दलित लेखकों और प्रकाशन व्यवसाय में दलित प्रकाशकों के बहिष्कार के सवाल को, जो अबतक प्रायः पूरी तरह उपेक्षित रहा है, एक बड़े विमर्श का विषय बना दिया है। इस पोस्ट के माध्यम से उन्होंने साहित्य संस्थानों और पुस्तक वितरण में सोशल और जेंडर डायवर्सिटी की अनदेखी को बड़ा सवाल बना दिया है, जिसकी अनदेखी अब आसान नहीं होगी! उन्होंने सवाल उठाया है साहित्य अकादमी सहित विभिन्न कला, संस्कृति अकादमियों में मोहनदास नैमिशराय, असंगघोष, सुशीला टाकभोरे, अनीता भारती, एचएल दुसाध, विमल थोराट, प्रेम कुमार मणि इत्यादि क्यों नहीं दीखते! क्यों प्रोफ़ेसर रतनलाल, रामजी यादव इत्यादि को लेखन के लिए फेलोशिप नहीं मिलता? क्यों राजाराम मोहन रॉय लायब्रेरी की खरीद में नामवर सिंह के प्रभावी होते ही किस प्रकाशक को एकतरफा खरीद का आर्डर दिया गया और क्यों राजकमल जैसे प्रकाशक और रज़ा जैसे संस्थान स्टेट से आंशिक और सीधे लाभान्वित होते हैं? क्यों नहीं उर्मिलेश किसी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के वीसी हो सकते हैं और क्यों नहीं चौथीराम यादव और कालीचरण स्नेही जैसों को पोस्ट रिटायरमेंट योग्य सम्मान मिलता है, जैसे कई महत्वपूर्ण सवाल उठाये हैं! अपने पोस्ट के अंत में उन्होंने कहा है, ‘यह एक राजनीतिक लड़ाई है जो राजनीति से ही लड़ी जायेगी! अभी एक शुरुआत है। बिहार विधानसभा में भाजपा विधायक ललन पासवान ने जो आवाज उठायी है, वह महाराष्ट्र में भी गूँजनी चाहिए और राजस्थान में भी। दोनों राज्यों में परस्पर विरोधी सरकारें हैं। कांग्रेस के भीतर का ब्राह्मणवादी तंत्र और उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा ब्राह्मणवादी तंत्र बहुत आसानी से इस लड़ाई में कांग्रेस को साथ नहीं आने देगा। लेकिन जाति और धर्म से ऊपर कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व शायद इस मुहीम को समझे। आंबेडकर-फुलेवादी साथी जहां हैं वहां की सरकारों के विपक्ष के जरिये इस मुद्दे को उठाएं: दलगत सीमाओं से ऊपर जाकर!’
“दलित प्रकाशक अपनी दुरावस्था से तबतक नहीं उबर सकते, जबतक उनके लिए मुख्यधारा की पुस्तक सप्लाई के बंद दरवाजे नहीं खुल जाते। भारत के चिरसुविधासंपन्न व विशेषाधिकारयुक्त तबके का विविध वस्तुओं के डीलरशिप-सप्लाई/ठेकों-पार्किंग-परिवहन/ फिल्म- मीडिया, शासन-प्रशासन, पौरोहित्य इत्यादि की भांति ही पुस्तक सप्लाई पर 80-90 प्रतिशत कब्जा है। इस क्षेत्र में अपना एकाधिकार बनाये रखने के लिए उन्होंने ऐसा चक्रव्यहू रच रखा है, जिसे भेद पाना दलित प्रकाशकों के लिए दुष्कर है।”
बहरहाल, संजीव चंदन ने जो सवाल उठाये हैं, उसका दायरा इतना व्यापक है जिसे एक-दो लेख में नहीं समेटा जा सकता। इसके दायरे में प्रकाशन व्यवसाय, लेखन के लिए बंटने वाले पुरस्कारों से लेकर साहित्य अकादमी, कला-संस्कृति से जुड़े समस्त संस्थानों में भेदभाव की भयावह समस्या खुलकर जनसमक्ष आ गयी है। बहरहाल, मुझे संजीव चंदन के पोस्ट ने दलित प्रकाशकों की दुरावस्था को सबसे पहले सामने लाने के लिए प्रेरित किया है और अगर दलित प्रकाशकों के दुरावस्था की उपलब्धि करनी है तो सबसे पहले देश के विभिन्न अंचलों में आयोजित होने वाले पुस्तक मेलों का सिंहावलोकन करना होगा!
अभी-अभी दिल्ली के प्रगति मैदान में 23 फ़रवरी से 5 मार्च वर्ल्ड बुक फेयर आयोजित हुआ, जिसमें 40 देशों के 1000 से अधिक प्रकाशकों ने भाग लिया। इस विशाल पुस्तक मेले में यदि दलित प्रकाशकों की संख्या जानने का प्रयास हो तो पता चलेगा सम्यक प्रकाशन, गौतम बुक सेंटर जैसे स्थापित प्रकाशनों के अतिरिक्त अशोक दास के दास पब्लिकेशन, एमएल परिहार के बुद्धम पब्लिशर स्टाल पर पाठकों को भारी भीड़ जरूर जुटी। किन्तु दलित-बौद्ध साहित्य की भारी लोकप्रियता के बावजूद हजार से अधिक प्रकाशकों के मध्य दर्जन भर भी दलित प्रकाशक अपनी उपस्थिति दर्ज न करा सके। ऐसा प्रायः हर वर्ल्ड बुक फेयर में होता रहा है। लेकिन ऐसा सिर्फ दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले में ही नहीं होता: हर वर्ष दिल्ली, कोलकाता, पटना, पूणे, लखनऊ, मुजफ्फरपुर, इलाहाबाद व अन्य कई शहरों में आयोजित होनेवाले पुस्तक मेलों में भी होता है। इन मेलों में दलित प्रकाशकों की शोचनीय उपस्थिति देख कर कोई भी सोच सकता है कि पूरे देश में दलित प्रकाशन नहीं के बराबर हैं, पर ऐसा नहीं है। वस्तुस्थिति तो यह है कि हिंदी सहित देश की अन्यान्य भाषाओं में 500 से अधिक दलित प्रकाशक पुस्तक प्रकाशन के कार्य में लगे हुए हैं। इनकी संख्या का सही प्रतिबिम्बन अंतर्राष्ट्रीय या राष्ट्रीय पुस्तक मेलों में नहीं, आंबेडकर जयंती, दीक्षा-दिवस, बाबासाहेब महापरिनिर्वाण दिवस, रविदास जयंती, बसपा की रैलियों, बामसेफ के वार्षिक सम्मेलनों इत्यादि में होता है।
दरअसल, पूरे देश में ही व्यावसायिक, नहीं मिशन भाव से भारी संख्या में दलित प्रकाशक अपने काम में जुटे हुए हैं। आज जिस दलित आन्दोलन की चर्चा हर तरफ सुनाई पड़ रही है, वह वास्तव में साहित्यिक आन्दोलन है, जिसमें लेखकों के समान ही प्रकाशकों का बड़ा ही महत्वपूर्ण रोल है। विगत कुछ दशकों में मेट्रोपोलिटन शहरों से लेकर दूर-दराज के गांवों और कस्बों तक में जो भारी संख्यक दलित लेखकों का उदय हुआ है, वह इनके सहयोग के बिना कतई मुमकिन नहीं होता। किन्तु, जिस तरह गैर-दलित मिशनरी प्रकाशकों को व्यवसायियों और दूसरे सक्षम लोगों से आर्थिक सहयोग मिलता है, वैसे सौभाग्य से ये वंचित रहते हैं। दुर्बल आर्थिक पृष्ठभूमि के ये प्रकाशक बहुधा खुद की गाढ़ी कमाई व आत्मीय-स्वजनो के आर्थिक सहयोग से प्रकाशन का कठिन कार्य करते रहते हैं। इस काम में उन्हें दलित लेखकों का भी भरपूर सहयोग मिलता है। वे इनसे रॉयल्टी की मांग नहीं करते। किताब छपने के बाद प्रकाशक उन्हें 25-50 प्रतियां भेट कर देते हैं, इसी से वे संतुष्ट हो जाते हैं पर, इनके सामने जो सबसे बड़ी चुनौती मुंह बायें खड़ी रहती है, यह हे पुस्तकों का वितरण।
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वास्तव में, दलित प्रकाशकों की शोचनीय स्थिति के मूल में है पुस्तकों की वितरण व्यवस्था मुख्यधारा के वितरक इनकी किताबों के प्रति एक अस्पृश्यतामूलक भाव रखते हैं, दलित साहित्य के आन्दोलन करने के बावजूद। ऐसे में उनके आकर्षक पुस्तक भंडारों तक इनके पुस्तकों की पहुँच नहीं हो पाती। समस्या यहीं तक नहीं है, केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा जो लाखों-करोड़ों की पुस्तकों की खरीदारी होती है, उसमें इनके लिए अघोषित प्रतिबन्ध है। ऐसे में उन्हें हार-पाछ कर उन दलित वितरकों पर निर्भर रहना पड़ता है जो सामान्यतया पुस्तकों के साथ ही बुद्ध, फुले, डॉ. आंबेडकर, कांशीराम, पेरियार, रविदास, मायावती इत्यादि की तस्वीरें, पंचशील के झंडे वगैरह बेचते रहते हैं। लेखकों और प्रकाशकों की भांति ही मुख्यतः मिशन भाव से अम्बेडकरी आंबेडकरी साहित्य के प्रसार-प्रचार लगे अधिकांश वितरक भी अंशकालिक तौर से इस कार्य में लगे हैं। इनमें गिनती के कुछ लोगों के पास स्थाई दुकाने हैं। दुकाने हैं भी तो सर्व-सुलभ स्थानों पर नहीं हैं। ऐसे में उन्हें लोगों तक पुस्तक पहुंचाने के लिए मुख्यतः बहुजन नायकों की जयंतियों, रैलियों, सम्मेलनों इत्यादि खास अवसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। लेकिन ऐसे अवसर तो रोज-रोज नहीं आते, लिहाजा अधिकांश समय इन्हें हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहना पड़ता है। पुस्तक-वितरण की इस सीमाबद्धता का सीधा असर प्रकाशकों की आय पर पड़ता है। धनाभाव में वे न तो किताबों की बढ़िया डिजायनिंग करवा पाते हैं, न बढ़िया कागज इस्तेमाल कर पाते हैं और न ही कुशल प्रूफ रीडर की सेवाएं ले पाते हैं। इससे पुस्तकों की गुणवत्ता प्रभावित होती है। यह धनाभाव ही उन्हें राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेलों में शिरकत करने से रोकता है। इसलिए ही इन मेलों में उनकी संख्या का सही प्रतिबिम्बन नहीं हो पाता!
बहरहाल, दलित प्रकाशक अपनी दुरावस्था से तबतक नहीं उबर सकते, जबतक उनके लिए मुख्यधारा की पुस्तक सप्लाई के बंद दरवाजे नहीं खुल जाते। भारत के चिरसुविधासंपन्न व विशेषाधिकारयुक्त तबके का विविध वस्तुओं के डीलरशिप-सप्लाई/ठेकों-पार्किंग-परिवहन/ फिल्म- मीडिया, शासन-प्रशासन, पौरोहित्य इत्यादि की भांति ही पुस्तक सप्लाई पर 80-90 प्रतिशत कब्जा है। इस क्षेत्र में अपना एकाधिकार बनाये रखने के लिए उन्होंने ऐसा चक्रव्यहू रच रखा है, जिसे भेद पाना दलित प्रकाशकों के लिए दुष्कर है। इस तुच्छ लेखक के हिसाब से सोशल डाइवर्सिटी (सामाजिक विविधता) के प्रतिविम्बन के जरिये ही पुस्तक सप्लाई के बंद दरवाजे दलितों अर्थात एससी/ एसटी के लिए खोले जा सकते हैं। सोशल डाइवर्सिटी अर्थात विविध समाजों का शक्ति के विविध स्रोतों-आर्थिक, राजनीतिक और धामिक में संख्यानुपात में भागीदारी। पुस्तक सप्ताई में यह सिद्धांत लागू होने पर एससी/ एसटी प्रकाशकों को बाध्यतामूलक रूप से केंद्र और राज्य सरकारों की पुस्तकों खरीदारी की कुल अनुमोदित राशि में 22.5 प्रतिशत की पुस्तकें सप्लाई का अवसर मिलेगा। दलितों के प्रकाशन उद्योग सहित उद्यमिता के दूसरे क्षेत्रों में शोचनीय स्थिति का मुख्य कारण सुनिश्चित मार्केट का अभाव है। यदि यह तय हो जाए कि उनके द्वारा तैयार उत्पाद एक निश्चित मात्रा में खरीदें जायेंगे तब वे भी विभिन्न वस्तुओं का प्रोडक्शन करने के लिए सामने आएंगे। इस जरूरत को ध्यान में रखते हुए सरकारें कुछ सकारात्मक कदम उठाने लगी हैं। 2009 में उत्तर-प्रदेश सभी प्रकार के सरकारी ठेकों में दलितों के लिए 23 प्रतिशत आरक्षण लागू होने हे बाद 2011 में ही केन्द्र सरकार द्वारा सरकारी खरीद में 4 प्रतिशत (लगभग 7000 करोड़) आरक्षण देने जैसी घोषणाओं का लक्ष्य, उनको सुनिश्चित मार्केट सुलभ कराना ही रहा है। आज सप्लाई, ठेकों इत्यादि में डाइवर्सिटी लागू होने का मामला काफी आगे बढ़ चुका है। हाल के वर्षों में कई राज्यों की सरकारों ने अपने-अपने राज्य के कुछ विभागों के ठेकों, आउटसोर्सिंग जॉब, सप्लाई, निगमों, बोर्डों, सोसाइटियों में धार्मिक न्यासों, पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि में डाइवर्सिटी लागू कर राष्ट्र को चौकाया है। इस मामले में झारखण्ड के हेमंत सोरेन और तमिलनाडु के एमके स्टालिन ने खास दृष्टान्त स्थापित किया है। हेमंत सोरेन ने जहाँ झारखण्ड में पीडब्ल्यूडी के 26 करोड़ तक के ठेकों में आरक्षण दिया है, वहीं एमके स्टालिन ने अपने राज्य के 36,000 मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को आरक्षण देकर सोशल और जेंडर डाइवर्सिटी लागू करने का उज्जवल मिसाल कायम किया है।
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यदि इनका अनुसरण करते हुए सभी सरकारें पुस्तकों की खरीदारी में दलितों के लिए 22.5 प्रतिशत सप्लाई सुनिश्चित कर दें तो दलित प्रकाशन उद्योग में एक क्रांति घटित हो जायेगी। फिर तो दलित प्रकाशक भी उम्दा दलित साहित्य के साथ-साथ बाल-साहित्य, स्त्री विमर्श, विज्ञान, चिकित्सा, कंप्यूटर, प्रोद्योगिकी, पर्यावरण से जुड़ी स्तरीय किताबें छापने लगेंगे।
पुस्तक सप्लाई में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिविम्बन न सिर्फ दलित-प्रकाशन का बल्कि भारत के पुस्तक-जगत की ही शक्ल बदल कर रख देगा। जिस तरह किसी बगीचे की खूबसूरती तरह-तरह के फूलों की मौजूदगी में होती है उसी तरह पुस्तकों के दुनिया की खूबसूरती यथास्थितवादी नहीं, समाज परिवर्तनकारी विविध विचारों की पुस्तकों में निहित होती है। वर्तमान पुस्तक वितरण प्रणाली वैचारिक विविधता के लिए निहायत ही दोषपूर्ण है। इसमें विविधता नीति लागू होने पर दलितों के साथ दूसरे वंचित समुदायों और महिलाओं की प्रकाशन व्यवसाय में भागीदारी बढ़ेगी। इससे शर्तियाँ तौर पर पुस्तक जगत के चमन में तरह-तरह के विचारों के फूलों के खिलने का आधार मिलेगा।
शेष में! इंजी. ललन पासवान और संजीव चंदन ने साहित्य संस्थानों और पुस्तक वितरण इत्यादि में डाइवर्सिटी लागू करवाने की जो मुहीम छेड़ी है, वह तभी कामयाब हो सकती जब बहुजन लेखक भी डाइवर्सिटी की हिमायत में युद्ध स्तर पर कलम चलाना शुरू करें! ठेकों, सप्लाई, आउटसोर्सिंग जॉब, धार्मिक न्यासों और पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि में लागू डाइवर्सिटी से आश्वस्त हुआ जा सकता है कि बहुजन लेखक यदि पुस्तक सप्लाई के साथ कला-साहित्य संसथानों में डाइवर्सिटी की मांग उठाना शुरू करें तो उनका प्रयास व्यर्थ नहीं जायेगा! ऐसे में वर्षों से डाइवर्सिटी पर चुप्पी साधने वाले बहुजन लेखक क्या इस पर कलम चलने का मन बनायेंगे!
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