मणिपुर हिंसा पर केन्द्रित कवितायें
हम यहाँ ख्यातिलब्ध बांग्ला कवि जय गोस्वामी की कुछ कवितायें प्रकाशित कर रहे हैं। ये कवितायें एक हताश-उदास समय के मुहाने पर किसी आक्रोशित प्रतिरोध की तरह रची गई हैं। यह आक्रोश आज इस देश की जरूरत है पर बहुत ही दुख के साथ, यह कहना पड़ रहा है कि धार्मिक घृणा का झण्डा उठाते हुये इस देश के बड़े हिस्से की संवेदनाएं इतनी कमतर हो चुकी हैं कि देश के एक हिस्से के भयावह तौर पर जलने की तपिश, देश के दूसरे हिस्से को महसूस ही नहीं हो रही है। हम भारत के लोग जो वसुधैव कुटुम्बकम का उद्घोष करते नहीं थकते, उनके झूठे और लिज-लिजे अभिमान को मणिपुर की हिंसा ने पूरी तरह से बेनकाब कर दिया है। जिस जातीय हिंसा में मणिपुर जल रहा है वह इस देश के लिए एक सबक भी है और उससे भी कहीं बहुत ज्यादा भारत के, भविष्य की राजनीति का वह मॉडल भी है जो अगर पूर्वोत्तर में सफल रहा तो सरकार, जो बार-बार धार्मिक ध्रुवीकरण के सहारे सत्ता हथियाने के लिए प्रयासरत दिखती है, वह किसी न किसी रूप में मणिपुर की त्रासदी को भारत की त्रासदी में तब्दील करने से भी गुरेज नहीं करेगी।
ऐसे समय में जब इस देश की जर-खरीद जनता को सत्ता के खिलाफ चिल्लाना चाहिए, तब वह होंठ सीये सत्ता के गुणगान में लगा हुआ है क्योंकि वह मणिपुर में नहीं रहता है। उसे शायद यह नहीं पता है कि जब गुजरात, दिल्ली या फिर देश के किसी भी हिस्से में हिंसा हुई थी तब मणिपुर को भी नहीं लगा था कि उसकी शांति में खलल पड़ेगा। फिलहाल जय गोस्वामी ये कवितायें, जिनका अनुवाद शिल्प भले ही कुछ तटस्थ हो पर कविता का अभिप्राय निसंदेह महत्वपूर्ण है। इस कविता के बहाने वह सिर्फ आम अवाम को सचेत नहीं करते बल्कि उन तमाम लेखकों-कवियों पर भी सवाल उठाते हैं जो इस घनीभूत पीड़ा की संवेदना से पृथक हैं। (संपादक)
(01)
यदि मणिपुर मे रहती मेरी लड़की?
नौकरी के सिलसिले से रहती मेरी लडकी?
तब मैं क्या करता!
अब मैं क्या कर रहा हूँ?
इस बूढ़ी हड्डी से कुछ भी नहीं कर पाता हूँ..
उनके सामने जाकर
शरीर पर मिट्टी का तेल डालकर
मर तो सकता हूँ!
मैं कोई भी सत्य साहस से नहीं कर सका हूँ
मणिपुर आज जल रहा है
मेरे ही दोष से!
(02)
समस्त शरीर से कपड़े उतरवाकर
निर्वस्त्र करके घुमाया
हमारी ही लड़कियों की उम्र की होगी वह लड़की भी
कवि होकर बैठा हूँ
शहर में
घर में
इस घटना के बाद
जो ग्रहण कर रहा हूँ
वह क्या पानी है या विष?
कविता अब भी लिखते हो किस तरह?
कलम के निब को दबाकर
क्यों अभी बिल्कुल अभी
अपने दोनों आँखों को
बंद करते हो, न?
( 03)
तुम उत्तरदायी हो
उत्तरदायी हो तुम!
आजीवन सिर्फ़ छपवाने के लिए
कविताएँ लिखते रहें
किसी काम में आ न सकें।
लड़की के प्रेम के छंदों को
बांधें हो मध्य यौवन में
वही लड़की एक दिन
निज संतान हो गई।
मणिपुर समझता हूँ कि
संतान नहीं है तुम्हारा?
तुम कवि हो!
तुम कवि हो!
मणिपुर में आकर तुम्हारा जो कुछ
लिखा पढ़ा हुआ है
वह सब कुछ
काली मरुभूमि के समान हैं।
(04)
निर्वस्त्र परेड, निर्वस्त्र परेड!
परेड सिर्फ़ और सिर्फ़ लड़कियों के
यह-वीडियो आज वायरल हुआ
घर में बैठकर सिर्फ़ कविता लिख रहा हूँ
सोच भी नहीं सकता कौन है यह!
कवि नामधारी जीव होते हैं
इस बार तुम पन्ने-पत्तर उठाओ
मणिपुर जाकर
स्वयं को चिता में जलाओ।
(05)
कविता बनाता हूँ छंद में
और उस कविता को प्रकाशित करवाता हूँ।
आज इस भारतवर्ष में
मणिपुर जैसी घटना घटती है
इस मिट्टी में
तुम्हारी लिखी कविता का छंद पाप है
स्वयं कविता के पाप के साथ
स्वयं जलकर मर पापी!
(06)
मेरी कविता किसी अन्याय को रोक नहीं सकती
सामने, दूर ..मणिपुर
रोक नहीं सकता हूँ
फिर भी जो लड़कियाँ प्रकाश दिव्यलोक में
अपनी लज्जा वस्त्र को बचा नहीं सकी
हृदय पर हाथ रखकर स्वीकार करता हूँ कि
मेरा यह सब लिखा
फिर एक बार
फाड़ रहा हूँ मैं
सिर्फ़ आप लोगों की मर्यादओं के लिए।
(07)
लड़की (लाड्डों) बनकर जन्मीं
यही है तुम्हारा दोष
जन्मीं हो मणिपुर में
तुम्हारा इतना साहस!
तुम्हें नग्न कर घुमा रहा है कौन?
लोग सूई-धागा से सिलाई किये हैं होंठ
भूल गए हैं सब लज्जा और घृणा
भाग्य बढ़िया है कि रवीन्द्रनाथ
अपनी आँखों से नहीं देखें।
घर-घर , हर-घर
बलात्कार की शिकार हो रहीं
मणिपुर की कन्याएं!
(08)
शांति नहीं, शांति नहीं,
है सिर्फ़ और सिर्फ़ स्वेच्छाचार
लड़की होंने पर ‘लज्जा’ उसकी है
छीन लो यह-अधिकार
पाया हूँ
पाया सिर्फ़ पुरुषलोक
हे, मेरे देश की माटी, मृत्तिका और वज्र
जलाओं इस बार अभिशाप का चाबुक- नेत्र
इस पुरुष अधिकार का
विनाश हो, विनाश हो।
(09)
कितने महीने से इंटरनेट बंद!
मणिपुर फटकर छिटक रहा बाहर
अग्निउत्पाती-कथा
बाहर की पृथ्वी को
जान भी नहीं पाएगें वह
मेरी क़लम से यह कविता नहीं,
यह कविता हर दिशा में
दिखा सकते हो,
दो, दो – लड़कियों का दल बनाकर
घोड़ो की तरह खुलें में दौड़ रहें हैं
बादलों में ज्वलन्त घोड़े!
(10)
प्रभात नहीं,
कोई प्रभात नहीं, मणिपुर में
रात नहीं, कोई रात नहीं
सिर्फ़ सूर्य के चक्षु
जला दिये गये, जला दिये गये हैं
मैदान, वन, नदी, वृक्ष की लज्जाएं
दबाव डालकर सब घरों की
लड़कियों को निर्वस्त्र कर
रास्तों पर
प्रदर्शित कर चला रहें हैं जो
एकत्रित होकर, झंडा फहराकर
वह सब जलकर
खाक हो जाएँगे
खाक हो जाएँगे।
यह-भूल प्रचार धोकर मूर्छित होंगे
कलयुग में,
आज अग्नि का कोई हाथ नहीं!
जय गोस्वामी (जन्म: १० नवम्बर,1954 ई.) बंगाली भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कविता–संग्रह ‘पागली तोमार संगे’ के लिये उन्हें सन् 2000 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जय गोस्वामी की कविता ‘माँ और बेटी’ उसके प्रकाशित वर्ष की सर्वोत्तम बांग्ला कविताओं में से एक थी। ३१वां मूर्तिदेवी पुरस्कार-२०१७ जय गोस्वामी को प्रदान किया गया था।
इन कविताओं को अनुवाद रोहित प्रसाद पथिक द्वारा किया गया है। कवि, लेखक, अनुवादक व चित्रकारके रूप में पहचान रखने वाले, रोहित प्रसाद कई प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं जैसे: हंस, वागर्थ, किस्सा कोताह, विभोम स्वर, शिवना साहित्यिकी, ककसाड़, किस्सा, राजस्थली, पाखी, कथादेश, गाँव के लोग आदि में कविताएँ, कहानियाँ, पुस्तक समीक्षा, मुख पृष्ठ व रेखाचित्रों का निरन्तर प्रकाशन। एक काव्य संग्रह ‘ईश्वर को मरते देखा है ‘ हाल ही में प्रकाशित। विभिन्न सेमिनारों में रेखाचित्र व पेंटिंग प्रदर्शनी। कई कविताएँ अन्य भाषाओं में भी अनुदित। शंख घोष, सुनील गंगोपाध्याय, नवनीता देवसेन, सुभाष मुखोपाध्याय, शक्ति चट्टोपाध्याय व जीवनानन्द दास सहित बंगला कविताओं का हिन्दी में अनुवाद, बांग्ला टी.वी व आसनसोल आकाशवाणी से कविताओं व साक्षात्कार का प्रसारण। अनुगूँज अर्द्ध वार्षिक साहित्य पत्रिका के सम्पादक।