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राष्ट्रीयता के मसले को आम जनता को उत्तेजित करने के षड्यंत्र की तरह देखा जाना चाहिए

तीसरा और आखिरी हिस्सा आप तेलुगु के प्राध्यापक भी रहे हैं। लगातार जेल आने-जाने से क्या आपकी सरकारी सेवा सुरक्षित रही? मैं वरंगल के एक महाविद्यालय में तेलुगु का प्राध्यापक था। जेल जाने से निलंबन स्वाभाविक है। लेकिन जेल से आने के बाद कॉलेज में योगदान कर सरकारी सेवा को कायम रखा। प्रो. जयशंकर हमारे […]

तीसरा और आखिरी हिस्सा

आप तेलुगु के प्राध्यापक भी रहे हैं। लगातार जेल आने-जाने से क्या आपकी सरकारी सेवा सुरक्षित रही?

मैं वरंगल के एक महाविद्यालय में तेलुगु का प्राध्यापक था। जेल जाने से निलंबन स्वाभाविक है। लेकिन जेल से आने के बाद कॉलेज में योगदान कर सरकारी सेवा को कायम रखा। प्रो. जयशंकर हमारे कॉलेज के प्राचार्य थे, वे बाद में कुलपति भी बने। इन्हें फादर ऑफ तेलंगाना कहा जाता है। मुझे याद है कि इमरजेंसी के समय वे मेरे कॉलेज के प्राचार्य थे। मैं जेल से बाहर आया तो तत्काल बुलवाकर उन्होंने कॉलेज में मेरा योगदान करवाया। मुझे अफसोस है कि फादर ऑफ तेलंगाना अपनी आँखों से तेलंगाना को देख नहीं सके।मुझे आगे बढ़ाने में उनका बड़ा योगदान है। 1998 में सरकारी सेवा से अवकाश मिला तो अभी पेंशन ही मेरी सांस है।

आपने एक बार साक्षात्कार में कहा था कि आंध्र प्रदेश में लोग नक्सलियों को ‘अन्नलू’ कहते हैं। ‘अन्नलू’ का मतलब तेलुगु में भाई होता है। जब आंध्र प्रदेश में नक्सलियों का सफाया हो रहा था, तब अन्नलू जनता पर इसका क्या असर पड़ा?

इमरजेंसी के बाद तारकुंडे कमिटी ने आंध्र प्रदेश में पुलिस इनकाउंटर में 75 नक्सलियों की हत्या के खिलाफ जांच दल भेजा था। तारकुंडे कमिटि में कन्नाविरन, कालोजी, अरुण शौरी, पूर्व उपराष्ट्रपति कृष्णकांत, के. प्रताप रेड्डी, एम.वी.राममूर्ति शामिल थे। कन्नाविरण और अरुण शौरी ने तथ्यों को जमा करने और रिपोर्ट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। तारकुंडे कमिटी की रिपोर्ट से पूरे देश में पुलिस इनकाउंटर के खिलाफ पहली बार बवाल मचा था और आंध्र प्रदेश से शुरू हुए इनकाउंटर विरोधी जनांदोलन के कारण भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के कार्यरत न्यायाधीश के नेतृत्व में भार्गव कमीशन गठित किया था। पुलिस इनकाउंटर विरोधी जनांदोलन में सी.पी.आई., सी.पी.एम. इकट्ठे होकर जनता के साथ खड़े हुए थे। राजनीतिक दबाव में भार्गव कमीशन का ट्रायल रोक दिया गया। इसलिए किसी को सजा नहीं हो पायी। पुलिस इनकाउंटर के खिलाफ आंध्र प्रदेश हाइकोर्ट की 5 जजों वाली खंडपीठ ने न्यायमूर्ति रघुराम के नेतृत्व में ऐतिहासिक फैसला सुनाया- ‘किसी भी इनकाउंटर को हत्या माना जायेगा और मारने वाले पुलिसकर्मी पर तत्काल हत्या का मुकदमा दर्ज होगा। अगर मुकदमे की सुनवाई में तथ्य प्रमाणित करेगा कि उक्त पुलिस कर्मी ने आत्म सुरक्षार्थ गोली चलायी थी तो उसे निर्दोष माना जा सकता है।’ यह अन्नलू जनता की जीत है।

[bs-quote quote=”शंकर गुहा नियोगी को भूलना संभव नहीं है। शंकर गुहा नियोग से दो वजहों से हमारी निकटता कायम हुई। पहला-राष्ट्रीयता का मुद्दा। छत्तीसगढ राज्य की मांग पहली बार छत्तीसगढ मुक्ति मोर्चा ने उठाया था। हम लोग आदिवासियों की खुशहाली के लिए उस समय विशाल-बस्तर की मांग कर रहे थे। मद्रास में राष्ट्रीयता और छत्तीसगढ़ की स्मिता पर बात करने हम लोगों ने नियोगी को एक सभा में बुलाया भी था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

हम लोगों ने देश में पहली बार इनकाउंटर में मारे गए लोगों की लाश प्राप्ति के हक का आंदोलन चलाया। पुलिस इनकाउंटर कर लाश को गायब नहीं कर सकती है। हम लोगों ने‘ ‘डेड बॉडी स्वाधीन कमिटी’ बनाया। 1996 जनवरी में मेदक जिला में हुए पुलिस इनकाउंटर के खिलाफ ‘मुर्दा देहालाल स्वाधीन कमिटी’ बनायी। गद्दर इस कमिटी के संयोजक थे। डेड बॉडी सिर्फ परिवार जन को ही क्यों। ‘डेड बॉडी राइट-ह्यूमन राइट’ का सवाल बड़ा मुद्दा बन गया। इसी आंदोलन के दबाव में 1996 के अप्रैल में पुलिस ने गद्दर के घर पर गोली चलायी। अब इस आंदोलन के दबाव में इनकाउंटर में  मारे गए  किसी भी नागरिक की लाश गायब करना पुलिस के लिए आसान नहीं है। अगर किसी की लाश पुलिस के भय से उसके निकट संबंधी स्वीकार करने की हिम्मत नहीं कर रहे हैं या उसके कोई सगे-संबंधी परिवार जन नहीं हैं तो ‘अमरुला बंधमित्रुला संघम’ (शहीदों का बंधु मित्रों का संघ) डेड बॉडी रिसीव कर सकता है। 1969 से अब तक अविभाजित आंध्र प्रदेश में 6000 क्रांतिकारी पुलिस के हाथों मारे गये हैं। इतनी बड़ी शहादत के बाद भी प्रतिरोध की क्रांतिकारी परंपरा को खत्म करना राज्यसत्ता के वश की बात नहीं है।

जब नवउदारवाद आया तो देश के श्रमिक-आंदोलन को ध्वस्त करने की कोशिश हुई। शंकर गुहा नियोगी इस दौर में मारे गये। कमलेश्वर ने इन्हें श्रमिक देवता लिखा था। क्या शंकर गुहा नियोगी को लोग भूल चुके हैं?

शंकर गुहा नियोगी को भूलना संभव नहीं है। शंकर गुहा नियोग से दो वजहों से हमारी निकटता कायम हुई। पहला-राष्ट्रीयता का मुद्दा। छत्तीसगढ राज्य की मांग पहली बार छत्तीसगढ मुक्ति मोर्चा ने उठाया था। हम लोग आदिवासियों की खुशहाली के लिए उस समय विशाल-बस्तर की मांग कर रहे थे। मद्रास में राष्ट्रीयता और छत्तीसगढ़ की स्मिता पर बात करने हम लोगों ने नियोगी को एक सभा में बुलाया भी था। 1985 में जब विरसम और गद्दर की जन नाट्य मंडली ने अखिल भारतीय क्रांतिकारी सांस्कृतिक यात्रा निकाली थी तो उस यात्रा में शंकर गुहा नियोगी ने राजनंदगांव में शहीद वीरदेव सिंह नारायण की स्मृति में आयोजित शहीद स्मृति सभा में हमारे जत्थे को आमंत्रित किया था। हजारों आदिवासियों का जन सैलाब उस शहीद सभा में इकट्ठा हुआ था। मैं बता रहा था कि राष्ट्रीयता के साथ-साथ हम लोगों ने जल-जंगल-जमीन का नारा नियोगी से लिया है। यह शंकर गुहा नियोगी का नारा है। हम लोगों ने इस नारे में इज्जत और सत्ता को जोड़ा है। नियोगी की हत्या से श्रमिक आंदेलन को जोरदार धक्का लगा पर छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा और भिलाई इस्पात संयत्र के खान मजदूरों का संघर्ष नियोगी के रास्ते पर कायम है।

आप बाबरी मस्जिद विध्वंस से लेकर गुजरात के दंगों के एक दशक और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व के दूसरे साल को किस तरह देख रहे हैं?

बीज तो 1947 के विभाजन के साथ ही बो दिया गया था। विभाजन के साथ जुड़ा दंगा, रक्तपात स्वाभाविक तो नहीं था। देश भर में नक्सल आंदोलन पर दमन, भोपाल गैस त्रासदी और 1984 के सिखों के कत्ले आम को आप क्यों भूलते हैं। सिखों के कत्ले आम के बाद राजीव गाँधी 401 सीट लाकर 21 वीं सदी का जो स्वप्न दिखा रहे थे, वही स्वप्न आज पूरा हो गया है। राजीव गाँधी ने राम मंदिर का दरवाजा खोला तो आडवाणी ने द्वारिका से अयोध्या की रथयात्रा निकाली। सोवियत संघ का विघटन के बाद वैश्वीकरण व नव-उदारवाद का अगला चरण 1992 का बाबरी मस्जिद विध्वंस और गुजरात का दंगा है। वैश्वीकरण और भगवाकरण का पहला गठबंधन 1984 में ही हो गया था, जो 1992 में उजागर हुआ। गुजरात में इसी प्रैक्टिस पर भाजपा 5 बार सत्ता में आयी। अब इस समय तथाकथित लोकतंत्र के ढाँचे पर फासीज्म पूरी तरह कब्जा कर चुका है। इस दो पाली को भारत का फासीवादी काल ही कह सकते हैं।

आप जे.एन.यू. से शुरू हुए राष्ट्रवाद बनाम राष्ट्रद्रोह के मसले को किस तरह देखते हैं?

मद्रास आई.आई.टी. में पेरियार और अंबेडकर को प्रतिबंधित करना, पुणे फिल्म संस्थान के निदेशक की कुर्सी पर चौहान को बिठाना शुरुआत थी। रोहित को आत्महत्या के लिए मजबूर करना, दलित-अल्पसंख्यक की आपसदारी को तोड़ने की तरह देखना चाहिए। जे.एन.यू. में कन्हैया और उमर के साथ कश्मीर और राष्ट्रीयता के मसले को आम जनता को उत्तेजित करने के षड्यंत्र की तरह देखा जाना चाहिए। राष्ट्रीयता पर हमला करने के लिए अफजल गुरु को मुद्दा बनाना, वामपंथ को निशाना करने के लिए कन्हैया लाल को मुद्दा बनाना, संघपोषित राज्यसत्ता की संघी कार्ययोजना का हिस्सा है। हमारी समझ है कि कन्हैया लाल-वामपंथ पर हमले का, अफजल गुरु राष्ट्रीयता पर हमले का, रोहित-दलित-अल्पसंख्यक मिल्लत पर हमले का और सोनी सोरी आदिवासी-महिला पर अत्याचार के प्रतीक हो चुके हैं।

[bs-quote quote=”मैं 2002 में चंद्रबाबू नायडू सरकार के साथ वार्ताकार था। वार्ता के बाद भी इनकाउंटर चलता रहा। 2004 में रेड्डी सरकार ने पुनः वार्ता बुलायी। वार्ता के बाद दोनों पक्षों के साथ हस्ताक्षर हुए। सरकार ने सीजफायर की अधिसूचना भी निकाली। जुलाई में संगठन के ऊपर से प्रतिबंध भी हटाया। 6 माह का सीज फायर घोषित हुआ था। 7 माह तक सीज फायर कायम रहा। 7 माह बाद 2005 के जनवरी माह से सरकार की ओर से हिंसा शुरू कर दिया गया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

सरकार माओवाद को देश का सबसे बड़ा खतरा मान रही है। आप खुद दो बार आंध्र प्रदेश सरकार और माओवादियों के बीच वार्ताकार रहे हैं। शांति की पहल में कहाँ अड़चन है? स्वामी अग्निवेश शांति वार्ता में भूमिका निभा रहे थे। वार्ता कहाँ रुक गयी?

मैं 2002 में चंद्रबाबू नायडू सरकार के साथ वार्ताकार था। वार्ता के बाद भी इनकाउंटर चलता रहा। 2004 में रेड्डी सरकार ने पुनः वार्ता बुलायी। वार्ता के बाद दोनों पक्षों के साथ हस्ताक्षर हुए। सरकार ने सीजफायर की अधिसूचना भी निकाली। जुलाई में संगठन के ऊपर से प्रतिबंध भी हटाया। 6 माह का सीज फायर घोषित हुआ था। 7 माह तक सीज फायर कायम रहा। 7 माह बाद 2005 के जनवरी माह से सरकार की ओर से हिंसा शुरू कर दिया गया। राज्यहिंसा से सीजफायर की सरकारी अधिसूचना स्वतः अमान्य हो चुकी थी।

कांग्रेस नेतृत्व वाली पिछली सरकार के द्वारा जो शांति वार्ता का प्रचार हुआ था, वह महज छलावा था। जब सरकार शांतिवार्ता के लिए तैयार थी तो वार्ता का संदेश लेकर संगठन के पास जा रहे भाकपा (माओवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य और संगठन के प्रमुख प्रवक्ता चेरुकुरी राजकुमार ‘आज़ाद की पुलिस ने हत्या क्यों करायी थी? आज़ाद शांतिवार्ता के वार्ताकार थे तो शांतिवार्ता के वार्ताकार की पुलिस इनकाउंटर में हत्या क्या संदेश देता है? आज़ाद के साथ पत्रकार हेमचंद्र भी मारे गये थे। पिछली सरकार ने शांतिवार्ता के वार्ताकार की हत्या पर कोई वक्तव्य तक नहीं दिया। माओवादियों को संदेह हुआ कि वार्ता के जाल में फंसाकर आजाद की हत्या की गयी। अग्निवेश जी की भूमिका के बारे में भाकपा (माओवादी) के केंद्रीय कमिटी सदस्य श्रीकांत ने अग्निवेश को पत्र लिखकर कहा कि ‘आप कबूतर हो सकते हैं पर आप बिल्ली की चाल में आ चुके हैं।’

देश के बदलते हुए हालात में क्या आप हैदराबाद में ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। क्या दिल्ली में आप हैदराबाद की तरह सुकून महसूस करते हैं?

मुझे आज देश की तमाम भाषाओं में लोग पढ़ रहे हैं पर यह हकीकत है कि मैं तेलुगु भाषा का कवि हूँ। बहुत बड़े पाठक संसार से जब रचनाकार का जैविक संबंध कायम हो जाये तो वह पाठक समाज अपने कवि की हिफाजत का सबसे बड़ा प्रहरी हो जाता है। इसलिए मैं हैदराबाद को अपने लिए दिल्ली से ज्यादा अनुकूल मानता हूँ। मुझे अपने पाठक संसार पर गर्व है कि उनके दिलों में अपने कवि की लोकप्रतिष्ठा कायम है। बावजूद सावधानी और सतर्कता में अपनी हिफाजत है। विरसम का कवि डरता नहीं है। डराने के लिए कई बार जानलेवा हमला किया गया था। हमले कभी पुलिस की ओर से तो कभी संघ के गुंडों की ओर से हुए थे।

क्या जिसे आप फासीवाद कह रहे हैं, यह अघोषित तौर पर आपातकाल ही है?

सब कुछ उनके अनुकूल हो ही रहा है तो आपातकाल घोषित करने की क्या दरकार है? जाहिर है कि अब मानवाधिकार, लोकतांत्रिक शक्तियों और जनांदोलनों पर हमला तेज होगा। मुझे लगता है कि प्रेमचंद ने सज्जाद जहीर के साथ जिस तरह प्रगतिशील आंदोलन को तेज किया था, उसी तरह देश के तमाम लेखक-कवियों को सांस्कृतिक प्रतिरोध के लिए उठ खड़ा होना चाहिए।

आपने हंस के कार्यक्रम का वाक आउट किया था तो एक प्राध्यापक ने आप पर आत्ममुग्ध क्रांतिकारिता का आरोप लगाया था?

मैं हंस के कार्यक्रम में इसलिए गया था कि वह प्रेमचंद की परंपरा का हंस था। प्रेमचंद की परंपरा में दूसरे तत्व शामिल हो जायें तो मुझे वापस होने का हक तो है ही। जैसे जीविकारण्य पर पुलिस वाले सेमिनार बुलायें तो वहाँ हम क्यों जायें। जयपुर के बुक-फेस्टीवल का न्योता हमने इसीलिए लगातार इंकार  किया है। हंस के आयोजन से वापस होने से राजेंद्र यादव से मेरे संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ा। उनकी मौत हुई तो मैं बहुत दुखी हुआ। मैंने उनकी मौत पर अपना संदेश भेजा था। वे मेरे अच्छे दोस्त थे। मेरे बारे में किन्हीं प्राध्यापक ने आत्ममुग्ध-क्रांतिकारिता लिखा तो मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है।

समाप्त

पुष्पराज जाने-माने स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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