एक
भला सड़कें भी जाती हैं कहीं
रोज दीखती हैं वहीं की वहीं
पर कभी तो चलती होंगी,
कहीं तो जाती होंगी
तभी तो पहुंचाती हैं लोगों को !
दो
अपने गाँव जाने वाली सड़क पर अरसे बाद
मैं भी चला जा रहा था मगन-मन
पूरे देश की तरह बिहार में भी पसर रहा था नई सड़कों का जाल
नई तकनीक, नई सूचनाओं का संजाल
और बन गए थे दोनों जंजाल, सबके या किसके लिए, पता नहीं
नई सड़कें, नई तकनीक, साफ-सुथरी, चौड़ी, शानदार
हाई मास्ट, और नियोन रोशनियों से सजीं, चमकदार
रचती एक अलग-सा परिवेश
तीन
जैसे कोई निकले पुरानी प्रेमिका से मिलने
मन चाहता था करना स्थापित वही पुरानी पहचान
अपनी अत्यंत प्रिय रही जगहों और ठीहों से
जो हो गए थे कुछ गुमशुदा कुछ धुंधले से नए परिवेश में
ठीक वैसे ही, जैसे हो जाती हैं पुरानी प्रेमिकाएँ
चार
मुझे नहीं थी कोई जल्दी
धीरे-धीरे तैरता यादों की आई बाढ़ में
चाहता था पहुँचना अपने गाँव
बाधक थी तो बस वाहन की तेज चाल
पहचान कर कोई मंदिर या बाजार
जब तक बोलूँ रोको-रोको
गाड़ी कर गई होती एक किलोमीटर पार !
पाँच
उकसा रही थीं नई सड़कें चालक को इस कदर
कि आराम से गाड़ी चलाने के मेरे अनुरोध, रह जा रहे थे अनसुने
संकट में सूझी नई चाल,
गो नहीं थी भूख जरा भी
रास्ते में रुक चाय पीने का सुझाव दिया
शरीर की जरूरत जहाँ भूख होती है
वहीं खाने का लालच, जीभ की ऐय्याशी
ऐय्याशी ने जगाई चाह बढ़िया बने लिट्टी-चोखे की
जिसका मिलना नहीं थी कोई बड़ी बात
छः
गाँव के मेनू कार्ड में मेरी पसन्दीदा चीजें थीं
चने का होरहा, गेहूँ की उमी, ईख का गुल्ला, बाजरे का सुरका
मकई का पकौड़ा, जोन्हरी की मुका-मुकी से भी ऊपर
लिट्टी-चोखा, दूर-दूर तक मशहूर
एक पौष्टिक, स्वाद में लाजवाब और सहज आहार
एक समस्या अवश्य थी
पकाने का तरीका जितना सहज, उतना ही कठिन उसे साधना
कोई मजाक नहीं स्वादिष्ट लिट्टी-चोखा बनाना!
सात
दिल्ली में इसका लालच कहाँ-कहाँ नहीं खींच ले गया
कभी इस प्रदर्शनी में, तो कभी उस मेले में
कभी जमुना पार तो, कभी जनकपुरी
‘शायद इस बार ठीक बनी हो’ की उम्मीद खींच ले गई
बिहार भवन के शानदार रेंस्तरा ‘पॉट-बेली’ में कितनी बार
पर कैसे बन सकता है स्तरीय लिट्टी-चोखा, गोइठे1 के बिना
हर जगह, हर बार ‘आस निरास भई सजनी’
आठ
यूँ तो शाम को शानदार आयोजन था
लिट्टी-चोखे के भोज का गाँव में
पहले से ही नेवते जा चुके थे लोग
परन्तु लालच तो लालच, कौन रुके शाम तक
थोड़ी-थोड़ी देर में आने वाले चौक बाजार में
चालक स्वयं ही गाड़ी रोक रहा था
रफ्तार धीमी होने से अब
बदले परिवेश के बावजूद जगहें पहचान में आने लगीं थीं
दूर से ही सही
जन्नत की हकीकत का कुछ-कुछ अंदाजा भी लगा पा रहा था
नौ
गाँव दूर नहीं था
एक अच्छी दीखती दुकान पर रुके
चाय-वाय ठीक थी पर लिट्टी-चोखा तो माशा-अल्ला
दिल्ली याद आ गई
आशंका भी हुई कहीं यहाँ भी
कहीं गाँव के लोग भी भूल मत गए हों स्वादिष्ट लिट्टी-चोखा बनाना
आशंकित मन गाड़ी में बैठा
चालक फिर से फँसा तेज रफ्तार के जाल में
और मैं खोया विचारों के जंजाल में
दस
तेज गति का दुर्निवार आकर्षण
सबको पीछे छोड़ आगे निकल जाने की चूहा-दौड़
जीतकर भी जिसे रह जाते हैं हम चूहे के चूहे ही
भरमाने वाले अंधे मोड़ अनिश्चय, असुरक्षा, जीवन बेमजा, बेसुरा
हीरा जनम अमोल था माटी बदले जाए रे
ग्यारह
हमेशा की तरह वाहन गाँव के बाहर ही छोड़ना पड़ा
गाँव की गलियाँ भी वैसी ही गंदी थीं और नालियाँ बजबजाती, बदबू भरी
कहीं कुछ जरूरी बदलाव नहीं
बहु प्रचारित बहु प्रशंसित विकास शायद
नई सड़कों पर तेज रफ़्तार से बढ़ गया था शहरों की ओर
गाँवों को तक़रीबन अछूता छोड़
अपवाद थीं, बिजली की उपलब्धता
बच्चियों की शिक्षा जैसी कुछ चीजें
बारह
घर पहुंचा तो तीसरा पहर बीत रहा था
लिट्टी-चोखा के भोज की तैयारियाँ शुरू थीं दुआर पर
जमा था चौका पूरी तरह मर्दों की देख-रेख में
अनुभवी जानकार, जुटे हुए थे अपने-अपने काम में
आटे की लोई और मसालेदार सत्तू हो रहा था तैयार
कायदे से जमाए जा रहे थे गोबर के उपले
छाँटे जा रहे थे अनेरिया बैंगन, आलू, टमाटर
बाकी सजाए जा रहे थे अलग-अलग ढेरों में
छिले लहुसन, हरी मिर्च, मंगरैल,
अजवाईन, अदरक का भी था यही हाल
तेरह
लाजवाब लिट्टी-चोखा बनाने के लिए
दक्षता आवश्यक है प्रत्येक क़दम पर
सावधानी हटी और दुर्घटना घटी
आटा कितना कड़ा हो
कि लिट्टी न तो मुलायम हो लडडू जितनी
न कड़ी हो इतनी की दाँतों से चबाये न बने
कितना चटकार हो और…
लोई के हिसाब से कितना भरा जाए सत्तू
जो न हो इतना ज्यादा कि पकाते वक़्त फट जाए
और न इतना कम कि आए केवल पके आटे का स्वाद
कितनी देर छोड़ा जाए बैंगन, आलू आदि को गोंईठे की आँच पर
और अंत में सबसे जटिल प्रक्रिया
लिट्टी की गोंईठा के अहड़ा2 में सही-सही सेंकाई3 करने की
ताकि शुद्ध घी में डुबोते ही इसका रूखापन बदल जाए
एक ऐसा खस्तापन में जिसे जान और सराह सकते हैं केवल लिट्टी के असल शौकीन
पाँच सितारा होटलों में रोस्ट विशेषज्ञ बड़े-बड़े शेफ भी पानी भरते नज़र आएँ
लिट्टी की सेंकाई करने वाले हुनरमंदों के आगे
चौदह
धीरे-धीरे लोगों का आना शुरू हो गया था
खाटों पर, चैकियों पर, दरियों पर
जो जब आया और जिसे जहाँ मिली जगह वहीं बैठता गया
मन गद्गद् हो गया बरसों पुरानी परंपरा का टूटना और
अलग-अलग नहीं वरन् मिलजुलकर बैठने का नया रिवाज़ देख
नियमानुसार लिट्टी आग से निकली नहीं कि पहुंच जानी चाहिए पत्तल में
ठंढी हो गई तो समझो लिट्टी का अपमान
जब आ गए लगभग सभी नेवतहरी4
तो आग लगाई गई गोइठों में
बस बचा था छोटा सा अंतराल
लिट्टियों के तैयार होने तक का
किया जिसका उपयोग लोगों ने तलब मिटाने के लिए
कमर के फेंटे से खैनी-चूने की डिबिया निकाल
छेड़ सुख-दुख, हँसी-खुशी की बतकही
पंद्रह
चोखा तो पहले से ही तैयार था
आग से लिट्टियाँ निकलें इसके पूर्व ही
बैठ चुके थे सभी
अपनी-अपनी पत्तलों पर सन्नद्ध
भोज के समापन में चली बुँदिया की बाल्टी और दही की नादी
‘राग, रसोई, पागड़ी
कभी-कभी बन जाए’ की तर्ज पर
उस दिन बने लिट्टी-चोखे का स्वाद अपूर्व था
जो जीभ, मन और मति को
कर रहा था एक साथ आनंद में सराबोर
कुल मिलाकर एक खुशगवार माहौल
खाने के बाद फिर जमीं
चली देर तक, महफिल बतकही की
एक से एक विवादास्पद विषयों पर लोग बातें कर रहे थे दिल खोलकर
सुनते, समझते, एक दूसरे को, समझदारी और भरोसे से
निपुण रसोइयों को साधुवाद और
घर के मलिकार को धन्यवाद देने के साथ
नौ बजे रात तक कहीं निबट पाया सारा ताम-झाम
सोलह
गाँव के लिए तो मानो आधी रात
परन्तु देर से सोने की आदत ने मुझे रखा जगाए
जुगाली करता रहा गाँव के इतिहास और वर्तमान की
बावजूद शहरी आकाओं के दिमागी फितूर के
गाँव के लोग होते नहीं गँवार
होते हैं वे तो समझदारों से भी ज्यादा समझदार
सैकड़ों साल झेले इन्होंने दिन ब दिन बढ़ते ही जाने वाले सामंती अत्याचार
अंग्रेजी राज में तो और बढ़ा उत्पीड़न
भाग्य और भगवान के भरोसे रहने वाले किसान न कायर थे न मूर्ख
बस ताड़ रहे थे उचित परिस्थितियाँ और उपयुक्त समय
अवसर आते ही नहीं लगाई मिनट की देर
किसानों ने ही देश में सबसे पहले
गाँधी को पहचाना और पुकारा, दिया मान-सम्मान, निभाया साथ
लउर चलाने में सिद्धहस्त वे निडर वीर
सहते रहे अंग्रेजी पुलिस की लाठियों की मार चुपचाप
मूर्ति बने दृढ़ता की, सहनशीलता की, धैर्य की, स्वाभिमान की
गाँधी के अहिंसक जन प्रतिरोध के परिकल्पना को करते साकार
चंपारण के गाँवों से ही शुरू हुआ देश का पहला आंदोलन
निकली वहीं से स्वतंत्रता की पहली मशाल
सत्रह
फिर तो धीरे-धीरे
विक्षुब्ध तूफानी सागर सा हो उठा था उद्वेलित यह गाँवों का देश
इतिहास की भूल भूलैयों की न माने तो
भारत के गाँव, हो गए थे स्वतंत्र सन् बयालिस के आंदोलन में ही
बाकी के पाँच साल तो गँवाए समझदारों ने राजनीति-राजनीति खेलने में
आज के गाँव तो पूछते हैं शहरों से
किसने भेजे भ्रष्ट चुनाव और दुष्ट राजनीति
सीधे सादे गाँवों में
किसने भेजे थाना, कोर्ट कचहरी
‘पंच परमेश्वर’ वाले गाँवों में
फिर भी आज का ग्रामीण समाज ईमानदार, सीधे-सादे
एक दूसरे का दुःख समझने बाँटने वाले लोगों का समाज है
किसानों को न केवल अपने खेत और खेती से लगाव है
वरन् उस पर भरोसा भी पूरा है
अठारह
भला हो संचार माध्यमों का
शहरों के सपनों की खुल चुकी है पोल
युवकों में अब है समझ और लगन
नए रास्ते, नए संसाधन खोजने का उत्साह
यही सब सोचते-विचारते पता नहीं कब लग गई आँख
जगाया चिरई-चुनमुन के शोर ने
एक नई भोर में
देते हुए मन भावन संदेश –
ग्राम-स्वराज का सपना होगा अवश्य साकार
भले ही किन्हीं अन्य रूपों में, किन्हीं और जन्मों में
बस बचाए रखना है लिट्टी-चोखे का स्वाद बरकार !!!
कविता में आए कुछ स्थानीय शब्द
- गोइठा – उपला
- अहड़ा – खुला ओवन
- सेंकाई – रोस्ट
- नेवतहरी – आमंत्रित
जाने-माने कवि उपेन्द्र कुमार की कवितायें देसज संवेदना की सहज अभिव्यक्तियाँ होती हैं। वे आज और अतीत में निरंतर आवाजाही करते हुये अपने विषय की विभिन्न सिरे को कुशलता से पकड़ते और कविता के केंद्र में लाते हैं। उनका जन्म 1947 में बिहार के बक्सर जिले के एक गाँव में हुआ था। फिलहाल दिल्ली निवासी उपेंद्र कुमार के कुल नौ कविता संग्रह छप चुके हैं।