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बघेल के बयान में प्रतिबिंबित हुई है मूलनिवासियों की बेचैनी !

छत्तीसगढ़ के पेरियार के नाम से विख्यात 86 वर्षीय नन्द कुमार बघेल की छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा गिरफ्तारी से मूलनिवासी वर्ग क्षोभ से भर उठा है। इस क्षोभ का खास कारण यह है कि सत्ताधारी पार्टी से जुड़े बड़े –बड़े नेता जहाँ वर्षों से मुसलमानों और सोनिया गाँधी को विदेशी बताकर घोरतर आपत्तिजनक बयान देते रहे […]

छत्तीसगढ़ के पेरियार के नाम से विख्यात 86 वर्षीय नन्द कुमार बघेल की छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा गिरफ्तारी से मूलनिवासी वर्ग क्षोभ से भर उठा है। इस क्षोभ का खास कारण यह है कि सत्ताधारी पार्टी से जुड़े बड़े –बड़े नेता जहाँ वर्षों से मुसलमानों और सोनिया गाँधी को विदेशी बताकर घोरतर आपत्तिजनक बयान देते रहे हैं: वहीँ वर्तमान दौर में अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा इत्यादि जैसे ढेरों लोग समय –समय पर सामाजिक और धार्मिक सौहार्द बिगाड़ने वाला लगातार बयान  देकर देश का माहौल उतप्त करते रहें हैं, किन्तु उन्हें दण्डित करने के बजाय उल्टे पुरस्कृत किया जाता रहा है. इनके मुकाबले बघेल का बयान कम आपत्ति जनक है, यह सोचकर ही छत्तीसगढ़ सहित देश विभिन्न प्रान्तों में बघेल की निशर्त रिहाई के लिए धरना-प्रदर्शन चल रहा है. बघेल ने पिछले माह लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था,’अब वोट हमारा राज  तुम्हारा नहीं चलेगा हम यह आन्दोलन करेंगे. ब्राह्मणों को गंगा से वोल्गा भेजेंगे, क्योंकि वे विदेशी हैं. जैसे अंग्रेज आये और चले गए. ब्राह्मण या तो सुधर जाएं या फिर गंगा से वोल्गा जाने के लिए तैयार रहें. दक्षिण भारत में स्टालिन ने मंदिरों से ब्राह्मणों को निकाल दिया है. वहां तो अनाथ हो गए हैं. ऐसी दुर्गति उत्तर प्रदेश में भी होगी.ब्राह्मणों से इसलिए नाराजगी है क्योंकि वे हमें अछूत मानते हैं, हमारे अधिकार को छीन रहे हैं, इसलिए उनसे लड़ाई जरुरी है.हम प्रस्ताव पास कर हर समाज से अपील करेंगे कि ब्राह्मणों को घुसने न दिया जाय. हम सरपंचों से कहेंगे कि ब्रह्मणवाड़ा का विरोध करें. योगीराज से कहेंगे कि वे हमारा साथ दें.’ बताया जाता है उनका यह बयान आने के बाद वायरल हो गया, जिसके बाद जगह- जगह ऍफ़आईआर दर्ज होनी शुरू हो गयी.इसी तरह की एक ऍफ़आईआर डीडी थाने में भी दर्ज हुई थी.

इस घटना के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक बयान जारी किया जिसमे उन्होंने कहा था कि वह किसी समाज को अपपमानित किये जाने के खिलाफ हैं, लिहाजा अगर यह काम खुद उनके पिता ने किया है तो वह उसकी भी मुखालफत करेंगे. सीएम बघेल के इस बयान के बाद लगता है छत्तीसगढ़ पुलिस को हरी झंडी दे दी गयी.  उसके बाद नंद कुमार की आगरा में गिरफ्तारी हो गयी. वहां से लेकर पुलिस उन्हें रायगढ़ पहुंची , जहाँ माने थाने में 2 घंटे बैठाने के बाद , उन्हें रायपुर की एक कोर्ट में पेश किया गया. वहां से कोर्ट ने उन्हें 21 सितम्बर यानी 15 दिनों के लिए न्यायायिक हिरासत में भेज दिया. नंद कुमार ने कोर्ट के इस आदेश के बाद जमानत की अर्जी  देने से इनकार कर दिया.उनका कहना है कि उन्होंने कोई गलत बात नहीं की है और वह अभी भी अपने बयान पर कायम हैं. उनका कहना था कि वह मरते दम तक एससी, एसटी और ओबीसी के सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ते रहेंगे. लिहाजा अन्याय के खिलाफ झुकने का कोई सवाल नहीं उठाता है.’ बहरहाल बघेल ने ब्राह्मणों को न सुधरने की स्थिति में गंगा से वोल्गा भेजने की जो बात है, उसे यदि नजरंदाज  कर दिया जाय तो ब्राह्मणों को लेकर कही गयी उनकी बातों को कोई नयापन नहीं है. क्योंकि वर्षों पहले जहाँ उन्हें तिलक , नेहरु , राहुल सांकृत्यायन जैसे ब्राह्मण विदेशी प्रमाणित किया , वहीँ फुले, शाहूजी, पेरियार, आंबेडकर जैसे बहुजन नायक उन्हें भारत में सदियों से प्रवाहमान सामाजिक अन्याय के लिए जिम्मेवार ठहराया . आज भी ब्राह्मणवादी  आरएसएस का बहुजनवादी संस्करण बामसेफ से जुड़े लोग अपने सभा – सेमिनारों में दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित विशाल बहुजन समाज सहित देश की आधी आबादी की बदहाली के लिए जिम्मेवार विदेशी मूल के ब्राह्मणों को ठहराते हैं, किन्तु कोई उनके खिलाफ वैसी कारवाई की मांग नहीं उठाता, जैसी बघेल के साथ की गयी है. नंद कुमार बघेल जैसे वरिष्ठ लेखक-चिन्तक भी शायद वैदिक काल से लेकर वर्तमान भारत के ब्राह्मणों की सामाजिक अन्यायकारी भूमिका से भलीभांति अवगत हैं, इसलिए उन्होंने अपनी बात वापस लेने से इनकार दिया है.ऐसे में यह मामला यदि आगे बढ़ता है तो वह निश्चय ही ब्राहमणों के लिए सुखद नहीं होगा. क्योंकि इससे यह तथ्य अनिवार्य रूप से सामने आयेगा कि तिलक-नेहरु – राहुल ने जिन ब्राह्मणों को विदेशी मूल के आर्य प्रमाणित किया है, वे विश्व के प्राचीनतम साम्राज्यवादी रहे, जिन्होंने शक्ति के स्रोतों पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए मूलनिवासी शुद्रातिशूद्रों और उनकी महिलाओं का इस निर्ममता से शोषण किया जिसकी मिसाल आधुनिक विश्व में सिर्फ दक्षिण अफ्रीका में ही मिल सकती है.

“यह मामला यदि आगे बढ़ता है तो वह निश्चय ही ब्राहमणों के लिए सुखद नहीं होगा. क्योंकि इससे यह तथ्य अनिवार्य रूप से सामने आयेगा कि तिलक-नेहरु – राहुल ने जिन ब्राह्मणों को विदेशी मूल के आर्य प्रमाणित किया है, वे विश्व के प्राचीनतम साम्राज्यवादी रहे, जिन्होंने शक्ति के स्रोतों पर कब्ज़ा बनाये रखने के लिए मूलनिवासी शुद्रातिशूद्रों और उनकी महिलाओं का इस निर्ममता से शोषण किया जिसकी मिसाल आधुनिक विश्व में सिर्फ दक्षिण अफ्रीका में ही मिल सकती है.   ”

स्मरण रहे दक्षिण अफ्रीका विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसकी भारत से सर्वाधिक साम्यताएं हैं. दक्षिण अफ्रीका में 9-10  प्रतिशत अल्पजन गोरों, प्रायः 79 प्रतिशत मूलनिवासी कालों और 10-11 प्रतिशत कलर्ड (एशियाई उपमहाद्वीप के लोगों) की आबादी है. वहां का समाज तीन विभिन्न नस्लीय समूहों से उसी तरह निर्मित है जैसे विविधतामय भारत समाज अल्पजन सवर्णों, मूलनिवासी बहुजनों और धार्मिक अल्पसंख्यकों से. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में विदेशागत गोरों का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा रहा है, ठीक उसी तरह भारत में 15 प्रतिशत सवर्णों का 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा कायम है. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी बहुसंख्य हो कर भी शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रहे, प्रायः वैसे ही भारत के मूलनिवासी दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबके भी हैं. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में सभी स्कूल, कॉलेज, होटल , क्लब, पॉश कालोनियां, रास्ते मूलनिवासी कालों के लिए मुक्त नहीं रहे, प्रायः वही स्थिति भारत के मूलनिवासियों की रही. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में सभी सुख-सुविधाएं गोरों के लिए सुलभ रही, उससे भिन्न स्थिति भारत के सवर्णों की भी नहीं रही. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका का सम्पूर्ण शासन तंत्र गोरों द्वारा गोरों के हित में क्रियाशील रहा, ठीक उसी तरह भारत में शासन तंत्र हजारों साल से ब्राह्मणों के नेतृत्व में सवर्णों द्वारा सवर्णों के हित में क्रियाशील रहा है और आज भी है. इन दोनों ही देशों में मूलनिवासियों की दुर्दशा के मूल में बस एक ही कारण प्रमुख रूप से क्रियाशील रहा और वह है शासक वर्गों की शासितों के प्रति अनात्मीयता. इसके पीछे शासकों की उपनिवेशवादी सोच की क्रियाशीलता रही. दक्षिण अफ्रीका के गोरों ने जहां दो सौ साल पहले उपनिवेश कायम किया, वहीं भारत के आर्यों ने साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व. दक्षिण अफ्रीका के विदेशागत गोरे शासकों ने जहां बन्दूक की नाल पर पुष्ट कानून के जरिये मूलनिवासियों को जानवरों जैसी स्थिति में पड़े रहने के लिए विवश किया, वहीं भारत के मूलनिवासियों को मानवेतर प्राणी में तब्दील व अधिकारविहीन करने के लिए प्रयुक्त हुआ धर्माधारित कानून, जिसमें  मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य घोषित करते हुए ऐसे –ऐसे प्रावधान तय किये गए, जिससे मूलनिवासी चिरकाल के लिए शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत होने के साथ ही निःशुल्क-दास में परिणत होने के लिए अभिशप्त हुए. किन्तु अब भारत और दक्षिण अफ्रीका में पहले वाली साम्यताएं नहीं रही. आज दक्षिण अफ्रीका के शासक और शासित वर्ग उलट चुके हैं, जबकि भारत में स्थिति पूर्ववत है.

साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व आर्यों ने  जिस धर्माधारित समाज व्यवस्था द्वारा दक्षिण अफ्रीका जैसा उपनिवेश कायम किया, उसका नाम है वर्ण-व्यवस्था.वर्ण- व्यवस्था में स्व-धर्म पालन के नाम पर ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शुद्रातिशूद्र में बंटे चार मानव समूहों के लिए धर्मशास्त्रों द्वारा भिन्न-भिन्न कर्म/ पेशे(वृतियां) निर्दिष्ट की गईं. इनमे ब्राह्मण वर्ण के मानव समूहों का धर्म अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य और राज्य संचालन में मंत्रणादान; क्षत्रियों  का धर्म भूस्वामित्व, शासन-प्रशासन सैन्य संचालन तो वैश्यों का धर्म पशुपालन, व्यवसाय-वाणिज्यादि का कार्य सम्पादित रहा. स्व-धर्म पालन में हिन्दू ईश्वर के जघन्य अंग पैर से जन्मे बहुसंख्य लोगों  का का धर्म निर्दिष्ट रहा ऊपर के तीन वर्णों की निशुल्क सेवा. चार वर्णों के पेशे/कर्मों के बंटवारे को चिरस्थायी करने के लिए स्व-धर्म पालन में कर्म-शुद्धता को अनिवार्य व कर्म –संकरता को निषिद्ध कर दिया. कर्म संकरता की निषेधाज्ञा का मतलब था जिस वर्ण को जो पेशे निदिष्ट किया गए गए है, उस वर्ण के लोग वही पेशे/कर्म पीढ़ी दर पीढ़ी करते रहेंगे. ऐसा करके पेशों की विचलनशीलता हमेशा के लिए ख़त्म कर दी गयी. धर्मशास्त्रों द्वारा पेशों की विचलनशीलता(प्रोफेशनल मोबिलिटी)के निषेध के जरिये शक्ति के समस्त स्रोत(आर्थिक- राजनीतिक-शैक्षिक- धार्मिक) चिरकाल के लिए विदेशी मूल के ब्राह्मण और उनके सहयोगी क्षत्रिय और वैश्यों के मध्य आरक्षित होकर रह गए. इस प्रक्रिया में वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले लिया जिसे हिन्दू आरक्षण कहते हैं. हिन्दू आरक्षण – व्यवस्था में सुपरिकल्पित रूप से शुद्रातिशुद्रों को शक्ति के समस्त स्रोतों से बहिष्कृत कर हमेशा के लिए निःशुल्क दास के रूप में परिणत कर दिया गया.इस प्रकार वर्ण-व्यवस्था के बुनियाद पर  हिन्दू- साम्राज्यवाद का तोरण विकसित किया गया .

हिन्दू साम्राज्यवाद को चिरस्थाई रखने के लिए आर्य मनीषियों ने कर्म-शुद्धता के साथ ही वर्ण-शुद्धता का सिद्धांत रचा, जिसके फलस्वरूप चार वर्णों के लोग अपने जाति/ वर्ण की छोटी-छोटी परिधि में शादी-व्याह करने के लिए बाध्य हुए. इसके फलस्वरूप भारत समाज परस्पर घृणा और शत्रुता के आधार पर जातियों के असंख्य टुकडो में विभक्त होने के लिए अभिशप्त हुआ.इसीलिए जातियों के असंख्य टुकड़ों में बंटे भारत को जय करने में आर्यों के बाद के बाद आये विदेशी आक्रान्ताओं को कोई दिक्कत ही नहीं हुई. यही नहीं वर्ण-व्यवस्था उर्फ़ हिन्दू आरक्षण के जरिये हिन्दू साम्राज्यवाद को पूर्ण रूपेण सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने बहुत से सहायक उपादानों को सामाजिक व्यवस्था में तब्दील कर दिया. इसी क्रम में सती- विधवा और बालिका विवाह-प्रथा के साथ अछूत-प्रथा वजूद में आयी. इन प्रथाओं का कुफल देश को किस रूप में भोगना पड़ा इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि महापंडित राहुल के अनुसार भारत के सम्पूर्ण इतिहास में सती – प्रथा में सवा करोड़ नारियों को भून कर मार डाला गया. इस आधार पर विधवा – प्रथा के तहत की कितने करोड़ महिलाओं की यौन-कामना को बर्फ-की सिल्लियों में तब्दील किया गया तथा कितनी  बच्चियों को बाल्यावस्था से सीधे युवावस्था में उछाल दिया गया, इसका अनुमान कोई भी लगा सकता है. बहरहाल जहाँ शक्ति के स्रोतों पर अपना कब्ज़ा अटूट रखने के लिए आर्य मनीषियों ने सती- विधवा और बालिका विवाह-प्रथा के जरिये कोटि-कोटि नारियों का जीवन नारकीय बनाया, वहीँ अछूत-प्रथा के जरिये यूरोप कई देशों की सम्मिलित आबादी के बराबर लोगों को मानवेतर – प्राणी में तब्दील कर दिया. इन मानवेतरों की दशा देखकर ही डॉ. आंबेडकर को यह घोषणा करने में कोई द्विधा दास- प्रथा के मुकाबले अछूत – प्रथा ज्यादे अमानवीय बहरहाल शक्ति के स्रोतों पर आर्य समुदाय का एकाधिकार बनाये रखने के लिए वैदिक भारत में जिस धर्माधारित व्यवस्था को जन्म दिया गया, वह इस्लाम भारत के बाद अंग्रेज भारत में आईपीसी लागू होने के एक दिन पूर्व तक लागू रही. वैदिक भारत के आर्य विजेता इस्लाम और अंग्रेज भारत में शासकों की सहयोगी की भूमिका में आ गएँ. इसके विनिमय में ब्राह्मणों ने विशाल हिन्दू समाज को हिन्दू धर्माधारित समाज व्यवस्था द्वारा परिचालित करने का अधिकार ले लिया.इस तरह इस्लाम और अंग्रेज भारत में भी ब्राह्मण हिन्दू आरक्षण उर्फ़ वर्ण व्यवस्था कायम रखने में सफल रहे.

बहरहाल प्राचीन कालमें शक्ति के स्रोतों पर विदेशागत आर्यों के एकाधिकार को कायम रखने के लिए लिए जिस धर्माधारित समाज व्यवस्था को जन्म दिया गया , उसके खिलाफ हजारों साल से मूलनिवासी समाजों में जन्मे लोग अपने-अपने स्तर पर संघर्ष चलाते रहे, जिसे  मध्य युग में संत रैदास, कबीर, चोखामेला, तुकाराम इत्यादि संत तो आधुनिक भारत में   नेतृत्व दिया फुले- शाहू जी- पेरियार– नारायणा गुरु- संत गाडगे इत्यादि सहित सर्वोपरी उस डॉ. आंबेडकर ने, जिनके प्रयासों से वर्णवादी-आरक्षण टूटा और संविधान में आधुनिक आरक्षण का प्रावधान संयोजित हुआ. इसके फलस्वरूप सदियों से बंद पड़े शक्ति के स्रोतजन्मजात सर्वस्व्हाराओं के लिए खुल गए और प्रवाहमान हो गयी सामाजिक न्याय की धारा . हिन्दू- आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के खिलाफ मूलनिवासियों का जो अनवरत संघर्ष जारी रहा, उसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद एक नया मोड़ आ गया.मंडलवादी आरक्षण ने परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील कर दिया. ऐसे में सुविधाभोगी वर्ग के तमाम तबके – छात्र और उनके अभिभावक, लेखक और पत्रकार , साधु-संत और धन्ना सेठ तथा राजनीतिक दल – अपने –अपने स्तर पर आरक्षण के खात्मे में मुस्तैद हो गए. बहरहालभारत का जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग भाग्यवान था,जो उसे जल्द ही ‘नवउदारीकरण’ का हथियार मिल गया, जिसे ब्राह्मण नरसिंह राव ने 24 जुलाई, 1991 को सोत्साह वरण कर लिया. इसी नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर राव ने हजारों साल के सुविधाभोगी वर्ग के वर्चस्व को नए सिरे से स्थापित करने की बुनियाद रखी. आज नरसिह राव द्वारा विकसित उसी नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर चित्तपावन ब्राह्मणों द्वारा विकसित संघ के राजनीतिक संगठन द्वारा देश बेचने की अभूतपूर्व मुहीम छेड़ दी गयी है. जिनकी धमनियों में तिलक – नेहरु- राहुल  द्वारा विदेशी चिन्हित किये गए लोगों को रक्त प्रवाहित हो रहा वे देश-प्रेम शून्य लोग विनिवेशीकरण, निजीकरण और लैटरल इंट्री के जरिये प्राचीन भारत की भांति 21वीं सदी में भी मूलनिवासियों को गुलाम बनाने तथा सामाजिक न्याय की धारा को रुद्ध करने के लिए सर्वशक्ति लगा रहे हैं, जिसे लेकर मूलनिवासी समाज में अभूतपूर्व बेचैनी है. इसी बेचैनी का प्रतिबिम्बन नंद कुमार बधेल के बयान में हुआ है .

 

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