गाँव का नाम बदल गया है लेकिन हालात उतने ही बुरे हैं
अपने दरवाजे पर झाड़ू लगाती हुई बच्ची दिखी। फोटो लेने पर सकुचा गई लेकिन बुलाने पर पास आई और अपना नाम मुन्नी बताया। पूरे गाँव में अनेक किशोरियाँ मिलीं। सभी आज के फैशन के हिसाब से तैयार मिलीं, लेकिन किसी के पास कोई काम नहीं था। एक मुन्नी ही मिली जिसने बताया कि वह सिलाई कर पैसे अर्जित करती है। मैंने पूछा कितना मिला जाता है रोज़? तो उसने स्वाभिमान से कहा - 'रोज़ 50 से 100 रुपया कमा लेती हूं। मैं उसके साथ उसकी एक कमरे के झोपड़ी में पहुंची जहाँ मशीन थी लेकिन अंधेरा था। मैंने लाइट जलाने के लिए कहा तो उसने कहा लाइट नहीं है।
गोंडा। ‘हम लोगों ने पचीस साल से ब्राह्मणों के जबड़े में पड़ी प्रधानी खींचकर निकाल ली और इनको प्रधान बनाया लेकिन अब ये हमारी ही बात नहीं सुनते। जो दुश्मन थे वे दोस्त हो गए और हम तो उनकी निगाह में कुछ हैं ही नहीं।’ पूर्वी अवधी में यह तकलीफ फेरी लगाकर कपड़े बेचने वाले लक्ष्मण प्रसाद ने व्यक्त की। वे गोंडा जिले के इटियाथोक ब्लॉक के महाराजगंज इलाके में अपना काम करते हैं और दिन भर गाँव-गाँव घूमकर कपड़े बेचते हैं। उनके इस गाँव का नाम भीमनगर है जो रामनगर झिन्ना का एक पुरवा है। छः महीने पहले इस पुरवे का नाम खटिकवन पुरवा था। एक लंबी प्रक्रिया के बाद नाम बदल गया। इसमें अनुसूचित जाति के पचास खटिक परिवार रहते हैं। इनकी कुल आबादी साढ़े तीन सौ है। इनके अलावा यहाँ पचास-पचपन कुर्मी परिवार रहते हैं जो दूसरे छोर पर बसे हैं।
कल शाम को हम इसी गाँव में आयोजित शिवदयाल चौरसिया की जयंती कार्यक्रम में आए थे। कार्यक्रम के संचालक सुखराम चौरसिया, जिनकी भूमिका नाम बदलने में बहुत महत्वपूर्ण रही है, ने बताया कि ‘खटिकवन पुरवा अपमानजनक नाम था। हमने उसे बदल दिया। अब वह बाबा साहब के नाम पर हो गया है।’ शाम के झुटपुटे में लोगों की बढ़ती जा रही थी है डीजे पर डॉ अंबेडकर के जीवनचरित पर संजू बघेल का आल्हा चल रहा। पंडाल में जगह-जगह बहुजन नेताओं की तस्वीरें थीं। कई स्त्रियाँ उन्हें नमन करतीं और कार्यक्रम में बैठ जातीं। एक खुशनुमा माहौल में लगता था यह वास्तव में एक आदर्श गाँव है।
लेकिन आज दिन के उजाले में इसे देखना एक दर्दनाक अनुभव है। प्लास्टिक के तिरपाल से ढकी सरपत की झोंपड़ियों से अंदाज करना मुश्किल नहीं है कि ये लोग इतना कभी नहीं कमा पाते कि पक्के घर का सपना देख सकें। झोंपड़ियाँ होने के कारण इनके पास वह इज्जतघर भी नहीं है जिसे भारत के हर नागरिक को देने का सरकार दावा करती है। झोपड़ी के पास ही खोदे गए गड्ढे में महिलायें नहाने और बर्तन धोने का पानी बहाती हैं लेकिन इस पानी को बहाने के लिए कोई भी नाली नहीं है।
गाँव में हमारे घुसते ही आस-पड़ोस की महिलाएं पास आ गईं। उन लोगों ने हमें पहचान लिया और कहा कि कल बाबू शिवदयाल चौरसिया की जयंती कार्यक्रम में आप लोगों को देखा था। हमने कहा कल रात को आये थे और आप लोगों से मुलाक़ात नहीं हो पाई थी साथ ही बातचीत भी नहीं कर पाए थे इसलिए आज दिन में आये हैं। इतना सुनकर दो लोग कुर्सी लेने दौड़ गए और दो लोग पानी ले आये। सोनकर और कुर्मी बहुल इस गाँव में काश्तकार कुर्मी हैं जिनके पास ज़मीनें हैं लेकिन सोनकरों के पास अपनी झोंपड़ियों के अलावा कोई भी जमीन नहीं है। रोजगार के नाम पर उनके पास दूसरे के खेतों में मजदूरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
अभी गन्ना कटाई का काम चल रहा है जो मार्च और छिटपुट अप्रेल तक चलेगा। इस बीच में गेहूं की कटाई शुरू होगी। इसी तरह सब्जियों और धान का भी मौसम आएगा लेकिन खेती में कई तरह के बदलाव आए हैं और मशीनों का प्रयोग बढ़ा है, लिहाज़ा लोगों के पास अधिक काम नहीं है। इसलिए गरीबी मुसलसल बनी हुई है। खाने के लिए पर्याप्त अनाज नहीं मिलता और बाजार से खरीदना उनकी कूवत से बाहर है।
सुविधाओं के नाम पर क्या है
आमतौर माना जाने लगा है कि गरीब मुफ़्त का अनाज पाकर अपने में मगन है। सत्ताधारी पार्टी ने इसे अपने स्थायित्व का औजार बनाया है तो विपक्ष ने भी इसे कम विकृत नहीं किया है। मुफ़्त के अनाज के मिथक में लोगों की हृदयविदारक ज़िंदगियों की सच्चाई छिप गई है और राज्य बड़ी आसानी अपनी जिम्मेदारियों से भाग खड़ा हुआ है। केवल दाँत पीसने और होंठ भींचने की मुद्रा बनाने से जनता का भला नहीं हो सकता और न ही विश्वगुरु बनने का झाँसा देने के लिए लगातार गाल बजाने से देश चलाया जा सकता है। इन सबके पीछे क्या चल रहा है इसे गाँव-गाँव में जाकर ही समझा जा सकता है।
जिन परिवारों के सामने राशन लेने की मजबूरी है उनका ही लाभ उठाकर कोटेदार उनके अनाज में से काफी हिस्सा सरेआम हड़प लेता है। यह किसी एक गाँव की सच्चाई नहीं है बल्कि भारत के सभी गांवों में यह हो रहा है और चूंकि सरेआम हो रहा है और कोटेदार निर्द्वंद्व हैं इसलिए इस बात से कौन समझदार इनकार कर सकता है कि इससे कोई भी सत्ता-तंत्र अनभिज्ञ होगा? भीमनगर की महिलाओं से बात शुरू हुई तो वहाँ उपस्थित सभी महिलाओं ने एक स्वर में बताया कि हमारी आर्थिक स्थिति एक जैसी है लेकिन किसी के पास सफ़ेद और किसी के पास लाल राशन कार्ड है। इस वजह से मिलने वाले अनाज की मात्रा भी अलग-अलग तय है।
अनीता, लक्ष्मी, राजित राम आदि लोगों ने बताया कि लाभार्थी को हर महीने मिलने वाले राशन में से कभी दो किलो तो कभी तीन किलो कम राशन देता है। हमने कई लोगों के कार्ड देखे। कार्डों पर परिवार के विवरण दर्ज थे लेकिन किसी अन्य प्रकार की इंट्री नहीं है। उन लोगों ने बताया कि कोटेदार नानबाबू शुक्ला हैं जिनके पास कई पीढ़ियों से कोटेदारी है। इसलिए वे अपनी मनमानी करते रहे हैं। उन्हें कोई डर नहीं है जबकि राशन पानेवाला डरता है।
महिलाएं कहती हैं कि यदि शिकायत कर दिए तो हमारा पूरा राशन बंद कर दिया जायेगा और गाँव में मिलने वाली मजदूरी भी नहीं मिलेगी। इस वजह से राशन कम मिलने पर भी हम लोग एकजुट हो विरोध दर्ज नहीं करते हैं। कई लोगों के परिवारों में राशन कार्ड पर सभी का नाम नहीं है। प्रेमा ने बताया कि उनका राशन कार्ड तो बना हुआ है लेकिन राशन नहीं मिलता। पूछने पर उन्होंने बताया कि कोटेदार कहता है कि ‘आपका नाम राशन-दुकान से कट चुका है जबकि आज से पांच साल पहले तक मुझे राशन मिलता था। अब कई बार प्रधान और कोटेदार से कह चुकी हूं लेकिन आज तक कुछ नहीं हुआ। मजदूरी से गुजारा करना बहुत मुश्किल है।’
कहने पर अनेक लोगों ने अपना राशन कार्ड लाकर दिखाया जिसमें किसी के भी कार्ड पर विवरण में कोई जानकारी नहीं लिखी गई थी जबकि कार्ड पर दिनांक, मात्रा, अनाज और कोटेदार के हस्ताक्षर का कॉलम होता है। पूछने पर लोगों ने बताया कि वहां जाने पर आधारकार्ड से जुड़ी मशीन पर अंगूठा लगवाकर राशन देने के बाद एक रजिस्टर पर भी अंगूठा लगवा लेते हैं। उस पर क्या लिखा होता है हमें नहीं पता चलता कार्ड में एंट्री करते नहीं। कुछ ज्यादा पूछताछ करने पर नाराजगी दिखाते हुए कोटेदार कहता है कि ‘तुम अकेले नहीं हो तुम्हारे पीछे और भी लोग हैं उन्हें भी देना है। चलो भागो यहाँ से। हम डरकर वापस चले आते हैं, फिर कभी दुबारा पूछने की हिम्मत नहीं होती कि कहीं पूरा राशन भी बंद न हो जाए। हमें खुद वापस आने की जल्दी रहती है क्योंकि घर आकर खाना बनाना होता है और फिर मजदूरी करने जाते हैं, देर से पहुँचने पर मालिक भी कम पैसा देता है या उस दिन काम करने से मना कर देता है। हर कहीं से हम गरीबों पर ही मार पडती है।’
सबके घरों में शौचालय है या बाहर जाना पड़ता है? पूछने पर दो-तीन लोगों ने बताया कि उनके घर शौचालय के लिए बारह हजार मिला था लेकिन उसमें से छः हजार प्रधान ने ले लिए। उस समय ग्राम प्रधान भोला पांडे थे। जिन लोगों को आधा पैसा मिल पाया उन्होंने कुछ पैसा और मिलाकर शौचालय बनवाया, लेकिन आज तक उसे बड़े से पत्थर से ढँक कर रखे हैं। बहुत कम ही उसका उपयोग होता है, सभी बाहर ही जाते हैं? कारण पूछने पर बताया कि एक तो उसका गड्ढा बहुत कम गहरा है इसलिए डर है कि ज्यादा उपयोग करने पर गन्दगी कहीं बाहर न आ जाये। कुछ लोगों ने पैसा लेकर दूसरे काम में खर्च कर दिया और कुछ को नहीं मिला। ज्यादातर झोंपड़ियों के पास कोई शौचालय नहीं है। सभी लोगों ने बताया कि प्रधान की तरफ से एक सार्वजनिक शौचालय का निर्माण हुआ है लेकिन वहां हमेशा ताला लगा रहता है। जब भी बच्चे या महिला वहां शौच के लिए जाते हैं तो उसका केयर टेकर उन्हें भगा देता है।
अभी महिलाएं यह बात कह ही रही थीं कि तभी एक आदमी जोर-जोर से चिल्लाने लगा और कहने लगा कि झूठ बोल रही हैं ये सब। महिलाएं भी तुर्शी-ब-तुर्शी कहने लगीं कि क्या जब मेरा बेटा गया था तो उसको नहीं भगाया था। कब खुलता है ताला? कोई भी एक इंच दबने को तैयार न था लेकिन थोड़ी देर में उस आदमी को दबना पड़ा। फिर वह धमकाते हुए वहाँ से जाने लगा लेकिन महिलाएं मोर्चा छोड़ने को तैयार न थीं।
पता लगा वह शौचालय के केयर टेकर अयोध्या प्रसाद सोनकर हैं। उनका कहना था कि प्रधान के आदेशानुसार सुबह 4 बजे से आठ बजे तक और शाम 5 बजे से 8 बजे तक ताला खोलते हैं। क्या हम दिनभर खोलकर बैठेंगे? लेकिन गाँव वालों ने बताया कि जब जब वहां गए हमेशा ही ताला लटकता मिला। उनकी पत्नी कहती हैं कि यहाँ नहीं खेत में जाओ फ़ारिग होने। अब हम लोग वहाँ जाते ही नहीं, खेत में ही जाते हैं।
केयर टेकर की पत्नी अनोखा बाई ने बताया कि यहाँ कोई आता ही नहीं। ऐसे में क्या सबको पकड़-पकड़ कर लाएंगे। टाइम टाइम से खुलता है। अब ऐसे कोई कहे कि दोपहर में ताला बंद रहता है तब तो सही नहीं है। लेकिन उन्हें शायद अनुभव नहीं है प्राकृतिक बुलावा कभी भी आ सकता है, इसके लिए कोई समय तय नहीं होता।
आप लोग देखरेख करते हैं, साफ सफाई करते हैं, आपको कितना वेतन मिलता है? यह पूछने पर उन्होंने कहा कि छः हजार रुपए प्रधान के खाते में आता है लेकिन हमें वे चार हजार रुपए ही देती हैं. इस समय इस गाँव की प्रधान सुशील देवी पत्नी बच्चा राम वर्मा हैं जिनके बारे में शुरू में ही लक्ष्मण प्रसाद ने टिप्पणी की थी। प्रधान का सारा काम प्रधानपति ही देखते हैं। वह सरकारी कर्मचारी भी हैं जबकि सुशील देवी खेती-किसानी करती हैं।
पानी की व्यवस्था के बारे में पूछने पर लोगों ने बताया कि न तो यहाँ पोखर है न नल। तीन सरकारी हैंडपम्प लगे हैं जिनमें से एक ख़राब पड़ा है और दो में से एक शौचालय के केयर टेकर के घर के पास है तो वे लोग पानी लेने से मना करते हैं। प्रेमा कहती हैं-‘अपन अपन मेहनत मजूरी कर नल गड़ाए हैं त पानी पियत हैं और बच्चन के जियावत हैं। बिना नल के बहुत परेशानी होती थी। तब सभी ने अपना पैसा खर्च कर नलका लगवाया है। इसके लिए हर घर से 2500 से 3000 प्रति नल पर खर्च हुआ। जबकि सरकार का दावा है कि 2024 तक जल जीवन मिशन के अंतर्गत ग्रामीण इलाकों में पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध करवाना है। महिलाओं ने बताया कि नल लग गया लेकिन पानी निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है। नाली भी नहीं है कि पानी निकल सके। नल के पास ही गड्ढा खोद दिए हैं और वहीं सारा गन्दा पानी इकठ्ठा होता है। मच्छर और दूसरे कीड़े पैदा होते हैं। बदबू से बुरा हाल होता है। नल की गहराई ज्यादा नहीं है तो उसमें से आने वाला पानी भी साफ नहीं आता, लेकिन मज़बूरी है। अनेक घरों में जाकर मैंने देखा तो सच में स्थिति बहुत ख़राब है। जब गड्ढा भर जाता है तो उसका पानी सड़क और गलियों में बहता है जहाँ से चलना मुश्किल हो जाता है।
हम वापस चलने को तैयार ही थे कि हाथ में पंसुल और हंसिया हाथ लिए हुए आती हुई एक महिला दिखाई दी। उसने पास आकर कहा ‘हमरे घर भी चला..’ उन्हें लगा कि हम किसी सरकारी विभाग से आये हुए हैं और किसी योजना के तहत कोई सुविधा देने आये है। मैंने अपना परिचय दिया। उन्होंने अपना नाम जगरानी बताया। ‘कहाँ से आ रही हैं?’ पूछने पर बताया ‘मजूरी करे गए रहन.. गन्ना छीले बदे।’ मैंने पूछा कहाँ तो कहा ‘हमरे खेत तो हइये नाहीं। पुत्ती के खेत में गए रहन।’ कितना मिलता है? 100 रुपए रोज़ के मजूरी मिलत बा। 12 बजे जाते हैं और 5-6 बजे आते हैं।’ मैंने पूछा ‘आज की मजूरी मिली?’ तब उन्होंने उदास आवाज में कहा-‘ कहाँ मिलल. कबहुँ-कबहुँ देत बा। नाहीं तो 5-6दिन में मिलत बा। ओम्मे का होई।लड़किन बच्चन के लिए पूरा नहीं पड़ता।’ उन्होंने यह भी बताया कि जब खेतों में काम नहीं होता है तब कहीं और मजदूरी कर लेते हैं। बाकी दिन बेकार बैठे रहते हैं।
वहीं अपने दरवाजे पर झाड़ू लगाती हुई बच्ची दिखी। फोटो लेने पर सकुचा गई लेकिन बुलाने पर पास आई और अपना नाम मुन्नी बताया। पूरे गाँव में अनेक किशोरियाँ मिलीं। सभी आज के फैशन के हिसाब से तैयार मिलीं, लेकिन किसी के पास कोई काम नहीं था। एक मुन्नी ही मिली जिसने बताया कि वह सिलाई कर पैसे अर्जित करती है। मैंने पूछा कितना मिला जाता है रोज़? तो उसने स्वाभिमान से कहा – ‘रोज़ 50 से 100 रुपया कमा लेती हूं। मैं उसके साथ उसकी एक कमरे के झोपड़ी में पहुंची जहाँ मशीन थी लेकिन अंधेरा था। मैंने लाइट जलाने के लिए कहा तो उसने कहा लाइट नहीं है। सिलाई घर से बाहर बैठकर करती हूं।
यह उस गाँव का दृश्य हैं जहां विचारों में न्याय के लिए आग है लेकिन हालात इतने खराब हैं कि हर कहीं अभाव और तकलीफों का साम्राज्य है। उत्साह से जय भीम का सम्बोधन करनेवाली ये औरतें किसी भी बदलाव के लिए एक बड़ी ताकत हैं लेकिन राज्य उन्हें अन्न का बंधुआ बनाता है तो भूस्वामी और दबंग कोटेदार भी इनकी आवाज दबा देने में पीछे नहीं हैं। हालांकि जब हम चल रहे थे तब हाथ हिलाते हुए महिलाओं ने कहा ‘हमारी बात जरूर लिखिएगा मैडम। हम लोग काम करना चाहती हैं लेकिन हमें काम नहीं मिलता है। हमारी ज़िंदगी तो आप देख ही रही हैं!’
बेहतरीन रिपोर्टिग
[…] […]
[…] […]
[…] […]
बहुत अच्छी रिपोर्ट… कमोबेश हर गाँव की कथा….