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बातें, जो कहनी जरूरी हैं, क्योंकि हम ज़िंदा हैं, (डायरी : 9 सितंबर, 2021)

देश में शिक्षा के प्रसार का असर को साफ-साफ देखा जा सकता है। लोग पढ़ने लगे हैं और अब वे बातें करते हैं। ज्ञान व सूचनाओं के पारंपरिक स्रोतों पर वे सवाल भी उठाने लगे हैं। फिर चाहे वह इतिहास के पन्ने हों या फिर अखबारों के पन्ने। वे अदालतों पर भी अब उतना विश्वास […]

देश में शिक्षा के प्रसार का असर को साफ-साफ देखा जा सकता है। लोग पढ़ने लगे हैं और अब वे बातें करते हैं। ज्ञान व सूचनाओं के पारंपरिक स्रोतों पर वे सवाल भी उठाने लगे हैं। फिर चाहे वह इतिहास के पन्ने हों या फिर अखबारों के पन्ने। वे अदालतों पर भी अब उतना विश्वास नहीं करते हैं, जितना कि पहले किया करते थे। विश्वविद्यालयों के गुरुओं को भी अब पहले वाला सम्मान हासिल नहं है। उनके कहे का कोई खास मतलब नहीं है। यह सब क्यों हुआ है, इसकी वजहें तो कई हो सकती हैं, जिनके बारे में विस्तार से बातें की जा सकती हैं, लेकिन मुझे लगता है कि इसका एकमात्र कारण शिक्षा है। एक सिर्फ इसके कारण देश के हर हिस्से में, हर जाति-समुदाय में बदलाव हो रहा है।

मैं तो अदालतों को देख रहा हूं। बिहार के वापमंथी कवि हैं कृष्ण कुमार विद्रोही। उनकी एक रचना है- “बाथे, बथानी, नगरी, एके कहानी सगरी, कोर्ट से भईली निसहाय जी”। इस गीत के माध्यम से वे बिहार में रणवीर सेना द्वारा किए गए नरसंहारों यथा लक्ष्मणपुर बाथे, बथानी टोला और नगरी आदि का संदर्भ देते हुए कहते हैं कि पीड़ित पक्ष अदालतों के फैसले से हताश है।

[bs-quote quote=”सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन मामलों की सुनवाई के लिए एक बड़े बेंच की आवश्यकता है। बड़ा बेंच मतलब कम से कम पांच जजों की एक खंडपीठ हो। पीड़ितों के लि” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

वर्ष 2009 से लेकर वर्ष 2016 तक मैं उन गांवों में गया,, जहां नरसंहारों को अंजाम दिया गया। फिर वे नरसंहार रणवीर सेना ने अंजाम दिए हों या फिर एमसीसी ने। अपनों के खाेने का गम हर जगह दिखता है। लेकिन अंतर है। जिन गांवों पर रणवीर सेना ने 1995 से लेकर 2000 के बीच हमला बोला और करीब 450 लोगों की हत्याएं की, उन गांवों में अदालतों को लेकर असंतोष है। उनका कहना है कि अदालतों ने न्याय नहीं किया। उनके मामले सुप्रीम कोर्ट में अगस्त, 2012 से सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं।

मैं यह मानता हूं कि पीड़ितों का अदालत के प्रति नकारात्मक रवैया बेवजह नहीं है। पटना हाईकोर्ट ने तो सभी मामले में सारे आरोपियों को पर्याप्त सबूत नहीं होने का लाभ देते हुए बरी ही कर दिया है। हाईकोर्ट ने मानो यह कहा हो कि न तो कोई रणवीर सेना नामक संगठन था और ना ही उसने किसी नरसंहार को अंजाम दिया। फिर जो 450 से अधिक लोग मारे गए,वे मारे गए या फिर सबने खुद को गोली मार ली या खुद का गला रेता और वह भी अपने सगे-संबंधियों के साथ? यह सवाल तो बनता है।

बथानी टोला और बाथे आदि मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जो याचिकाएं हैं, उन्हें पीड़ितों के पक्ष से रखने वाले अधिवक्ता से खबर लिखने के सिलसिले में उनका पक्ष जानने के लिए दो-तीन बार मुलाकातें हुई हैं। भाकपा माले की सीनियर लीडर कविता कृष्णन ने इस संबंध में मेरी बड़ी मदद की। अधिवक्ता महोदय द्वारा मुझे जो जानकारी दी गयी, उसके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के पास जजों का अकाल है। दरअसल, जब याचिकाएं दायर की गयी थीं, तब सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें सुनवाई के योग्य माना, जिसे पीड़ितों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया गया अहसान माना जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इन मामलों की सुनवाई के लिए एक बड़े बेंच की आवश्यकता है। बड़ा बेंच मतलब कम से कम पांच जजों की एक खंडपीठ हो। पीड़ितों के लिहाज से दुखद यह कि तबसे लेकर आजतक इन मामलों की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास पांच जज नहीं हैं।

मैं दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता के पहले पृष्ठ पर प्रकाशित एक खबर को देख रहा हूं। इसका शीर्षक हम पत्रकारों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है- ‘प्राथमिकी रद्द कराने को पत्रकार सीधे सुप्रीम कोर्ट नहीं आएं’। सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों एल नागेश्वर राव, बी आर गवई और बी वी नागरत्न ने कल संयुक्त रूप से उपरोक्त टिप्पणी ‘द वायर’ से संबद्ध तीन पत्रकारों द्वारा दायर की गयी याचिका की सुनवाई के दौरान की। याचिका की पृष्ठभूमि यह है कि तीनों पत्रकारों के खिलाफ उत्तर प्रदेश के बाराबंकी, गाजियाबाद और रामपुर में प्राथमिकियां दर्ज करवायी गयीं। इन प्राथमिकियों में पत्रकारों पर भारतीय दंड सहिता की धारा 153, 153ए, 153बी और 505 के तहत आरोप लगाए गए हैं। आरोपों का सार यह है कि पत्रकारों ने देश के खिलाफ जाकर पत्रकारिता की है और उन्हें इसके लिए दंड मिलना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट उपरोक्त तीनों महान विद्वान जजों ने कहा है कि वे पत्रकारिता का गला नहीं घोंटना चाहते हैं। लेकिन वे प्राथमिकियों को रद्द करने का आदेश देकर पत्रकारों के लिए रास्ता नहीं खोल सकते। अब इसका मतलब यह हुआ कि पत्रकार पहले उन निचली अदालतों में जाएं और वहां ट्रायल में शामिल हों और यदि निचली अदालत के फैसले से वे असंतुष्ट होते हैं तभी शीर्ष अदालतों की ओर रूख करें।

मैं बथानी टोला, बाथे आदि नरसंहारों के मामलों को देख रहा हूं। उन सभी मामलों में यही तो हुआ है। सबसे पहले निचली अदालतों ने फैसला सुनाया। अधिकांश आरोपियों को उम्रकैद और डेढ़ दर्जन से अधिक को फांसी की सजा मुकर्रर की। फिर हाई कोर्ट की बारी आयी। हाई कोर्ट ने निचली अदालतों के फैसलों को बदल दिया। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में 2012 से लंबित है।

तो इसका मतलब यह हुआ कि पत्रकारों को इंतजार करने की आदत डाल लेनी चाहिए।

[bs-quote quote=”भारतीय शासन प्रणाली में चल रहे संक्रमण का असर सुप्रीम कोर्ट पर भी है। मेरे पास इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है, क्योंकि न तो मैं यह मानने को तैयार हूं कि बथानी टोला, बाथे आदि नरसंहारों के मृतकों (जिनमें महिलाएं और अबोध बच्चे तक शामिल थे) ने खुदकुशी की और ना ही यह कोरोना के दौरान सरकारों ने आपराधिक लापरवाहियां नहीं की” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

जनसत्ता में ही एक और खबर है और यह भी सुप्रीम कोर्ट से ही संबंधित है। यह खबर कोरोना के कारण अपनों को खोनेवाले एक व्यक्ति दीपक राज सिंह की याचिका की सुनवाई पर आधारित है। इस मामले की सुनवाई के लिए भी सुप्रीम कोर्ट के पास तीन जज रहे। न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायाधीश विक्रमनाथ और न्यायाधीश हिमा कोहली की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि “कोरोना से हुई मौत को लापरवाही मानना गलत है।” इन तीनों विद्वानों ने कहा है कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई है। लेकिन उनकी मौत की वजह ऑक्सीजन और डाक्टरों की कमी रही, इसके लिए सरकारी तंत्र को जिम्मेदार माना जाए, ऐसी धारणा वे नहीं बनने देना चाहते।

मुझे मान लेना चाहिए कि भारतीय शासन प्रणाली में चल रहे संक्रमण का असर सुप्रीम कोर्ट पर भी है। मेरे पास इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है, क्योंकि न तो मैं यह मानने को तैयार हूं कि बथानी टोला, बाथे आदि नरसंहारों के मृतकों (जिनमें महिलाएं और अबोध बच्चे तक शामिल थे) ने खुदकुशी की और ना ही यह कोरोना के दौरान सरकारों ने आपराधिक लापरवाहियां नहीं की।

मुझे अपनी प्रेमिका को याद करना चाहिए। जाहिर तौर पर सुप्रीम कोर्ट से इसका कोई लेना-देना नहीं है। मुझे तो उस दिन का इंतजार है जब सुप्रीम कोर्ट के परकोटे से खबर आएगी – बिहार में न तो नरसंहार हुए और ना ही कोई हत्यारा था या फिर देश में कभी कोरोना आया ही नहीं था।

कल देर शाम ही मेरी जेहन में अपनी प्रेमिका के लिए कविता आयी।

एक आदिवासी गीत हो तुम
जो है मेरे हृदय में
और एक मधुर संगीत जैसे
पहाड़ों में सुनाती है मद्धम हवा
और एक सुगंध हो तुम
हर जगह फैली हुई
जहां मैं सांस लेता हूं
फिर आता है ख्याल कि
यह तो सब ख्वाब है
और यह सब ख्वाब है
तो फिर सच क्या है?

मैं तुमसे पूछता हूं
क्या यह सच नहीं हो सकता
जो दरमियान हैं हमारे?

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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