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जब शूद्र और ढोंगी का आमना-सामना हुआ!

मई 2017 को जब मैं अपने फ्लैट सेवियर पार्क, मोहन नगर, गाजियाबाद को देखकर करीब लंच के समय, गेट के बाहर मेन रोड पर आया था। तीन ठेले-गाड़ी वाले तरह-तरह के व्यंजनों को बनाकर लोगों को खिला रहे थे। करीब-करीब 30-35 लोगों की भीड़ खाने के लिए वहां खड़ी थी। अभी पहुंच कर कुछ सोच […]

मई 2017 को जब मैं अपने फ्लैट सेवियर पार्क, मोहन नगर, गाजियाबाद को देखकर करीब लंच के समय, गेट के बाहर मेन रोड पर आया था। तीन ठेले-गाड़ी वाले तरह-तरह के व्यंजनों को बनाकर लोगों को खिला रहे थे। करीब-करीब 30-35 लोगों की भीड़ खाने के लिए वहां खड़ी थी। अभी पहुंच कर कुछ सोच ही रहा था कि, अचानक मेरे पास राम-नाम का गमछा लिए, ललाट पर लंबा तिलक लगाए, थाली में आरती सजाए हुए, 40-50 की उम्र का एक ढोंगी, मुझे तिलक लगाने के लिए आगे बढ़ा। पता नहीं क्यों? अचानक, उसे दुतकारते और हाथ से इशारा करते हुए मैंने कहा -‘मुझसे दूर ही रहना, छूना मत।’ जवाब आया ‘क्यों?’ मैंने कहा, ‘मैं शूद्र हूं और ढोंगियों को अब मैं छूता नहीं हूं।’ कुछ जवाब आने से पहले, लगातार कहता गया, ‘सुबह का स्नान किया है? शरीर से बदबू आ रही है, शर्म नहीं आ रही है, भीख मांगते हुए।’ अब क्या था। वह भड़क उठा, लगा कहने -‘मैं ब्राह्मण हूं और भीख नहीं मांग रहा हूं, धर्म का काम कर रहा हूं।’ यही नहीं मुझे संस्कृत में श्राप देने लगा। मैंने खाना बनाने वाले लोगों की तरफ इशारा करते हुए कहा – ‘ये बिचारे भट्टी के सामने रात-दिन मेहनत करके कैसे-कैसे गुजारा करते हैं, ये लोग भी तुम्हारी तरह भीख मांगने लगेंगे तो, तुम्हारा पेट कैसे भरेगा?’ अब, उन लोगों की तरफ इशारा करते हुए कहा कि, ‘इससे बर्तन साफ कराने के बाद ही कुछ पैसे देना।’ वह बड़बड़ करता जा रहा था और मैंने देखा कि एक भी आदमी उसके पक्ष में नहीं बोल रहा है। मेरी हिम्मत और बढ़ गई। फिर और गुस्से में होकर झुककर बाडी एक्शन करते हुए ललकारा, ‘अभी जाता है कि, जूते निकालूं।’  इतना सुनने पर वह बड़बड़ाते हुए वहाँ से चलता बना।
यह देखकर एक आदमी ने कहा -‘चाचा आप कहां से आए हैं? बहुत ही अच्छा किया। रोज यहां से 50-100 रुपए लिए बिना जाता ही नहीं है।’
मैंने कहा ‘अब यहां उसे खड़े मत होने देना।’
‘अरे चाचा आज की दुर्दशा के बाद अब यहां कभी नहीं आएगा।’
अपने अनुभव से मैं जनता हूँ कि करीब-करीब 90% शूद्र वहां मौजूद रहते आ रहे थे, लेकिन कभी कोई उसका विरोध नहीं करता था। पाखंडी अपनी ऊल-जुलूल बातों को बड़ी शान से शूद्रों के बीचों-बीच रख देता है और लोग उसकी हां में हां मिलाते हुए शेखी बघारते रहते हैं। उसके गलत बातों का भी कोई विरोध नहीं करता है। यही प्रवृत्ति अभी तक चली आ रही है। यही कारण है कि हमारे लोग बहुमत में होते हुए भी, अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए, पाखंडवाद को जिंदा रखे हुए हैं। मैंने अनुभव किया है कि रेलगाड़ी हो, या बस, या कोई सार्वजनिक जगह, एक पाखंडी लालू के चारा घोटाले की बात छेड़ देता है और अपने लोग भी विरोध के बावजूद, उसकी हां में हां मिलाते हुए दिखाई देते हैं। इस परम्परा को हम सभी को मिलकर अब बदलने की जरूरत है।
   आप के समान दर्द का हमदर्द साथी!

लेखक शूद्र एकता मंच के संयोजक हैं और मुम्बई में रहते हैं।

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