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बहुजन समाज को शिक्षा से जोड़ने में अहम भूमिका निभाने वाले नायक थे शाहूजी महाराज

राजर्षि शाहूजी महाराज वंचित समाज के उद्धारक के रूप में याद किये जाते हैं। शाहूजी महाराज का जन्म 26 जून 1874 को कोल्हापुर के राजपरिवार में हुआ था। 2 जुलाई 1894 को जब वह राजा बने तब उन्होंने समाज के दलित और स्त्री वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने का प्रयास शुरू कर […]

राजर्षि शाहूजी महाराज वंचित समाज के उद्धारक के रूप में याद किये जाते हैं। शाहूजी महाराज का जन्म 26 जून 1874 को कोल्हापुर के राजपरिवार में हुआ था। 2 जुलाई 1894 को जब वह राजा बने तब उन्होंने समाज के दलित और स्त्री वर्ग को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने का प्रयास शुरू कर दिया। शाहूजी महाराज भारत के सबसे शानदार राजा थे। एक ऐसा राजा जिसने समानता, न्याय और भाईचारे पर आधारित समाज बनाया। बहुजन परंपरा का एक ऐसा राजा जिसने ब्राह्मणवाद-वर्णवाद पर सबसे जोरदार प्रहार किया।

जब शाहूजी महाराज ने सत्ता की बागडोर संभाली तो उन्होंने जनता की वास्तविक स्थिति से रूबरू होने के लिए रियासत का भ्रमण करना शुरू किया। वह अक्सर समय मिलने पर या सुबह के समय सैर पर निकलते तो जंगलों में नहीं, वरन गाँवों में जाते। किसानों के खेतों में जाते। उनसे बातचीत करते। उनका हाल जानते। उनके इस प्रयोग से उन्हें सामान्य राज-काज की वास्तविकता का पता चला। ऐसे ही उन्हें यह पता चला कि राज्य में 600 मुकदमे अनिर्णीत पड़े हैं। उन्होंने पहला काम इन मुकदमों का निपटारा करने से प्रारम्भ किया। उन्होंने नियम बना दिया कि वह प्रतिदिन छह मामले निस्तारित करेंगे। उनके ऐसा करने से ये मुकदमे धीरे-धीरे कम होने लगे। लेकिन वकील इस काम से नाराज़ हुए। वह नहीं चाहते थे कि न्यायालय में मुकदमों की संख्या कम हो। यही हक़ीकत आज के न्यायालयों में भी है। यह वकीलों की खेती है, जो मुकदमों का निपटारा होने से समाप्त हो जाती है।

ऐसे ही महाराज जब खेतों और खलिहानों में निकले तो किसानों के दैनिक जीवन में दरपेश होने वाली समस्याओं की जानकारी हुई। इसी के फलस्वरूप वह कुलकर्णी नामक समस्या में वाकिफ हुए और अंतत: उसे समाप्त कर तलाठी की नियुक्ति की।

शाहूजी महाराज देश की परम्परागत शिक्षा व्यवस्था से बहुत चिंतित थे। जब भी समय मिलता वह अपने राज्य की बहुसंख्यक जनता को शैक्षिक विपन्नता से उबारने के उपाय खोजा करते थे। उन्हें यह जानकर आश्चर्य होता था कि समाज का प्रभु वर्ग अर्थात पुरोहित वर्ग हमेशा बहुसंख्यक मराठा समाज के विरोध में ही काम करता था। गरीबों का शोषण, उन पर अत्याचार, वह भी कानून बनाकर भारतीय समाज का सर्वकालिक चरित्र कहा जाए तो गलत नहीं होगा। कानून बनाकर देश और समाज को शिक्षा से वंचित करना, ऐसा संगठित, सामाजिक, सांस्कृतिक अपराध है, जिसका कोई अन्य उदाहरण पूरे विश्व इतिहास में नहीं है। पुरोहितों का यह ऐसा गिरोह था, जिसने सम्पूर्ण सत्ता को अपनी कुत्सित जकड़ में आज भी ले रखा है। यदि हम यह कहें कि शाहूजी महाराज का पूरा जीवन ही मानवता को पुरोहित समाज की आपराधिक धूर्तता और कृतघ्नतापूर्ण भिक्षावृत्ति से मुक्त कराने में समाप्त हो गया तो यह कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके द्वारा किए गए शैक्षणिक कार्यों में गरीब और सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से दमित और शोषित जनता के प्रति उनकी हमदर्दी ही नहीं, जीवन का उद्देश्य नज़र आता है। शाहूजी महाराज के द्वारा राज्य में शिक्षा की उन्नति के लिए जो कार्य किए गए संक्षेप में उनका विवरण इस प्रकार है।

1. राज्य में शिक्षाधिकारी के पद को उच्चीकृत करना

जब शाहूजी महाराज ने राज्य की सत्ता संभाली, उस समय राज्य की शिक्षा व्यवस्था मात्र एक शिक्षाधिकारी के हवाले थी। शिक्षा का प्रसार करने के उद्देश्य से राज्य में शिक्षाधिकारी के पद को उच्चीकृत कर प्रमुख शिक्षाधिकारी बनाया गया और तीन सहायक शिक्षाधिकारियों की नियुक्ति की गई।

2. प्रतिभाशाली छात्रों को शिक्षावृत्ति देना

देश के प्रतिभाशाली छात्रों को उच्च अध्ययन के लिए बड़े संस्थानों में भेजे जाने की योजना शाहूजी महाराज द्वारा चलाई गई थी। देश में पहली बार ऐसा हो रहा था, जब शिक्षा के लिए विद्यार्थियों को बाहर भेजने का खर्च किसी राज्य ने वहन किया हो। इस योजना के तहत वर्ष 1910-11 में 15 छात्रों को पूना, मुम्बई आदि विश्वविद्यालयों में अध्ययन के लिए भेजा गया। इसमें महिला विद्यार्थी भी शामिल थीं। इस अभिनव योजना के हिसाब से यदि शाहूजी महाराज को आधुनिक भारत में उच्च शिक्षा का जनक कहा जाए तो यह उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

3. सभी विद्यालयों में कमजोर वर्ग के 15 प्रतिशत छात्रों की फीस माफी

समाज के कमजोर वर्गों की विशेष सहायता के लिए यह योजना बनाई गई थी कि प्रत्येक स्कूल में 15 प्रतिशत सीटों का शुल्क माफ कर दिया जाए। यह योजना 20 मई, 1911 को प्रारम्भ की गई।

अंग्रेजों के माध्यम से शिक्षा के दरवाजे तो बहुसंख्यक समाज के लिए खोल दिए गए थे लेकिन उस समय के पुरोहित समाज ने बहुसंख्यक समाज को इस कदर भ्रमित कर दिया हुआ था कि वह बिना फीस दिए भी बच्चों को स्कूल भेजने को तैयार नहीं होते थे। ऐसे में इस योजना में आधी सीटें भी नहीं भर पा रही थीं और इसका फायदा सम्पन्न पुरोहित वर्ग के परिवार ले रहे थे। जैसा कि आज भी हो रहा है। यह दिखाकर कि सीटें खाली रह जा रही हैं। ब्राह्मणों के बच्चों की भर्ती कर ली जाती थी। अत: यह निर्णय लिया गया कि यदि इनमें से आधी सीटें कमजोर वर्गों से नहीं भर पा रही हैं तो उन्हें वर्ष भर रिक्त रखा जाए। इस योजना से शिक्षा के स्तर में बहुत सुधार हुआ।

4. स्कूल पंच पद्धति को मजबूत करना

ग्रामीण क्षेत्र में विद्यालयों के प्रबंधन के लिए पाँच प्रमुख ग्रामवासियों की समिति का गठन किया गया था। निश्चित रूप से इसमें भी ब्राह्मण संवर्ग के लोग ही भरे हुए थे। शाहूजी महाराज ने एक आदेश कर पंच पद्धति में गाँव के सभी वर्गों का होना अनिवार्य कर दिया। यद्यपि तात्कालिक तौर पर तो नहीं लेकिन आगे चलकर यह पंच शिक्षा के विकास में बहुत कारगर सिद्ध हुए।

5. वेतन और परीक्षा के आधार पर शिक्षकों की नियुक्ति प्रणाली

इस समय जो भी शिक्षा प्रणाली कार्यरत थी। भले ही वह गुरुकुल पर आधारित थी और उसमें केवल ब्राह्मण समाज के छात्र ही प्रवेश पाते थे, लेकिन इसमें शिक्षकों को परम्परागत रूप से वेतन के स्थान पर भूमि का टुकड़ा प्राप्त होता था और वह वंशानुगत रूप से शिक्षक का कार्य करते थे। शाहूजी महाराज ने यह पद्धति बंद कर दी और शिक्षकों को वेतन देने और परीक्षा के माध्यम से नियुक्ति की परिपाटी प्रारम्भ की। यह शिक्षा जगत का एक क्रांतिकारी आदेश था, जिससे हमारा देश मध्यकाल से बाहर निकल कर आधुनिक विश्व व्यवस्था में शामिल हुआ।

6. शिक्षक प्रशिक्षण की शुरुआत करना

इस समय शिक्षा का विषय अत्यंत घिसा-पिटा हुआ था। परम्परागत रूप से महाकाव्य वेद उपनिषद ही शिक्षा की सामग्री हुआ करते थे। इसमें गणित, तर्क शास्त्र, विज्ञान, लेखा-बही आदि का सर्वथा अभाव था। ऐसे में उन्होंने शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए नॉर्मल स्कूल की स्थापना करवाई, जिसमें सभी शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की गयी थी।

7. दिल्ली दरबार पटेल स्कूल की स्थापना

मराठा प्रशासन में राजस्व का ग्रामस्तर का सबसे बड़ा अधिकारी पटेल हुआ करता था। लेकिन राजस्व वसूलने का काम कुलकर्णी के हाथ में होता था। राजस्व वसूलने का काम भले ही कुलकर्णी करते थे, लेकिन उसके लिए जिम्मेदार पटेल पद धारक हुआ करते थे। पटेल पढ़े-लिखे नहीं थे, जबकि कुलकर्णी पढ़े-लिखे होते थे। ऐसी दशा में अक्सर पटेल चाहकर भी कुलकर्णी पर नियंत्रण नहीं कर पाते थे। पटेल, जो कि ग्रामस्तर का कुलकर्णी से बड़ा अधिकारी होता था, को प्रभावी बनाने के उद्देश्य से उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए पटेल स्कूल की स्थापना की गई और इसे दिल्ली दरबार पटेल स्कूल नाम दिया गया।

8. सत्यशोधक स्कूल की स्थापना

शाहूजी महाराज का यह कालजयी कार्य उनकी क्रांतिकारी सोच और मानवता के प्रति उनके दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है। इस समय और आज भी हमारे समाज में यह एक बड़ी समस्या है कि मांगलिक कार्यों में धर्म विधि कैसे पूरी की जाए। यह क्षेत्र अभी तक केवल ब्राह्मणों के ही एकाधिकार में था, जिसका पूरा और अनियंत्रित फायदा पुरोहित समाज उठाता था। इसका रास्ता निकालने के लिए इन स्कूलों की स्थापना की गई। यह ऐसा कदम था, जिसने वर्ण व्यवस्था के मर्म पर चोट की। धर्मविधि करने के लिए सबको अर्थात अछूतों को भी धर्मविधि का प्रशिक्षण देने के लिए इसकी स्थापना की गई थी। इस क्षेत्र में काम को और आसान बनाने के लिए भास्कर राव जाधव के निर्देशन में हरिभाऊ चह्वाण के द्वारा मांगलिक कार्यों से सम्बंधित पुस्तकों का प्रकाशन भी कराया गया घर का पुरोहित इसी से जुड़ी हुई प्रमुख लोकप्रिय पुस्तक थी। इस पुस्तक में हिंदू धर्म में सम्पन्न की जाने वाली समस्त सोलह विधियों और संस्कारों का वर्णन किया गया था।

इस स्कूल की शुरुआत 1913 में की गई। इस स्कूल को इतनी लोकप्रियता मिली कि बड़ौदा राज्य ने यह आदेश किया कि पुरोहित का कार्य करने के लिए सत्यशोधक स्कूल का प्रमाणपत्र आवश्यक है। इस स्कूल में पूरे महाराष्ट्र से गैर ब्राह्मण युवकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और बड़ी संख्या में युवकों ने प्रशिक्षण प्राप्त किया। यह एक ऐसा काम था, जिसे उनकी मृत्यु के 100 साल के बाद भी उत्तर भारत आज तक नहीं कर पाया हैं।

9. महिला शिक्षा के लिए प्रयास

उस समय राज्य की कुल साक्षरता मात्र 1.6 प्रतिशत थी और राज्य में ब्राह्मणों की संख्या 4 प्रतिशत थी। निश्चित रूप से 1.62 प्रतिशत में सारे ब्राह्मण पुरोहित ही शामिल थे। ब्राह्मणों की आधी आबादी अर्थात केवल पुरुष ही शिक्षित थे। महिलाएँ भी अशिक्षित थीं। ऐसे में महिलाओं की शिक्षा की बात करना अपने आप में क्रांतिकारी था। अक्टूबर 1919 में उन्होंने आदेश कर महिलाओं की शिक्षा को नि:शुल्क बना दिया। उन्होंने आदेश में स्पष्ट किया कि छात्राओं की शिक्षा का पूरा व्यय राज्य वहन करेगा। इसके लिए अप्पा साहब और मामा साहब सूर्वे जैसे दो अधिकारियों की नियुक्ति की गई। लेकिन इस दिशा में बहुत सफलता नहीं मिल पाई। अत: इस दिशा में महिला शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए शिक्षावृत्ति की योजना बनाई और पाँच बेटियों, जिनके पिता उन्हें मुम्बई भेजने के लिए तैयार हो गए थे, को दिनांक 5 जनवरी, 1920 को सम्पूर्ण राजकीय व्यय पर उच्च शिक्षा के लिए सेंट कोलंबस गर्ल्स हाईस्कूल मुम्बई भेजा गया और 500 रुपया अनुदान भी दिया गया। शाहूजी महाराज ने इस तरह से बहुत प्रयास किए लेकिन महिला शिक्षा में अपेक्षित प्रगति नहीं प्राप्त हो सकी। इसका प्रभाव हमें आगे चलकर प्राप्त होता है। इसी क्रम में महाराज के द्वारा बहुत-सी संस्थाओं को अनुदान भी दिया गया। इनमें से प्रमुख संस्थाएँ और उनको दी गई सहायता का विवरण निम्नवत है।

  1. मराठा छत्रपति हॉस्टल पुणे को रुपये 300.00 का दान और पाँच वर्ष तक प्रति वर्ष रुपये 1000.00 का दान;
  2. डेक्कन एजुकेशन सोसायटी को 5000.00 रुपये का दान;
  3. छत्रपति ताराबाई मराठा छात्रावास को वर्ष 1892 में 22,000.00 रुपये का दान;
  4. डेक्कन एजुकेशन सोसायटी को प्रतिमाह 450.00 रुपये का दान;
  5. उदाजी मराठा विद्या हॉस्टल, नासिक को 19,200.00 रुपये का दान, दिनांक 21 सितम्बर, 1920, 13 फरवरी, 1920 और 15 फरवरी को 10,000.00 रुपये का दान;
  6. डिप्रेस्ड क्लास हॉस्टल को 5000.00 रुपये का दान;
  7. पंढरपुर में अस्पृश्य हॉस्टल को प्रतिमाह 1350.00 रुपये का दान।
अगोरा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक राजकीय सेवाओं में आरक्षण, अनिवार्य और नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा एवं आधुनिक छात्रावास के जनक राजर्षि शाहूजी महाराज (एक परिचय) से उद्धृत।
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