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ग्राउंड रिपोर्ट

क्या क्रॉस वोटिंग के पीछे सिर्फ भाजपा के प्रति बढ़ती आस्था है या कुछ और है?

इस बार के 12 राज्यों के 56 राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव का गणित क्रॉस वोटिंग के जरिए पूरी तरह बदल गया। विशेषकर उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में यह खेल हुआ। क्रॉस वोटिंग के पीछे स्व-हित के बजाय वर्गीय हित दिखाई देता है।

क्रॉस वोटिंग भारतीय राजनीति से जुड़ी कोई नई घटना नहीं है, किन्तु इस बार 27 फरवरी को उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में राज्य सभा की पंद्रह सीटों के लिए हुए चुनाव में जिस तरह क्रॉस वोटिंग हुई, दुनिया स्तब्ध रह गई। काबिलेगौर है कि 12 राज्यों के 56 राज्यसभा सीटों के लिए चुनाव हुए । इनमें 41 सीटों  के लिए तो प्रार्थी निर्विरोध चुन लिए गए पर, 15 के लिए वोटिंग हुई, जिसमें क्रॉस वोटिंग का जमकर खेल हुआ। इसका सबसे बड़ा खेल हिमाचल प्रदेश में हुआ, जहां 86 में से 40 विधायक होने के कारण कांग्रेस की आसान जीत तय मानी जा रही थी।

किन्तु उसके छह विधायकों के क्रॉस वोटिंग के कारण कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी और भाजपा के हर्ष सिंह के हार-जीत  का फैसला ड्रॉ के जरिए करना पड़ा! क्योंकि मुकाबला 34- 34 से बराबरी पर आ गया और  ड्रॉ के बाद लॉटरी से परिणाम भाजपा के पक्ष में गया। चुनाव परिणाम सामने आने के बाद देखा गया कि 25 सीटों वाली भाजपा के पक्ष में 9 और विधायकों का समर्थन मिल गया है। इससे वहां कांग्रेस सरकार के जाने का खतरा पैदा हो गया और पार्टी नेतृत्व को सरकार बचाने के लिए पर्यवेक्षक भेजने पड़े।

हिमाचल प्रदेश की भांति विस्मित करने वाला खेल देश के राजनीति की दिशा तय करने वाले उत्तर प्रदेश में भी हुआ, जिसकी शिकार समाजवादी पार्टी बनी। यहां सपा के जिस मुख्य सचेतक मनोज कुमार पांडेय के पास विधायकों को ह्विप जारी करने का अधिकार था, उन्होनें ही मतदान के पहले पार्टी को बड़ा झटका देते हुए इस्तीफा दे दिया। उनके साथ ही सपा के जमालपुर के विधायक राकेश पांडेय ,गौरीगंज के राकेश प्रताप सिंह, गोसाईंगंज  के अभय सिंह, कालपी के विनोद चतुर्वेदी,चायल की पूजा पाल व बिसौली के आशुतोष मौर्य भाजपा के खेमे मे शामिल हो गए और सपा अपना तीसरा राज्यसभा प्रार्थी जीताने से महरूम हो गई।

उत्तर प्रदेश में सपा के साथ जो विश्वासघात हुआ, उस पर टिप्पणी करते हुए सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा है,‘ हमारी राज्यसभा की सीट दरअसल सच्चे साथियों की पहचान करने की परीक्षा थी और यह जानने की कि कौन-कौन पीडीए के साथ और कौन–कौन अंतरात्मा से  पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यकों के खिलाफ है। अब सबकुछ साफ है, यही तीसरी सीट की जीत है।’

उन्होंने क्रॉस वोटिंग करने वाले विधायकों पर नाराजगी जताते हुए कहा है कि जो लोग गए हैं उनके खिलाफ कार्रवाई होगी। भाजपा जीतने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाती है। हर एक में  यह साहस नहीं होता कि वह सरकार के खिलाफ खड़ा हो सके। कुछ लोगों को मंत्री पद का ऑफर दिया गया होगा तो किसी को और कुछ। कुछ लोगों को डराया धमकाया गया होगा। कुछ लोगों को यह भी कहा गया होगा कि तुम्हारा ये पुराना मुकदमा है, इसकी फाइल खोल देंगे! बहरहाल इस बार क्रॉस वोटिंग के पीछे कौन से कारण रहे, इस पर लोगों की भिन्न–भिन्न राय है। अगर अखिलेश यादव ने इसके पीछे सपा के विधायकों पीडीए के प्रति अनात्मीयता, मोदी सरकार का प्रलोभन और पुराने मुकदमों की फाइल खोलने की धमकी देखा है तो कांग्रेस के विधायकों की अंतरात्मा की आवाज पर भाजपा के पक्ष में मतदान के पीछे कई राजनीतिक विश्लेषकों ने भाजपा के प्रलोभन और धमकियों के साथ कमजोर केन्द्रीय नेतृत्व, संवादनहीनता और इकतरफा फैसला को प्रधान कारण माना है। कइयों ने यह भी माना है कि कांग्रेस में जयचंदों की भरमार है जो भाजपा के लिए काम करते हैं।         

अखबारों की राय में ‘तीन राज्यों में राज्यसभा में चुनावों में जिस तरह क्रॉस वोटिंग हुई है, उससे राजनीति का वीभत्स चेहरा देखने को मिला और यह यकीन और भी पुख्ता हुआ है कि राजनीति में निष्ठा और मूल्य सिद्धांत वाकई अपनी जगह से हट चुके हैं। अवसरवादिता और निजी स्वार्थ पूर्ति को बड़ी बेहयाई से ‘आत्मा की आवाज’ का नाम दिया जाने लगा है।

बहरहाल मुझे लगता है इस बार के क्रॉस वोटिंग के पीछे तमाम कारण गिनाने के बावजूद राजनीतिक विश्लेषक इस बात की तह में जानें का प्रयास नहीं किए हैं कि ऐसा क्या हुआ जो ऐन आम चुनाव के पहले सपा और कांग्रेस के विधायकों ने अपनी अंतरात्मा की आवाज पर ऐसा आचरण किया। यदि यह जानने का प्रयास हुआ होता तो क्रॉस वोटिंग के पीछे स्व-हित के बजाय वर्गीय हित दिखाई देता। किन्तु भारी विस्मय की बात है कि किसी भी राजनीतिक विश्लेषक ने वर्गीय-हित की क्रियाशीलता को देखने का प्रयास नहीं किया। जबकि अभूतपूर्व क्रॉस वोटिंग के जरिए नेताओं ने जिस शर्मनाक आचरण का दृष्टांत स्थापित किया, उसके पीछे सर्वाधिक क्रियाशीलता वर्गीय हित की ही रही!

क्रॉस वोटिंग का नया अध्याय जुड़ने के कुछ सप्ताह पहले से ही आम चुनाव में भाजपा की ओर से 400 पार के नारे उछाले जा रहे थे और मीडिया उसे सही साबित होने की बात भी प्रचारित कर रही थी। मोदी सरकार की आवाज बन चुकी गोदी मीडिया के अतिरिक्त कई निरपेक्ष विश्लेषक भी इंडिया ब्लॉक की करुण स्थिति देखकर यह मानकर चल रहे थे कि भाजपा भले ही 400 से पार न जा सके पर, सत्ता में आएगी तो वही आएगी। किन्तु जिस तरह फरवरी के आखिरी सप्ताह में अखिलेश यादव की पहलकदमी के बाद नाटकीय रूप से इंडिया गठबंधन में नई जान आई, केजरीवाल के बाद ममता के भी इंडिया ब्लॉक से जुड़ने की खबर राजनीतिक फिजा में गूंजी, रातों-रात 400 पार के दावे  की हवा निकल गई।

राजनीति के पंडितों ने हिसाब लगा कर बतलाना शुरू किया कि 400 तो दूर, भाजपा 200 के लिए भी तरस कर रह जाएगी। इस बीच 25 फरवरी को आगरा में राहुल गांधी और अखिलेश यादव को एक साथ देखने के लिए जो ऐतिहासिक भीड़ उमड़ी, उससे न सिर्फ भाजपा सकते में आ गई, बल्कि जिस  सुविधाभोगी वर्ग के लिए भाजपा देश बेचने से लेकर संविधान को निष्प्रभावी करने मे सर्वशक्ति से जुटी है, वह वर्ग भी चिंतित हो उठा। राहुल गांधी और अखिलेश को एक साथ देखने के लिए उमड़ी ऐतिहासिक भीड़ से साफ हो गया कि भाजपा की राह आसान नहीं है और इंडिया ब्लॉक अप्रत्याशित परिणाम दे सकता है। इंडिया ब्लॉक में नए सिरे से आई जान और अखिलेश-राहुल की ऐतिहासिक भीड़ से खौफ़जदा भाजपा वह सब हथकंडे अपनाने में नए सिरे से जुट गई, जिनके जोर से वह विपक्ष को कमजोर और छिन्न-भिन्न करती रही है। उसकी इसी तत्परता से अखिलेश यादव को जहां सीबीआई का समन मिल गयावहीं अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा करने वालीं मायावती जी के भतीजे आकाश आनंद को वाई प्लस की सुरक्षा प्रदान कर दी गई। 

इंडिया ब्लॉक की बढ़ती ताकत से भाजपा जितनी खौफ़जदा हुई है, उससे कहीं ज्यादा खौफ़जदा भारत का वह जन्मजात प्रभुत्वशाली वर्ग हुआ है, जिसका देश की कंपनियों, मीडिया, अखबारों, हॉस्पिटलों, प्राइवेट यूनिवर्सिटीज सहित शक्ति के समस्त स्रोतों पर एकाधिकार है। प्रभुत्वशाली वर्ग के चिंतित होने का सबसे बड़ा कारण इंडिया ब्लॉक को नेतृत्व दे रहे कांग्रेस के राहुल गांधी की वे घोषणाएं हैं जो वह भारत जोड़ों न्याय यात्रा के जरिए सड़कों से जारी कर रहे हैं।

भारत जोड़ों न्याय यात्रा में पांच न्याय-भागीदारी, श्रमिक, महिला, किसान और युवा, दिलाने का उद्घोष कर रहे राहुल गांधी सड़कों पर उमड़ती वंचितों की भीड़ से सवाल कर रहे हैं कि 73 प्रतिशत वाले बताओ, आप देश की 200 बड़ी कंपनियों में कितनों के मालिक और मैनेजर हो? अखबारों, मीडिया, हॉस्पिटल, प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में मालिक और मैनेजर के रूप में तुम्हारी हिस्सेदारी कितनी है? आप कहीं नहीं हो! आपकी हिस्सेदारी सिर्फ मनरेगा, कान्ट्रैक्ट लेबरों में है! देश के धन-दौलत और संस्थाओं में आपको संख्यानुपात में हिस्सेदारी तभी मिल पाएगी जब देश में जाति जनगणना होगी! कांग्रेस और इंडिया ब्लॉक जब सत्ता में आएगा तो सबसे पहले जाति जनगणना कराएगा।

जाति जनगणना से मिले आंकड़ों के आधार पर जितनी आबादी-उतना हक की पॉलिसी बनेगी। जाति जनगणना के बाद धन- संपदा और अवसरों के बंटवारे में ‘जितनी आबादी- उतना हक’ की नीति लागू होने की आशंका से प्रभुत्वशाली अब और मजबूती से भाजपा के साथ जुड़ने का मन बना लिया है। राहुल गांधी की ‘जितनी आबादी–उतना हक’ की घोषणाओं से जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के छात्र और उनके अभिभावक, लेखक-पत्रकार सहित नेताओं में भी भारी असुरक्षाबोध घर कर गया है। इसी असुरक्षाबोध का प्रतिबिंबन राज्यसभा के चुनावों में हुआ है। असुरक्षाबोध के चलते स्व-वर्गीय हित में सपा- कांग्रेस में शामिल प्रभुवर्ग के विधायक अपनी पार्टियों साथ गद्दारी करने के लिए विवश हुए।

असुरक्षाबोध के कारण ही जिस वीरभद्र सिंह को कांग्रेस ने सात बार हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया उनकी पत्नी और बेटे ने सुखबिन्दर सरकार का चैन छीन लिया है। वास्तव में राहुल गांधी की क्रांतिकारी घोषणाओं से प्रभुवर्ग के नेताओं में पनपा असुरक्षाबोध खुद इंडिया ब्लॉक के लिए बड़ी समस्या बनने जा रहा है, क्योंकि इंडिया गठबंधन में शामिल इस वर्ग के नेताओं की अपने वर्गीय हित  में जयचंद की भूमिका में अवतरित होने की संभावना बढ़ गई है!

                                                                                        

                                                    

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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