बात बचपन की है। उन दिनों मेरी दुनिया मेरे गांव ब्रह्मपुर तक सिमटी हुई थी। गांव की सीमा पर ही नक्षत्र मालाकार हाईस्कूल था और मेरी दिनचर्या में स्कूल, घर और गांव ही होता था। कभी-कभार बाहर जाना होता था। वह भी बहुत कम। शायद 1993 में मैंने पहली बार पटना स्थित सचिवालय को देखा था, जिसकी पहचान एक मीनार है और उसके शीर्ष पर एक बड़ी-सी घड़ी है। जिन दिनों मैं दारोगा प्रसाद राय उच्च विद्यालय, सरिस्ताबाद (चितकोहरा) का छात्र था, तब हर घंटे इस घड़ी से निकलने वाली टन-टन की आवाज साफ सुनाई देती थी।
खैर, 1993 में पहली बार जब सचिवालय को देखा था तभी मैंने कई प्रतिमाएं भी देखी थी। इन प्रतिमाओं में बिहार विधान सभा के ठीक सामने सात युवा शहीदों की प्रतिमाएं भी थीं। लेकिन इन प्रतिमाओं से पहले बिरसा मुंडा की प्रतिमा थी। एक आदमकद प्रतिमा। प्रतिमा एक ऐसे व्यक्ति की थी, जिसने गंजी तक नहीं पहनी थी और कमर में लंगोट थी। पहले तो मुझे कंफ्यूजन हुआ था कि कहीं यह महात्मा गांधी की प्रतिमा तो नहीं है। लेकिन पापा ने बताया कि यह बिरसा मुंडा की मूर्ति है। यह मूर्ति सिंचाई भवन के पास है। इसके ठीक सामने का सरकारी मकान बेहद दिलचस्प है। इसी मकान में बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह रहते थे। वर्ष 2015 में इसी मकान में अनंत सिंह और उसका परिवार रहता था। संभव है कि आज भी यह मकान उनके अधिकार में हो। दिलचस्प यह कि श्रीकृष्ण सिंह और अनंत सिंह दोनों की जाति भूमिहार ही है। एक दिलचस्प बात यह भी कि इसी के आगे के एक मकान में जगदीश सिंह (चारा घोटाले में सजायाफ्ता व बिहार विधान सभा में कई बार सदस्य) का आवास था। एक-अन्य सरकारी आवासों में भूमिहारों का कब्जा था। तो एक तरह से 2015 तक सिंचाई भवन के आसपास के सरकारी मकानों में भूमिहार जाति के लोगों का अधिकार था। हम कई पत्रकार सिंचाई भवन के पास के इस जगह को भूमिहार चौक भी कहा कहते थे।
[bs-quote quote=”स्थानीय सवर्ण सामंतों की मदद से अंग्रेज जंगल का दोहन करते थे और आदिवासियाें से उनका जल-जंगल-जमीन छीनते थे। बिरसा ने इसी के खिलाफ तब विद्रोह किया था जब उनकी मूंछे भी नहीं आयी थीं। वैसे भी 18-20 साल की उम्र भी कोई उम्र होती है कि आदमी एक संगठित ताकत के सामने कोई संगठित विद्रोह करे। लेकिन बिरसा तो कमाल के नायक थे। उनकी खासियत यही रही कि उन्होंने संगठन पर जोर दिया और संघर्ष किया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
खैर, मैं तो 1993 की बात कर रहा था जब पहली बार मेरे सामने पहली बार बिरसा मुंडा की प्रतिमा थी। आगे बढ़ने पर सात शहीदों की प्रतिमाएं दिखीं। मैंने पापा से पूछा कि बिरसा मुंडा के शरीर पर कपड़े क्यों नहीं हैं? उन्होंने कहा कि यह उनकी पोशाक थी। वे आदिवासी थे। तो क्या आदिवासियों को ठंड नहीं लगती? उनका जवाब था कि ठंड तो लगती है और वे भी गर्म कपड़े पहनते हैं। तो फिर उनकी प्रतिमा में कपड़े क्यों नहीं हैं?।
पापा ने तो मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया और मेरे सवाल बने रहे। 2016 में जब मैं गुमला गया तब मैंने जोभीपाट में एक असुर समुदाय के वृद्ध से इस बारे में पूछा कि अधिकांश तस्वीरों व मूर्तियों में आदिवासी कम कपड़ों में क्यों नजर आते हैं? क्या कपड़े उपलब्ध नहीं थे? मैंने यह सवाल जिस व्यक्ति से किया था, वे जोभीपाट में ही एक सरकारी स्कूल में चपरासी रहे थे। उन्होंने कहा– बाबू, कपड़े तो पहले भी थे, ढेबुआ नहीं था।
[bs-quote quote=”आप बिरसा को भगवान कहिएगा और राम को चोर। राम को भी तो भगवान मानना ही पड़ेगा। ऐसी ही साजिश आरएसएस के लोगों ने बुद्ध के साथ भी की है। इसमें उन्हें सफलता भी मिल चुकी है। बुद्ध और महावीर दोनों भगवान के रूप में लगभग स्थापित किये जा चुके हैं। अब निशाने पर बिरसा हैं, जिन्हें आदिवासी धरती आबा कहते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
उस वृद्ध के इस एक वाक्य ने मेरे उस सवाल का जवाब दे दिया था, जो करीब 13 साल पहले मेरी जेहन में आया था। दरअसल, जिसे वह पैसा कह रहे थे, वह पैसा नहीं, संसाधन की बात थी। मूल मामला यही है कि आदिवासियों को उनके ही संसाधन से वंचित किया जाता रहा है। आज भी यही हालात हैं। जिन दिनों बिरसा थे, उनके सामने भी यही स्थिति रही होगी। स्थानीय सवर्ण सामंतों की मदद से अंग्रेज जंगल का दोहन करते थे और आदिवासियाें से उनका जल-जंगल-जमीन छीनते थे। बिरसा ने इसी के खिलाफ तब विद्रोह किया था जब उनकी मूंछे भी नहीं आयी थीं। वैसे भी 18-20 साल की उम्र भी कोई उम्र होती है कि आदमी एक संगठित ताकत के सामने कोई संगठित विद्रोह करे। लेकिन बिरसा तो कमाल के नायक थे। उनकी खासियत यही रही कि उन्होंने संगठन पर जोर दिया और संघर्ष किया। उनका संघर्ष भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसों से बहुत उम्दा था। वे अकेले नहीं थे। वे अपने साथ पूरे समुदाय को संगठित कर रहे थे।
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खैर, मैं आज की बात कर रहा हूं। बिरसा को आरएसएस के लोग भगवान कहते फिर रहे हैं और आदिवासियों को जनजाति। यह बिल्कुल वैसे ही है जैसे घाघरा नदी का नाम बदलकर आरएसएस अब सरयू कर देना चाहता है। या फिर मुगलसराय जंक्शन का नाम बदलकर दीनदयाल उपाध्याय। अब सवाल यह है कि बिरसा को भगवान क्यों कहना चाहते हैं आरएसएस के नेतागण? दरअसल, भगवान एक मायाजाल है।जैसे ही हम किसी को भगवान मानते हैं तो हम आरएसएस के द्वारा गढ़े गए काल्पनिक भगवानों को भी मान्यता प्रदान करते हैं। मतलब यह कि यह कैसे संभव है कि आप बिरसा को भगवान कहिएगा और राम को चोर। राम को भी तो भगवान मानना ही पड़ेगा। ऐसी ही साजिश आरएसएस के लोगों ने बुद्ध के साथ भी की है। इसमें उन्हें सफलता भी मिल चुकी है। बुद्ध और महावीर दोनों भगवान के रूप में लगभग स्थापित किये जा चुके हैं। अब निशाने पर बिरसा हैं, जिन्हें आदिवासी धरती आबा कहते हैं।
बहरहाल, कल देर शाम बिरसा के बारे में सोच रहा था। एक कविता जेहन में आयी–
हे बिरसा
तुम आओ
और इसलिए नहीं कि
जल-जंगल-जमीन हमसे छीनी जा रही है
हमारे लोग पुलिस की गोलियों से
बेमौत मारे जा रहे हैं
हमारी महिलाओं के साथ थाने में रेप हो रहे हैं
हमारी संस्कृति को हिंदू बताया जा रहा है
हम पर राम का बंदर होने का दबाव है।
हे बिरसा,
तुम आओ ताकि
हम लड़ सकें
हम जी सकें।