Friday, November 22, 2024
Friday, November 22, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसामाजिक न्यायसूपवा ब्यंग कसे तो कसे, चलनियों कसे, जिसमें बहत्तर छेद

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

सूपवा ब्यंग कसे तो कसे, चलनियों कसे, जिसमें बहत्तर छेद

मैं चार दिसंबर को महानगरी से स्लीपर क्लास में मुम्बई आ रहा था। हमारे सीट के पास एक परिवार सफर कर रहा था। वे सभी लोग भी हाथ में नया-नया कलावा और सर पर तिलक लगाए हुए थे। पूछने पर पता चला शादी समारोह के बाद पूरा परिवार मुम्बई लौट रहा है। हमें लगता है […]

मैं चार दिसंबर को महानगरी से स्लीपर क्लास में मुम्बई आ रहा था। हमारे सीट के पास एक परिवार सफर कर रहा था। वे सभी लोग भी हाथ में नया-नया कलावा और सर पर तिलक लगाए हुए थे। पूछने पर पता चला शादी समारोह के बाद पूरा परिवार मुम्बई लौट रहा है।
हमें लगता है पांच-छ: रिजर्व टिकट के अलावा एक 12-13 साल के बच्चे का टिकट नहीं था। स्वाभाविक है करोना काल में और शादी-लगन के समय चाहते हुए भी आप टिकट नहीं ले सकते हैं। मजबूरी में बहुत से लोग ट्रेन के अंदर टिकट बनवाते हैं।
 मेरे सामने टिकट निरीक्षक उस बच्चे का टिकट बना रहा था। टोटल दो हजार रूपए की डिमांड किया। गार्जियन कुछ पैसे कम करने के लिए रिक्वेस्ट कर रहा था। यहां तक कि रूपए 1800/- का ऑफर भी कर दिया। इन्कार करने पर, फिर पूछ लिया कि पूरे की रसीद मिलेगी न। तब टिकट निरीक्षक तपाक से कहता है कि आप दूध में पानी मिलाते हैं, मैं नहीं।
 मैं यह सुनकर थोड़े समय के लिए अवाक रह गया और कुछ बोल नहीं पाया। तब तक वह टिकट देकर और पैसे लेकर दूसरे की चेकिंग करते आगे बढ़ गया। अब मैं उस सज्जन से पूछा कि क्या आप यादव है? उन्होंने कहा हां, फिर मैं पूछ लिया, आप करते क्या हैं?, उनका कहना था ट्रांसपोर्ट का बिजनेस है। फिर मैंने पूछा कि उसके दूध में पानी मिलाने वाले कमेंट पर आप ने कुछ बोला क्यों नहीं? सहम तो गए, लेकिन कुछ ज़वाब नहीं दिए।

“सारांश- मुझे उतना तकलीफ उस पाखंडी टीटीई से नहीं है, जितना कि अपने यादव समाज या अन्य शूद्र समाज से है। क्षत्रिय बनने के घमंड और मनुवादी परम्परा को ढोने में, ऐसे कई आपत्तिजनक टिप्पणी का जबाब लोग नहीं देते हैं। मूकदर्शक बने रहते हैं। इसी कारण सदियों से ऐसे कमेंट समाज में आज भी जारी हैं।”

 

पता नहीं क्या सूझी? टिकट निरीक्षक थोड़ी दूरी पर ही था। मैंने पुकारा टीटीई साहब, इधर आइए एक टिकट और बनाना है। आने पर मैंने उससे पूछा, सर जी,ये महोदय तो ट्रान्सपोर्ट का बिजनेस करते हैं, फिर आप ने इनके ऊपर दूध में पानी मिलाने का कमेंट क्यों किया? उसे बुलाकर पूछा था, इसलिए मानसिक दबाव में और घबड़ा गया। नहीं नहीं साहब! कोई गलत मंशा नहीं थी, वैसे ही मजाक में निकल गया। मैंने कहा मजाक नहीं, आपकी मानसिकता दूषित है। आप यादव जानकर, चिर-परिचित कमेंट कैसे भूल गए?  कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का हवाला देते हुए, यादव जी से कुछ दक्षिणा ही मांग लिए होते? नहीं सर जी नहीं, मैं, ऊपर का पैसा नहीं लेता हूं। मेरी आवाज थोड़ी कड़क हो गई, ऐसा टीटीई जो दूसरों पर कमेंट पास कर रहा है और क्या खुद ईमानदार इस घटनाक्रम से, एक चिर परिचित मुहावरा याद आ गया, सूपवा ब्यंग कसे तो कसे, चलनियो कसे जिसमें बहत्तर छेद। सारांश- मुझे उतना तकलीफ उस पाखंडी टीटीई से नहीं है, जितना कि अपने यादव समाज या अन्य शूद्र समाज से है। क्षत्रिय बनने के घमंड और मनुवादी परम्परा को ढोने में, ऐसे कई आपत्तिजनक टिप्पणी का जवाब लोग नहीं देते हैं। मूकदर्शक बने रहते हैं। इसी कारण सदियों से ऐसे कमेंट समाज में आज भी जारी हैं।
    आप के समान दर्द का हमदर्द साथी!

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
3 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here