लखनऊ। उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में जीत किसी की भी हुई हो पर हार आम आदमी की हुई है। पूरे चुनाव में सरकारी सिस्टम का जिस तरह से दुरुपयोग किया गया, वह दुर्भाग्यपूर्ण है। जातीय और धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर स्थानीय हितों का गला घोंटने का जो काम भाजपा ने किया है, वह उसकी बड़ी जीत के बावजूद उसके लिए कोई स्वर्णिम इतिहास नहीं लिखने वाली है। जीत की यह चमकती हुई जो इबारत लिखी गई है यह काली स्याही की इबारत के रूप में ही दर्ज होगी। इस चुनाव ने कई स्तरों पर लोकतान्त्रिक ढांचे को कमजोर करने के साथ सामाजिक सद्भाव के माहौल को भी क्षतिग्रस्त किया है।
उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव को सामान्यतः देखा जाए तो सब ठीक है। भाजपा ने मेयर पद की सभी सीटों पर कब्जा करते हुए पार्षद, नगर पालिका और नगर पंचायत की सीटों पर बड़ी बढ़त हासिल की है। मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में समाजवादी पार्टी ने दमदारी से उसका मुकाबला किया है। बसपा, कांग्रेस आम आदमी पार्टी, एआईएमआईएम जैसी पार्टियों के साथ निर्दलीय उम्मीदवारों ने भी अच्छी खासी संख्या में अपनी उम्मीद को रोशन रखने में सफलता हासिल की है। चुनावी तौर पर कोई भी जीते यह उसका लोकतान्त्रिक अधिकार है पर अगर थोड़ी गंभीरता से सिर्फ चुनावी परिणाम नहीं बल्कि पूरा चुनावी कैम्पेन देखा जाए तो इस चुनाव में प्रत्याशी किसी का भी जीता हो पर उत्तर प्रदेश कि जनता हार गई है। वजह बहुत साफ है। अलग-अलग तरह के चुनाव के अपने अलग-अलग मायने होते हैं। जिस तरह से लोकसभा चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों और विधान सभा चुनाव राज्य स्तरीय मुद्दों पर केंद्रित होकर लड़े जाते हैं, उसी तरह निकाय चुनाव स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित होते हैं। पर इस बार के निकाय चुनाव ने इस ट्रेंड को बहुत हद तक बदलने का काम किया। इस बदलाव के पीछे सबसे महत्वपूर्ण पार्टी भाजपा रही। भाजपा ने इस स्थानीय चुनाव को 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारी की पृष्ठभूमि पर केंद्रित रखा। जनता के तमाम जरूरी मुद्दे जिन्हें इस चुनाव के केंद्र में होना चाहिए था, वे हाशिये पर चले गए और भाजपा ने अपने धार्मिक ध्रुवीकरण के प्रयास को स्थानीयता पर आरोपित करने का पूरा प्रयास किया।
इस प्रयास में आम आदमी के बड़े हिस्से ने भी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के रंजोगम को उस आभासी ख्वाब के नीचे कब गिरवी रख दिया, उसे पता ही नहीं चला। इस बार उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव के साथ कर्नाटक विधानसभा का चुनाव होने की वजह से भाजपा के सभी बड़े नेताओं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पूरा फोकस कर्नाटक में रहने की वजह से उत्तर प्रदेश चुनाव की पूरी जिम्मेदारी सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कंधे पर थी। योगी आदित्यनाथ ने पूरे चुनाव को भगवा रंग में रंगने की अभूतपूर्व कोशिश की। उन्होंने चुनाव से पहले ही कुछ मुस्लिम अपराधियों को टारगेट किया। उनके अपराध को किसी रथ यात्रा की तरह पूरे प्रदेश ही नहीं बल्कि प्रदेश के बाहर तक फैलाया। इसी बीच कुछ मुस्लिम अपराधियों के घर पर बुलडोजर चलवाया और कुछ योगी की पुलिस के हाथों गोलियों से छलनी कर दिए गए।
[bs-quote quote=”इस पूरे प्रयास में योगी ने खुद को हिन्दू मसीहा के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की और मुसलमान चेहरे को सामाजिक खलनायक के तौर पर स्थापित करने का प्रयास किया। समानान्तर खड़ी विरोधी पार्टियों विशेष कर समाजवादी पार्टी को उन माफियाओं की पोषक के रूप में स्थापित करने की कोशिश जारी रखी। यह वह अपराधी थे जिन्हें अखिलेश यादव की सपा ने बहुत पहले ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाकर खुद को आपराधिक राजनीति के पैरोकारों से दूर कर लिया था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
योगी का कैम्पेन इतना आक्रामक था कि जनता इन बातों की शिनाख्त कर पाती उससे पहले ही चुनाव की तारीख आ गई थी। हिन्दू वोटर इस आक्रामक प्रचार के दुश्चक्र में पूरी तरह फंस चुका था। उसने राज्य के मुद्दे को ही स्थानीय चुनाव का मुद्दा मान लिया। जिस चुनाव में पार्टी से अधिक प्रत्याशी महत्वपूर्ण होना चाहिए था, उस चुनाव में प्रत्याशी का होना न होना अर्थहीन हो गया। यह बात 100 प्रतिशत सीटों पर नहीं लागू होती है पर 50 प्रतिशत सीटों पर भाजपा का चुनाव कैम्पेन मुस्लिम अपराध, हिन्दुत्व और विभाजनकारी मसविदे पर केंद्रित रहा। विपक्ष ने चुनाव को स्थानीय मुद्दों पर लाने की भरसक कोशिश की। बड़ी मात्रा में उन्होंने भाजपा की इस विभाजनकारी चाहत को धूल भी चटाई पर ज्यादातर जगहों पर यह विरोध इतना खंडित रहा कि वह साझी ताकत में तब्दील होकर भाजपा का मुकाबला करने भर की सामर्थ्य नहीं जुटा सका। यहां भाजपा के जीतने से दिक्कत नहीं है। दिक्कत उसकी उस सोच से है जो लगातार सामाजिक सद्भावना को कमजोर बनाने का प्रयत्न कर रही है।
यह भी पढ़ें-
मोहब्बत का शोरूम तो खुल चुका है पर क्या घृणा की दुकान पर ताला लगा सकेंगे राहुल गांधी
निकाय चुनाव में चुने हुए प्रतिनिधि की जिम्मेदारी अपने क्षेत्र के विकास की है। वह नगरीय जीवन को ज्यादा व्यवस्थित, सुविधाजनक बनाने का जवाबदेह होता है और उसकी यही ईमानदारी किसी जाति, धर्म, पार्टी से ऊपर होकर उसके चुनाव का आधार होनी चाहिए। स्वास्थ्य, पानी, सड़क, जल निकास, कचरा निस्तारण के साथ सामाजिक समरसता को बनाए रखना भी निकाय प्रतिनिधि की जिम्मेदारी होनी चाहिए पर अफसोस कि जिसे विभाजक रेखा खींच कर चुना ही गया है उससे आप भला किस सामाजिक समरसता की उम्मीद करेंगे। भाजपा के आक्रामक हिन्दुत्व पर बलिहारी जाने वाले मतदाता को भी उस वक्त थोड़ा गंभीर होना चाहिए जब उसका खुद का हित भी दांव पर लगा हो। याद रखना होगा कि नींद को गिरवी रखकर खरीदे हुए सपने ना तो आंखों को सुकून देते हैं ना ही उम्मीदों को। निकाय चुनाव में भाजपा पूरे सरकारी तंत्र को अपने हिसाब से संचालित करने से भी नहीं चूकी। गोरखपुर मेयर चुनाव में कुल पड़े मत से ज्यादा वोट गिनने का आरोप सपा प्रत्याशी ने लगाया है। वहीं चुनाव के दिन भी यह खबर कई जगह से आती रही कि जातीय और धार्मिक आधार पर बड़ी मात्रा में मतदाताओं के नाम वोटर लिस्ट से गायब किये हैं।
[bs-quote quote=”आज जिस पार्टी की सरकार है वह अपने विरोधी का नाम कटवा रही है, कल को दूसरी पार्टी की सरकार होगी तो वह अपनी मनमानी से चीजें संचालित करने लगेगी। यह किसी भी लोकतान्त्रिक ढांचे को कमजोर करने का सबसे घटिया तरीका ही कहा जाएगा। सरकार किसी की भी हो, यह ट्रेंड बन गया तब आम आदमी के अधिकार की सुरक्षा की बात ही बेमानी हो जाएगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
इस निकाय चुनाव के बहाने विरोधी पार्टियों को भी गंभीरता से अपने एजेंडे पर फोकस करना चाहिए। मकसद सिर्फ जीत हार नहीं होना चाहिए बल्कि इस मकसद के साथ जनता के बीच खड़ा होना होगा कि आप जनता को किस तरह बेहतर भविष्य देने की पक्षधरता कर रहे हैं। सिर्फ प्रचार और जीत के मकसद से खड़े नेता जनता के विकल्प नहीं बन पाएंगे। सामाजिक न्याय के पक्षधर अखिलेश यादव को खुलकर बताना होगा कि उनका एजेंडा क्या है। वह जिसकी उम्मीद के नायक बनने का प्रयास कर रहे हैं, उसकी कौन सी उम्मीद उनके नायकत्व में सुरक्षित है। यही बात बसपा और कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों पर भी लागू होती है। जिस विचारधारा के साथ आप लड़ने और जीतने की बात कर रहे हैं, उस विचारधारा के पक्ष में आपने अब तक किस तरह से समाज में आंदोलन विकसित किया है, उसका गंभीर मूल्यांकन भी करना चाहिए। सिर्फ जिताऊ उम्मीद के उम्मीदवार किसी विचारधारा का आंदोलन नहीं बनते बल्कि आंदोलन के साथी नेता को जिताऊ होने तक का संघर्ष पार्टी को साझे तौर पर करना होगा।
यह भी पढ़ें-
भाजपा जिस तरह से हिन्दू-मुस्लिम के विभाजन की दीवार को मजबूत बनाने की कोशिश में लगी है। वह सामाजिक विकास के रास्ते को अंततः ब्लाक कर देगा। सरकार होने का तात्पर्य यह नहीं हो सकता कि वैचारिक विरोध को दुश्मनी मान ली जाए। जनता को भी अब उस विकल्प को और गंभीरता से खोजना होगा जो आने वाली पीढ़ी को जाति-धर्म से निकलकर मनुष्य बनने के लिए प्रेरित कर सके। जनता को यह समझना होगा कि इस निकाय चुनाव ने जनता को उनके निजी और जरूरी मुद्दों से भटकाने का काम भी किया है। यह चुनाव प्रदेश और देश की सरकार बनाने का नहीं था बल्कि यह चुनाव अपने समाज को ज्यादा सभ्य बनाने का था और अगर आप उस दिशा में नहीं बढ़ सके हैं तो आपकी हार हुई है। चुनाव खत्म हो चुका है। जिसे जीतना था, अब वह जीत भी चुका है। आपके पास मूल्यांकन का अब भी समय है कि आप अपने जीते हुए उम्मीदवार की जीत में अपने भविष्य की उम्मीद को जीतता हुआ देख पा रहें हैं कि नहीं। कहीं पुलिसिया एनकाउंटर के उत्साह में बहकर आप अपने भविष्य का एनकाउंटर तो नहीं कर रहे हैं। एक चुनाव सही होने पर बहुत कुछ देता है और एक गलत चुनाव बहुत कुछ छीन लेने की ताकत भी रखता है। लोकतंत्र को फ़ासिज़्म के हाथ सौंप कर लोकतंत्र को सुरक्षित नहीं किया जा सकता।
कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।
[…] फ़ासिज़्म की दीवार के अंदर कैद लोकतंत्र … […]