पहला हिस्सा
संसार के सभी देशों की पुलिस को महज़ सुरक्षाकर्मी नहीं समझा जा सकता बल्कि अपने चाल-चरित्र से वह दमन का एक ऐसा राजनीतिक हथियार है जिससे अनेकानेक प्रकार के काम लिए जाते रहे हैं। शासन के लिए शांति बनाये रखने की प्रक्रिया में शासन के लिए खतरा होने के संदेह में किसी का भी दमन करना अथवा उसे कारागार में डाल देना, सताना और फर्जी मुठभेड़ में मार गिराना पुलिस का सबसे बड़ा काम है। हम जिस शांति-व्यवस्था में पुलिस के योगदान को महत्वपूर्ण मानते हैं वह शांति-व्यवस्था वस्तुतः सत्ता के लिए राजस्व इकठ्ठा करने के कतिपय साधनों मसलन मेले–ठेले और उत्सवों जैसे सार्वजनिक आयोजनों में जमा भीड़ को नियंत्रित रखने का नाम है। हालाँकि इस नियंत्रण की सचाई यह है कि ऐसे माहौल में लोग पुलिस के भय से नहीं बल्कि एक स्वतःस्फूर्त अन्तःप्रेरणा से ही संचालित होते हैं और जब तक कोई जानबूझकर किसी किस्म का उपद्रव न करे तो चीजें और दिनचर्या सहज ढंग से ही चलती है।
कहा जाता है कि मध्यकालीन भारत के महान शासक शेरशाह सूरी ने जब अटक से ढाका तक जी टी रोड का निर्माण कराया तो उसके विशाल शासन क्षेत्र में अनेक स्थानीय लुटेरे राज्य की संपत्ति को लूटते थे जिनसे बचने के लिए उसने ढेरों लुटेरों को ही राज्य की सुरक्षा में दारोगा नियुक्त किया। इस प्रकार न केवल लूट की घटनाएँ कम हुईं बल्कि दारोगाओं को भी एक विशिष्ट और सम्मानित दर्जा मिल गया। इससे राज्य के राजस्व में तो वृद्धि हुई ही राजकीय संपत्तियों पर बाहरी खतरे भी कम हो गए। कालांतर में अंग्रेजों ने जब अपनी पुलिस बनाई तो उन्होंने भी ऐसे लोगों को नियुक्त किया जो जनता में भय का संचार करें और राज्य की संपत्ति की सुरक्षा करें। चूंकि तत्कालीन भारत में खुली औपनिवेशिक लूट थी इसलिए अंग्रेज शासकों ने ऐसे पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रोत्साहन और संरक्षण दिया जो उनके तमतमे को बनाये रखें और लूट में मददगार हों। आज पुलिस अमीर वर्ग और कॉर्पोरेट घरानों की रक्षा में सबसे महत्वपूर्ण संस्था है। पुलिस का काम व्यवस्था और यथास्थिति को कायम रखना और किसी भी शोषण, दमन और उत्पीड़न के विरोध में उठी आवाज को दबाना और कुचलना है। साथ ही यह भी देखा जाता है कि आज भी जो पुलिस अधिकारी अपने उच्चाधिकारी के हितों की रक्षा करता है और हिस्सा पहुंचाता है वह सबसे अधिक प्रिय होता है।
[bs-quote quote=”पुलिस का चरित्र सार्वदेशिक रूप से एक है और अक्सर वह चालू मुम्बइया फिल्मों के जीवित सत्य के रूप में काम करती हैं जहाँ भ्रष्टाचार, लालच, लिप्सा, पद के दुरुपयोग और दमन उत्पीड़न का ही बोलबाला है। लेकिन फिल्मों में तो हीरो मारधाड़ या चतुराई से अपना लक्ष्य हासिल कर लेता है जबकि वास्तविक जिन्दगी में लड़ते-लड़ते रीढ़ की हड्डियाँ झुक जाती हैं। बनारस की रेहाना बानो और अलीगढ़ का रामू हो पाना सबके बस की बात नहीं है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दुर्भाग्य से भारतीय लोकतंत्र की पूर्व संध्या ही रक्तरंजित हो गई और 1857 के बाद से जो समाज अपनी सामासिक अस्मिता और समझदारी से अपनी आज़ादी की चाहत के साथ एकजुट थे वे 1947 तक सांप्रदायिक रूप से बंटकर एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। इस प्रकार देश में आतंरिक शांति स्थापित करने के लिए पुलिस की भूमिका अपरिहार्य हो गई। इन सारी स्थितियों को देखते हुए हम एकबारगी सोच सकते हैं कि एक नए लोकतान्त्रिक देश के लिए संवेदनशील पुलिस का निर्माण एक शेष कार्यभार बनकर रह गया। ऐसे में भारतीय पुलिस के चरित्र को दो कोणों से समझना बहुत जरूरी है – एक तो धार्मिक और दूसरे जातीय कोण से। इन दोनों ही आधारों पर पुलिस का व्यवहार अपने सही अंदाज में दीखता है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और उपन्यासकार विभूति नारायण राय ने हैदराबाद पुलिस अकादमी की एक शोध परियोजना के तहत व्यापक शोध से एक पुस्तक लिखी भारतीय पुलिस और सांप्रदायिक दंगे। यह पुस्तक अनेक दिल दहलाने वाले अनुभवों को साझा करते हुए भारतीय पुलिस के सांप्रदायिक चरित्र का खुलासा करती है। दंगे के समय पुलिस का रवैया हिन्दुओं के प्रति जितना सॉफ्ट रहता है मुसलमानों के प्रति उतना ही कड़वाहट और हिकारत से भरा होता है। अनेक दंगों की छानबीन करते हुए श्री राय ने इस तथ्य को कलमबद्ध किया है । मेरठ और हाशिमपुरा के दंगों के समय तो वे स्वयं उन शहरों में तैनात रहे हैं जहाँ पुलिस ने एकतरफा कार्रवाइयों में अनेक मुसलमानों को मार डाला था । स्वयं राय का बहुचर्चित उपन्यास शहर में कर्फ्यू इस सच का सबसे ज्वलंत प्रमाण है कि किस प्रकार दंगे के समय मुस्लिम मुहल्लों में पुलिस अपने ही भीतर के भय से पीड़ित होकर घुसती है। और यह भय कतिपय स्तरों पर पुलिस को सांप्रदायिक रूप से बल प्रदान करता है।
लेकिन दुर्भाग्य से हिन्दुओं के लिए दंगों के दिनों में सॉफ्ट कोना रखने वाली यही पुलिस आम दिनों में हिन्दुओं के बहुत बड़े हिस्से को जाति के नज़रिए से देखती और व्यवहार करती है। यह व्यवहार इतना भयावह है कि उसका जिक्र हमारी आज़ादी की भावना को भी तहस-नहस कर देता है। बहुत दिन नहीं हुए जब छत्तीसगढ़ की अध्यापिका और सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती सोनी सोरी को पुलिस ने लोमहर्षक यातनाएं दी। हिरासत में उनके पति को मार डाला और सोनी सोरी की योनि में पत्थर के टुकड़े डाले। पुलिस के सारे फर्जी कारनामों और आरोपों को अदालत ने ख़ारिज किया और सोनी सोरी को जेल से रिहा करने का आदेश दिया।
[bs-quote quote=”दंगे के समय पुलिस का रवैया हिन्दुओं के प्रति जितना सॉफ्ट रहता है मुसलमानों के प्रति उतना ही कड़वाहट और हिकारत से भरा होता है। अनेक दंगों की छानबीन करते हुए श्री राय ने इस तथ्य को कलमबद्ध किया है । मेरठ और हाशिमपुरा के दंगों के समय तो वे स्वयं उन शहरों में तैनात रहे हैं जहाँ पुलिस ने एकतरफा कार्रवाइयों में अनेक मुसलमानों को मार डाला था ।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
पुलिस का चरित्र सार्वदेशिक रूप से एक है और अक्सर वह चालू मुम्बइया फिल्मों के जीवित सत्य के रूप में काम करती हैं जहाँ भ्रष्टाचार, लालच, लिप्सा, पद के दुरुपयोग और दमन उत्पीड़न का ही बोलबाला है। लेकिन फिल्मों में तो हीरो मारधाड़ या चतुराई से अपना लक्ष्य हासिल कर लेता है जबकि वास्तविक जिन्दगी में लड़ते-लड़ते रीढ़ की हड्डियाँ झुक जाती हैं। बनारस की रेहाना बानो और अलीगढ़ का रामू हो पाना सबके बस की बात नहीं है।
पुलिस कैसे कहानियाँ गढ़ती है?
अलीगढ़ के बहुचर्चित रामू-श्यामू मामले में पुलिस की बर्बरता ने जिस तरह से वर्दी को दागदार किया और जाँच में लगे स्थानीय अधिकारियों ने जिस तरह की अनियमितता और धोखाधड़ी का सहारा लेकर अपराधी पुलिसकर्मियों को बचाने का प्रयास किया वह पुलिस महकमें में पैठी आपराधिक प्रवृत्ति का एक अन्यतम उदाहरण है। पंद्रह अप्रैल दो हज़ार बारह को अलीगढ के थाना गभाना के अंतर्गत पड़ने वाले गाँव पनिहावर के रामू और श्यामू पुत्र रामरक्षपाल सिंह अपनी बहन मुनेश कुमारी के घर गए थे। वहां पर वे कई अन्य रिश्तेदारों से बात कर रहे थे। पूर्वान्ह साढ़े ग्यारह बजे एस ओ जी की टीम वहां आई जिसमें उपनिरीक्षक आनंद प्रकाश, उपनिरीक्षक प्रमोद कुमार, सिपाही रामनाथ, सिपाही अशोक कुमार, सिपाही वीरेंद्र सिंह, सिपाही दुर्गविजय सिंह और सिपाही संजय सिंह शामिल थे। प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही के मुताबिक ये लोग रामू और श्यामू के बारे में पूछताछ के लिए पहले भी आ चुके थे। इस बार उन्होंने अपनी बहन से बात करते रामू और श्यामू को पकड़ा और मारते-पीटते अपनी बोलेरो गाड़ी में बिठाने लगे। इस पर मुनेश कुमारी और वहां मौजूद उसके घर दूसरे लोगों ने पुलिसकर्मियों से कहा आप श्यामू को कहाँ ले जा रहे हैं वह तो किसी मामले में वांछित नहीं है। यह देखकर एस ओ जी टीम के लोगों ने अपने हाथों में रिवाल्वर और पिस्तौलें निकाल ली और उन लोगों को धमकाते हुए कहा कि कोई आगे न आये। आज हम इन दोनों को जान से मार डालेंगे। और फिर वे दोनों भाइयों को लेकर वहां से चले गए। यह देखकर वहां मौजूद रामू और श्यामू के बड़े भाई मनवीर सिंह और उसके कुछ रिश्तेदारों ने अपनी मोटर सायकिलों से उन लोगों का पीछा किया।
[bs-quote quote=”एस ओ जी टीम उन लोगों को लेकर हरदुआगंज रोड स्थित थाना क्वारसी की पुलिस चौकी ताला नगरी पहुंची। उनलोगों ने रामू और श्यामू की पैंट और जूते उतरवा दिए और उनकी नाक में पानी डालने लगे। थोड़ी ही देर बाद श्यामू की दम घुटने से मौत हो गयी। यह देखकर टीम के लोग सन्न रह गए, लेकिन तभी उन्होंने एक युक्ति निकालते हुए श्यामू के मुंह में ज़हर रखकर पानी डाल दिया और कहने लगे कि अब हम बच जायेंगे। सब लोग कहना कि श्यामू ने ज़हर खा लिया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
एस ओ जी टीम उन लोगों को लेकर हरदुआगंज रोड स्थित थाना क्वारसी की पुलिस चौकी ताला नगरी पहुंची। उनलोगों ने रामू और श्यामू की पैंट और जूते उतरवा दिए और उनकी नाक में पानी डालने लगे। थोड़ी ही देर बाद श्यामू की दम घुटने से मौत हो गयी। यह देखकर टीम के लोग सन्न रह गए, लेकिन तभी उन्होंने एक युक्ति निकालते हुए श्यामू के मुंह में ज़हर रखकर पानी डाल दिया और कहने लगे कि अब हम बच जायेंगे। सब लोग कहना कि श्यामू ने ज़हर खा लिया है।
इतना कहकर उन लोगों ने रामू को हवालात में डाल दिया और श्यामू को अपनी गाड़ी में डाल कर अलीगढ मेडिकल कॉलेज अस्पताल पहुंचे, जहाँ डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। इस पर पुलिसवाले उसे वहीँ छोड़कर भाग गए।
दो घंटे के भीतर ही घटी इन घटनाओं ने लोगों को झकझोर कर रख दिया। मृतक के बड़े भाई मनवीर सिंह ने एस ओ जी टीम के सभी लोगों के विरुद्ध अपने भाई की हत्या का मामला दर्ज कराया। यह खबर जैसे-जैसे लोगों के पास पहुंची तो उनमें हडकंप मच गया। सबके मन में पुलिस के इस कृत्य को लेकर आक्रोश था। लेकिन एस ओ जी टीम ने अब अपने बचाव के लिए कहानी गढ़ना शुरू किया।
श्यामू की मौत की गढ़ी गई कहानी
टीम की कहानी के अनुसार मुखबिर खास से सूचना पाकर कि पांच हज़ार का इनामी अभियुक्त रामू इस समय ग्राम रुस्तमपुर में अपनी बहन के घर में मौजूद है। यदि शीघ्र ही दबिश दी जाय तो वह पकड़ा जा सकता है। इस पर टीम रामू की तलाश में निकली और ग्राम रुस्तमपुर में प्रेमपाल सिंह के घर के पास मुखबिर खास के इशारे पर दो हमशक्ल भाइयों को पकड़ लिया। उन दोनों ने अपना नाम रामू और श्यामू बतलाया। लेकिन हमशक्ल होने के कारण वे इस बात की तस्दीक नहीं कर पा रहे थे कि कौन रामू और कौन श्यामू है? मुखबिर खास की गोपनीयता बनाये रखने के लिए वे उसे सामने नहीं ला सकते थे इसलिए श्यामू के कहने पर कि एस टी एफ के दीवान हेमेन्द्र सिंह हमें पहचानते हैं , हेमेन्द्र सिंह के मोबाइल पर फोन करके उनको पहचान करने बुलाया। हेमेन्द्र सिंह ने कहा कि मुझे अतरौली जाना है इसलिए आप लोग ताला नगरी आ जाइये। थोड़ी देर में हेमेन्द्र सिंह ने आकर बताया कि यह रामू और यह श्यामू है । लेकिन मामला चूंकि इनामी बदमाश का है इसलिए आप किसी विश्वस्त व्यक्ति से पहचान करा लें।
कहानी में आगे कहा गया है कि तभी मुखबिर ने कहा कि उसका एक जानने वाला व्यक्ति आनेवाला है जो इन लोगों को अच्छी तरह पहचानता है। वह थोड़ी देर में दीनदयाल अस्पताल में पहुँचने वाला है। दूसरी ओर दो हमशक्ल भाइयों को देखकर आने-जाने वालों की भीड़ वहां जुटने लगी। एस ओ जी टीम ने उन लोगों से पूछा कि इनमें से कौन रामू और कौन श्यामू है? लेकिन किसी ने भी उन्हें पहचानने से इंकार कर दिया। फिर वे लोग दोनों को लेकर दीनदयाल अस्पताल के सामने आये तब तक मुखबिर का खास आदमी वहां आ गया था और उसने पहचान कर बता दिया कि यह रामू है और यह श्यामू है। यह जानकर कि यह श्यामू है एस ओ जी टीम के लोगों ने कहा कि तुम जाओ। तुमसे हमें कोई मतलब नहीं है और वे रामू को लेकर चले गए। फिर उन लोगों ने मानवाधिकार आयोग और माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पूर्णतः पालन करते हुए 15.05 बजे गिरफ्तारी का मेमो तैयार किया। इसी दौरान श्यामू हड़बड़ाता हुआ थाना क्वारसी पहुंचा तब एस ओ जी प्रभारी ने पूछा कि क्या हुआ तब उसने कहा कि साहब रोज-रोज की मुकदमेबाजी से मैं परेशान हो गया हूँ। मैंने ज़हर खा लिया है। यह कहकर वह गिर पड़ा। तब वे लोग उसे लेकर जे एन मेडिकल कॉलेज अलीगढ गए और भर्ती कराया लेकिन डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया।
क्रमशः
यह लेख रामजी यादव की किताब अँधेरा भारत से लिया गया है ।
गहरी पड़ताल के बाद लिखा गया आलेख.
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