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sonbhadra: वन अधिकार कानून 2006, जुबान पर नहीं धरातल पर हो लागू

वन अधिकार कानून 2006 को धरातल पर लागू करने से सरकार की घबराहट भरी मंशा आम आवाम के समझ से भले ही परे हो, लेकिन यह स्पष्ट होता है कि सरकार और पूंजीपतियों, खासकर कॉरपोरेट घरानों से जो तालमेल है, वह इस विधेयक के धरातल पर लागू होने से गड़बड़ा सकता है।

जंगलों-पहाड़ों, गांव-गिरांव से होते हुए नगरों की ओर बुलंद होती आवाज ‘अच्छे भविष्य के लिए जंगल और जंगल के लोगों को बचाना जरूरी’

सोनभद्र। चार राज्यों की सीमाओं से लगा हुआ सोनभद्र जनपद एक छोर से लेकर दूसरे छोर तक जंगलों-पहाड़ों से घिरा हुआ है। यह लोक कला, परंपरा, ऐतिहासिक, प्राकृतिक संपदाओं से भी परिपूर्ण है। जिसे करीब से देखकर देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री रहे पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि यह भारत का मिनी स्विटजरलैंड है। उन्होंने उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर पर स्थित सोनभद्र की धरा को करीब से देख कर उसकी अनुपम छटा, हरियाली, पहाड़ों और वैभवशाली विरासत पर मिनी स्विट्जरलैंड की संज्ञा देते हुए इसकी खूबसूरती का वर्णन किया था। उस दौर में सोनभद्र, मीरजापुर जनपद का ही हिस्सा हुआ करता था। पंडित नेहरू ने यहां की वन संपदाओं, वनों, जंगलों और दूर-दूर तक फैली हरियाली और यहां के आदिवासी, वनवासी समाज के लोगों की भी सराहना करते हुए जंगलों-पहाड़ों के हिफाजत में इनकी भूमिका की सराहना की थी। कहना गलत नहीं होगा कि जिस आदिवासी और वनवासी समाज ने जंगलों और पहाड़ों का संरक्षण कर समाज को सदैव देने का कार्य किया है, वह आज उपेक्षित और कई प्रकार की समस्याओं से घिरे होने और सरकारी योजनाओं से महरूम होते चले आ रहे हैं।

अपनी लोक परंपराओं की थाती को संभाले हुए आदिवासी, वनवासी समाज के लोग आज भी पिछड़ेपन का दर्द समेटे हुए अभाव भरी जिंदगी जीने को विवश हैं। सोनभद्र, मीरजापुर, चंदौली के साथ ही सीमावर्ती राज्यों बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश से लगने वाले इलाकों के जंगली और पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करने वाले आदिवासी-वनवासी समाज के लोग, जो विभिन्न उपजातियों के नाम से जाने जाते हैं, जिनके लिए जंगल और पहाड़ ही सब कुछ हैं। दूसरी तरफ, आज उन्हें ही जंगलों और पहाड़ों से खदेड़ा जा रहा है। जिन जंगलों और पहाड़ों के संरक्षण के लिए आदिवासी समाज के पुरखों ने यहाँ जीवन गुजार दिया, खुद उनके ही लोग दर-दर भटकने के लिए विवश हैं। वनाधिकार कानून को लेकर संघर्षरत रहने वाले लोग प्रशासनिक जुल्म-ज्यादती के शिकार होकर विस्थापना भरा जीवन जीने के लिए विवश हैं। सोनभद्र के दुद्धी निवासी रामकुमार कोल कहते हैं, ‘देश और प्रदेश में कई सरकारें आईं और गईं, लेकिन किसी ने हमारे उत्थान के लिए कोई ठोस पहल नहीं किया है।’ वह प्रस्तावित वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक 2023 को लाने के बजाय वन अधिकार कानून 2006 को धरातल पर सख्ती से लागू किए जाने की वकालत करते हुए कहते हैं कि ‘प्रस्तावित वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक 2023 को सरकार जबरन क्यों थोपना चाहती है? जबकि हम वन अधिकार कानून 2006 की मांग करते आ रहे हैं।’

सुमेर आदिवासी का कहना है कि ‘आदिवासी-वनवासी समाज में एकजुटता न होने का अभाव भी इस कानून के लागू होने में बाधक बना हुआ है। जब तक आदिवासी-वनवासी समाज के लोग एकजुट और मुखर होकर विरोध नहीं करेंगे, तब तक वह अपने हक-अधिकार से वंचित होते रहेंगे।’ हालांकि, उनका मानना है कि आवाज उठ चुकी है, आगाज़ भी हो चुका है। अब इस आवाज की गूंज जंगलों, पहाड़ों और गांवों से होते हुए नगरों-महानगरों की ओर भी बढ़ेगी, ताकि वहां रहने वाले गांव-गिराव के लोग भी जंगलों-पहाड़ों से लेकर आदिवासी समाज के उत्थान और पतन से रूबरू हो सके।’

कुंद हो चुके आंदोलन को धार देने में जुटे संगठन

तेजी के साथ समाप्त होते वन और जंगलों, पहाड़ों के बचाव व संरक्षण को लेकर छिड़े आंदोलन की कुंद हो चुकी धार को एक बार पुनः खेत मजदूर किसान संग्राम समिति जौनपुर, शहीद भगत सिंह छात्र नौजवान महासभा उत्तर प्रदेश, सोशल एक्शन फोरम जौनपुर (सेफ) एवं नागरिक समाज जौनपुर के युवा कार्यकर्ताओं ने इसे गांवों, जंगलों-पहाड़ों से होते हुए नगर-शहर की घनी आबादियों के बीच बुलंद कर व्यापक पैमाने पर जनसमर्थन जुटाने का अभियान छेड़ दिया है। उत्तराखंड की तरह हरा-भरा रहने वाला उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल खासकर चंदौली, सोनभद्र, मीरजापुर, गाजीपुर, बलिया, बांदा, चित्रकूट (विंध्य, कैमूर) इत्यादि जनपदों के खूबसूरत नजारे वाले जंगलों, पहाड़ों की उपेक्षा तथा इनके समूल नष्ट होते रकबे को देखकर इनकी चिंता वाज़िब है।

उक्त संगठनों ने संयुक्त रूप से पिछले 30 जून को हूल दिवस के अवसर पर जौनपुर की धरती से इस आंदोलन को धार देते हुए अपने छह सूत्रीय मांगों की तरफ ध्यानाकर्षण कराते हुए राष्ट्रपति एवं संयुक्त संसदीय कार्य समिति भारत सरकार (नई दिल्ली) को जिलाधिकारी अनुज कुमार झा के माध्यम से पत्र भेजकर प्रस्तावित वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक 2023 को लाने के बजाय वन अधिकार कानून 2006 को सख्ती से लागू किए जाने की मांग की गई है। किसान संग्राम समिति से जुड़े कामरेड बचाऊ राम कहते हैं, ‘जौनपुर से शुरू हुई यह मुहिम वृहद आंदोलन का रूप लेगी ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को जागरूक करते हुए वन अधिकार 2006 को धरातल पर लागू करने और जंगलों-पहाड़ों-गांवों में पुरखों के जमाने से रहते चले आए आदिवासी-वनवासी समाज को उनका हक-अधिकार दिलाया जा सके।’ वह कहते हैं, ‘यह जन आंदोलन सिर्फ जौनपुर तक ही सीमित नहीं रहेगा, बल्कि पूर्वांचल के विभिन्न जनपदों में भी चलेगा, जहां आदिवासी-वनवासी समाज के लोग रहते आ रहे हैं।’

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वह ‘गांव के लोग डॉट कॉम’ को बताते हैं कि ‘जौनपुर से प्रारंभ हुआ अभियान केराकत, धर्मापुर, करंजाकल, डोभी से आजमगढ़ जनपद के देवगांव, मेंहनगर होते हुए गाजीपुर के खानपुर, सैदपुर इत्यादि इलाकों से होते हुए चंदौली, वाराणसी, उसके बाद मीरजापुर के हलिया, मड़िहान, राजगढ़, अहरौरा, सोनभद्र के घोरावल, दुद्धी, ओबरा इत्यादि इलाकों में जाकर वहां के रहवासी-आदिवासी-वनवासी समाज, मुसहर समाज के लोगों को जागृत करते हुए वनाधिकार कानून 2006 को सख्ती से धरातल पर लागू करने के लिए जनसमर्थन जुटाने का कार्य करेगा। इसी प्रकार संगठन के साथी उत्तर प्रदेश के अन्य जनपदों सहित दूसरे राज्यों में भी जाकर आदिवासी-बनवासी-मुसहर-वंचित समाज के लोगों को जागृत कर वन अधिकार कानून 2006 को धरातल पर लागू करने की वकालत करने के साथ-साथ जंगलों से इन्हें न उजाड़ने की भी मांग करेंगे। जरूरत पड़ने पर जनप्रतिनिधियों का भी इसमें सहयोग लेते हुए सड़क से लेकर संसद तक आवाज को बुलंद करने का कार्य किया जाएगा।

कारपोरेट घरानों के लिए आदिवासियों की बलि कदापि नहीं

जिन जंगलों और पहाड़ों को संरक्षित रखने में आदिवासी-वनवासी समाज का योगदान भूलने योग्य नहीं है, उसे कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से विसराया जा रहा है, जो किसी त्रासदी से कम नहीं है। आदिवासी-वनवासी समाज के लिए संघर्षरत रहने वाली जीरा भारती उत्तराखंड में आने वाली प्राकृतिक विपदा और त्रासदी की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, ‘मानव के विस्तारवादी सोच की अवधारणा ने उत्तराखंड को प्राकृतिक त्रासदी की राह पर लाकर खड़ा कर दिया है, ठीक ऐसी ही स्थितियां इधर भी बनती हुई नजर आ रही हैं। खनन कारोबार ने भले ही सरकार को भारी राजस्व प्रदान किया है, लेकिन इसके दुष्परिणाम भी सामने हैं। तेजी से जंगलों और पहाड़ों का अस्तित्व समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। खनन कारोबार से प्राकृतिक संपदाएं नष्ट हो रही हैं। आकाश और पाताल दोनों में उथल-पुथल मच रही है, तो तेजी से खत्म होते जंगलों के दायरे ने भी पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ कर मौसम के मिजाज को भी कुरूप कर दिया है। जीरा कहती हैं, ‘सरकार कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने के गरज से अपने मन मुताबिक कानून को लागू करना चाहती है, जो कहीं से भी उचित नहीं है, कारपोरेट घरानों के लिए आदिवासियों की बलि कदापि नहीं होने दिया जाएगा। भले ही इसके लिए जो भी आंदोलन चलाना पड़े।’

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आदिवासी क्रांति का प्रतीक पर्व है ‘हूल’

बताते चले कि हूल संथाली भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ क्रांति होता है। 1854 और 1855 में झारखंड के जंगलों और खनिज संपदाओं की लूट के खिलाफ सिद्धू, कानू, भैरव, चांद के नेतृत्व में संथाल परगना के आदिवासियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का ऐलान कर दिया था। उन्होंने अंग्रेजों से जंगलों को मुक्त करने की ठानी थी। आदिवासी क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के बहुत से सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया था। परिणाम स्वरूप अंग्रेजों ने भी लगभग 20 हजार आदिवासी विद्रोहियों पर गोलियां चला दीं और कईयों को पेड़ों पर लटकाकर फांसी दे दी थी। इसी दिन को याद करते हुए हर साल देश के हजारों जन संगठन सरकार की जल-जंगल, जमीन और आदिवासियों के खिलाफ काम करने वाली नीतियों का विरोध करते हैं। जल-जंगल, जमीन और आदिवासियों के अस्तित्व के संरक्षण और सुरक्षा की लडाई लड़ते हैं। तभी से आदिवासी क्रांति के पर्व के रूप में हूल दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को आदिवासी समाज के लोग न केवल श्रद्धा के साथ याद करते हैं बल्कि, अपने समाज के उत्थान के साथ-साथ जल-जंगल और जमीन के संरक्षण की शपथ भी लेते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि आदिवासी-वनवासी समाज के लोग ही हैं, जो वनों-जंगलों और पहाड़ों के बीच जीवन-यापन करते हुए इनके संरक्षण के लिए जीते-मरते आये हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता सीमा

सामाजिक कार्यकर्ता सीमा बताती है कि हूल दिवस कोई मामूली दिवस नहीं है बल्कि आदिवासी समाज के त्याग, समर्पण और बलिदान से जुड़ा हुआ पर्व है। दुःखद यह है कि ऐसे क्रांतिकारी पर्व को पूरी तरह से भुला दिया गया है।’

आदिवासी समाज के लिए काम करने वाले सोनभद्र के रामजनम कुशवाहा कहते हैं कि, ‘देश की आजादी से लेकर यहाँ की प्राकृतिक संपदाओं के संरक्षण की दिशा में आदिवासी-वनवासी समाज के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। दुर्भाग्य कि बात है कि इस समाज को देश की आजादी के बाद जो मुकाम और सम्मान मिलना चाहिए उससे वह आज भी दूर बना हुआ है। इनती बदहाली और तंगहाली भरी जिंदगी इनकी उपेक्षा और पिछड़ेपन के  दर्द को दर्शाती है।’

क्या है वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023

29 अप्रैल, 2023 को वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 को लोकसभा में पेश किया गया था। जिसे संयुक्त संसदीय समिति द्वारा 3 मई को 15 दिन के भीतर कुछ टिप्पणी और सुझावों के लिए आमजन के समक्ष रखा गया था। गौर करें तो प्रस्तावित संशोधन वन संरक्षण अधिनियम 1980 को यह न केवल कमजोर करता है, बल्कि वन अधिकार कानून एवं पेसा कानून को अपूर्ण क्षति पहुंचाते हुए इसके क्रियान्वयन को नगण्य करता है। यह संशोधन विधेयक वनवासी समुदाय के अधिकारों पर कुठाराघात तथा प्रहार भी करता है।

लाल प्रकाश ‘राही’

शहीद भगत सिंह छात्र नौजवान महासभा के उत्तर प्रदेश सचिव एवं खेत-मजदूर किसान संग्राम समिति (जौनपुर) से जुड़े लाल प्रकाश ‘राही’ कहते हैं, ‘वन संरक्षण अधिनियम 1980 को कमजोर करने के साथ ही साथ कई पीढ़ियों से जंगलों में जीवन यापन करने वाले आदिवासी, वनवासी समाज के साथ-साथ प्रस्तावित संशोधन विधेयक वनवासी-आदिवासी समाज के अधिकारों का हनन भी है। प्रस्तावित विधेयक पूरी तरह से पूंजीपतियों के पक्ष में है, जो पूंजीवादी व्यवस्था को भी बढ़ावा देने वाला है।’

क्या है प्रस्तावित वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023

प्रस्तावित संशोधन विधेयक 2023 सीधे तौर पर वन अधिकार कानून 2006 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को नजर अंदाज करता है। ग्रामसभा, स्थानीय समुदाय, वन्य प्राणियों एवं वन संरक्षण के साथ-साथ संवर्धन के अधिकारों की भी अवहेलना करता है।

यह विधेयक केंद्र सरकार को पूर्णरूपेण सक्षम प्राधिकारी बनाता है, जो यह तय कर सकेगा कि वनों एवं वन भूमि को किस हद और तक किस रूप में इस्तेमाल किया जाएगा। परिणामत: वनों को गैर वन उपयोग के लिए भी परिवर्तित कर सकेगा। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि वनों की अंधाधुंध कटाई होगी एवं उन्हें निजी कंपनियों के हाथों में आसानी से दे दिया जाएगा। इसके लिए स्थानीय समुदायों की सहमति की कोई आवश्यकता नहीं लेनी होगी, जबकि वन संरक्षण अधिनियम 1980 की धारा 2 में स्थानीय समुदायों की सहमति अनिवार्य करता है।

इसी प्रकार प्रस्तावित यह विधेयक केंद्र सरकार को व्यापक रुप से शक्तियां भी प्रदान करता है। इन शक्तियों का उपयोग करते हुए केंद्र सरकार, राज्य सरकार और पेसा कानून, स्थानीय समुदायों एवं ग्राम सभा की शक्तियों को नकारते हैं। अधिसूचना या घोषणा के माध्यम से वनों को किसी भी व्यक्ति एवं निजी संस्थानों को हस्तांतरित कर सकता है। ऐसे अचिन्हित, अवर्गीकृत और अन्य वन क्षेत्रों को, जिसे 1996 में उच्चतम न्यायालय को गोदावर्मन केस के फैसले में वन का दर्जा दिया था, उसे प्रस्तावित विधेयक में इस विशाल वन भूमि की परिभाषा से बाहर करता है। अतः ग्राम सभा का आधिपत्य खत्म हो जाएगा, वह इसका संरक्षण एवं संवर्धन नहीं कर सकेगी और वन भूमि का हस्तांतरण बिना किसी सहमति के आसानी से किया जा सकेगा।

यह प्रस्तावित संशोधन विधेयक वन भूमि को संरक्षण के दायरे से बाहर कर देता है और राष्ट्रीय राजमार्ग, रेलवे, सड़क निर्माण, अंतरराष्ट्रीय सीमा के 100 किलोमीटर के दायरे, राष्ट्रीय उद्यान, प्रकृति पर्यटन स्थल, राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधित परियोजना, राष्ट्रीय रक्षा एवं पैरा मिलिट्री फोर्स तथा सार्वजनिक हित के लिए निर्माण कार्यों हेतु वन भूमि के उपयोग की छूट देता है। इसका सीधा-सीधा यह अर्थ निकलता है कि उपरोक्त परियोजनाओं से यह वन्य जीवों, पर्यावरण एवं समुदाय के परिवेश को न केवल हानि पहुंचाएगा, बल्कि उसको नष्ट भी करेगा।

यह विधेयक गैर वन गतिविधियों को भी बढ़ावा देता है, जो कि वनों के असंतुलित व्यवसायीकरण की छूट देता है और खनिजों के खनन के लिए अन्य मानकों जैसे भूकंप को नजर अंदाज करता है।

क्या है मांगें

  • वन अधिकार कानून 2006 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को नजरअंदाज न किया जाए और ग्राम सभा एवं स्थानीय समुदायों के अधिकार को बरकरार रखा जाए।
  • मूल वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 के धारा 2 में स्थानीय समुदायों की सहमति को अनिवार्य करते हुए प्रस्तावित संशोधन विधेयक के धारा 4 के तहत भी अनिवार्य किया जाए।
  • अचिन्हित, अवर्गीकृत और अन्य वन क्षेत्रों को, जिसे 1998 में उच्चतम न्यायालय में गोदावर्मन केस के फैसले में वन को परिभाषित किया गया, इसे प्रस्तावित संशोधन विधेयक में भी लाया जाए।

आज यह विचारणीय विषय है कि प्रस्तावित वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 को लाने के बजाय वन अधिकार कानून 2006 को धरातल पर सख्ती से कैसे लागू किया जाए?

जन समर्थन के बल पर धरातल पर होगा अधिकार

सोशल एक्शन फोरम उत्तर प्रदेश (सेफ) की सह-संयोजक शोभना स्मृति

सोशल एक्शन फोरम उत्तर प्रदेश (सेफ) की सह-संयोजक शोभना स्मृति बताती हैं कि ‘व्यापक जन समर्थन के दम पर हम आदिवासी-वनवासी समाज को उनका अधिकार दिलाने के साथ-साथ प्रस्तावित वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023 को वापस लेने व वन अधिकार कानून 2006 को धरातल पर सख्ती से लागू किए जाने की मुहीम को परवान चढ़ा कर ही रहेंगे।’ वह सवाल करती हैं कि ‘आखिरकार सरकारें वन अधिकार कानून 2006 को धरातल पर लागू करने से क्यों कतरा रही हैं? इस कानून के लागू होने से सरकार को क्या खतरा है?’

शहीद भगत सिंह छात्र नौजवान महासभा के जिला सचिव विवेक शर्मा

शहीद भगत सिंह छात्र नौजवान महासभा के जिला सचिव विवेक शर्मा की बातों से इसका उत्तर तलाशा जा सकता है। वह कहते हैं कि ‘वन अधिकार कानून 2006 को धरातल पर लागू करने से सरकार की घबराहट भरी मंशा आम आवाम के समझ से भले ही परे हो, लेकिन यह स्पष्ट होता है कि सरकार और पूंजीपतियों, खासकर कॉरपोरेट घरानों से जो तालमेल है, वह इस विधेयक के धरातल पर लागू होने से गड़बड़ा सकता है।’

शोभना कहती हैं, ‘वन अधिकार कानून 2006 को धरातल पर लागू करने से लेकर आदिवासी-वनवासी समाज को सम्मान दिलाने से लेकर वनों-जंगलों के संरक्षण के लिए चलाया जा रहा यह अभियान अब पिछड़े इलाकों, जंगलों पहाड़ों से होते हुए नगरों, महानगरों तक ले जाने की जरूरत है, ताकि वनों-जंगलों के संरक्षण और उन्हें बचाने की दिशा में लोग आगे आए। आज लोगों को बताने की जरूरत है कि जंगल बचेंगे तभी जल बचेगा और जल बचेगा तभी जीवन बचेगा। प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है, इसके पीछे भी जंगल की बेहिसाब कटाई है। जंगल और जंगल को संरक्षित करने वाले लोगों को बचाकर ही भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है।

 

रामजी यादव
रामजी यादव
लेखक कथाकार, चिंतक, विचारक और गाँव के लोग के संपादक हैं।

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