23 फ़रवरी को जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव 2022 के चौथे चरण का वोट चल रहा था, इसी दरम्यान एक ऐसी खबर राजस्थान से आई, जिसे सुनकर पूरे देश का दलित-बहुजन झूम उठा। इस खबर ने एक बार फिर प्रमाणित किया है कि कांग्रेस की भूमिका काफी हद तक बहुजनों के वर्ग मित्र के रूप है। इसे समझने के लिए जरा भारत में वर्ग संघर्ष के इतिहास का सिंहावलोकन कर लेना पड़ेगा। महान समाज विज्ञानी मार्क्स ने कहा है अब तक के विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है। एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है अर्थात जिसका शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक- पर कब्ज़ा है और दूसरा वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है अर्थात शक्ति के स्रोतों से दूर व बहिष्कृत है। पहला वर्ग सदैव ही दूसरे का शोषण करता रहा है। मार्क्स के अनुसार समाज के शोषक और शोषित: ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता। नागर समाज में विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों के बीच होने वाली होड़ का विस्तार राज्य तक होता है। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है।’
जहां तक भारत में वर्ग संघर्ष का प्रश्न है, यह सदियों से वर्ण-व्यवस्था रूपी आरक्षण-व्यवस्था में क्रियाशील रहा, जिसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही एक नया मोड़ आ गया। क्योंकि इससे सदियों से शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार जमाये विशेषाधिकारयुक्त तबकों का वर्चस्व टूटने की स्थिति पैदा हो गयी। मंडल ने जहां सुविधाभोगी सवर्णों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित कर दिया, वही इससे दलित, आदिवासी। पिछड़ों की जाति चेतना का ऐसा लम्बवत विकास हुआ कि सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हो गए। कुल मिलकर मंडल से एक ऐसी स्थिति का उद्भव हुआ जिससे वंचित वर्गों की स्थिति अभूतपूर्व रूप से बेहतर होने की सम्भावना उजागर हो गयी और ऐसा होते ही सुविधाभोगी वर्ग के बुद्धिजीवी, मीडिया, साधु -संत, छात्र और उनके अभिभावक तथा राजनीतिक दल अपना- अपना कर्तव्य स्थिर कर लिए।
[bs-quote quote=”संघ प्रशिक्षित वाजपेयी और मोदी ने अपने वर्ग शत्रुओंको तबाह करने के लिए जो गुल खिलाया, उसके फलस्वरूप आज देश काफी हद तक बिक कर निजी हाथों में चला गया और बहुजन विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँच चुके हैं। कारण, जिस आरक्षण पर बहुजनों की उन्नति व प्रगति निर्भर है, भाजपाराज में वह लगभग कागजों की शोभा बना दिया गया है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
मंडल से त्रस्त सवर्ण समाज भाग्यवान था जो उसे जल्द ही ‘नवउदारीकरण’ का हथियार मिल गया, जिसे 24 जुलाई, 1991 को नरसिंह राव ने सोत्साह वरण कर लिया था। इसी नवउदारवादी अर्थिनीति को हथियार बनाकर नरसिंह राव ने मंडल उत्तरकाल में हजारों साल के सुविधाभोगी वर्ग के वर्चस्व को नए सिरे से स्थापित करने की बुनियाद रखी, जिस पर महल खड़ा करने की जिम्मेवारी परवर्तीकाल में अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी पर आई। नरसिंह राव के बाद सुविधाभोगी वर्ग को बेहतर हालात में ले जाने की जिम्मेवारी जिनपर आई, उनमे डॉ. मनमोहन सिंह अ-हिन्दू होने के कारण बहुजन वर्ग के प्रति कुछ सदय रहे, इसलिए उनके राज में उच्च शिक्षा में ओबीसी को आरक्षण मिलने के साथ बहुजनों को उद्यमिता के क्षेत्र में भी कुछ बढ़ावा मिला। किन्तु अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी हिन्दू होने के साथ उस संघ से प्रशिक्षित पीएम रहे, जिस संघ का एकमेव लक्ष्य ब्राह्मणों के नेतृत्व में सिर्फ सवर्णों का हित-पोषण रहा है।
अतः संघ प्रशिक्षित इन दोनों प्रधानमंत्रियों ने सवर्ण वर्चस्व को स्थापित करने में देश-हित तक की बलि चढ़ा दी। इन दोनों ने आरक्षण पर निर्भर अपने वर्ग शत्रुओं (बहुजनों) के सफाए के लिए राज्य का भयावह इस्तेमाल किया। संघ प्रशिक्षित वाजपेयी और मोदी ने अपने वर्ग शत्रुओंको तबाह करने के लिए जो गुल खिलाया, उसके फलस्वरूप आज देश काफी हद तक बिक कर निजी हाथों में चला गया और बहुजन विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँच चुके हैं। कारण, जिस आरक्षण पर बहुजनों की उन्नति व प्रगति निर्भर है, भाजपाराज में वह लगभग कागजों की शोभा बना दिया गया है। बहुजनों के विपरीत जिस जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग (सवर्णों) के हित पर संघ परिवार की सारी गतिविधिया केन्द्रित रहती हैं, मोदी राज में उनका धर्म और ज्ञान –सत्ता के साथ राज और अर्थ-सत्ता पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हो चुका है। शोषक और शोषितों के मध्य आज मोदी राज जैसे फर्क विश्व में और कहीं नहीं है।
[bs-quote quote=”कांग्रेस की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कथित कुख्यात इमरजेंसी काल में एससी/ एसटी के लिए मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढाई के प्रवेश में आरक्षण लागू हुआ। बाद में नवउदारवादी अर्थनीति के दौर मनमोहन सिंह के पहले दिग्विजय सिंह डाइवर्सिटी केन्द्रित भोपाल घोषणापत्र के जरिये सर्वव्यापी आरक्षण का एक ऐसा नया दरवाजा खोला जिसके कारण बहुजनों में नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों इत्यादि समस्त क्षेत्रों में आरक्षण की चाह पनपी, जिसके क्रांतिकारी परिणाम आने के लक्षण अब दिखने लगे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बहरहाल यदि वर्ग संघर्ष के लिहाज से भाजपा की भूमिका घोर निंदनीय रही है, तो कांग्रेस भी कम नहीं रही रही, ऐसा तर्क खड़ा किया जा सकता है, जो गलत भी नहीं है। क्योंकि जिस आरक्षण पर बहुजनों की उन्नति-प्रगति निर्भर है, उसे ख़त्म करने में कांग्रेस ने नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाया। यह सत्य है कांग्रेस के नरसिंह राव ने ही 1991 में न सिर्फ नवउदारवादी अर्थनीति ग्रहण किया, बल्कि मनमोहन सिंह के साथ मिलकर बढाया भी। नवउदारवादी अर्थनीति के जनक डॉ. मनमोहन सिंह जब वाजपेयी के बाद खुद 2004 में सत्ता में आये तो नरसिंह राव द्वारा शुरू की गयी नीति को आगे बढाने में गुरेज नहीं किया। किन्तु उन्होंने कभी भी अटल बिहारी वाजपेयी या आज के मोदी की भांति इस हथियार का निर्ममता से इस्तेमाल नहीं किया: वह बराबर इसे मानवीय चेहरा देने के लिए प्रयासरत रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल में नवउदारवादी अर्थनीति से हुए विकास में दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यकों इत्यादि को वाजिब भागीदारी न मिलने को लेकर समय-समय पर चिंता ही जाहिर नहीं किया, बल्कि विकास में वंचितों को वाजिब शेयर मिले इसके लिए अर्थशास्त्रियों के समक्ष रचनात्मक सोच का परिचय देने की अपील तक किया।
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डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही 2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों के प्रवेश में पिछड़ों को आरक्षण मिला, जिससे उच्च शिक्षा में उनके लिए सम्भावना के नए द्वार खुले, जिसे आज मोदी सरकार ने अदालतों का सहारा लेकर बंद करने में सर्व-शक्ति लगा दी। उच्च शिक्षा में पिछड़ों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के बाद ही डॉ. मनमोहन सिंह ने प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण लागू करवाने का जो प्रयास किया वैसा, अन्य कोई न कर सका। उन्ही के कार्यकाल में मनरेगा शुरू हुआ। यह निश्चय ही कोई क्रातिकारी कदम नहीं था, किन्तु इससे वंचित वर्गों को कुछ राहत जरुर मिली। मनरेगा इस बात का सूचक था कि भारत के शासक वर्ग में वंचितों के प्रति मन के किसी कोने में करुणा है। चूँकि भारत का इतिहास आरक्षण पर संघर्ष का इतिहास है, इस लिहाज से यदि भाजपा से कांग्रेस की तुलना करें तो मात्रात्मक फर्क नजर आएगा। संघी वाजपेयी से लेकर नरेंद्र मोदी के कार्यकाल तक आरक्षण पर यदि कुछ हुआ है तो सिर्फ और सिर्फ इसका खात्मा हुआ है: जोड़ा कुछ भी नहीं गया है। इस मामले में कांग्रेस चाहे तो गर्व कर कर सकती है। कांग्रेस के नेतृत्व में लड़े गए स्वाधीनता संग्राम के बाद जब देश आजाद हुआ तो उसके संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया।
इसी कांग्रेस की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कथित कुख्यात इमरजेंसी काल में एससी/ एसटी के लिए मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढाई के प्रवेश में आरक्षण लागू हुआ। बाद में नवउदारवादी अर्थनीति के दौर मनमोहन सिंह के पहले दिग्विजय सिंह डाइवर्सिटी केन्द्रित भोपाल घोषणापत्र के जरिये सर्वव्यापी आरक्षण का एक ऐसा नया दरवाजा खोला जिसके कारण बहुजनों में नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों इत्यादि समस्त क्षेत्रों में आरक्षण की चाह पनपी, जिसके क्रांतिकारी परिणाम आने के लक्षण अब दिखने लगे हैं। मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह द्वारा शुरू कि सप्लायर डाइवर्सिटी को सत्ता में आते ही भाजपा की उमा भारती ने ख़त्म कर दिया। कुल मिलाकर मंडल उत्तरकाल में भाजपा से तुलना करने पर कांग्रेस की भूमिका बहुजनों के वर्ग मित्र के रूप में स्पष्ट नजर आती है। और समय- समय पर वर्ग मित्र का परिचय देने वाली कांग्रेस एक बार फिर 23 फ़रवरी को एक नया दृष्टान्त स्थापित करने में सफल हुई।
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23 फ़रवरी को राजस्थान विधानसभा में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत बजट पेश करते हुए कई बड़ी घोषणायें की, जिनमे एक है पुरानी पेंशन योजना फिर से लागू करने की घोषणा, जिसका 1 जनवरी 2004 के बाद की नियुक्तियों वालों को भी इसका लाभ मिलेगा। इसकी घोषणा करते हुए सीएम गहलोत ने कहा है कि हम सभी जानते हैं सरकारी सेवाओं से जुड़े कर्मचारी भविष्य के प्रति सुरक्षित महसूस करें तभी वे सेवाकाल में सुशासन के लिए अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं। अतः 1 जनवरी 2004 और उसके पश्चात नियुक्त हुए समस्त कार्मिकों के लिए मैं आगामी वर्ष से पूर्व पेंशन योजना लागू करने की घोषणा करता हूं। उन्होंने यह घोषणा राजस्थान में की है, किन्तु इसकी अनुगूँज पूरे देश में सुनाई पड़ी है। पूरे देश में इसे लेकर दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्गों में हर्ष की लहर दौड़ गयी है। कारण, यह वह वर्ग है जिसके रिटायर्ड लोगों का जीवन मुख्यतः पेंशन पर निर्भर रहा, जिसे बहुजनों के वर्ग-शत्रु भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी ने 2005 में बंद कर दिया था। यद्यपि आरक्षण के खात्मे के जूनून में मोदी सरकार ने सरकारी नौकरियां प्रायः ख़त्म सी कर दी है। बावजूद इसके ऊँट के मुंह में जीरा जैसी स्थिति में पहुंची सरकारी नौकरियों के प्रति दलित-बहुजनों में अपार आकर्षण है। ऐसे में सरकारी नौकरियों की तैयारी कर रहे युवाओं ने गहलोत की घोषणा से राहत की सांस लिया है। यही नहीं राहत की सांस 1 जनवरी, 2004 के बाद भर्ती हुए राजस्थान के बाहर के तमाम लोगों ने लिया है, क्योंकि सबको लग रहा है देर-सवेर यह उनके राज्य में भी लागू होगी।
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फिलहाल गहलोत की घोषणा का सबसे बड़ा असर उत्तर प्रदेश में होने जा रहा है, जहाँ समाजवादी पार्टी महीने भर पहले से बहुत ही जोरदार तरीके से घोषणा किये जा रही थी कि वह सत्ता में आने पर इसे लागू करेगी। तब इसे बहुत से लोगों ने असमभव मानकर हलके में लेना शुरू किया। किन्तु अब जबकि राजस्थान में इसे लागू कर गहलोत सरकार ने संभव बना दिया है, इसका लाभ सपा को मिलना तय सा दिख रहा है। अब उत्तर प्रदेश के शेष तीन चरणों के साथ 27 फ़रवरी और मार्च को मणिपुर में होने वाले चुनाव में पुरानी पेंशन एक बड़ा मुद्दा बनकर उभरेगा, बहुजनों के उल्लास से ऐसा साफ दिख रहा है!
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।