पिछले सात सालों में ऐसे मौके बहुत कम आये हैं जब नागरिक समूहों के दबाव के चलते मोदी सरकार ने अपना कोई फैसला वापस लिया हो इसलिये जब बीते 19 नवम्बर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने का एलान किया तो यह सभी के लिए चौंकाने वाला था जिसमें उनके धुर विरोधी और समर्थक दोनों शामिल थे। क़ानून वापसी की यह घोषणा ‘अचानक’ के साथ ‘एकतरफा’ भी थी जिसके साथ प्रधानमंत्री यह कहना भी नहीं भूले कि ‘ये कानून किसानों के हित में बनाए गए थे, लेकिन शासन की तरफ से किसानों को समझाया नहीं जा सका’। शायद यही वजह है कि प्रधानमंत्री के ‘मसीहाई’ अंदाज में बिल वापसी के ऐलान के बाद भी आन्दोलनकारी अभी भी डटे हुए हैं और अपने बाकी बचे मांगों के पूरे होने तक आन्दोलन जारी रखने की बात कर रहे हैं।
कानून को लाने की प्रक्रिया की तरह इसके वापसी की प्रक्रिया भी एकतरफा थी, ना तो इस कानूनों को लाने से पहले किसानों से बातचीत की गयी और ना ही इनके वापसी से पहले आन्दोलनकारियों से इस सम्बन्ध में बात करने की कोशिश की गयी। ऊपर से मोदी सरकार और उनके समर्थक यह मानने को तैयार नहीं हैं कि कानूनों में कोई गलती थी बल्कि उनका यह कहना है कि कानून तो किसानों के हित में था लेकिन किसान ही इसकी अच्छाइयों को समझ नहीं पाए क्योंकि उन्हें बरगला दिया गया इसलिये प्रधानमंत्री को ‘देशहित’ में कानून वापस लेना पड़ा।
पिछले एक साल से मोदी सरकार और उनका व्यापक समर्थक समूह इस कानून को सही ठहराने में पूरी ताकत लगाये हुए था लेकिन किसानों के इस आन्दोलन में ऐसा क्या था जो उन्हें अपनी हठधर्मिता छोड़ कर पीछे हटना पड़ा? जबकि इससे पहले नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ चले आंदोलन को लेकर को लेकर मोदी सरकार का रवैया पूरी तरह से उदासीन था।
ऐसा बिलकुल नहीं है कि पिछले एक वर्षों के किसान आन्दोलन को लेकर मोदी सरकार का रवैया सौहार्दपूर्ण रहा हो। बल्कि इस दौरान आन्दोलनकारी पूरे समय निशाने पर रहे हैं और उन्हें पस्त करने के लिये हर हथखंडे अपनाए गये। खुद प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में उन्हें ‘आंदोलनजीवी’ जैसे शब्दों से नवाजा था, इसमें मोदी सरकार के कई मंत्री भी शामिल रहे जैसे रविशंकर प्रसाद ने किसानों के प्रदर्शन में टुकड़े टुकड़े गैंग का हाथ होने का आरोप लगाया, पीयूष गोयल ने किसान आंदोलन के माओवादी विचारधारा से प्रेरित लोगों के हाथों में चले जाने की बात कही जबकि एक और केन्द्रीय मंत्री रावसाहेब दानवे ने तो आंदोलन के पीछे पाकिस्तान और चीन का हाथ बता डाला था। इस दौरान आन्दोलनकारियों के हौंसले को तोड़ने के लिए भी कोई कसर नहीं छोड़ी गयी जिसमें पानी की सप्लाई रोकने से लेकर धरना स्थलों पर कील-कांटे बैरिकेडिंग जैसे काम शामिल हैं। सत्ता समर्थित मीडिया और सोशल मीडिया की ट्रोल सेना द्वारा भी किसान आन्दोलन को बदनाम करने और देशद्रोही घोषित करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी गयी, यहां तक कि कोरोना की दूसरी लहर भी उन्हें डिगा नहीं पाई। इस बीच सुप्रीम कोर्ट द्वारा अस्थायी तौर पर क़ानूनों को निलंबित कर दिया गया तब भी प्रदर्शनकारी अपने मूल मांग पर कायम रहे। लेकिन इन तमाम विपरीत परिस्थितयों के बावजूद भी किसान आन्दोलनकारी पूरी एकता और साहस के साथ पूरे एक साल तक टिके रहे। बताया जा रहा है कि इस दौरान करीब साढे सात सौ प्रदर्शनकारियों की मौत भी हुयी है।
कृषि कानूनों की वापसी से ठीक पहले दो घटनाएं हुयी हैं जिनपर ध्यान देना जरूरी हैं। पहली घटना आठ नवम्बर की है जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा लम्बे अंतराल के बाद पश्चिमी उत्तरप्रदेश का कैराना का दौरा किया गया जहाँ उन्होंने 'पलायन' के मुद्दे को एक बार फिर हवा देने की कोशिश की और मुज़फ़्फ़रनगर दंगे को याद करते हुए कहा कि 'मुज़फ़्फ़रनगर का दंगा हो या कैराना का पलायन, यह हमारे लिए राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि प्रदेश और देश की आन, बान और शान पर आने वाली आंच का मुद्दा रहा है।'
सात साल के कार्यकाल में सम्भवतः यह दूसरा मौका है जब मोदी सरकार को अपना कोई बड़ा कदम वापस लेना पड़ा हो। यह संयोग नहीं है कि इन दोनों मौकों के केंद्र में किसान हैं। इससे पहले 2015 में मोदी सरकार को विवादित भूमि अधिग्रहण कानून वापस लेने को मजबूर होना पड़ा था। इस कानून को भी अध्यादेश के माध्यम से लाया गया था जिसका किसानों और विपक्षी दलों की तरफ से जोरदार विरोध किया गया था।
कृषि कानूनों की वापसी से ठीक पहले दो घटनाएं हुयी हैं जिनपर ध्यान देना जरूरी हैं। पहली घटना आठ नवम्बर की है जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा लम्बे अंतराल के बाद पश्चिमी उत्तरप्रदेश का कैराना का दौरा किया गया जहाँ उन्होंने ‘पलायन’ के मुद्दे को एक बार फिर हवा देने की कोशिश की और मुज़फ़्फ़रनगर दंगे को याद करते हुए कहा कि ‘मुज़फ़्फ़रनगर का दंगा हो या कैराना का पलायन, यह हमारे लिए राजनीतिक मुद्दा नहीं, बल्कि प्रदेश और देश की आन, बान और शान पर आने वाली आंच का मुद्दा रहा है।’
दूसरी घटना का जुड़ाव भाजपा की यूपी चुनाव को लेकर की जा रही तैयारियों से है। कानून वापसी से ठीक एक दिन पहले आगामी यूपी चुनाव के लिए अमित शाह को पश्चिमी उत्तर प्रदेश और ब्रज क्षेत्र का प्रभारी बनाया गया है यानी किसान आंदोलन से प्रभावित जाट बहुल इलाके का प्रभार अमित शाह के पास रहेगा। अमित इससे पहले 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और 2017 यूपी के विधानसभा चुनावों में अपना कमाल करके दिखा चुके हैं, वे उत्तरप्रदेश और खासकर इस पश्चिमी इलाके से बहुत अच्छी तरीके से परिचित हैं और यूपी को भाजपा के नए प्रयोगशाला की शुरुआत उन्होंने इसी इलाके से की थी। अब एक बार फिर उनको जिम्मेदारी दी गयी है कि वे खेती-किसानी के नैरेटिव पर आगे बढ़ चुके पश्चिमी उत्तरप्रदेश को भाजपा के कोर नैरेटिव पर वापस लेकर आयें।
हम सभी जानते हैं कि किस तरह से किसान आन्दोलन ने 2013 में मुजफ्फरनगर दंगे के बाद बंट चुके जाट और मुस्लिम समुदाय को साथ लाने का काम किया है। इसने दोनों समुदायों के बीच की दरार और कड़वाहट को कम किया है। किसान मुद्दों पर बुलाई गयी महापंचायतों में जात और मुस्लिम खाप दोनों एक साथ शामिल हुये। इन सबके चलते आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के करीब सवा सौ सीटें चुनौती बनती जा रही थी।
दूसरी तरफ इस दौरान भाजपा सरकार द्वारा वैधानिक तरीकों से इस देश को अलग तरह से परिभाषित करने की कोशिश की गयी है जिसमें राम मंदिर, लव जिहाद, सीए-एनआरसी और धारा 370 से सम्बंधित कानून शामिल हैं। यह चारों कानून मोदी सरकार द्वारा प्रस्तुत किये जा रहे नए भारत की बुनियाद हैं साथ ही भाजपा की राजनीतिक पूंजी भी. किसान आन्दोलन और इसमें उभर रही सामुदायिक एकता एक प्रकार से इस राजनीतिक पूंजी का अतिक्रमण कर रहे थे। जनता के बीच धार्मिक और साम्प्रदायिक पहचान से परे कोई भी सामूहिक और जुटान एक ऐसा पिच है जिसपर भाजपा और उसकी सरकारें कभी भी सहज नहीं रही हैं। इसीलिए आन्दोलनकारियों का अन्य पहचानों को पीछे छोड़ते हुये किसान और एक नागरिक समूह के तौर पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन उसके गले की हड्डी बनता जा रहा था।
इस आन्दोलन के मुद्दे, चिंतायें और मांगें भले ही कितनी ही वाजिब और जायज हों लेकिन दुर्भाग्य से इस देश में भाजपा और हिन्दुतत्ववादी ताकतों को यही असली ताकत भी देते हैं। इसलिये मौजूदा माहौल में भाजपा तो यही चाहेगी कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीन बाग जैसा आन्दोलन फिर शुरू हो जाये जिससे उसे किसान आन्दोलन और मंहगाई आदि से बने नैरेटिव को तोड़ने और ध्रुवीकरण के राजनीति की तरफ मोड़ने में मदद मिल सके। कुछ ऐसा ही मामला धारा 370 की वापसी की मांग के साथ भी है।
इसके बरअक्स जब हम नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीन बाग में हुए आंदोलन को देखते हैं तो यह भाजपा का पिच था इसलिये मोदी सरकार इस आन्दोलन के प्रति पूरी तरह से उदासीन थी। यहाँ सरकार की तरह से वार्ता की कोई पहल भी नहीं की गयी थी और आखिरकार कोरोना की पहली लहर के दौरान यह आंदोलन खत्म हो गया था। तभी तो राकेश टिकैत ने एक बार सरकार को चेताते हुए कहा था ‘किसानों का आंदोलन शाहीन बाग जैसा धरना नहीं है कि सरकार जब चाहे उखाड़ फेंके।’ दरअसल अल्पसंख्यक के मुद्दों पर बेरुखी और इनपर आक्रमक रूप से हमलावर होना ही तो भाजपा की असली ताकत हैं।
तीनों कृषि कानूनों की वापसी : किसानों की जीत या सरकार की हार
यह सही है किसान आन्दोलन में सिख अल्पसंख्यक भी शामिल हैं लेकिन वे ‘हिन्दुत्व’ के परिभाषा में शामिल हैं, इस्लाम और ईसाईयत की तरह विदेश की धरती पर जन्में धर्म नहीं है, आखिरकार विवादित नागरिकता संशोधन कानून का कोर तर्क भी तो यही है। इसलिये आन्दोलन में शामिल सिख प्रदर्शनकारियों को एक सीमा तक ही खालिस्तानी/ आतंकवादी कहकर निशाना बनाया गया साथ ही उनके साथ संवाद और समझाने-फुसलाने की प्रक्रिया भी जारी रखी गयी नहीं तो यह हिन्दुत्व की विराट परियोजना के लिए ही घातक साबित हो सकता था। इसलिये किसान आन्दोलन की वजह से तीन बिलों की वापसी के बाद यह उम्मीद पालना कि मोदी सरकार से इसी तरह से नागरिकता संशोधन कानून भी रद्द कराया जा सकता है नादानी होगी। इस आन्दोलन के मुद्दे, चिंतायें और मांगें भले ही कितनी ही वाजिब और जायज हों लेकिन दुर्भाग्य से इस देश में भाजपा और हिन्दुतत्ववादी ताकतों को यही असली ताकत भी देते हैं। इसलिये मौजूदा माहौल में भाजपा तो यही चाहेगी कि नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीन बाग जैसा आन्दोलन फिर शुरू हो जाये जिससे उसे किसान आन्दोलन और मंहगाई आदि से बने नैरेटिव को तोड़ने और ध्रुवीकरण के राजनीति की तरफ मोड़ने में मदद मिल सके। कुछ ऐसा ही मामला धारा 370 की वापसी की मांग के साथ भी है।
बहरहाल पूरे एक साल के आन्दोलन में किसान पहली बार खुद को इतनी मजबूत स्थिति में पा रहे हैं। तीनों कानूनों की वापसी के बाद एक तरह से किसान आन्दोलन के संघर्ष और मांगों को मोदी सरकार की मान्यता मिल गयी है जो कि मौजूदा रिजीम के दौर में दुर्लभ है। किसान नागरिकों के सामूहिक ताकत एक स्वधोषित मजबूत सरकार को झुकाने में कामयाब हुयी है। यह एक ऐसा आन्दोलन है जिसे इतिहास में लम्बे समय तक याद रखा जाएगा। लेकिन इस आन्दोलन का सबसे बड़ा हासिल यह है कि इससे एक दुश्वार समय में लोकतंत्र और विरोध करने के अधिकार की जीत हुई है। एक ऐसी जीत जो लोकतान्त्रिक और समतावादी ताकतों को आगे का रास्ता दिखाती है कि कैसे विभाजनकारी राजनीति को बैकफूट पर लाया जा सकता है।
जावेद अनीस भोपाल स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।