एक महत्वपूर्ण खबर है। महत्वपूर्ण इसलिए कि इसका संबंध एक टिप्पणी से है जो कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों संजीव खन्ना व बी.आर. गवई ने एक मामले में किया है। न्यायाधीशद्वय ने कहा है कि आजादी 75 साल बाद भी जातिगत भेदभाव खत्म नहीं हुआ है और यह सही समय है जब नागरिक समाज जाति के नाम पर किए गए भयानक अपराधों के प्रति ‘कड़ी अस्वीकृति’ के साथ प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करे।
[bs-quote quote=”सुप्रीम कोर्ट की साख पर दाग के माफिक तथ्य यह कि करीब 9 साल से सुप्रीम कोर्ट के पास बिहार के नरसंहारों के मामले में सुनवाई लंबित है। सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी संभवत: 2014 में की थी कि इन मामलों की सुनवाई के लिए पांच सदस्यीय खंडपीठ की आवश्यकता है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के पास पांच जज नहीं हैं, जो सुनवाई कर सकें?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
सुप्रीम कोर्ट दोनों न्यायाधीश जिस मामले की सुनवाई कर रहे थे, उसकी पृष्ठभूमि पुरानी है। हुआ यह था कि उत्तर प्रदेश में सामाजिक जातिगत बंधनों की अवहेलना के आरोप एक दलित परिवार कहर ढाया गया था। दर्जनों सामंती लोगों ने परिवार के उपर हमला बोलकर करीब 12 घंटे तक एक ही परिवार के दो पुरुषों व एक महिला को पीट-पीटकर मार डाला था।
इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 23 अभियुक्तों को दोषी करार दिया था। सुप्रीम कोर्ट में इलाहाबाद हाई कोर्ट के इसी फैसले को चुनौती दी गई थी।
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणी की। इस मामले में न्यायाधीशों ने गवाहों के मुकरने को लेकर भी अपनी राय रखी और कहा कि गवाहों के मुकरने से सत्य नहीं बदल जाता है। गवाहों की सुरक्षा राज्य की जिम्मेदारी है।
मैं सोच रहा हूं सुप्रीम कोर्ट इस पूरे मामले में कितनी उदार है और उसकी टिप्पणी तो इतनी शानदार है कि उसकी तारीफ आवश्यक है। लेकिन मुझे निराशा होती है जब बिहार में हुए नरसंहारों यथा लक्ष्मणपुर बाथे और बथानीटोला आदि मामलों में वह दिसंबर, 2012 से उदासीन है। दरअसल 1990 के दशक में रणवीर सेना के लोगों ने बिहार के दलितों और पिछड़ों का नरसंहार किया। सभी मामलों में पटना हाई कोर्ट ने सारे अभियुक्तों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया। महत्वपूर्ण यह कि बथानीटोला नरसंहार मामले में पटना हाई कोर्ट ने जो फैसला दिया, उसमें उसने इस बात का उल्लेख किया कि पुलिस द्वारा प्रस्तुत किए गए गवाह अपने पूर्व के बयान पर कायम नहीं रह सके। लिहाजा इसे हाई कोर्ट साक्ष्य का अभाव माना और सारे अभियुक्तों को निर्दोष करार दिया था।
सुप्रीम कोर्ट की साख पर दाग के माफिक तथ्य यह कि करीब 9 साल से सुप्रीम कोर्ट के पास बिहार के नरसंहारों के मामले में सुनवाई लंबित है। सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी संभवत: 2014 में की थी कि इन मामलों की सुनवाई के लिए पांच सदस्यीय खंडपीठ की आवश्यकता है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट के पास पांच जज नहीं हैं, जो सुनवाई कर सकें?
दरअसल, मैं हमेशा यह मानता हूं कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संबंध होता है। और यह केवल आज की बात नहीं है। पहले भी ऐसा ही होता था। पहले तो न्यय की जिम्मेदारी भी राजा अपने पास ही रख रखता था। वह तो इस देश में अंग्रेज आए, जिन्होंने न्याय को शासन से अलग किया तथा देश में अदालतों की व्यवस्था कायम की। अंग्रेजों ने इस देश में कानून का राज स्थापित किया। हालांकि तब भी न्याय का पलड़ा उनके पक्ष में ही झुका रहा। परंतु एक लाभ इस देश के बहुसंख्यक वर्ग के लोगों को जरूर हुआ कि वे अपने उपर हुए अत्याचार की रपट लिखवा सकते थे और अदालातें में उनकी बात भी सुनी जाती थी। बहुत जल्द ही इस देश के सामंत वर्ग ने यह समझ लिया था कि इस देश में रहना है तो मनुवादी विधान को भूलना होगा तथा अंग्रेजों के विधान को मानना पड़ेगा। लिहाजा वे सभी जगह काबिज हो गए। यहां तक कि अदालतों में भी उन्होंने अपनी पैठ बनाई और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ के मामले में सुनवाईयां करते हुए भारतीय जजों ने अंग्रेज जजों की तुलना में अंग्रेजों के प्रति अधिक स्वामीभक्ति का प्रदर्शन किया।
[bs-quote quote=”बहुत जल्द ही इस देश के सामंत वर्ग ने यह समझ लिया था कि इस देश में रहना है तो मनुवादी विधान को भूलना होगा तथा अंग्रेजों के विधान को मानना पड़ेगा। लिहाजा वे सभी जगह काबिज हो गए। यहां तक कि अदालतों में भी उन्होंने अपनी पैठ बनाई और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ के मामले में सुनवाईयां करते हुए भारतीय जजों ने अंग्रेज जजों की तुलना में अंग्रेजों के प्रति अधिक स्वामीभक्ति का प्रदर्शन किया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यही व्यवस्था आज भी है। अदालतों में बहुसंख्यक दलित व पिछड़े समाज की हिस्सेदारी एकदम नगणय है। ऐसे में न्याय का पलड़ा एक जैसा नहीं रहता। मसलन होता यह है कि दलितों-पिछड़ों के मामले में उनका झुकाव सवर्णों की तरफ होता है।
तो मूल सवाल यही है कि अदालतों में फैसला कौन सुना रहा है? मैं तो एक छोटा-सा उदाहरण रखना चाहता हूं। मामला लालू प्रसाद से जुड़ा है। उनके उपर चारा घोटाला के अलावा आय से अधिक संपत्ति का मामला भी दर्ज किया गया था। सीबीआई ने उनकी आय जानने के लिए उनके सरकारी आवास की जमीन तक खोद डाली थी। जब यह मामला एक ऐसे जज की बेंच में गया जो कि दलित जाति के थे। नाम था– न्यायमूर्ति मुन्नीलाल पासवान। वे सीबीआई के विशेष न्यायाधीश थे और उन्होंने 18 दिसंबर 2006 को अपने फैसले में लालू प्रसाद व उनकी पत्नी राबड़ी देवी को आय से अधिक संपत्ति के मामले में निर्दोष करार दिया था। हालांकि तब नीतीश कुमार की बिहार सरकार ने उनके फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। यह मामला करीब 4 साल तक चला और अंतिम फैसला वर्ष 2010 में सुप्रीम कोर्ट में लालू प्रसाद के पक्ष में गया जब तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के नेतृत्ववाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने बिहार सरकार की अपील को ही खारिज कर दिया।
संयोग यह कि सीबीआई कोर्ट के विशेष न्यायाधीश मुन्नीलाल पासवान और सुप्रीम कोर्ट मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन दोनों दलित थे और दोनों ने लालू प्रसाद के पक्ष में फैसला दिया था।
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बाद में सवर्ण जजों ने लालू प्रसाद के मामले की सुनवाई की और नतीजा यह हुआ कि लालू प्रसाद चारा घोटाले में दोषी करार दिए गए और इस तरह सवर्णों ने उन्हें राजनीति से अलग करने में सफलता हासिल की।
तो मुख्य सवाल यही है कि फैसला सुना कौन रहा है? यह एक बड़ी सच्चाई है।जाहिर तौर पर इसमें जातिवाद भी शामिल है।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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