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पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

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ग्राउंड रिपोर्ट

हक़ की हर आवाज़ पर पहरेदारी है और विकास के नाम पर विस्थापन जारी है

[भव्यता के ख्वाब तले कुचले जा रहे स्वपन अब एक बड़े वर्ग की आँखों में चुभने लगे हैं। लोग दर्द में हैं और हक़ की आवाज पर सरकार की पहरेदारी है। धमकियाँ हैं। बावजूद इसके लोग अब भी लड़ रहे हैं। जब तक लोग लड़ रहे हैं तब तक उम्मीद जिंदा है। इस जिंदा उम्मीद के लिए न्याय की नियति क्या होगी, भविष्य क्या होगा, इस पर अभी तो प्रश्नवाचक का पेंडुलम वैसे ही झूल जा रहा है, जैसे समय के साथ चलने वाली घड़ी के बंद हो जाने पर उसका पेंडुलम खामोशी से झूलता रहता है और इंतजार करता रहता है कि कभी तो कोई उसकी चाभी भरकर उसे चला देगा।

वाराणसी। ‘चलो हर ज्यादती को सहन कर, खामोश हो जाओ, शहर में इस तरह से चीखना, अब जुर्म जैसा है…’ माधव कौशिक की यह कविता आज शहर वाराणसी के हालात पर एकदम सटीक दिखती है। हक़ और इंसाफ की आवाज उठाने वाले कार्यकर्ता लगातार धमकाए जा रहे हैं। सरकार हर उस आवाज को दबाने पर आमादा है जो उसकी नीतियों और अनुपयुक्त कार्यवाहियों पर सवाल उठा रही है। सरकार किस तरह के लोकतंत्र का निर्माण करने का प्रयास कर रही है? क्या सरकार से सवाल पूछना अपराध की श्रेणी में गिना जाएगा? क्या सरकार का विरोध राष्ट्र विरोध का प्रतीक माना जाएगा? फिलहाल, स्थिति कुछ ऐसी ही बनती दिख रही है।

वाराणसी उस शहर का नाम है, जिसकी तेग भारत की सरकार चला रही है। इस शहर के सांसद के रूप में लोक सभा पहुँचने के बाद नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने, जिसकी वजह से वाराणसी देश की सबसे ताकतवर लोक सभा सीट बन गई। ताकत हमेशा रक्षक नहीं बनती बल्कि वह हर समय उन ताकतों के दमन की कोशिश करती है, जो उसकी राह में कहीं से भी रोड़े की तरह दिखती हैं। नरेंद्र मोदी ने चुनाव के समय ही यह कह दिया था कि वह वाराणसी को बदलने की इच्छा से यहाँ आए हैं। अपने शहर को नए रंग रूप में देखने की चाहत में वाराणसी की जनता ने नरेंद्र मोदी पर अपने प्यार का पिटारा खोल दिया। उन्होंने कहा था कि वह वाराणसी उर्फ बनारस को जापान के क्योटो जैसा बनाना चाहते हैं। ‘क्योटो कैसा होगा?’ यह बात तो बनारस के कुछ आभिजात्य लोगों को ही शायद पता रही हो, पर बनारस को क्योटो के आभासी सौन्दर्य के लिहाफ में लिपटा हुआ देखने की बेचैनी शहर के बहुत से लोगों को थी। फिलहाल, नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही सरकारी अमला पुरानी वाराणसी को इतिहास की कथा में दफन कर नए शहर में बदलने में लग गया।

बदलाव जब तक महज शब्दों में था, तब तक उसका ख्याल खूबसूरत था, पर जब बदलाव को धरातल पर लाने का प्रयास शुरू हुआ तब समझ में आया कि इस बदलाव की नींव रखने के लिए शहर की विरासत को उखाड़ना होगा। जब विरासत उखाड़ी जाती है, तो नींव से जुड़े हुए लोग भी उखड़ते हैं। वाराणसी में विराट के वैभव को भव्यता देने के लिए हर लघुता पर जमकर सरकारी बुलडोजर चलाया जा रहा है। सामाजिक ताने-बाने में ‘छोटे’ कहे जाने वाले लोग उखाड़े जा रहे हैं। बेघर-बार होते हुए यह इन लोगों में ज्यादातर उन घुमंतू जातियों के लोग हैं, जो तीस-चालीस साल पहले अपने स्थायित्व के लिए शहर के बाहरी हिस्सों में खाली पड़ी जमीनों पर बस गए। इनके पास कोई कृषि योग्य जमीन नहीं थी, जिसकी वजह से यह असंगठित क्षेत्र में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने लगे। किसी तरह से दो जून की रोटी का इंतजाम करने वाले इन लोगों ने भी उम्मीद की थी कि जब उनके संसदीय क्षेत्र से जीतकर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो उनके जीवन में खुशियों की रोशनी आएगी। विकास के नए मंसूबे के साथ वाराणसी में नए निर्माण शुरू हुए पर जिन आम लोगों ने अपने विकास की उम्मीद थी, उनका भ्रम अब टूट चुका था। अब जिस विकास की नीव रखी जा रही है उसकी नीव में उसी आम आदमी का विस्थापन है, जिसे अपने मजबूत होने की सबसे ज्यादा उम्मीद थी।

विकास की इबारत लिखने के लिए जमे हुए लोग उखाड़े जाने लगे। लोगों ने पहले तो अपने को विस्थापित किये जाने का विरोध किया, पर जब यह समझ में आ गया कि इस विस्थापन को वह रोक नहीं सकते तब उन्होंने अपेक्षा की कि सरकार उन्हें मुआवजा दे, ताकि वह नए सिरे से पुनर्स्थापित हो सकें। इसके बावजूद भी जब उनकी आवाज नहीं सुनी गई, तब मजबूरन उन्हें अपने हक़ के लिए आंदोलन चलाना पड़ा। भव्यता के नाम पर उखड़े हुए लोग कब, कहाँ और कैसे पुनर्स्थापित हो सकेंगे यह गंभीर सवाल है। शहर के विकास की हर नई इबारत के पीछे उखाड़े जा रहे लोगों की चीख सुनाई देती है। उखाड़े जा रहे लोगों के जख्म पर मरहम लगाने और उन्हें विस्थापन से बचाने के लिए मानवाधिकार कार्यकर्ता और समाजसेवियों ने जब आवाज उठानी शुरू की तो सरकारी अमले ने उन्हें भी विकास विरोधी बताकर खदेड़ने का काम शुरू कर दिया।

किला कोहना बस्तीवासियों को संबोधित करते सामाजिक कार्यकर्ता मनीष शर्मा

कम्युनिस्ट फ्रंट के कार्यकर्ता मनीष शर्मा जो किला कोहना के विस्थापितों को बचाने का प्रयास कर रहे थे, उन्हें डराने के लिए एटीएस ने गत दिनों देर रात जबरन उठा लिया। जबरन मतलब दबंगई से। जैसे गुंडे किसी का अपहरण करते हैं, वैसे ही मनीष शर्मा को उठाया गया। कोई नोटिस नहीं, घर के लोगों को कोई खबर नहीं। किसी तरह से जब शहर के अन्य कार्यकर्ताओं को खबर मिली, तब मनीष की रिहाई को लेकर सामूहिक प्रदर्शन शुरू हुआ। दबाव महसूस कर एटीएस ने मनीष को रिहा कर दिया। मनीष बताते हैं कि रिहा तो किया गया पर उन्हें एक आभासी डर से भरने का भी पूरा प्रयास किया गया। उन्हें जो ‘प्रतीक’ के रूप में कहा गया उसका मंतव्य था कि यह हक़ की आवाज उठाने का खेल बंद करो, नहीं तो हम जुबान कतरने में सक्षम हैं। इस कार्यवाही को लेकर मनीष शर्मा ने गाँव के लोग डॉट कॉम से लंबी बात की और शहर के उस पूरे हालत के बारे में बताया, जिसकी वजह से सरकार के लोग मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के दमन का प्रयास कर रहे हैं।

मनीष ने बताया कि, ‘यहाँ पर विकास के नाम पर बहुत-सी योजनाएं चल रही हैं, जिन्हें मूर्त रूप देने के लिए लोगों को विस्थापित भी किया जा रहा है। इसमें ज्यादातर नट, मुसहर समाज के लोग, सफाईकर्मी और अन्य दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोग हैं। जिनके परिवार सैकड़ों सालों से उस जमीन पर काबिज थे। वरुणा नदी पर बन रही ग्रीन बेल्ट परियोजना के लिए लगभग एक हजार घरों को गिराने का आदेश हो चुका है। इसको लेकर शहर में एक बड़ा आंदोलन चलाया गया। इस आंदोलन की वजह से योजना अभी तक खत्म नहीं हुई है, पर इसका काम स्थगित कर दिया गया है। मनीष सरकार की एक महत्वाकांक्षी परियोजना नमो घाट को लेकर बताते हैं कि राजघाट के एक हिस्से को ‘नमो घाट’ के रूप में स्थापित किया जा रहा है, जहां राष्ट्रीय बस स्टाप, बंदरगाह और काशी रेलवे स्टेशन जैसी योजनाओं के साथ होटल और काम्प्लेक्स भी बनवाए जाने प्रस्तावित हैं। सरकार के यह उपक्रम सीधे-सीधे निजी व्यवसाइयों और उद्योगपतियों को फायदा पहुँचाने के लिए बनाए जा रहे हैं। इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए किला कोहना की बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है। इसके बाद कई और महत्वपूर्ण एवं वाराणसी की सांस्कृतिक गरिमा को बढ़ाने वाले संस्थान भी इस विकास की भव्यता में कुचले जाएंगे।’ मनीष शर्मा इस तरह के विस्थापन के खिलाफ लगातार सक्रिय रहे हैं, विस्थापित लोगों के हक़ के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसकी वजह से वह प्रशासन को खटक रहे हैं। सिर्फ मनीष ही नहीं बल्कि आम आदमी के हक़ की आवाज उठाने वाले अन्य जो भी कार्यकर्ता हैं, उन्हें प्रशासन डरा-धमका कर चुप कराने का प्रयास कर रहा है। मनीष बताते हैं कि 2017 में उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के साथ स्लाटर हाउसों को ज़मींदोज करने के जो सरकारी प्रयास शुरू किए गए थे, उसके खिलाफ तमाम मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ वह भी सक्रिय और नेतृत्वकारी भूमिका में शामिल थे, जिसकी वजह से तब से ही प्रदेश सरकार ने उन्हें ‘टारगेट’ करना शुरू कर दिया।

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‘आवास योजना’ के रहते कच्चे घरों में रहने को हैं मजबूर

पावरलूम चलाने वाले बुनकर समाज के दर्द को लेकर मनीष बताते हैं कि महामारी कोरोना की वजह से पहले ही इस समाज का काम-धंधा ठप्प पड़ा हुआ है। हथकरघे के काम में लगातार घाटा होने की वजह से बुनकर पावरलूम के सहारे खुद को फिर से खड़ा करने की कोशिश कर रहा था पर सरकार ने बिजली रेट से सब्सिडी खत्म करके उसकी रीढ़ तोड़ने का काम किया है। इसके पीछे उन्हें एक गहरी व्यावसायिक साजिश दिखती है। उनका कहना है कि सरकार साड़ी के पूरे बनारसी व्यवसाय को गुजराती व्यवसायियों के हाथ में शिफ्ट करने का प्रयास कर रही है। मनीष का मानना हैं कि वाराणसी के विश्वविख्यात साड़ी उद्योग को पूरी तरह से दुश्चक्र में कैद कर दिया गया है। यह पूरा कारोबार अब गुजराती व्यवसायी हथियाने के लिए सक्रिय हैं। वह इस अनूठी कला को बाजार में इस तरह से तब्दील करना चाहते हैं कि साड़ी निर्माण का पैटर्न तो बनारसी रहे पर उसके निर्माता गुजराती हों। बनारस के बुनकर महज मजदूर की तरह उनके लिए काम करें।

विकास से किसी को विरोध नहीं है, पर विकास किन शर्तों पर हो रहा है, क्या इसकी अनदेखी की जा सकती है? विकास की चमक के सपने को साकार करने के लिए क्या आजाद देश के उस नागरिक को पूरी तरह से उखाड़ दिया जाएगा, जो इस सरकार को अपने मखमली ख्वाब में टाट के पैबंद की तरह दिख रहा है? उखाड़े जा रहे लोग अपने हक़ के लिए जब आवाज़ उठाने की कोशिश करते हैं तो सरकार के पुलिसिया बूट उन्हें कुचलने का काम करते हैं। क्या वाराणसी के लोगों का यही गुनाह है कि उन्होंने सत्ता के सबसे ताकतवर नेता को अपना प्रतिनिधि चुना है?

खूबसूरत ख्याल के साथ वाराणसी के लोगों ने नरेंद्र मोदी को चुना था। उन्हें उम्मीद थी कि मोदी की जीत उनकी रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को पूरा करेगी। उनके जीवन स्तर को आगे ले जाने का काम करेगी, पर अफसोस कि अब उस सपने की दीवार दरकने लगी है। अब तक झोपड़ी में ठहरी हुई ज़िंदगी विकास की इस बयार में बेघर होने को मजबूर हो चुकी है। उनके हिस्से में अब ना हक़ और इंसाफ की बात रह गई है, ना उनके प्रति इंसानियत की ज़रूरी शर्त ही पूरी की जा रही है। उससे भी ज्यादा खतरनाक हक़ के लिए उठाई जा रही आवाज का दमन है। एक लोकतान्त्रिक देश में क्या बोलने की आज़ादी सिर्फ इसलिए छीन ली जाएगी कि यह प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र है?

आंदोलन के दौरान किसान नेता राजीव यादव

आजमगढ़ के सामाजिक कार्यकर्ता और रिहाई मंच के अध्यक्ष राजीव यादव इस दमन के और भी बड़े सरोकार की बात करते हैं। वह कहते हैं कि विरोध जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है पर आज स्थिति यह हो चुकी है कि जनता के हर विरोध को राष्ट्र के विरोध के रूप में चिन्हित किया जा रहा है। किसान नेता राजीव को इस साल सरकार द्वारा दो बार उठाया जा चुका है। इससे यह स्पष्ट दिखता है कि सरकार अपने ही लोगों से डरी हुई है। हक़ और इंसाफ़ की हर मांग सरकार को अपने खिलाफ षड्यंत्र की तरह दिखती है। राजीव इस समय आजमगढ़ के खिरियाबाग के आन्दोलनकर्मियों की आवाज़ उठा रहे हैं। खिरियाबाग के लोग अपनी ज़मीनों के अधिग्रहण के खिलाफ हैं, पर सरकार बिना उनकी सहमति के उन्हें वहां से खदेड़ने के लिए कुछ भी करने पर उतारू है। इसी तरह अभी कुछ दिन पहले बैरवन (वाराणसी) में ज़मीन अधिग्रहण को लेकर पुलिस ने जमकर तांडव मचाया। बस्ती को दोनों तरफ से घेरकर पुलिस ने लोगों के घर में घुसकर पुरुषों, महिलाओं को बर्बरता पूर्वक पीटा और 11  पुरुषों को गिरफ्तार कर लिया।

आखिर कैसे अपने ही देश में लोग सरकार द्वारा प्रताड़ित किए जा रहे हैं। विकास की नई तस्वीर में क्योंकर हमारे अपने ही लोगों का लहू बहता दिख रहा है? क्या संवैधानिक हक़ की बात करना अब ज़ुर्म घोषित हो जाएगा? क्या इस नई चमक में अब वही बच्चे जिंदा रहने और पलने-बढ़ने के अधिकारी होंगे, जिनके गाल सेब जैसे होंगे? दुबले-पतले, पिचके गाल वाले बच्चे, इस सौन्दर्य के खिलाफ मानकर बेदख़ल कर दिए जाएंगे? मानवाधिकार को लेकर लगातार कानूनी हस्तक्षेप करने वाले अधिवक्ता प्रेम प्रकाश यादव से इन तमाम मामलों को लेकर जब हमने बात की तो उन्होंने भी इस बात की पुष्टि कि वाराणसी के विकास का जो नया कारीडोर डिजाइन हो रहा है, उसकी वजह से बड़ी मात्रा में यहाँ के गरीब उजाड़े जा रहे हैं। उनकी सहमति के बिना उनकी ज़मीनें छीनी जा रही हैं। लोगों को फर्जी मुकदमों में जेल भेजा जा रहा है। सरकारी जमीन पर चालीसों साल से रह रहे लोगों के पास कागजात नहीं हैं, जिसकी वजह से उन्हें बिना कोई मुआवजा दिए ही वहाँ से बेदखल कर खदेड़ा जा रहा है। उनके पक्ष में आवाज़ उठाने वालों को भी डराया-धमकाया जा रहा है। वाराणसी से लेकर पूरे पूर्वांचल में आम आदमी के संवैधानिक हक़ को कुचला जा रहा है।

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दिहाड़ी मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी न मिलने के पीछे जिम्मेवार कौन?

भव्यता के ख्वाब तले कुचले जा रहे स्वप्न अब एक बड़े वर्ग की आँखों में चुभने लगे हैं। लोग दर्द में हैं और हक़ की आवाज पर सरकार की पहरेदारी है। धमकियाँ हैं। बावजूद इसके लोग अब भी लड़ रहे हैं। जब तक लोग लड़ रहे हैं तब तक उम्मीद भी जिंदा है। इस उम्मीद के लिए न्याय की नियति क्या होगी, भविष्य क्या होगा, इस पर अभी तो प्रश्नवाचक का पेंडुलम वैसे ही झूल जा रहा है, जैसे समय के साथ चलने वाली घड़ी के बंद हो जाने पर उसका पेंडुलम खामोशी से झूलता रहता है और इंतजार करता रहता है कि कभी तो कोई उसकी चाभी भरकर उसे चला देगा। सरकार बदलती है, जनता कायम रहती है। तमाम दर्द के बावजूद जनता हारी नहीं है। लोग हारे नहीं है। अंततः संघर्ष  करने वाले लोग ही नई तस्वीर रचते हैं।

 

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