Saturday, April 20, 2024
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शहीद शब्द का खेल (डायरी 9 नवंबर 2021)

शब्द महत्वपूर्ण होते हैं। कई बार सामान तरह की घटनाओं के लिए अलग-अलग शब्द होते हैं। उदाहरण के लिए एक घटना है। मैं इसे दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता के पहले पन्ने पर देख रहा हूं। खबर के मुताबिक कल छत्तीसगढ़ के सुकमा में सीआरपीएफ के कैंप में एक जवान ने अपने ही साथियों पर गोलियां […]

शब्द महत्वपूर्ण होते हैं। कई बार सामान तरह की घटनाओं के लिए अलग-अलग शब्द होते हैं। उदाहरण के लिए एक घटना है। मैं इसे दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता के पहले पन्ने पर देख रहा हूं। खबर के मुताबिक कल छत्तीसगढ़ के सुकमा में सीआरपीएफ के कैंप में एक जवान ने अपने ही साथियों पर गोलियां चला दी। इस घटना में चार जवान मारे गए और तीन अन्य घायल बताए गए हैं। खबर में बताया गया है कि आरोपी जवान ने मानसिक तनाव के कारण अपने ही साथियों पर फायरिंग की। साथ ही यह भी कि पिछले तीन सालों में ऐसी ही घटनाओं में अबतक 15 जवान मारे जा चुके हैं।
खैर, आज मैं जवानों के तनाव के बारे में नहीं सोच रहा। इसके बारे में तो सरकारें तय करें कि आखिर किन कारणों से जवान अपने ही साथियों की हत्या कर रहे हैं। मैं तो यह सोच रहा हूं कि जब एक जवान अपने ही साथी की गोली से मारा जाता है तो उसके लिए हम हिंदी अखबार वाले यह क्यों लिखते हैं कि जवान मारे गए और जब हमारे जवान नक्सलियों की गोलियों के शिकार होते हैं तो हम यह क्यों लिखते हैं कि जवान शहीद हो गए?
असल मामला यही है जबकि दोनों सूरत में जवान मारे गए। क्या जो जवान कल अपने ही साथी के हाथों मारे गए, उन्हें शहीद नहीं कहा जा सकता?

[bs-quote quote=”दरअसल, शहीद शब्द एक तरह की उपाधि है। वर्तमान में जो अपनी जान शासक के हितों की रक्षा के लिए देते हैं, उन्हें ही शहीद होने का गौरव मिलता है। इस हिसाब से जो जवान नक्सलियों से अथवा पड़ोसी देशों की सेना के साथ लड़ाई में मारे जाते हैं, उन्हें शहीद कहा जाता है। बाकी जो मारे जाते हैं, वे शहीद नहीं होते। वजह यह कि उनकी मौत से शासक का कोई लेना-देना नहीं होता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

इसी सवाल पर विचार करते हैं कि उन्हें शहीद क्यों नहीं कहा जा सकता। सबसे पहले तो हमें शहीद शब्द पर विचार करना चाहिए। यह शब्द हिंदी का नहीं है। इसे उर्दू से लिया गया है। यह शब्द भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौर में चलन में आया। जिन लोगों को अंग्रेजों ने फांसी की सजा दी या उन्हें अपनी गोलियों से मार डाला, उनके लिए शहीद शब्द कहा गया। भगत सिंह को तो शहीद-ए-आजम की उपाधि दी गयी है। राजगुरू और सुखदेव को यह उपाधि क्यों नहीं दी गई, यह एक बड़ा सवाल है। यही उपाधि खुदीराम बोस को क्यों नहीं दी गयी‍‍? धरती आबा बिरसा मुंडा को मीठा जहर देकर अंग्रेजों ने मार डाला था। लेकिन उन्हें कोई सम्मान दिकुओं यानी बाहरी लोगों द्वारा नहीं दिया गया।उन्हें सम्मान दिया भी तो आदिवासियों ने। उन्हें धरती आबा कहा गया। भारत के इतिहासकारों ने तो इतनी बेईमानी की है कि सिदो-कान्हू और तिलका मांझी जैसे आदिवासियों की शहादत काे दरकिनार कर मंगल पांडे को पहला स्वतंत्रता सेनानी होने का गौरव प्रदान कर दिया।
दरअसल, शहीद शब्द एक तरह की उपाधि है। वर्तमान में जो अपनी जान शासक के हितों की रक्षा के लिए देते हैं, उन्हें ही शहीद होने का गौरव मिलता है। इस हिसाब से जो जवान नक्सलियों से अथवा पड़ोसी देशों की सेना के साथ लड़ाई में मारे जाते हैं, उन्हें शहीद कहा जाता है। बाकी जो मारे जाते हैं, वे शहीद नहीं होते। वजह यह कि उनकी मौत से शासक का कोई लेना-देना नहीं होता।
वर्ष 2009 में एक खबर लिखने के दौरान अपनी अलपज्ञता की वजह से मैंने एक खबर में एक जगह शहीद शब्द का जिक्र कर दिया था और वह भी ऐसे शख्स के लिए जो वामपंथी आंदोलन से जुड़ा था तथा पुलिस की गोलियों से मारा गया था। खबर छप भी गयी थी। लेकिन उसके बाद अखबार के दफ्तर में मेरे आलोचकों ने मेरी जबरदस्त आलोचना की। तब यह बात समझ में आयी कि शहीद का खिताब केवल उन्हें दिया जा सकता है जिन्हें सरकारी तंत्र देना चाहता है। ऐसे ही कामरेड शब्द से भी हिंदी अखबारों में परहेज किया जाता है।
बहरहाल, जवान चाहे अपने साथी की गोलियों से मारे जाएं या फिर किसी और की गोली से, परिणाम यही होता है कि उनकी जान चली जाती है। किसी के घर का चिराग बुझ जाता है। कोई मां-बाप अपने बच्चे को खो देते हैं। कोई महिला अपने पति को खो देती है और कोई बच्चा अपने पिता को खो देता है। इन सबसे बढ़कर एक मुल्क अपने नौजवान नागरिक को खो देता है।

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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