जब हम (रामदेव सिंह) छोटे थे यानी स्कूल में पढ़ते थे तो हमारे गॉंव इसरायंकलां में इलाके में कुश्ती के फील्ड में दो नामों की बहुत शोहरत थी। बेदो खलीफा(बेदानंद सिंह) और लच्छन खलीफा (लक्ष्मण सिंह)। कुश्ती के क्षेत्र में दोनों पहलवानों का बड़ा नाम था। मेरे गॉंव के अलावा, आसपास के मेलों में जब कुश्ती का आयोजन होता तो उनकी कुश्ती देखने हजारों की भीड़ जुटती। बहुत रोमांचक खेल होता। जब बाहर से आया कोई पहलवान उनसे लड़ने से पहले ही हार मान लेता और उन्हें ‘वाक ओवर’ दे दिया जाता तो हम गॉंव वाले बहुत गौरवान्वित महसूस करते। कई बार दर्शकों की मांग पर दोस्ताना कुश्ती होती। बेदो काका की कद काठी विशाल थी, पहलवानों के अनुरूप जबकि लच्छन काका औसत कद-काठी के थे। लेकिन अपने से बड़े पहलवानों को भी चित करने का गुर जानते थे। अपने ‘नागफांस’ में जकड़ कर प्रतिद्वंद्वी को इतना थका डालते कि जीत उन्हीं की होती। बेदो काका पहलवानी के आधार पर ही बिहार पुलिस में भर्ती हुए और सब इंस्पेक्टर के पद से रिटायर हुए। भर्ती तो कुछ दिनों के लिए लच्छन काका भी हुए, होमगार्ड में, लेकिन एक डेढ़ साल में ही छोड़ दिया। उन्हें होमगार्ड की वर्दी से ज्यादा अखाड़े की मिट्टी ज्यादा प्रिय थी। अखाड़े के साथ-साथ अपने गांव की मिट्टी भी ।
उनके कुश्ती गुरु, ललकुड़िया के अबरार मियां ने उन्हें अपने अखाड़े में नये कुश्तीबाजों के ट्रेनर के रूप में बुलाया। उन्हें छह बीघा जमीन देने का भी प्रलोभन दिया लेकिन पिता के मना करने पर उन्होंने जमीन का लोभ नहीं किया और अपने गॉंव में ही रहने को प्राथमिकता दी। हालांकि वे अबरार मियां के अखाड़े से जुड़े रहे। अबरार मियां स्वयं अपने शिष्य लच्छन खलीफा से कुश्ती का अभ्यास भी करते थे।
लच्छन काका दिलचस्प ढंग से बताते हैं, ‘कुश्ती में वे अपने गुरु से बीस पड़ने लगे थे लेकिन गुरु का ‘मान’ रखने के लिए स्वयं ही हार जाते थे।’ गुरु भी इस बात को समझते थे। अबरार मियां में अन्दर ही अन्दर ईर्ष्या भी पैदा हो गयी थी। उन्होंने लच्छन काका को पहलवानी में कमजोर करने के लिए उन्हें विचलित करने के लिए, उनकी ताकत कम करने के लिए दूसरे उपाय भी किए लेकिन वे जीवन में लंगोट के हमेशा पक्के रहे।
लच्छन काका सीधे-सच्चे आदमी हैं। अपना गॉंव लच्छन काका की कमजोरी थी। वे खेतीबाड़ी में अपने पिता का हाथ बंटाने लगे। भैंसों का जिम्मा लच्छन काका का था। भैंसे पालना इसलिए भी जरूरी था कि पहलवानों के लिए दूध सबसे बड़ी जरूरत थी। वे बहुत ईमानदारी से बताते हैं कि ‘झूठ क्या कहना, मैं रात में ही भैंसों की चरवाही के लिए निकल जाता.. और जब निकलता तो दूसरों का खेत चरना ही था। ऐसे दिनों में ही एक दिन रात में देवी भगवती उनके सपने में आयी और उन्हें ऐसा करने से मना किया। जबकि वे कभी देवी भगवती को दो फूल भी नहीं चढ़ाते थे …आज भी नहीं चढ़ाते हैं लेकिन भगवती ने सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय का भेद समझा दिया। तब से वे मेहनत और ईमानदारी की राह पर ही चलते रहे हैं।
लच्छन काका गॉंव के सबसे कर्मठ किसान
अस्सी पार हो चुके लच्छन काका पहलवानी छोड़ने के बाद पूरी तरह खेती-किसानी में रम गये और आज के समय में गॉंव के सबसे कर्मठ किसान माने जाते हैं। चिलचिलाती धूप हो या मूसलाधार बारिश, काम के समय वे खेत में ही मिलेंगे। लोग बताते हैं कि कई बार अंधेरा होता तो वे मशाल जलाकर किसी पेड़ में बांध देते और उसकी रोशनी में मक्के के नवजात पौधों पर मिट्टी चढ़ा रहे होते। किसानी का ऐसा जुनून शायद ही कहीं सुनने को मिलेगा। चिलचिलाती धूप में खेतों में काम करते समय लोगों ने उन्हें अक्सर शरीर पर मिट्टी औंसते(लगाते) देखा है। यह मिट्टी उन्हें आज भी चन्दन के लेप जैसी शीतलता देती है।
जिस तरह पहलवानी के अखाड़े में वे अपने शरीर पर मिट्टी मलते थे वही आदत उनकी खेत में काम करने के दौरान भी बरकरार है। मैंने एक दिन पूछा था कि मिट्टी क्यों मलते हैं तो उन्होंने कहा कि इससे शरीर को ठंडापन मिलता है और हम ज्यादा काम कर पाते हैं।
लच्छन काका जब पुलिस बल में कुछ दिनों के लिए थे तो उनकी प्रायः ‘मैगजीन ड्यूटी’ रहती थी जहां पुलिस बल की राइफल और गोलियां रखी जाती थी। वहां ड्यूटी का मतलब था हमेशा चौकस। वे खेती को भी ‘मैगजीन ड्यूटी’ की तरह ही लेते रहे हैं यानी निरन्तर चौकसी। यह चौकसी गयी तो बहुत नुकसान उठाना पड़ सकता है।
यही कर्मठता लच्छन काका ने अपने लड़कों को भी दी है जो खेती और दूसरा व्यवसाय संभालते हैं। वे अकुन्ठ भाव से कहते हैं मुझे तो अब भी ठीक से पैसा गिनने नहीं आता है। अपने घर से थोड़ी ही दूर लगभग दस कट्ठे जमीन में उनका अपना बसेरा है। जहां उनकी भैंसें और गायें भी रहती हैं। वहीं अपने परिवार के लिए सब्जियां भी उगा लेते हैं। यानी अनाज, सब्जी और दूध के लिए पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं। ये चीजें कभी बाज़ार से नहीं आती। बच्चों के लिए उन्होंने भले आधुनिक सुविधाओं वाला खुबसूरत सा मकान जरुर बनवा दिया है लेकिन उन्हें पतले बिछावन वाले अपने तखत पर ही अच्छी नींद आती है।
लच्छन काका ने इस उम्र में भी अपने को ‘रिटायर’ नहीं किया है। वे सही मायने में एक कर्मयोगी हैं। उन्होंने भले शास्त्र नहीं पढ़ा है लेकिन व्यवहारिक जीवन में अपना शास्त्र जरुर गढ़ा है।