सातवें चरण का चुनाव अभी पूरा नहीं हुआ था। पूर्वांचल के जिलों से, खासकर मिर्जापुर से मतदान कर्मियों के लू लगने से मौत और बीमार पड़ने की खबरें आ रही थीं लेकिन मीडिया चैनलों पर इन खबरों से अधिक चुनाव के एग्जिट पोल की सनसनाहट दिखाई दे रही थी। ‘लाइव’ का कैप्शन चुनाव खत्म होने की सीमा पार होने का इंतजार कर रहा था। ऐसा लग रहा था कि भोजन तैयार है, बस मुहूर्त का इंतजार हो रहा हो। अब तक का भारत का यह दूसरा सबसे लंबा लोकसभा चुनाव था। भारत में लोकसभा चुनाव के समय गर्मी अपने चरम पर होती है और इस वर्ष तो इसने हद की पार कर दी। चुनावी कर्मचारी इस भीषण गर्मी में दूरस्थ इलाकों में पहुँच कर मतदान का काम पूरा करवाए। उत्तर प्रदेश में चुनाव के दौरान 50 लोगों की मौत हीट स्ट्रोक से हुई।
सातवें चरण के मतदान पूरे हो जाने के बाद गोदी मीडिया में एग्जिट पोल इस तरह पेश किए जा रहे हैं मानो लोकतंत्र में ‘लोक’ बस यहीं तक था, अब तो बस मोदीजी का तंत्र चलेगा। मीडिया खुद भी इस बार भाजपा के एक पक्ष को लेकर चुनाव प्रचार में अग्रणी भूमिका निभा रहा था। वह अपनी ही हिस्सेदारी का अपने एग्जिट पोल में वैधानिक जामा पहनाकर पेश कर रहा था। ऐसे में एग्जिट पोल पर सवाल उठना लाजिमी है। नतीजे जो भी सामने आए, वह अलग मसला है, लेकिन मीडिया की निष्पक्षता पर यकीन करना मुश्किल लग रहा है।
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चुनाव के नतीजों को प्रभावित करने वाले कारक लोकतंत्र के व्याकरण में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। इसी आधार पर इतिहास के सबसे पुराने शासन तंत्रों को ‘गणतंत्र’ के रूप में चिन्हित करने का आधार हासिल हुआ। ये गणतंत्र भारत में भी था और यूनान में भी। ये और भी देशों में एक परम्परा की तरह बने और मिट गये। लेकिन, पूरी दुनिया में ग्राम समाजों में कमोबेश यही व्यवस्था आज भी दिखती है। लेकिन, निश्चय ही लोकतंत्र की व्यवस्था इन सबसे एकदम अलग और आधुनिक है। यह जितना निस्पृह, पवित्र और निष्पक्ष दिखता है उतना है नहीं। इस लोकतंत्र के विकास के इतिहास को देखें, तब इसमें वोट का अधिकार और तंत्र को विकसित करने की प्रक्रिया बेहद नियंत्रित तरीके से चलती रही है। यही कारण रहा है कि भारत में जब पहली बार आम लोकसभा चुनाव कराने का फैसला लिया गया जिसमें हरेक नागरिक को वोट देने का अधिकार था, तब इस पर पूरी दुनिया की नजर थी। उस समय चुनाव के संपन्न हो जाने और नतीजों के आधार शासन व्यवस्था के चल निकलने के पीछे उपनिवेशवाद की वे लंबी परम्पराएं थीं जिसमें प्रांतीय सभाओं का चुनाव हितों को पूरा करने के लिए खास खास समाज गोलबंद होकर वोट मांगते, देते प्रशिक्षित हो चुका था और आम लोगों के एक हिस्से में आकांक्षाओं को जगा दिया था। इसी में वे कारक भी छुपे थे जो वोट की दिशा और बहुमत बना रहे थे।
कई दशकों से लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव के परिणाम पुराने कारकों को छोड़, नए को अपनाते हुए उस जगह पहुंच गये, जिसमें पार्टी, नेतृत्व, उम्मीदवार और नागरिकों से अधिक चुनाव को बाजार की तरह देखने वाली संस्थाओं की भूमिका बड़ी हो गई है। पिछले दस सालों में ऐसी संस्थाओं को चलाने वाले व्यक्ति एक राजनीतिक हैसियत हासिल कर चुके हैं जो सिर्फ चुनाव ही नहीं शेयर बाजार तक को नियंत्रित करते हैं। इस तरह की शख्सियत में एक बड़ा नाम प्रशांत किशोर का उभरा है। जिनकी हैसियत किसी भी राजनेता से कम नहीं है।
चुनाव लोकतंत्र की प्रणाली का हिस्सा है। इस प्रणाली का अध्ययन करना एक राजनीति का विषय भी है। इसे लेकर कई संस्थानों ने इसके अध्ययन के लिए एक पूरी प्रणाली ही विकसित किया। इसे समझने और अध्ययन करने वाले पत्रकारों और अध्येयताओं ने टीवी चैनलों की शुरूआत के साथ ही चुनाव पर आकलन और विश्लेषण पेश कर चुनाव की जो ‘गुप्त प्रणाली’ थी, उसे खोलकर रख दिया। इसके पहले दौर में विनोद दुआ, प्रणव राय और थोड़े समय के अंतराल पर रूचिर शर्मा, योगेंद्र यादव जैसे पत्रकार और अध्येयताओं ने चुनावों की जब परतें खोलनी शुरू की तब लोग स्थानीय नेताओं और बड़े नेताओं के बयानों से अधिक इनकी बातों को सुनने में तरजीह दिया। यह एक नये दौर की शुरूआत थी। पत्रकार और अध्येयता जहां खड़े थे, आने वाला समय में आगे की पीढ़ियों ने सिर्फ चुनाव के नतीजों का अनुमान नहीं लगा रहा थे बल्कि चुनाव के नतीजों को खुद प्रभावित कर रहे थे और चैनल एक प्रचारक की भूमिका निभा रहा था। चुनाव की प्रणाली में ‘प्रबंधन’ अब सामान्य शब्द नहीं रह गया था, यह एक नागरिक से हजारों गुना बड़ा होकर उसे निर्देशित कर रहा है।
चुनाव के समय किसे चुनना चाहिए? वह नेता ही नहीं, वोटर ही तय करता है। लेकिन एग्जिट पोल से एक ऐसा निर्णय जारी और प्रचारित करता है जिससे सामने एक नागरिक का निर्णय बौना साबित होने लगता है, वह अपने वोट के साथ खुद को हताश, निराश और निहायत ही कमजोर पाने लगता है। वह इस पूरी चुनाव प्रक्रिया और लोकतंत्र को एक बेकार हो चुके पुर्जे की तरह देखने लगता है। वह इससे बाहर होने लगता है।
राजनीतिक सिद्धांत और चुनाव का विश्लेषण
भारत के लोकतंत्र को इस तरह दिखाया जाता है मानो इसकी बोधगम्यता सिर्फ वोटों से ही जगती है। दुनिया की कोई भी व्यवस्था हो, वह एक निरंतर चलने और विकसित या पतन की ओर जाने को अभिशप्त होती है। यह बात कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में चलने वाली सरकारों के लिए भी उतनी ही सत्य है। जब रूस में साम्यवादी व्यवस्था पतन की ओर बढ़ गई, उस समय चली ‘महान बहस’ ने चीन की साम्यवादी व्यवस्था में एक वैचारिक और दार्शनिक उथल-पुथल को पैदा किया। इसने ‘निरंतर चलने वाली क्रांतियों’ का सिद्धांत दिया। यह महान सांस्कृतिक आंदोलन का दौर था। 1980-84 के बीच साम्यवाद के पतन का रास्ता दिखना शुरू हो गया था। 1989 में इसका पतन पूरी दुनिया के सामने था। यहां इसका उल्लेख इसलिए किया गया, क्योंकि इस व्यवस्था को जनता की सबसे उन्नत व्यवस्था माना जाता है। जबकि हम यहां जिस लोकतंत्र की बात कर रहे हैं उसे सबसे पहले यूरोपीय देशों ने और बाद में उनके उपनिवेशों में शासन की व्यवस्था के रूप में उभरा। इसमें जनता की हिस्सेदारी को बढ़ाने की कोशिशें, दावे और व्यवस्थाएं की गईं। लेकिन, इस तंत्र के शीर्ष पर संपत्तिशाली वर्ग का प्रभुत्व बना रहता है। इस शासन व्यवस्था में ‘वैधानिकता’ एक महत्वपूर्ण पक्ष है जिसमें नागरिक वोट और चुनाव की प्रक्रिया को सर्वाधिक महत्व का माना जाता है। इससे राजनीतिक और सामाजिक संवाद की वे स्थितियां बनती हैं जिसमें जनता के हिस्से में ‘निर्णय’ का बोध आता है और तंत्र के हिस्से में वैधानिकता मिल जाती है। अमेरिकी और ब्रिटिश राजनीतिक सिद्धांतकार और चिंतक इसे एक पवित्र व्यवस्था की तरह देखते हैं और इसमें आ रही कमजोरियों को वे लगातार चिन्हित भी करते हैं।
आमतौर पर पश्चिमी चिंतकों की चिंता लोकतंत्र की व्यवस्था को लोकप्रिय आंदोलनों से इसे उखाड़ फेंकने को लेकर 1980 के दशक तक दिखती है। इसके बाद, जब पूरी दुनिया में अमेरिका ने तख्ता पलट के अभियान से विभिन्न सरकारों को नियंत्रित कर लिया, तब उनकी चिंता खुद लोकतंत्र की प्रक्रिया में ही आ रही गिरावट और क्षरण को लेकर शुरू हो गई। यहां से तकनीक का विकास पूंजी को उत्पादन के कार्यां से पूरी तरह अलग करना शुरू कर दिया और चंद वर्षों में इसने डिजिटल रूप लेकर पूरी दुनिया की सैर के लिए निकल गया। यह अब निर्णय लेने की क्षमता में आ गया था और अपने विश्लेषणों से मुनाफे का अनुमान लगाते हुए अपनी गति निर्धारित कर रहा था, वह सरकारों के चुनाव में सीधे दखल रहा था और वोट को नियंत्रित कर रहा था। पश्चिमी चिंतकों की चिंता लोकतंत्र में इस तरह के खलल से पैदा हुए क्षरण को लेकर थी।
भारत में लोकतंत्र में पार्टियों के बनने, उनके उत्थान और पतन, चुनाव में भूमिका और खासकर कांग्रेस के पतन और उत्थान को लेकर 1980 के दशक में जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, राष्ट्रीयता और समुदाय को लेकर नए सिरे से चिंतन शुरू हुआ। 1990 के दशक में धर्म और जाति के आवरण में छिपे आर्थिक और सामाजिक कारणों और सांस्कृतिक उत्थान की आकांक्षा का अध्ययन सामने आया। नई सदी में विकास की अवधारणा में रोजगार और आय का मसला साफ दिखने लगा जिसमें ‘प्रवासी मजदूर’ एक श्रेणी की तरह गिना गया। युवा और महिला को वोट के एक सक्रिय हिस्सेदार की तरह विश्लेषित किया गया। यहां तक कि उन किशोरों की आकांक्षाओं तक को गिना जाने लगा जो आगामी चुनाव तक वोट देने की उम्र तक पहुंच जाएंगे। सैंपल सर्वे राजनीतिक सिद्धांत में इस राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलावों को समझने में एक उपकरण की तरह काम करता है। किसी सर्वे के लिए विषय के अनुरूप ही उसकी सारणियां होती हैं और उसके विश्लेषण की कुछ पद्धतियां होती हैं जिसके पीछे सिद्धांत और दार्शनिक अवस्थितियां काम कर रही होती हैं।
लेकिन, जब चुनाव की प्रक्रिया को प्रभावित करने, उसे पक्ष में लाने और जीत में बदल देने का प्रबंधन व्यवस्था काम करने लगे और यह सीधे बाजार और शासन पर नियंत्रण का हिस्सा बन जाए, तब वहां सिर्फ वोट देने वाला ही नहीं, पूरी प्रक्रिया ही प्रभावित होने लगती है। यही कारण है कि पिछले कुछ चुनावों के दौरान चुनाव आयोग की संरचना और उसकी कार्यपद्धति पर गंभीर सवाल उठने शुरू हो गये हैं। इसी तरह वोट के पैटर्न जब राजनीतिक मुद्दों से इतर दिखने लगे हैं। यह भी वोट पर ही गंभीर सवाल पैदा करता है। यही वे दो प्रक्रियाएं हैं जिसमें जन हिस्सेदारी और वैधानिकता दोनों ही परिलक्षित होती हैं। यदि ये दोनों ही सवालों में आ जाएं तब इस तंत्र की आधारशिला ही बिखरती हुई दिखेगी। ऐसे में, कोई लोकप्रिय आंदोलन का उभार भले न हो, नई शासन व्यवस्था के लिए कोई हिंसक कार्यवाही भले ही न दिखे, लेकिन एक लोकतंत्र की व्यवस्था अपनी कार्यवाहियों से चरमराती हुई जरूर दिखेगी। यह चलते हुए भले ही दिखे, लेकिन इस पर भरोसा न तो खुद ‘चुनकर आये हुए समूहों’ में दिखेगी और न ही प्रभुत्वशाली वर्ग इसे लेकर भरोसमंद दिखेगा। ऐसे में, ‘चुनकर आये समूहों’ में शासन को और कठोर करने, पुलिस और सेना को सतर्क रखने, दंडात्मक कार्यवाहियों को तेज करने, असहमति को कुचल देने और विपक्ष की पार्टियों को खत्म कर देने में यह खूब दिखेगा। पिछले पांच सालों में हमने इस तरह की स्थितियों को देखा है। यह आगे नहीं दिखेगा ऐसा कह सकना मुश्किल है।
किसका बहुमत, किसकी सरकार
संसदीय लोकतंत्र में बहुमत एक सरकार बनाने के निर्णय के साथ जुड़ा हुआ और अल्पमत विपक्ष की भूमिका को तय करता है। इसके अपनी अपनी औपचारिकता है। एग्जिट पोल इस समय भाजपा को 400 पार कराता हुआ दिख रहा है। जबकि खुद भाजपा ने दूसरे चरण तक आते-आते इस नारे को छोड़ दिया था। उसे इतनी सीट का भरोसा नहीं था। यदि इन एग्जिट पोल कराने वाले संस्थानों और मीडिया को इतना ही भरोसा था, तब यह सवाल जरूर बनता है कि भाजपा ने इस नारे को क्यों छोड़ दिया? प्रशांत किशोर के शब्दों में भाजपा ने इस नारे को छोड़कर सही किया क्योंकि यह व्यवाहारिक नहीं था। आज यह किन कारणों से व्यावहारिक दिख रहा है? पांचवें चरण के चुनाव के दौरान जब वोट का प्रतिशत ऊपर उठ नहीं रहा था और शेयर बाजार नीचे की ओर जा रहा था, तब चुनाव विश्लेषकों का एक हिस्सा भाजपा के बहुमत की वकालत करना शुरू कर दिया और अनुमान लगाना शुरू किया कि यह 300 सीट से ऊपर रहेगा। उस समय शेयर बाजार में थोड़ी उठान दिखनी शुरू हुई। क्या यह अनुमान सिर्फ सट्टा बाजार में पैसा बनाने के लिए किया जा रहा था या सट्टा बाजार चुनाव को नियंत्रित करने के लिए आग्रह कर रहा था? यह सवाल, चुनाव की आम प्रक्रिया के बाहर के उन कारकों पर है, जो वस्तुतः वोट और चुनाव को गहरे प्रभावित कर रहे थे। ये सिर्फ मध्यवर्ग ही नहीं, ये कारोबारी समुदायों को प्रभावित करने के लिए किया जा रहा था।
अब 4 जून को आने में सिर्फ एक दिन है। एग्जिट पोल के नतीजों में सिर्फ मोदी, भाजपा की सरकार है। संभव है उन्हें बहुमत मिल जाए और उनकी सरकार बन जाए। शेयर बाजार आसमान छू ले। मीडिया को मनमानी करने की खुली छूट मिल जाए। चुनाव का प्रबंधन करने वाली संस्थान का पूंजी निर्माण और ऊपर उठ जाए। भारत की राजनीति में प्रभावशाली लोगों में ऐसे ‘प्रबंधकों’ के कुछ नाम और सामने आ जाएं। इस दिशा में बहुत कुछ संभव है। यदि चुनाव का अर्थ यही है। यदि लोकतंत्र का अर्थ बहुमत है तब आने वाले समय इससे अधिक और भी नये प्रबंधन, नेतृत्व और तरीके अख्तियार किये जाएंगे। जिस संविधान पर आधारित प्रशासिनक व्यवस्था को अपनाया गया है और जिसके बल पर एक वैधानिक सरकार को चुनने की प्रक्रिया अपनाई जाती है, एक नई सरकार का गठन होता है वह निश्चित ही लगातार अंदर से क्षरित होता जा रहा है। शायद यही कारण है कि खुद भाजपा इस तंत्र में बदलाव लाने के लिए उसके अलग-अलग नेतृत्व कुछ कुछ प्रस्ताव देते रहते हैं।
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लेकिन, सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात उनकी है जो इस लोकतंत्र के सबसे निचले पायदान पर हैं। जिनके वोट के बल पर एग्जिट पोल और बहुमत की घोषणाएं इस समय चल रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार इस समय युवा वर्ग का 80 प्रतिशत से अधिक हिस्सा रोजगार से वंचित है। खेतों से जितना उत्पादन हो रहा है उससे कई गुना अधिक लोग उस पर निर्भर तबाह जिंदगी जी रहे हैं। महिलाएं रोजगार के अवसरों से बाहर जाकर दुनिया के स्तर पर सबसे बदतर जिंदगी जी रही है। एक आंकड़े के अनुसार श्रम हिस्सेदारी में भारत की महिलाएं अरब देशों से भी पीछे चली गई हैं। 50 करोड़ से अधिक श्रमिक अनौपचारिक रोजगार में लगे हुए हैं। कर्मचारियों को पेंशन की सुरक्षा से वंचित किया गया और मध्यवर्ग नोटबंदी से लेकर कोविड महामारी से तबाह होता हुआ अब सिर्फ अपने बच्चों पर उम्मीद टिका रखा है और उन्हें मंहगी शिक्षा देकर भविष्य सुरक्षित कर लेने की उम्मीद कर रहा है। छोटे उद्यमियों की स्थिति में फिलहाल कोई बेहतरी की स्थिति नहीं है जबकि आर्थिक संरचना में धनपतियों की संख्या और संपत्ति का संकेद्रण तेजी से बढ़ा है। जाति संरचना के आधार पर हिंसा और धर्म के आधार पर भेदभाव और हिंसा चरम की ओर जा रही है। इस भेदभाव और हिंसा में अब राज्य की भूमिका तेजी से बढ़ रही है। इस चुनाव में जिस तरह धर्म और जाति का प्रयोग भेदभाव तरीके से किया गया वह भयावह है।
किसी भी देश में वहां की शासन व्यवस्था में जन की हिस्सेदारी या उसका दावा ही उसे लोकतंत्र या इसके बराबर की व्यवस्था के दावे को प्रमाणित कर सकता है। यदि यह सिर्फ दावे तक सीमित रह जाए, तब निश्चय ही उस व्यवस्था में जन की कोई भूमिका नहीं रह जाती है। लेकिन, जन की आकांक्षाओं को कौन रोक सकता है। ऐतिहासिक तौर पर जन गणतंत्र की व्यवस्था को आज भी कायम रखे हुए है जिसमें वह निर्णय सामूहिक स्तर पर ही करता है। इसके रूप अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के दिखते हैं। कई बार ये बेहद प्रतिक्रियावादी होते हैं और कई बार बेहद प्रगतिशील। इसका बड़ा कारण उन समाजों के पुरानेपन में निहित है। लेकिन, जन के बहिष्करण की जो प्रक्रिया चल रही है, संभव है जन इसी पुरानेपन की जमीन पर खड़ा हो जाए। बहुमत की सारी घोषणएं सरकार बनाने तक सीमित रह जाएंगी जिसकी वैधानिकता पर सवाल भी उठते रहेंगे। पिछले कुछ सालों में चुनी सरकारों को गिराने, पार्टी की बहुमत को तोड़ने जैसे अनेक खेल शुरू हुए हैं, वहां तो एग्जिट पोल की घोषणा की जरूरत ही नहीं पड़ी। लेकिन, इसने जो परम्परा कायम की है उसमें लोकतंत्र नमक से भी कम है। संसदीय लोकतंत्र को बचे रहने के लिए फिलहाल इतना नमक को जरूरी ही है। यदि वह भी न रहा तब राजनीति को सट्टेबाजों से कौन बचा सकता है! इस बार का एग्जिट पोल सट्टेबाजी का एक खेल है। सवाल इसके सही या गलत होने का नहीं, वोट को सट्टाबाजार में उतार लाने का है। यही खतरनाक है।