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सामाजिक न्याय के बगैर दूर का सपना है महिला सशक्तीकरण

आज पूरे देश में महिला सशक्तिकरण की बात की जा रही है। इसे लेकर बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ का आज नारा भी उछाला जा रहा है। प्रश्न यह है कि क्या सामाजिक न्याय के बगैर महिला सशक्तिकरण संभव है ? प्रश्न यह भी है कि बेटियां पढ़कर शिक्षित हो जाएं, तो क्या वो सशक्त बन […]

आज पूरे देश में महिला सशक्तिकरण की बात की जा रही है। इसे लेकर बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ का आज नारा भी उछाला जा रहा है। प्रश्न यह है कि क्या सामाजिक न्याय के बगैर महिला सशक्तिकरण संभव है ? प्रश्न यह भी है कि बेटियां पढ़कर शिक्षित हो जाएं, तो क्या वो सशक्त बन जाएंगी ? प्रश्न तो यह भी उठता है कि आध्यात्मिक दृष्टि से विश्व गुरू कहे जाने वाले देश में आज बेटी बचाओ नारे की जरूरत क्यों पड़ गई ? दुर्गा सप्तशती का एक मंत्र है- या देवि सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता…। कैसी विडंबना है कि नारी को शक्ति की अधिष्ठात्री के रूप में पूजने वाले देश में भी महिला सशक्तिकरण और बेटी बचाओ आंदोलन की जरूरत महसूस की जा रही है। सच तो यही है कि सिर्फ बातें ही की जा रही हैं। ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। मेरा मानना है कि बगैर सामाजिक न्याय की अवधारणा को साकार किए बिना महिला सशक्तिकरण संभव ही नहीं है। सामाजिक न्याय की जरूरत महिलाओं को ज्यादा है, क्योंकि वही सर्वाधिक सामाजिक अन्याय की शिकार हैं, पीड़िता हैं। इसीलिए सामाजिक न्याय के पक्ष में  महिलाओं को मुखर और संघर्षशील होना जरूरी है।

गौरतलब है कि जब हम सामाजिक न्याय की बात करते हैं, तो हमारा आशय सामाजिक समानता और लोकतांत्रिक अधिकारों से है, क्योंकि भारतीय समाज में महिलाएं आज भी दोयम दर्जे की नागरिक बनी हुई हैं। बिहार में सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था में आरक्षण की सुविधा मुहैया करायी है। फलस्वरूप बड़ी संख्या में महिलाएं मुखिया, सरपंच, प्रखंड प्रमुख, जिला पार्षद के पद पर निर्वाचित हुई हैं, लेकिन वह एक रबर की मुहर की भूमिका निभा रही हैं। उनके सारे अधिकार और दायित्वों का निर्वहन उनके पतिदेव- गण कर रहे हैं। राजनीति के क्षेत्र में कदम रखने वाली महिलाओं के अलावा सामाजिक संस्थाओं- संगठनों से जुड़ी औरतों के प्रति घटिया सोच पुरुषों में देखने को मिलती है। आमतौर से महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं के चरित्र को संदेह की नज़र से देखा जाता है। इसकी वजह स्त्री के प्रति भोगवादी दृष्टि है। पुरुषों की दृष्टि में औरत उपभोग की वस्तु है। सेवा करने वाली दासी है। स्त्री से उसके मनुष्य होने का गौरव छीन लिया गया है। यह और बात है कि हम यदा-कदा विभिन्न सामाजिक समारोहों में मातृ रूपेण, शक्ति रूपेण, देवी रूपेण आदि विशेषण से नारियों को नवाज देते हैं।

[bs-quote quote=”दुर्गा सप्तशती का एक मंत्र है- या देवि सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता…। कैसी विडंबना है कि नारी को शक्ति की अधिष्ठात्री के रूप में पूजने वाले देश में भी महिला सशक्तिकरण और बेटी बचाओ आंदोलन की जरूरत महसूस की जा रही है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आज विज्ञापनों में स्त्री के शारीरिक  सौंदर्य को उपभोक्ता दृष्टिकोण से परोसा जा रहा है। यह पूरी औरत जाति के लिए गाली और अपमान नहीं है, तो और क्या है? क्या इससे हमारे समाज का मनोविज्ञान उजागर नहीं हो रहा है ? बेशक, इसके लिए वो स्त्रियां दोषी हैं, जो चंद रुपए के लिए अपनी रूप-राशि और दैहिक सौंदर्य की मांसलता को स्वादिष्ट व्यंजन की तरह परोस रही हैं। अर्थ संस्कृति में पले हमसब धन लोलुपता के कारण क्या कुछ नहीं करने को तैयार नहीं हैं। बस एवज में ऐश्वर्य प्रदान करने वाली वस्तुएं चाहिए। किसी जर्मन दार्शनिक ने ठीक ही कहा है कि महाजनी सभ्यता मनुष्य के श्रम, कला- कौशल, प्रतिभा, सौंदर्य यानी हर चीज को बिकाऊ बना देती है।

[bs-quote quote=”सामाजिक न्याय की बात करने वालों को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का विरोध होना चाहिए,  जो स्त्री को गुलाम, दासी और दोयम दर्जे का नागरिक बनाता है। स्त्री समुदाय का विरोध पुरूष जाति से नहीं होना चाहिए, क्योंकि स्त्री और पुरूष तो एक- दूसरे के पूरक हैं। दोनों को एक- दूसरे की सख्त जरूरत है। दोनों का अस्तित्व द्वंद्वात्मक है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लोकतांत्रिक अधिकारों में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व शामिल है। यहां विचारणीय है कि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का मामला सिर्फ राजनीतिक और आर्थिक नहीं है। इसका सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ भी है। इन तीनों मुद्दों पर शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति- रीति अपनाकर ही उसे सही मायने में साकार कर सकते हैं। कुछ लोग सवाल कर सकते हैं कि स्वतंत्रता का मायने क्या है ? यह सवाल करने वालों को मैं बताना चाहता हूं कि स्त्री और पुरूष एक रथ के दो पहिये के समान हैं। औरतें भी मनुष्य हैं और प्रकृति की दृष्टि से करुणा, स्नेह, ममता, दया आदि मानवीय गुणों में औसत स्त्री औसत पुरुषों से श्रेष्ठतर है। उनके पास भी दिल है, बुद्धि है, विवेक है। उनको भी मान- सम्मान से जीने का हक है। उनको  अपने तरीके से जीने दें। लेकिन, दरअसल पितृसत्तात्मक समाज ने ऐसे संस्कार भर दिए हैं कि स्त्रियां खुद को दीन-हीन और दासी समझती हैं। पुरूष खुद को श्रेष्ठ और मालिक मान बैठा है। यह पितृ सत्तात्मक समाज की देन है कि वेद मंत्रों की रचना करने वाली ऋषि उर्वशी की छवि कालांतर में देवताओं के राजा इंद्र के दरबार की एक नर्तकी की गढ़ दी जाती है। याज्ञवल्क्य बौद्धिक विमर्श में गार्गी को धमकी देकर चुप कराते हैं। सामाजिक न्याय की बात करने वालों को यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का विरोध होना चाहिए,  जो स्त्री को गुलाम, दासी और दोयम दर्जे का नागरिक बनाता है। स्त्री समुदाय का विरोध पुरूष जाति से नहीं होना चाहिए, क्योंकि स्त्री और पुरूष तो एक- दूसरे के पूरक हैं। दोनों को एक- दूसरे की सख्त जरूरत है। दोनों का अस्तित्व द्वंद्वात्मक है। दोनों के बगैर न तो मानव समाज की कल्पना की जा सकती है और न घर- परिवार की।

आज उच्च शिक्षा प्राप्त करके बड़ी तादाद में महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय हैं। वरीय प्रशासनिक अधिकारी भी हैं। आर्थिक रूप से स्वालंबी और सम्पन्न भी हैं। फिर भी वो शोषण, दोहन और उत्पीड़न की शिकार हो रही हैं। इसलिए यह सोचना कि बेटियां पढ़ें और स्वावलंबी बनें। यह काफी नहीं है। हमें सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य बदलने होंगे। व्यवस्था और मनोविज्ञान भी बदलना जरूरी है। सामंती समाज ने महिलाओं को दासी बनाया, तो महाजनी सभ्यता ने उसे बाजार की वस्तु बना दिया है। इसीलिए नारी मुक्ति के लिए इन दोनों व्यवस्था का विरोध और समता मूलक समाज की स्थापना करना जरूरी है। इसके बगैर स्त्री सही मायने में आजाद नहीं हो सकती है। उसे मनुष्य रूप में जीने के समुचित अवसर नहीं मिल सकेंगे। अंत में, इस संदर्भ में अपनी एक कविता पेश करना चाहूंगा, जो औरतों की स्थिति और उनकी आजादी पर केंद्रित है।

 

औरत की आजादी

औरत की देह

संप्रभुता विहीन एक देश है

राजनीति शास्त्र के शब्दों में

एक उपनिवेश है

जो सदियों से करती है ये उद्घोष

मोरी देहिया बलम की जमींदारी रे

काहे डारे नजर दुनिया सारी रे

 

औरत का रूप सौंदर्य, कोमल काया

किसी के लिए भोग विलास की वस्तु

तो किसी के लिए महाठगिनी माया

वो भोग और योग के चक्रव्यूह में फंसी है

मेनका और दुर्गा की परिभाषा में बंधी है

इसलिए औरत की आजादी का अर्थ

उसकी देह की संप्रभुता है

 

औरत की देह

हुस्न की तहजीब है

और आग का इक दरिया भी

जिसमें डूब जाती है

रिश्तों की कश्ती

तैरती है सिर्फ इश्क की नाव

 

औरत की देह

इश्क की दरगाह है

जहां खामोशी से कोई दरवेश

महबूब को देता है आवाज

बिना हरफों की अदा करता है नमाज

बिना शब्दों की करता है प्रार्थना

बिना किसी ख्वाहिश की करता है दुआ

 

औरत की देह

इश्क में बन जाती है

पाक कुरान की आयतें

वेद की पवित्र ऋचाएं

सच्चे हिन्दू के लिए काशी

सच्चे मुसलमान के लिए काबा

मगर मन तो व्यापारी है

तन का कारोबारी है

सुख का सौदागर है

उसके लिए देह और दुनिया एक मंडी है

इसलिए औरत की आजादी का मतलब

महाजनी चेतना से मुक्ति है

कुमार बिन्दु हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि और पत्रकार हैं। डेहरी ऑन सोन में रहते हैं ।

गाँव के लोग
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