वे बचपन के दिन और गर्मियों की लम्बी दोपहरें थीं । आम के बाग थे- ताल और नदियां थीं – झाड़ –झंखाड थे । इन्हीं के बीच हम खरगोशों का पीछा करते थे । परिंदों के घोसलें ढूंढ़ते थे । बगीचों के बीच आये हुये नये परिंदे देखते थे। भीषण गर्मियों में आम के पेड़ हमे पनाह देते थे । गांव से थोड़ी दूर पर बुद्धा नदी बहती थी । कभी कभी हमारे दुपहरे वहां बीतती थी । गांव से आगे तालाब था – जिसमें खूब पानी था । वहां माल-मवेशी के साथ गांव के लोग नहाते थे । वे उत्सव जैसे दिन थे ,जिसे हम दिल से मनाते थे ।
साल भर से हम गर्मी की छुट्टियों का इंतजार करते थे । गर्मी के दिनों में लोग फसलें काट- दाय कर खाली हो जाते थे। शादियां अक्सर गर्मी के दिनों में होती थीं । बारातें आम के बगीचों में या स्कूलों में रुकती थीं । आज की तरह बारातें नहीं होती थीं कि शाम को आये और सुबह विदा हो गए । वे कम से कम एक या दो दिन जरूर रूकती थी । बाराती लड़कीवालों के नही पूरे गांव के मेहमान होते थे । उन दिनों की सामूहिकता देखते बनती थी । समूचा गांव लड़कीवालों का सहयोग करता था । शादी गांव की इज्जत थी । लोग बढ़ – चढ़ कर अपने हिस्से का काम करते थे । जब लड़की विदा होती तो पूरा गांव लड़कीवालों के साथ हिचक-हिचक कर रोता था । लड़की के विदा का द्र्श्य कारुणिक होता था । उसके विदा होने के बाद जो खालीपन पैदा होता था , वह उसके बचपन की स्मृतियों से भरा जाता था।
बारात के साथ नाच न आये, यह असम्भव था । नाच हमारे गर्मी की छुट्टियों का मुख्य आकर्षण था। बारात का आकलन नाच के आधार पर किया जाता था । जिस बारात के साथ नाच नहीं आती थी – उसपर आफत आ जाती थी । हम लोग बारातियों के रुकने के स्थल पर मांटे का झोझ बिखरा देते थे या केवाच का पावडर डाल देते थे। केवाच से देह में खूब खुजली मचती थी। बाराती खुजलाते–खुजलाते बेहाल हो जाते थे । कुंये के पानी से कई गगरा नहाने के बाद भी उन्हें खुजली से मुक्ति नहीं मिलती थी । कुछ बाराती तालाब की शरण लेते थे। बारातवालों की गालियां लड़केवालों पर खर्च होती थीं । कई बाराती बारात छोड़ कर भाग जाते थे । जवार में उनकी खूब भद्द होती थी। जवार के लोग ऐसी बारातों पर थूकते हुये कहते थे कि लड़कीवाला कितना दरिद्र है कि एक नाच का इंतजाम नहीं कर पाया। मनोरंजन का मुख्य साधन नौटंकियां थीं । कुछ समर्थ लोग पतुरियां की नाच लाते थे। लेकिन यह आम लोगो के लिये सर्वसुलभ नहीं था । इसमें सामंत किस्म के लोग आते थे और पतुरियों की अदा पर नोट लुटाते थे। बड़े रसूख के लोग बदतमीजियां भी करते थे । फिर उनके किस्से सरे-आम हो जाते थे । नौटंकियों का अपना अलग शास्त्र था । वे जनसुलभ थी । लोग खुल कर हंसते थे । मस्त होकर नाचते थे। खुला मंच था। लेकिन पतुरिया के नाच की अपनी सीमायें थीं । वहां जानेवालों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। कुछ मनबढ़ लोग बाबूसाहबों के बगल में छिप कर चले तो जाते थे लेकिन लौटने के बाद उनका खूब मजाक बनाया जाता था ।
नासिरगंज का नाच
हमारे जवार में कई नौटंकियां थीं । उनका सट्टा पहले से बंध जाता था । जरा-सी चूक हुई तो काम से गये । नौटंकियां खूबसूरत छोकरों और जोकरों के दम से चलती थी । छोकरे सज–धज कर बिटिहिनी की तरह दिखते थे । नचनिहों के सीने पर सांप लोट जाता था । हमारे जवार में ऐसी ही नाच कम्पनी थी – जिसके सूत्रधार गजेंद्र नाथ झा थे । इस कम्पनी को गजेंद्र नाथ झा उर्फ पाठक जी ने तीस साल तक चलाया । इस कम्पनी की नाच हम घर से भाग कर देखते थे । हम सब दोस्त अलग अलग से गांव की बगियां में जुटते थे और काफिले बना कर चलते थे । किसी के हाथ में लाठी, तो किसी के पास टार्च होती थी । हम अंधेरी रात में नदी ,जंगल , खंदक , मेड़ पार करते हुये नाच स्थल पर पहुंचते थे । उस यात्रा का रोमांच ही अलग था । डर को दूर भगाने के लिये गाना गाते या हनुमान चालिसा का सस्वर पाठ करते थे । सुबह होने के पहले हम अपने बिस्तर में घुस जाते थे । घरवालों को कत्तई पता नही चलता था । गांव का कोई आदमी हमे नाच देखते हुये देख लेता था तो उसे घर न बताने के लिये चिरौरी करते थे और उसकी शर्तें पूरी करते थे।
नासिरगंज की नाच देखते हुये नाच के कई लोग परिचित हो गये थे । नाच में कुछ लोग पड़ोस के गांव के थे । हम नाच के टेंट के किनारे से नचनिहों को चेहरे पर रंग- रोगन पोतते हुये देखते थे । सब से मनोरंजक दृश्य वह होता था – जब नचनिहे छाती की जगह मुलायम गेंद बांधते थे । इससे उनके छाती का उभार वास्तविक लगता था । कई बार हमने स्टेज पर नचनिहों की छाती से गेंद को छिटकते हुये देखा है।
एक बार नाचते नचनिहें की गेंद छिटक कर एक अधेड आदमी के सिर पर आ गिरी । नचदेखवे देर तक हंसते रहे । नाच के आगाज का पता नगाड़े की आवाज से चलता था । नगाड़े की आवाज रात के सन्नाटे में दूर तक सुनाई पड़्ती थी । नगाड़े की आवाज से लोग इकट्ठे हो जाते थे। आवाज को पकड़ कर लोग नाच तक पहुंच जाते थे । नगाड़े बजाने की कला सबको नहीं आती थी । उसे विभिन्न ध्वनि में बजाने का काम सबके बस का नहीं होता है । नगाड़े के बाद का जरूरी वाद्य यंत्र ढ़ोल होता है – उसके बाद सारंगी का नम्बर होता है।
जैसे–जैसे मनोरंजन के साधनों का विकास हुआ , नौटंकियों का जादू कम होने लगा । सबसे ज्यादा नुकसान वीडियों के आने से हुआ । इस मशीन से नौटंकियों को निगल लिया । नौटंकियों के लिये जो ताम- झाम होता था, वह वीडियो के मुकाबिले ज्यादा था । वीडियों के लिये बस एक मेज चाहिये और एक जनरेटर । एक रात में कई फिल्में देख ली जाती ।
धीरे धीरे समय बीताता गया। बचपन के दोस्त शहर पहुंच गये। शहर से नौकरी में खप गये । कभी तीज त्योहार में गांव आते लेकिन इतना वक्त नही मिलता था । मन तड़फ कर रह जाता था । जीवन की प्राथमिकताएं बदलती गई। लोकरस सूखता चला गया । गांव हड़बढ़ी में आता और चला जाता । जब गांव आता तो बीती हुई बातें याद आतीं । बचपन के दोस्त और नाच के अनुभव याद आते । लोग बताते नाच देखनेवाले लोग कम हो रहे हैं । वे वीडियों देखने में ज्यादा रुचि रखते है । फिर टी. वी का दौर आया । शहर और गांव में उसके पंख फैलने लगे । किसी के पास पीछे मुड़ कर देखने का समय नही रहा । लेकिन मेरी स्मृति में नासिरगंज की नाच का वजूद बना रहा । लेकिन इस बार मैंने तय कर लिया कि मै नासिरगंज के नौटंकी के नायक से जरूर मिलूंगा। मेरे अवचेतन मन में उनका प्रभाव बना हुया था। उन्होंने मेरे लोकचित्त को बदला है । नौटंकी के प्रति मेरे अनुराग को बढ़ाया है । नौटंकियों ने हमारी लोकसंस्कर्ति को समृद्ध किया है । उन्हें याद करना लोकमंडल को याद करना है । नौटंकी ऐसी लोककला है जिसमें हमारे लोकमूल्य सुरक्षित रहते है ।
गजेंद्रनाथ झा उर्फ पाठक जी
गजेंद्रनाथ झा उर्फ पाठक जी का गांव नासिरगंज मेरे गांव से दो कोस की दूरी पर था । यह बांसी – मेहदावल रोड पर स्थित बेलौहा से थोड़ी दूरी पर स्थित है । यह खेसहरा ब्लाक का उन्नत गांव है । यह सड़को से जुड़ा हुआ है । आवाजाही की सुविधा है । इस गांव में पाठक बिरादरी के साथ अन्य जातियां भी रहती हैं । यह गांव झा साहब के नाम का पर्याय है । जब कभी नासिरगंज का जिक्र होगा तो पाठक जी का नाम न आये , यह सम्भव नहीं । जब मै उनके गांव पहुंचा और पूंछा कि नाचवाले पाठक जी कहां रहते हैं तो लोगो ने मुझे शक की निगाह से देखा । मैं अपने पहनावे से गांव का कम शहरी ज्यादा लगता था ।
लेकिन जब मैंने बताया कि मैं कहीं बाहर से नहीं आया । पास के गांव से हूं । तब लोग मेरे प्रति आश्वस्त हुये । उन्होंने सहज उनके घर का रास्ता दिखा दिया । वे घर पर नहीं थे । मुझे बताया गया कि वे गांव के सीमांत के बाद स्थित रेहार में दनियापुर खंलगे ( उपस्थान )) में मिलेंगे । यह जगह रेहार (बंजर) में स्थित थी । रेहार की जमीन में लवण होता है जिससे बरेठा कपड़े घोते है । वहां दो कमरे का आधा अधूरा मकान था । पास में ट्यूब वेल था । साथ में लगा हुआ खलिहान था – जहां पुआलों के पहाड़ थे । पुआल के समुच्चय को स्थानीय भाषा में खरही कहते है । इन्हें देख कर मुझे बचपन के दिन याद आ गये । इन्ही पुआलों के बीच हम घर बनाते थे और कई तरह के खेल खेलते थे । चांदनी रात में पुआल के तिनके खूब चमकते थे। अब खलिहानों के दिन गये । कम्बाइन मशीन कृषि- सभ्यता को निगल गयी है । फसलों की अंतेयेष्टि खेत में ही हो जाती है। मशीन धान और भूसा अलग कर देती है । लोग भूसे को खेत में जला देते है । जिनके पास गाय – भैस होती हैं, वे भूसे को बचाते है । बैलों का जमाना रहा नहीं । फसलों के गीत और उसके गानेवाले नहीं रहे । लोकजीवन में तेजी से सांस्कृतिक क्षरण हो रहा है । शहर की सभ्यता गांव तक पहुंच रही है ।
खंलगे के पास एक चारपाई थी– जो मच्छरदानी से ढ़की हुई थी। पास में एक आदमी कृषि – कार्य में संलग्न था । मैंने पूछा – ‘क्या पाठक जी यही रहते है ?’
‘…आप लोग कहां से आये हैं?’
‘…बस पास के गांव से है । शहर में रहते है।’
‘…उनसे क्या काम है?’
‘…हम उनसे इंटरव्यू लेना चाहते हैं।’
वे थोड़ा सावधान हो गये । उन्होंने बताया कि पाठक जी सोये हुये हैं। हांलाकि यह दोपहर का समय था । मुझे लग गया था कि उनकी तबियत ठीक नहीं है । जिस आदमी से हम बात कर रहे थे , वे पाठक जी के छोटे भाई थे । बेहद सज्जन और सरल ।
उनके भाई ने उन्हें जगाया । वे मुश्किल से उठे । उनकी सांस धौकनी की तरह चल रही थी । उनके गले में खरखराहट थी । गलें में कफ फंसा हुआ था । उनका चेहरा थका हुआ और निस्तेज था । “’आप कहां से आये हुये है ?’
‘… हम लोग पास के गांव से है । आपका इंटरव्यू लेना चाहते हैं ’
इंटरव्यू के नाम से उनके चेहरे पर थोड़ी-सी चमक आयी । उनके भाई ने कहा, इन्होंने जो काम किया है , उसका उन्हें फल नही मिला।
उनकी कही हुई बात सच थी । जिस नौटंकी से हमारी लोक संस्कृति सम्पन्न हुई है , उसे उसका दाय नहीं मिला । न उसे समाज में जगह मिली और न सरकार ने कोई ध्यान दिया । बहुत सारे लोककलाकार अभाव की जिंदगी जी रहे है ।
जब मैंने पाठक जी से कहा कि उनकी नौटंकी देखते हुये हम जवान हुये हैं तो उनका चेहरा खिल गया । मै कोई झूठ नहीं बोल रहा था । मेरे मन में उनके प्रति गहरा सम्मान था ।
जब मैंने उनकी जीवन की यात्रा के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज कई पीढ़ी पहले बिहार के सीतामढ़ी से यहां आये हुये थे । सीतामढ़ी वह पवित्र स्थान था, जहां सीता जी का जन्म हुआ था । वह राजा जनक का जनकपुर था, जहां धनुष यज्ञ हुआ था । इस स्वंयम्वर में सीता राम की जीवनसंगिनी बनी थीं । बृजमोहन झा के पास वहां की सांस्कृतिक विरासत थी। उनके रोम रोम में राम- सीता बसते थे । उनके पिता का नाम बृजमोहन झा था । वे धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे । संगीत में उनकी गहरी अभिरुचि थी । यह कला उन्हें विरासत में मिली थी । एक संस्था में संगीत के अध्यापक के रूप में उन्हे पचास रुपये माहवार की नौकरी मिली , लेकिन इतनी कम तनख्वाह उन्हे रास नहीं आयी । इसलिये उन्होंने खुद की कम्पनी खड़ी की । कम्पनी का नाम कमल कुमार एंड कम्पनी रखी । उनका पूरा नाम गजेंद्र नाथ झा था । चूंकि जिस गांव में वे रहते उस गांव में पाठक उपनाम के लोग रहते थे । इसलिये उनके मूलनाम के साथ यह नाम भी प्रचलित हो गया।
[bs-quote quote=”कायस्थ समाज के लोग मुंशीगिरी करते थे। पढ़ने – लिखने में तेज होते थे। वे प्राय: लेखपाल होते थे। उनके हलके में कई गांव होते थे। खसरा- खतौनी के उस्ताद होते थे। किसी का खेत किसी के नाम चढ़ा देते थे। पीड़ित पक्ष उनके हाथ काटने की धमकी देता था। देवदत्त के परिवार में लेखपाली खानदानी पेशा था। उनके छोटे भाई खुद लेखपाल थे। देवदत्त चाहते तो पटवारियान की परीक्षा पास कर पटवारी बन सकते थे लेकिन उन्हें यह नौकरी कुबूल नही थी। उनका मन नाच में रमता था। इसके लिये उन्हें परिवार का कोपभाजन बनना पड़ा ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
‘…क्या उन्हें कम्पनी बनाने में किसी तरह के पारिवारिक दबाव का सामना करना पड़ा?’
उत्तर में उन्होने कहा – ‘चूंकि हमारे परिवार का माहौल सांस्कृतिक था, इसलिये किसी तरह के विरोध का सामना नही करना पड़ा ।’
एक थे हमारे दौर के चार्ली चैपलिन अर्थात हीरालाल जोकर
उनकी कम्पनी का जिक्र करते हुये हीरालाल जोकर को नहीं भूला जा सकता । वे उनके ओपनिंग बैट्समैन थे । वे कम्पनी के दिल में धड़कते थे । वैसा जोकर सदियों में एक पैदा होता है । वे जाति के कायस्थ थे । पास के गांव सवाडाढ़ में पैदा हुये थे । उन्होंने अपनी शादी अनुसूचित जाति ( चमार) की लड़की से किया था । इस जुर्म में उन्हें गांव से बाहर कर दिया गया था। वे गांव की सीमा से बाहर झोंपड़ी बना कर रहते थे। बाद में उन्हें टी बी हो गयी थी । एक जोकर के लिये जितने गम की जरूरत थी – उतने उनके पास थे । अच्छी कॉमेडी भीतर से दुखी आदमी ही कर सकता है । उनके बारे में सोचते हुये फिराक का शेर याद आता है –
गुर जिंदगी का कोई हंसती कली से पूछे /
लब पर है मुसकराहट दिल खून हो रहा है ।
हीरालाल ने उस समय कुजाति में शादी किया – जब ऐसा किया जाना सामाजिक रूप से गुनाह था । समाज ने उन्हें इस बगावत की भरपूर सजा दी । यह एक तरह की सामाजिक क्रांति थी – जिसे करने के लिये कलेजा चाहिये । जाति – समाज ने उन्हें जितना दर बदर किया उतना लोक ने उन्हें पलकों पर बैठाया । यही उनके मसखरेपन का मूल उत्स था – जो उनके अभिनय के विभिन्न आयामों में अभिव्यक्त होता था । हमारे जवार के पुराने लोग यह बताते थे कि उन्होंने दाहिने गाल पर लिखवाया था कि ‘हीरालाल चमाइन रखले बाटै।’ दूसरे गाल पर यह युक्ति थी कि ‘लाँड़े से रखले बाटय’ । जो लोग सामाजिक व्यवस्था के ठीकेदार थे – यह उनके मुंह पर कड़ा चमाचा था । मैंने इस संदर्भ में जब झा साहब से पूछा तो वे मुस्करा कर रह गये । हीरालाल जीते जी दंतकथा बन चुके थे । उनके बारे में बहुत-सी कहानियां प्रचलित थीं । कुछ झूठी थी तो कुछ सच्ची । लेकिन यह बात तय थी कि वे लोकप्रियता के शिखर पर थे । यह मुकाम कम लोगों को नसीब होता है ।
चार्ली चैपलिन इसलिये अच्छा कॉमेडियन साबित हुआ क्योंकि उसने अपनी जिन्दगी में बेशुमार दुख झेले थे । कॉमेडी की ताकत का मुख्य स्रोत ट्रेजिडी है । यह तथ्य दुनिया के मशहूर कमेडियनों के जीवन को जान कर समझी जा सकती है । हीरालाल की कॉमेडी में गहरी करुणा थी । वे बोलते कम थे – आंगिक भाषा का इस्तेमाल ज्यादा करते थे । जब मैंने चार्ली चैपलिन की फिल्में देखी तो मुझे पता चला कि मैंने हीरालाल के रूप में चार्ली चैपलिन को देख लिया है। हीरालाल नौटंकी के चार्ली चैपलिन थे । वे मूक अभिनय के उस्ताद थे । वे खुद कवित्त बनाते थे । उनके कवित्त हिंग्रेजी भाषा में होते थे । उस समय इस भाषा का चलन नहीं था । आज यह भाषा सार्वजनिक जीवन में स्वीकृत हो चुकी है । उनके एक कवित्त का जायजा ले –डोंट टचटच माई बाडी डियर रसिया /आइ एम डाटर आफ बृन्दावन , यू आर सन आफ गोकुल रसिया ।
हीरालाल के नाम से नौटंकी में भीड़ जुटती थी । दूर-दूर से लोग उनकी जोकरई देखने आते थे और निहाल होकर जाते थे । बच्चे क्या बूढ़े उनकी नाच के दर्शक बनते थे । हीरालाल की उलटबासियां और बुझउवल मशहूर थे । जब कभी नौटंकी में कोई स्थल कमजोर होता था, वे पहुंच कर उसे गति दे देते थे । कभी बूढ़े के पोशाक में तो कभी स्त्री के ड्रेस में स्टेज पर पहुंच कर लोगों को चौंका देते थे । हीरालाल जोकर अपने समय में मिथक बन चुके थे । वे हंसी से नहीं तपेदिक से मरे । लेकिन वे आज भी लोगो के दिलों में जीवित है ।
गजेंद्र झा हीरालाल के बारे में धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे । मैं उनके चेहरे पर आते-जाते भाव को देख रहा था । वे अतीत में पंहुच चुके थे ।
‘…आपकी कम्पनी में हीरालाल के अलावा और कौन था ।’
मेरे सवाल के जबाब में उन्होंने देवदत्त लाल का जिक्र किया ।
नौटंकी के कारण भाई की सूची से बहिष्कृत देवदत्त लाल
देवदत्त लाल मेरे पट्टीदार थे । शुरू से उन्हें गाने – बजाने में रुचि थी । काम-काज में मन नहीं लगता था । कोई न कोई गीत टेरते रहते थे । उन दिनों नाच में काम करना बुरा माना जाता था । जवार के जो लोग बहेल्ला थे, वे नाच की ओर रूख करते थे । सवर्णों के लिये नाच में काम करने की मनाही थी । जो भी जाति की मर्यादा को तोड़ कर नाच – मंडली में शामिल होता था – उसे बिरादरी से लात मार कर बाहर कर दिया जाता था । हीरालाल जोकर का हश्र लोग देख चुके थे । देवदत्त कायस्थ जाति के थे । यह समाज की उच्च जाति थी – जिसका काम लिख – पढ़ कर नौकरी करना था । नाच में निम्न जाति के लोग आते थे । उन्हें लोग हेय दृष्टि से देखते थे । जब तक नाच चलती – लोग नाच में काम करते , उसके बाद मजूरी- धतूरी करते थे । उन्हें उनकी बिरादरी के लोग कहते कि यह आदमी तो बह गया है । यह एक मुहावरा था – जो ऐसे लोगो के लिये इस्तेमाल होता था ।
कायस्थ समाज के लोग मुंशीगिरी करते थे । पढ़ने – लिखने में तेज होते थे । वे प्राय: लेखपाल होते थे । उनके हलके में कई गांव होते थे । खसरा- खतौनी के उस्ताद होते थे । किसी का खेत किसी के नाम चढ़ा देते थे । पीड़ित पक्ष उनके हाथ काटने की धमकी देता था । देवदत्त के परिवार में लेखपाली खानदानी पेशा था । उनके छोटे भाई खुद लेखपाल थे । देवदत्त चाहते तो पटवारियान की परीक्षा पास कर पटवारी बन सकते थे लेकिन उन्हें यह नौकरी कुबूल नही थी । उनका मन नाच में रमता था । इसके लिये उन्हें परिवार का कोपभाजन बनना पड़ा । मुश्किल से उनके छोटे भाई की शादी हुई । जब बरदेखुवों को पता चलता कि लड़के का बड़ा भाई नाच में काम करता है – तो वे बिदक जाते थे । इसलिये शादी की बातचीत में उनका जिक्र नहीं होता था । भाई की सूची से उनका नाम काट दिया गया था । देवदत्त की मां उन्हें कुलबोरन कहती थी । बिडम्बना देखिये कि उनकी भाई की शादी में नासिरगंज की नाच का सट्टा बंधा था । लेकिन स्टेज पर देवदत्त नहीं उतरे थे । मैं बहुत छोटी उम्र का था और उनके भाई की बारात में शामिल हुआ था ।
देवदत्त हीरालाल जोकर के बाद कम्पनी के दूसरे सेनापति थे । गजेंद्र झा खेल में मुख्य भूमिका में होते थे और साइड हीरो के रोल में देवदत्त होते थे । खलनायक की भूमिका में वे फबते थे । उनका चेहरा सांवला था । शरीर से दुबले – पतले थे लेकिन आवाज में दम था । जब वे खलनायक के रोब में आते थे , तो चौकी हिल जाती थी । आपातकाल में वे जोकर तक बन जाते थे । लेकिन कहां हीरालाल जोकर और कहां देवदत्त लाल ।
देवदत्त लाल को शुरू – शुरू में नौटंकी में काम करने में हिचक थी । उनके ऊपर परिवार का दबाव था लेकिन बाद में उन्होंने तय कर लिया कि वे नौटंकी के लिये घर- परिवार की आहुति दे देगे । घर से उन्हें निष्कासित कर दिया गया था । शादी का सवाल नही पैदा होता था । कौन आदमी नचनिहा- पदनिहां को अपनी लड़की देता । सो वह जिंदगी भर रड़ुआ बने रहे । ताक–झांक की आदत तो थी ही । नहीं होता तो खूबसूरत नचनिहों से दिल लगा बैठते थे। नौटंकियों में इस तरह के रागात्मक सम्बंधों की कहानियां सरेआम थीं । हम लोग उनके गांव – गिराव के थे , इसलिये हम पर उनका अतिरिक्त अनुराग था । हम इस नाते स्टेज के पास जगह मिल जाती था । हम फूले नहीं समाते थे । हमे तीसरी कसम का हीरामन याद आता था – जिसे हीराबाई के नाते स्टेज पर जगह मिल जाती थी ।
शोहरत लाल
देवदत्त के बाद कम्पनी के तीसरे किरदार शोहरत लाल थे । उन्हें कम्पनी में काम करने के लिये संघर्ष नही करना पड़ा । वे कम्पनी में कोई रोल नहीं करते थे । उनका काम ढोल बजाना था । वे बहुत डूब कर ढोल बजाते थे । उनकी अंगुलियों में जादू था । ढोल बजाने के पहले वे ढ़ोल को कायदे से कसते थे – फिर उसे हल्के से बजा कर मुतमइन हो जाते थे । ढोल बजाते समय उनकी मूंड़ी कई दिशाओं में हिलती थी । लम्बे-लम्बे बाल चेहरे पर छितरा जाते थे । उन्हें मगन होकर ढोल बजाने का दृश्य मनोहारी होता था । हमे ढोल बजाने से ज्यादा उनकी मुख – मुद्रा आकर्षित करती थी । ऐसा ढोल बजानेवाला ढ़ोलची मैंने अब तक नही देखा था । कम्पनी में देवदत्त और शोहरत की जोड़ी मशहूर थी । दोनो साथ–साथ आते–जाते थे ।
होली के त्योहार में वे दोनो ढोल बजाते, फगुआ गाते तीनों पुरवां घूम जाते थे । उनके पीछे लुहाड़ों की भीड़ उनके सुर में सुर मिलाती थी । देवदत्त लाल की लंठई मशहूर थी । हम बच्चों से वे टेढ़े-मेढ़े सवाल पूछते थे । उनका हम जबाब नहीं दे पाते थे । वे कहते तुम लोग क्या खाक पढ़ाई करते हो – ‘तुम लोगो को इतना आसान सवाल नही आता है ।’ वे कबीर – पंथ के जानकार थे । वे हमे बुझौवल बुझाते थे । हम अव्वल दरजे के बुड़बक थे । इतने गूढ़ पहेलियों के अर्थ क्या जाने । करियाधर पंडित जो पढ़ाते थे – वह भी हमे समझ में नही आता था ।
एक थे चवन्नियाँ और एक थे सुभग
जो कथा मैं आप को सुना रहा हूं – इसमें मेरी कुछ स्मृति शामिल है और कुछ गजेंद्र झा की जुबानी है । मेरी स्मृति में उनके कम्पनी के दो नचनिहों का उल्लेख जरूर करना चाहूंगा – जिसके दम से कम्पनी का नाम दूर तक गया । एक का नाम चवन्नियां था – दूसरे का नाम सुभग । दोनो देखने में सुंदर थे । सज–धज कर जब स्टेज पर खड़े हो जाते थे तो लोगो की सांसें रुक जाती थीं । वे खूब लचक- लचक कर नाचते थे और समां बांध देते थे । उनका गला मीठा था । उनके बाल लम्बे थे । वे दूर से दिख जाते थे – लोग समझ जाते थे कि ये नचनिहे हैं । स्त्रियां उतनी सुंदर नही थी – जितने ये दोनों छोकरे थे । लोग बताते थे कि गजेंद्र झा से इनके रागात्मक सम्बंध थे । इन दोनो को लेकर जवार में बहुत सी कहानियां प्रचलित थी । मेहरा किस्म के लड़के नाच में आने के लिये उतावले रहते थे । नाच कम्पनी के लोग ऐसे खूबसूरत छोकरों को खोजते रहते थे । उन्हें तमाम किस्म के प्रलोभन दे कर फंसाते रहते थे । लेकिन गजेंद्र झा की अलग प्रतीष्ठा थी । उन्होंने अपनी कम्पनी की मर्यादा को बनाये रखा ।
यादों का जखीरा
बातचीत में हम दोनों अपने अपने अतीत में पहुंच चुके थे। मेरे पास जिज्ञासायें थीं और उनके पास उनका हल । लेकिन अपने समय से बीस तीस साल पहले के वक्त में दाखिल होना तकलीफदेह था। जो कुछ बीत चुका था उसे दोहराने की प्रक्रिया से गुजरना आग के दरिया से गुजरना था । मैंने उनसे पूछा कि आपकी कम्पनी कहां कहां अपना प्रदर्शन करने जाती थी। उन्होंने बताया .गोंडा बहराइच, फैज़ाबाद से लेकर देवरिया, आजमगढ़ , बलिया । फिर उन्होंने बताया कि एक बार उनकी कम्पनी नेपाल के तौलिहवा गई थी । तौलिहवा भारत के सीमांत का एक कस्बा है ।
‘…आप का वहां का कैसा अनुभव रहा?’ मैंने झा साहब से पूछा ।
‘.. वहां का अनुभव अलग था । मेरी कम्पनी के साथ वहां जादू लगा हुआ था । उसमें काम करनेवाली बुंढ़िया ने मुझपर जादू कर दिया था । मुझे ठंड के साथ तेज बुखार चढ़ गया था । दवा से कोई आराम नही मिला । फिर सोखा बुलाये गये । लेकिन तकलीफ कम नही हुई । एक पंडित जी आये । उन्होने बताया कि मेरे ऊपर जादू चला दिया गया है । अनुष्ठान किये गये । तब जाकर मेरी तबियत ठीक हुई ।’
झा साहब ने बताया कि जनता की मांग उन्हें मंच पर आना पड़ा । लोग हमें देखना चाहते थे – लेकिन वह कुछ देर तक ही मंच पर ठहर सके। मुझे लोगों का अपार प्रेम मिला । कस्बे के लोग उन्हे बस तक छोड़ने आये ।
अपनी लोकप्रियता के कई किस्से उनके पास थे – जो बताते थे कि वे अपने जवार में कितने लोकप्रिय थे । किसी कम्पनी से उनके जैसी लोकप्रियता नहीं अर्जित की । उनके नाम से कम्पनी ने कामयाबी के झंडे गाड़े । शादी – व्याह में लोग उनकी नाच को प्राथमिकता देते थे । उनके नाम पर भीड़ जुटती थी ।
जब मैंने उनसे पूछा कि कौन से नाटक वे खेलते थे । नाटको का चुनाव कैसे करते थे । उनका उत्तर दिलचस्प था । उन्होने बताया कि वे हिंदू- बहुल इलाकों में – हरिश्चंद्र , सती सावित्री , मोरध्वज जैसे नाटक करते थे । मुस्लिम आबादी में – लैला मजनूं – शीरी फरहाद , समसा फिरोज की मांग होती थी । कछार के क्षेत्र में – सुल्ताना डाकू , अमर सिंह राठौर जैसे नाटक मकबूल होते थे । दर्शकों की मानसिकता की उनको अच्छी समझ थी । आज बड़ी से बड़ी फिल्में बन रही हैं – वह असफल हो रही है । फिल्मकार दर्शकों की नब्ज पकड़ने में असफल हो रहे है । नौटंकियों ने लोगो के भीतर सांस्कृतिक चेतना का विकास किया । लोकमूल्यों के प्रति जागरूक किया । नौटंकियों के पराभव ने लोकसंस्कृति को काफी नुकसान पहुंचाया है । उसकी जगह पर नागर अपसंस्कृति का प्रवेश लोकजीवन में हो रहा है । लोककलाकार जीवन के अंधेरे में जीवनयापन के लिये विवश हैं। गजेंद्र झा खेत – बारी से मजबूत है । उनके लड़के नौकरियों में हैं – लेकिन लोककलाकारों का ऐसा संवर्ग है – जिसके पास कोई विकल्प नही बचा है । नौटंकियों के टूट जाने के कारण उनके पास जीवन गुजारने का कोई जरिया नहीं बचा है । यह सोच कर तकलीफ होती है कि जिन लोगों ने हमारे लोकजीवन को रससिक्त किया है , वे वीरानी में जी रहे हैं ।
गजेंद्र झा हमारे समय के नायक थे । उन्हें देखना और सुनना मेरे लिये एक अनुभव था । यह सोच कर दुख होता है कि हमारे भीतर फिल्मी कलाकरों के लिये जो आकर्षण होता है , वैसा आकर्षण इन जीवंत नायकों के लिये नहीं है । जबकि ये नायक हमारे बीच से आते हैं और हमारे ही जीवन को व्यक्त करते हैं । वे मनोरंजन के जरिये हमें हमारे दुखों से अवमुक्त करते हैं । लेकिन हम एक नकली संसार और उसमें रहनेवाले फिल्मी नायकों के प्रति ज्यादा मोहित होते हैं । हमारे पास कई सवाल और जिज्ञासायें थी । लेकिन मैंने देखा वह थक चुके हैं। लेकिन हमारे आने से उन्हें यह जरूर लगा कि अब भी उनके चाहनेवाले जिंदा हैं। लेकिन आखिरी कुछ सवाल अब भी मेरे भीतर बचे हुये थे ।
मैंने पूछा – ‘आपने कितने साल नौटंकी चलाई ?’ जबाब में उन्होंने बताया कि 1964 में नौटंकी की शुरुआत की थी और 1994 में नौटंकी से मुक्त हो गये । यह याद करने की बात है कि इस देश में उदारीकरण की शुरूआत हुई थी । चारो ओर से देश के दरवाजे खुले थे । संचार और मनोरंजन के साधनों मे विल्क्षण प्रगति हुई । टी,वी. वीडियों का विस्तार हुआ । गजेंद्र झा पूरे तीस साल जवार में अपनी नौटंकी से धूम मचाते रहे । बस जहां कहीं वेदव्यास की भूमिका करनी होती है – लोग उन्हें बुलाते है । वे नौटंकी के सक्रिय जीवन से अलग हो गये थे और ऐसे चरित्र की भूमिका में थे – जिसने महाभारत की रचना की थी । वे हमारे जवार के वेदव्यास ही थे जिन्होंने लोकजीवन का महाकाव्य रचा था – भले ही वह नौटंकी विधा में क्यो न हो ।
‘क्या आपके नौटंकी से बिलग होने के बाद इस परम्परा को कोई आगे बढ़ा रहा है ?’
उन्होंने बताया उन्होंने अपने पीछे अपनी शिष्य परम्परा को जीवित रखा है । जो उनकी नाच में काम करते थे – उन्होंने अपनी-अपनी अलग मंडली बना रखी – अब भी वे उनसे राय लेने आते है । यह राहत की बात थी कि वे अपने शिष्यों के भीतर बचे हुये है । असली परम्परा तो यही है कि वह कई पीढ़ियों तक बची रहे ।
हम अपने समय के नायक से मिलना–एक उपलब्धि थी । हम उन्हें उनके पुराने वक्त को याद दिला कर उन्हें गौरवान्वित होने का अवसर दे रहे थे । बात करते हुये वे अपने अतीत में चले जाते थे – फिर लौट आते थे । यह आवाजाही उनके चेहरे पर परछाई की तरह दर्ज हो रही थी – जिसे पकड़ पाना मुश्किल नहीं था । समय समय की बात थी , एक समय का नायक आज के समय में शारीरिक रूप अशक्त हो चुका था । लेकिन उसकी आवाज दबंग थी – जैसी उनके नाटकों में हुआ करती थी । नाटक या नौटंकियां सिर्फ खेल तमाशे नहीं होते । वे हमे शिक्षित भी करते हैं । यह जीवन एक मंच की तरह है जिसमें हर व्यक्ति की अपनी भूमिका है । कुछ लोग अपनी लम्बी भूमिकाओं में असर नहीं छोड़ पाते लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं कि अपनी संक्षिप्त भूमिका से हमें हिला कर रख देते हैं । हीरा लाल ऐसे मसखरे थे जिन्हें लम्बा जीवन नहीं मिला था – लेकिन जो वक्त उनके पास था – उसी में उन्होंने कामयाबी हासिल की। झा साहब ने लम्बी पाली खेली और लोगो के दिलों की धड़कन बने रहे । उनकी नौटंकी के कंठहार देवदत्त और शोहरत लाल इस दुनिया से विदा ले चुके हैं । इस सब लोगों की कथायें झा साहब के पास हैं । हमारे जैसे दीवाने लोग अब भी उन्हें याद करते हैं । इन सब लोगों ने मिल कर ऐसा सांस्कृतिक समाज बनाया था- जो हम लोगों के लिये अनिवार्य बन गया था ।
ब्रजमोहन झा के पास यादों का एक जखीरा था । लोक के अदभुत रंग थे – जिसे एक मुलाकात में समेटा नहीं जा सकता था । उनसे बात करते हुये बचपन की तमाम स्मृतियों को ताजा करने का अवसर जरूर मिला । अब न लोक है न रंग है । पूंजी ने लोकजीवन की तस्वीर बदल कर रख दी है । वे किंचित थक गये थे । दोपहर ढल रही थी । हमें लौटना था । हम उनसे विदा ले रहे थे । उनसे फिर मुलाकात का वादा कर रहे थे । चौरासी साल का यह अभिनय का यौद्धा हमें पीछे मुड़ कर बार बार देख रहा था और हम भी इस क्रिया को दोहरा रहे थे।