ईश कुमार गंगानिया पिछले बीस वर्षों से अम्बेडकरवादी साहित्य सृजन में लगे हैं। गंगानिया अम्बेडकरवादी पत्रिका अपेक्षा के उप सम्पादक रहे और बाद में उन्होंने आजीवक विजन नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन भी किया है। अभी तक उनकी दो दर्जन से अधिक पुस्तकें आ चुकी हैं जिनमें कहानी संग्रह, कविता संग्रह, एक ग़ज़ल संग्रह, आजीवक पर विस्तारपूर्वक विश्लेषण करती कुछ पुस्तकें हैं। उन्होंने द सर्जिकल स्ट्राइक नामक एक उपन्यास भी लिखा है। अन्ना के आन्दोलन से लोकतंत्र को हुए खतरे के विषय पर भी उनकी एक पुस्तक है।
बातचीत का पहला हिस्सा
गंगानिया जी आप अपने जीवन के बारे में कुछ शेयर कीजिये ?
रावत जी, मेरा जन्म 25 अक्तूबर 1956 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के रठौरा (छपरौली) नामक गाँव में हुआ। मेरे पिता का नाम नवीन चन्द्र था। वे हरियाणा के एजुकेशन विभाग की एक परियोजना के तहत लेदर इंस्ट्रक्टर थे। उस समय चमड़े की अनेक वस्तुएं बनती थीं। जूते, छप्पन, अटैची, होल्डाल, बैग और पर्स आदि। पिताजी ऐसे लोगों को प्रशिक्षित करते थे ताकि वे और बेहतर ढंग से काम कर सकें। इसलिए जन्म के आठ साल यानी 1964 तक मैं हरियाणा के विभिन्न गांवों में रहा। फिर 1964 से सन 1980 तक सिंघू बार्डर के पास हरियाणा के पहले गांव कुण्डली जिला सोनीपत में। वहाँ मेरे घर में कई भैंस थीं। मैं पढ़ाई के साथ उनकी देखभाल करता। दूध निकालता और बेचता था। मेरे चार भाई और दो बहनें हैं। मैं सबसे बड़ा हूँ।पिताजी 1972 में रिटायर हो गए। इसलिए मेरे ऊपर परिवार की ज़िम्मेदारी थी। इसलिए मेरी पढ़ाई और घर की ज़िम्मेदारी साथ-साथ चली। बेहद मेहनत के मैंने छोटी-मोटी नौकरियाँ करते और घर की जिम्मेवारी पूरी करते-करते अंग्रेजी साहित्य और राजनीति विज्ञान में एम ए किया और उसके बाद बी एड की डिग्री भी प्राप्त की। बाद में दिल्ली सरकार के अंतर्गत विद्यालय में पढ़ाने के उपरान्त अब वह पूर्ण रूप से साहित्य संसार से जुड़े है। वहीं से उप-प्रधानाचार्य के रूप सेवानिवृत्त हुआ।
मेरी कई विधाओं में किताबें छप चुकी हैं जिनमें, हार नहीं मानूंगा, कौन जाएगा पाकिस्तान और एक वक्त की रोटी (कविता संग्रह) अम्बेडकरवादी साहित्य विमर्श, अम्बेडकरवादी साहित्य के प्रतिमान , आजीवक : कल आज और कल, अस्मिताओं के संघर्ष में दलित समाज (आजीवक इतिहास के झरोखे से) , अम्बेडकरवादी साहित्य आन्दोलन और भारतीय समाज, अन्ना आन्दोलन: भारतीय लोकतंत्र को चुनौती, अम्बेडकरवादी आईने में भ्रष्टाचार, स्वाधीनता संग्राम में डा. अम्बेडकर, अम्बेडकरवाद एक समसामयिक विमर्श, इक्कीसवीं सदी में अस्मिता संघर्ष, मुख्यधारा के आईने में अम्बेडकरवादी साहित्य आदि विमर्श की पुस्तकें हैं। तथा इन्ट्यूशन (कहानी संग्रह) और सर्जिकल स्ट्राइक (उपन्यास) यह हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी दोनों भाषाओं में है। इसके अलावा गर्दो-गुबार और जिंदा रहना है अगर (हिन्दी ग़ज़ल संग्रह) भी हैं। अब मैं सेवा निवृत्त होकर पूरी तरह लेखन में जुटा हूँ।
[bs-quote quote=”रावत जी, जहां तक आजीवक शब्द से मेरे परिचय का सवाल है, जब मैं अपेक्षा (त्रैमासिक) के उप-संपादक के रूप में कार्य कर रहा था। डा. धर्मवीर अपेक्षा में प्रकाशित मेरे दो आलेख पढ़ चुके थे और मुझसे प्रभावित भी थे। डा. धर्मवीर से मेरी पहली मुलाकात लोधी कालोनी, दिल्ली आईएसआई के सभागार में एक कार्यक्रम के दौरान हुई। इसी मुलाकात के दौरान उन्होंने मुझसे आजीवक का जिक्र किया और इसके लिए मुझे ए.एल.बाशम की पुस्तक पढ़ने का परामर्श दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे इस विषय पर काम करने के लिए प्रोत्साहित भी किया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
आप आजीवक विचारधारा से कब और कैसे जुड़े ?
रावत जी, जहां तक आजीवक शब्द से मेरे परिचय का सवाल है, जब मैं अपेक्षा (त्रैमासिक) के उप-संपादक के रूप में कार्य कर रहा था। डा. धर्मवीर अपेक्षा में प्रकाशित मेरे दो आलेख पढ़ चुके थे और मुझसे प्रभावित भी थे। डा. धर्मवीर से मेरी पहली मुलाकात लोधी कालोनी, दिल्ली आईएसआई के सभागार में एक कार्यक्रम के दौरान हुई। इसी मुलाकात के दौरान उन्होंने मुझसे आजीवक का जिक्र किया और इसके लिए मुझे ए.एल.बाशम की पुस्तक पढ़ने का परामर्श दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे इस विषय पर काम करने के लिए प्रोत्साहित भी किया।
मैं अपने काम में जुट गया और आजीवक पर अपने निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले मैं आचार्य आनंद झा की पुस्तक ‘चार्वाक दर्शन’ पढ़ चुका था और आजीवक के साथ-साथ उसकी परिभाषा का व्यापक संदर्भ भी भलि भांति जान चुका था, जो चार्वाक दर्शन के अनुसार इस प्रकार है-‘लोकायत-सिद्धान्त अनुगामी जन ही ‘आजीवक’ नाम से इसलिए अभिहित होते थे कि शरीरात्मवादी होने के कारण शरीर के सदुपयोगार्थ, उसकी रक्षा के लिए आजीवक को, अर्थात श्रमात्मक आजीविका को, वे मुख्य कर्तव्य के रूप में अपनाते थे। एतदतिरिक्त यह भी कारण था आजीवक नाम से उनके पुकारे जाने का, कि वे श्रमोपयोगी स्वास्थ्य के लिए सदा सचेष्ट रहते थे। क्योंकि आजीवक का दूसरा अर्थ, पूर्ण रूप से जीवन का, अर्थात स्वस्थ्य जीवन का संपादन भी होता है। शरीर को आत्मा मानने वाले अपने स्वस्थ्य-स्वरूप जीवन के संपादन में सर्वथा सचेष्ट हों, यह सर्वथा युक्तिसंगत ही है। इन सारी बातों पर ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह दर्शन जन-जीवन से घनिष्ठता रखने वाले कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि, राजनीति-स्वरूप दण्डनीति और स्वास्थ्यप्रद आयुर्वेद इन तीनों से पूर्ण रूप से सम्बद्ध था।’
इस प्रकार अपेक्षा के तीसरे अंक (अप्रैल-जून 2003) के आने से पहले आजीवक को लेकर मेरी समझ साफ हो गई थी। इस अंक में कंवल भारती की पुस्तक ‘दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म’ की आलोचना के दौरान मैंने अपने निष्कर्ष को इस प्रकार व्यक्त कर दिया था-‘यदि ‘दलित’ ‘आजीवक’ और दलित साहित्य ‘आजीवक साहित्य’ में परिवर्तित हो जाएं तो यह ‘दलित’ शब्द की परिभाषा और गैर-दलित का भी दलित होने न होने जैसे अनावश्यक विवाद को समाप्त किया जा सकता है। यह अधिक गरिमापूर्ण संस्कृति का द्योतक है और दलितों के मनोबल और स्वाभिमान को ऊर्जा प्रदान करने की पर्याप्त सामर्थ्य रखता है। यह आग्रह डा. अम्बेडकर को किसी भी दृष्टि से कमतर व गलत आंकना नहीं है बल्कि उनके स्वाभिमान और दलित आंदोलन को आगे बढ़ाना है। इस पर निष्पक्षता व गंभीरता से विचार होना चाहिए।’ गौरतलब यह भी है कि मेरे निष्कर्ष के काफी अर्से बाद तक भी न डा. धर्मवीर ने और न ही कंवल भारती ने इसके प्रारूप को लेकर अपनी कोई लिखित प्रतिक्रिया दी और न ही उनका इस विषय पर कोई काम ही आया। जहां तक आजकल इसके फर्जी पैरोकारों का सवाल है, उनका इस मामले में कोई वजूद ही नहीं था। खैर…
आप अम्बेडकरी साहित्यकार हैं। आपने अपने को ‘अस्मिताओं’ के अन्य संस्थानों और संगठनों से नहीं जोड़ा। क्या फर्क है अम्बेडकरी साहित्य और अस्मिताओं पर आधारित अन्य साहित्य का ?
रावत जी, यह हकीकत है कि मेरा 2018 तक का साहित्य अम्बेडकरवादी साहित्य के बैनर तले लिखा गया। इसके बाद निरंतर चिंतन-मनन के दौरान मुझे एहसास हुआ किसी ‘वाद’ को आधार बनाकर लेखन-सृजन करने से वैचारिक व मानसिक स्वतंत्रता का हनन होता है। यह चिंतन व लेखन के दायरे को ही सीमित नहीं करता बल्कि इसके उद्देश्य को संकीर्ण व बोना बना देता है। इसकी एक दूसरी वजह यह भी है कि यह खुले तौर पर बुद्धिज्म और अम्बेडकरीज्म के साथ एक प्रकार की गद्दारी है क्योंकि ये दोनों चिंतन-दर्शन व्यक्ति को किसी व्यक्ति, पुस्तक, धर्मग्रंथ, परंपरा आदि की गुलामी का जबरदस्त विरोध करते हैं।
[bs-quote quote=”मेरी पहली मजबूरी इस साहित्य विशेष के नामकरण ‘दलित साहित्य’ को लेकर है। जाहिर नाम ‘दलित साहित्य’ है तो संगठन भी इसी नाम से बनेंगे। इनके अलावा अम्बेडकरवादी लेखक संगठन भी हमारे आसपास कई मौजूद हैं। इनका नाम भले ही अम्बेडकरवादी लेखक संघ हो गया हो लेकिन चर्चा में दलित साहित्य, दलित कहानी , दलित कविता वगैरा-वगैरा के अलावा अम्बेडकरवाद शब्द के प्रतिनिधित्व की किसी वोकेबुलरी का यहां कुछ लेना-देना नहीं रहता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दूसरे, मेरा भी मानना है कि दलित समाज से जुड़ा व्यक्ति किसी द्वीप विशेष पर तो रह नहीं रहा है। वह एक विविधताओं से भरे समाज, राष्ट्र और ग्लोबल विलेज का नागरिक है। जब तथागत और बाबा साहब का चिंतन दर्शन लोकल से लेकर ग्लोबल तक बेहद व्यापक है और प्रासांगिक भी, तो फिर हम होते कौन हैं इसे जातियों की संकीर्ण दीवारों मैं कैद करने वाले। इसलिए हमारे चिंतन-मनन व लेखन के विषय लोकल से लेकर ग्लोबल तक क्यूं नहीं होने चाहिए। मुझे लगता है हमें इस नजरिए पर गंभीर चिंतन-मनन की जरूरत है। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि व्यक्ति या लेखक जाति या धर्म से जुड़े ज्वलंत लोकल मुद्दों पर अपनी लेखनी या जुबान न चलाए। यद्यपि मैं बाबा साहब व तथागत के चिंतन-दर्शन से बेहद प्रभावित हूं लेकिन फिर भी आज मैं किसी एक या समूह विशेष का लेबल्ड होने में विश्वास नहीं करता हूं। मैं अपनी निजी वैचारिक स्वतंत्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करता हूं। यह मुझे आनंद की अनुभूति कराता है, सुकून देता है।
जहां तक अस्मिताओं का प्रश्न है, अस्मिताएं अनेक प्रकार की हो सकती हैं। वे निजी भी हो सकती हैं और सामूहिक भी। संभवत: यहां आपका अस्मिता से अभिप्राय सामाजिक अस्मिता से है। इस अस्मिता के पुर्नस्थापना के लिए अनेक संगठन व संस्थाएं काम कर रहे हैं। यहां आपका आशय दलित लेखक संघों या अम्बेडकरवादी लेखक संघों से भी है। रावत जी, यह पूरा सच नहीं है कि मैंने अपने आपको किसी संगठनों से नहीं जोड़ा। शुरुआती दौर में मैं डा. तेजसिंह के साथ चार वर्ष यानी 2004 के अंत तक दलित लेखक संघ का हिस्सा रहा हूं। आज भी यदा-कदा मुझसे इनका हिस्सा बनने का आफर आते रहते हैं। लेकिन इनका हिस्सा न बनने के पीछे मेरी कुछ लॉजिकल मजबूरियां हैं।
मेरी पहली मजबूरी इस साहित्य विशेष के नामकरण ‘दलित साहित्य’ को लेकर है। जाहिर नाम ‘दलित साहित्य’ है तो संगठन भी इसी नाम से बनेंगे। इनके अलावा अम्बेडकरवादी लेखक संगठन भी हमारे आसपास कई मौजूद हैं। इनका नाम भले ही अम्बेडकरवादी लेखक संघ हो गया हो लेकिन चर्चा में दलित साहित्य, दलित कहानी , दलित कविता वगैरा-वगैरा के अलावा अम्बेडकरवाद शब्द के प्रतिनिधित्व की किसी वोकेबुलरी का यहां कुछ लेना-देना नहीं रहता। हां, आजकल स्वयं को अम्बेडकरवादी साहित्यकार होने का तमगा हर दलित साहित्यकार लगाने को आतुर रहता है लेकिन न उनकी वैचारिकी दलितपन के दायरे से बाहर आ पाई है और न ही लेखन के तौर-तरीके में इसको पुख्ता करने वाला कोई बदलाव ही आया है।
इस संबंध में मेरे लॉजिकल अलगाव की अगली वजह है कि ‘दलित’ शब्द किसी गरिमामय अस्मिता का प्रतिनित्व नहीं करता है और न ही कभी कर सकता है। कोई व्यक्ति न जन्म से जातियां लेकर पैदा होता है और न ही दलितपन। यह स्पष्ट है कि जातियों को जन्मजात और जीवन के अंत तक बनाए रखना ब्राह्मणवादी षडयंत्र का हिस्सा है और इसका विरोध निरंतर जारी है। इसी तर्ज पर क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि ‘दलित’ शब्द के कलंक को जन्मजात बनाने और जीवन के अंत तक चस्पा रखने की साजिश दलित शब्द के पैरोकारों की है? इस शब्द को लेकर बाबा साहब ने भी वाल्यूम चार के पेज 228-229 पर ‘नामकरण’ शीर्षक से अपनी असमहति व्यक्त की है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि जब कोई गरिमामय अस्मिता का पोषक शब्द नहीं मिल जाता तब तक अस्थाई पहचान के रूप से अस्पृश्य व बहिष्कृत जैसे शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है।
[bs-quote quote=”बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि अनेक मामलों में ये साहित्य व संगठन दलित को लेकर कभी राजनीति करते नजर आते हैं तो कभी हथियार की तरह इसे इस्तेमाल कर जंग लड़ते नजर आते हैं। मुझे साहित्य की ऐसी राजनीति और राजनीति के ऐसे साहित्य की जंग दोनों से डर लगता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मेरी अगली असहमति यह है कि दलित शब्द को अस्मिता का चोला पहनाने के लिए यह तर्क आम है कि दलित लेखन डा. अम्बेडकर, बुद्ध, पेरियार, फुले, और संतों के चिंतन-दर्शन पर आधारित है। इसे सिरे से खारिज करता हूं और कहना चाहता हूं कि बाबा साहब ने इसे कभी सहमति नहीं दी है। मेरा सवाल यह है कि क्या बाबा साहब ने सिर्फ ‘जाति’ के विषय पर ही अपना चिंतन-दर्शन दिया है ? क्या उन्हें मात्र सामाजिक असमानता के विषय के विद्वान के आधार पर 100 सर्वोच्च इंटलक्चुअल में श्रेष्ठतम माना जाता है या उनके बहुआयामी उल्लेखनीय चिंतन-दर्शन के आधार पर? लेखन के दायरे में बाबा साहब को जातियों तक सीमित कर बौना करने की नासमझी कौन-सी श्रेणी में आता है, यह तो दलित शब्द के पैरोकार ही तय कर सकते हैं। मेरा मानना है कि बाबा साहब के व्यापक चिंतन-दर्शन की छाप मौजदा दलित साहित्य में नहीं है।
जहां तक पेरियार का मसला है उन्होंने ‘सेल्फ-रिस्पेक्ट मूवमेंट’ चलाया था और राजनीति की बड़ी से बड़ी पेशकश तक ठुकरा दी थी। इसलिए वहां समाज में मौजूद अस्मिता की गूंज आज भी बराबर बरकरार है। फुले ने ‘सत्यशोधक समाज’ बनाने के लिए आन्दोलन चलाया जिसमें कहीं भी हीनताबोध के लिए कोई स्थान नहीं है। यह जबरदस्त अस्मितापरक पहचान का द्योतक है। बुद्ध ने बौद्ध बनाने की बात की थी मुझे नहीं लगता कि उनके चिंतन-दर्शन में कहीं भी व्यक्ति व समाज को दलित या जातियों को मजबूत करने के लिए कोई फार्मूला दिया हो। अगर दिया है तो दलित साहित्यकार देश-दुनिया को बताने में अपनी विद्वता का प्रदर्शन करें। पूरा संत साहित्य जातियों की कुरुपता और इनके विरुद्ध आन्दोलन से भरा पड़ा है। ये सभी व्यक्ति को नकारात्मक अस्मिता के विरुद्ध जंग छेड़े हैं, न कि खुद नकारात्मक अस्मिता की स्थापना करने व इसे ओढ़ कर जीवनयापन के लिए आन्दोलित रहे हैं।
बड़ी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि अनेक मामलों में ये साहित्य व संगठन दलित को लेकर कभी राजनीति करते नजर आते हैं तो कभी हथियार की तरह इसे इस्तेमाल कर जंग लड़ते नजर आते हैं। मुझे साहित्य की ऐसी राजनीति और राजनीति के ऐसे साहित्य की जंग दोनों से डर लगता है। इसलिए ऐसे किसी भी साहित्य एवं संगठन का हिस्सा बनने के विचार मात्र से मेरा दम घुटता है। यह मुझे अपने तर्क-विवेक के साथ गद्दारी करने जैसा आभास कराता है जो मेरे व्यक्तित्व का कभी हिस्सा नहीं रहा और संभवत: न ही कभी आगे हो सकता है।
क्रमशः
विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।
दलित चिंतन और विमर्श के वर्तमान आयामों से अलग विमर्श है। फुले,अम्बेडकर, बुद्ध ने कभी इस कुरीति को एक हथियार या लाइसेंस के रूप में सर्वदा के लिए बनाए रखने और अपनी एक अलग दुनियां कायम करने की बात कभी नहीं कही है।भला हो आज के तथाकथित दलित समाज के ठेकेदारों का, कहां से चले थे,कहां पहुंचना था,कहां पहुंच गए।