Saturday, April 20, 2024
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मोहब्बत का शोरूम तो खुल चुका है पर क्या घृणा की दुकान पर ताला लगा सकेंगे राहुल गांधी

मोदी है तो मुमकिन है… की अवधारणा पर कर्नाटक के चुनाव परिणाम ने बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है जब आपके खिलाफ हवाओं में ज़हर बोया जा रहा हो, तब आसान नहीं होता उस हवा में मुकम्मल खड़े रह पाना। आपके पुरखों को बार-बार कब्र से निकालकर उनके सुनहरे अतीत पर कालिख पोती जा रही […]

मोदी है तो मुमकिन है… की अवधारणा पर कर्नाटक के चुनाव परिणाम ने बड़ा सवालिया निशान लगा दिया है

जब आपके खिलाफ हवाओं में ज़हर बोया जा रहा हो, तब आसान नहीं होता उस हवा में मुकम्मल खड़े रह पाना। आपके पुरखों को बार-बार कब्र से निकालकर उनके सुनहरे अतीत पर कालिख पोती जा रही हो, तब भी अपने विरोधी को माफ कर देना भी कत्तई आसान नहीं होता…।पर राहुल गांधी ने यही किया। वह हवा के ज़हर के बावजूद सिर्फ खड़े ही नहीं रहे, बल्कि उस कार्बनिक एलीमेंट को लगातार कमजोर भी करते रहे, जो समय की ऑक्सीजन के खिलाफ हवा में ज़हर घोल रहा था। आज़ादी के बाद की सम्पूर्ण भारतीय राजनीति में जितने घटिया स्तर के हमले राहुल गांधी पर किये गए, यक़ीनन वह किसी अन्य नेता पर नहीं हुए। एक पूरी सत्ता और उसके समर्थक पूरी ताकत एवं बौनी धार्मिक आस्था के साथ राहुल को लगातार ‘पप्पू’ बताने में लगे हुए थे। पूरा का पूरा मीडिया तंत्र और मैनेजिंग सिस्टम राहुल को कमजोर और नकारा बताने में लगा हुआ था। कुछ भी करके राहुल को उपहास के केंद्र में बनाए रखना ही उनका परम सत्य और साध्य बन चुका था। एक लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में किसी की निजता पर इस तरह के हमले शायद ही राहुल के अलावा किसी और पर हुए होंगे। ऐसा भी नहीं हुआ होगा कि राहुल इन हमलों से परेशान नहीं हुए होंगे। यक़ीनन राहुल भी हम सब की तरह ही जैविक सिस्टम से बने हैं तो परेशान भी जरूर हुए होंगे। महत्वपूर्ण यह है कि राहुल कभी घबराए नहीं। डरे नहीं। सबसे बड़ी और जरूरी बात जो राहुल को सबसे अलग बनाती है वह है कि उन्होंने अपने ऊपर आरोपित की जा रही घृणा का जवाब देने के लिए कभी घृणा का सहारा नहीं लिया।

[bs-quote quote=”राहुल गांधी का मजाक उड़ाने वाले और बात-बात पर पप्पू कहकर खुद के श्रेष्ठताबोध का उन्माद भरने वालों को कर्नाटक से सबक लेना चाहिए। राहुल गांधी किसी जाति, धर्म के सहारे नहीं, बल्कि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के विचारों के सहारे और डॉ. अंबेडकर के संविधान के अनुरूप जिस भारत के निर्माण का सपना लेकर आगे बढ़ रहे हैं, वह ही देश को दुनिया के सामने आगे ले जाने का मार्ग सृजित करेगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

घृणा के बाड़ (Fences) लगाकर सियासत में सत्ता के शिकार के मंसूबे बांधने वाली राजनीति हावी हो रही थी, तब राहुल गांधी ने तय किया कि भारत को उसकी साझी विरासत की संस्कृति के साथ आगे ले जाने का प्रस्ताव लेकर जनता के बीच जाना है। अपने इसी सोच के साथ राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा शुरू कर दी। राहुल के सहज, सरल होने की कुछ छवियाँ पहले भी मुख्यधारा की मीडिया के ना चाहते हुए भी जनता के बीच पहुँच तो रही थी पर मुख्यधारा की मीडिया का उस पर इतना दबाव होता था कि वह अपने सही अर्थ को जनता तक प्रेषित ही नहीं कर पाती थीं। ऐसे में यात्रा के माध्यम से अपने देश के लोगों से कनेक्ट (जुड़ने) होने के लिए राहुल गांधी खुद ही निकल पड़े। जहां राहुल जनता के दुख-दर्द को साझा कर रहे थे, वहीं उनके खिलाफ खड़ी सत्ता उनके जूते और टीशर्ट का रेट कार्ड बताकर जनता के दिमाग में उनकी ओछी छवि बनाने की कोशिश कर रही थी। चौतरफा हमले हो रहे थे। राहुल की खामियाँ तलाशी जा रही थीं। उनके साथ हीनता के अतिशयोक्ति भरे रूपक चस्पा किये जा रहे थे। लगभग 20 वर्षों से सक्रिय राजनीति में खड़े होकर इस तरह के हमले झेलते हुए राहुल में अब एक अलग तरह की ठसक आ चुकी थी। वह पहले भी इस तरह के हमलों पर कोई कठोर प्रतिक्रिया देते नज़र नहीं आए थे।

जब तिरंगा लेकर दौड़ पड़े और चारा काटने लगे राहुल

इस पूरी यात्रा में वह अपने नाम के साथ लगे गांधी को व्याख्यायित करते हुए आगे बढ़ रहे थे। अब तक मीडिया के माध्यम से गढ़े गए नैरेटिव से अलग राहुल की इस यात्रा में जनता ना सिर्फ राहुल का भरपूर स्वागत कर रही थी बल्कि उनके साथ कदमताल भी कर रही थी। राहुल भारतीय राजनेता के लिए रचे गए अब तक के तमाम मिथक तोड़ रहे थे। कुर्ता-पायजामा की जगह सफेद टी शर्ट, कार्गो पैन्ट और स्पोर्ट्स जूते में आम आदमी की प्रतिछवि लेकर राहुल आगे बढ़ने लगे। धारणाओं से रचे गए प्रतिमान ध्वस्त हो रहे थे। अप्रत्याशित लग रहा था कि एक बड़ी राजनीतिक पार्टी का नेता कभी बच्चों के साथ खिल-खिलाकर हंस रहा था। कभी नुक्कड़ पर रूककर चाय पी रहा था। कभी किसी को गले लगाकर आँसू पोंछ रहा था। कभी अपनी माँ के जूते के तस्मे (फीते) बांध रहा था। वह किसी महामानव की छवि के फ्रेम में खुद को दर्ज नहीं करना चाहता था। कोई आत्ममुग्धता नहीं। कोई बड़प्पन की डींग नहीं। कभी सड़क पर फुटबॉल खेल लेता तो कभी किसी का हाथ पकड़कर दौड़ने लगता। सत्ता पक्ष उसका उपहास उड़ाता, उसकी सादगी पर हँसता पर वह इस सब से परे अपनी रौ में आनंदित होता हुआ आगे बढ़ रहा था। शायद वह जानता था कि उसे क्या करना है। वह यह भी जानता था कि मौजूदा सरकार उसकी इस यात्रा को किस तरह से देख रही है।

जनता के प्रति दिखा अपनत्व

दरअसल, दोनों की नींव में लगाई गई ईंटें अपनी-अपनी तरह से बुलंदियों को संस्कारित कर रही थीं। एक तरफ गांधी-नेहरू की वह बुनियाद थी, जो पूरी दुनिया को आज भी स्वतंत्रता के मायने सिखाती घूम रही है। घृणा के खिलाफ एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और अंबेडकर के बराबरी वाले ढांचे के साथ अपने सरोकार की बात कर रही थी। तो दूसरी तरफ वह बुनियाद थी जो बीज से नहीं, बल्कि शाखाओं से उगी थी, जो भारतीय संविधान को मनुस्मृति के ढांचे में ले जाने के लिए प्रतिबद्ध थी। जो अपने सिवा किसी को सम्मानपूर्ण दर्जा देने जैसी उदारता नहीं रखती। हिन्दू-मुस्लिम के बीच एक नफ़रती दीवार को लगातार मजबूत बनाने की प्रतिबद्धता ही उसकी राजनीति का आधार है। राहुल ने कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ा। राहुल ने चाहा होता तो वह पंद्रह साल पहले ही भारत के प्रधानमंत्री बन चुके होते। शायद कांग्रेस का अध्यक्ष बने रहना या फिर इस देश के आखरी आदमी के दर्द को समझे बिना प्रधानमंत्री हो जाना राहुल की सियासी चाहत नहीं थी। राहुल गांधी ने भारतीय राजनीति में अपनी उपस्थिति को एक नया अर्थ देने की कोशिश की है। स्टीरियोटाइप (रूढ़िबद्ध) राजनीति के खिलाफ एक सहज, सरल और सही अर्थों में गांधी के उत्तराधिकारी वाली राजनीति को लेकर राहुल आगे बढ़ रहे हैं। एक पूरी सत्ता राहुल को बार-बार चक्रव्यूह में घेर कर खत्म करने का यत्न कर रही है पर राहुल लगातार एक के बाद एक चक्रव्यूह तोड़कर आगे बढ़ रहे हैं।

राहुल गांधी को मिला प्यार

फिलहाल, राहुल गांधी ने अपनी उस विरासत का विवेक लेकर अपने लिए एक लंबी यात्रा चुनी थी। तमाम राजनीतिक घृणा के बीच राहुल गांधी अपनी सहज मुस्कान से किस तरह लोगों के दिल में जगह बना रहे थे यह भारत जोड़ो यात्रा में किसी को साफ नहीं दिखा रहा था। पर यात्रा के बाद हुए कर्नाटक चुनाव ने देश को बता दिया कि अंततः मोहब्बत जीतती है। भाजपा हमेशा पुरजोर कोशिश भी करती रही है कि वह भारत से कांग्रेस को खत्म कर देगी, पर पहली बार जब कांग्रेस ने कहा कि यदि कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार बनती है तो वह बजरंग दल को प्रतिबंधित कर देगी। हर रोज कांग्रेस को खत्म करने का सपना देखने वाली भाजपा का कांग्रेस के बजरंग दल को प्रतिबंधित करने वाले बयान से अहम दरक गया। बजरंग दल को बजरंग बली का पर्याय बताकर भाजपा ने कर्नाटक में भी अपना चिर-परचित हिन्दू कार्ड आगे बढ़ा दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक राज्य को उसके भविष्य का चेहरा दिखाने के बजाय बजरंगबली की जयकारे का शोर मचाते नज़र आने लगे। हजारों की संख्या में भाजपा की अग्रिम कतार के नेताओं ने कर्नाटक में रैलियाँ कीं, सद्भावना को अपने विभाजनकारी एजेंडे से सुलगाने की तमाम कोशिशें कीं, पर कर्नाटक टस से मस नहीं हुआ। राहुल गांधी ने भाजपा को काउंटर करने की ना तो कोशिश की, ना अपने एजेंडे से पृथक हुए, बल्कि पूरी पार्टी लाइन ने उनके विचार और कर्नाटक राज्य के लिए देखे हुए भविष्य के सपनों के साथ आगे बढ़ने का प्रयास जारी रखा। जनता ने कांग्रेस के पक्ष में एक स्पष्ट जनादेश देकर पूरे भारत को यह संदेश देने का काम कर दिया कि मोदी के होने से सबकुछ मुमकिन नहीं हो जाता। देश को नफ़रत के विज्ञापन के सहारे कुछ देर के लिए भ्रमित तो किया जा सकता है पर उस भ्रम को बहुत लंबे समय तक न तो बनाए रखा जा सकता है, न बचाये।

राहुल गांधी और अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय अध्यक्ष शायर इमरान प्रतापगढ़ी

राहुल गांधी का मजाक उड़ाने वाले और बात-बात पर पप्पू कहकर खुद के श्रेष्ठताबोध का उन्माद भरने वालों को कर्नाटक से सबक लेना चाहिए। राहुल गांधी किसी जाति, धर्म के सहारे नहीं, बल्कि महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू के विचारों के सहारे और डॉ. अंबेडकर के संविधान के अनुरूप जिस भारत के निर्माण का सपना लेकर आगे बढ़ रहे हैं, वह ही देश को दुनिया के सामने आगे ले जाने का मार्ग सृजित करेगा। दंगे और किसी मस्जिद की ईंट उखाड़कर कुछ समय के लिए विभाजनकारी मसविदे के साथ भारत की सियासत को हथियाया तो जा सकता है, पर यह घृणा बहुत देर तक जनता की बाड़ाबंदी नहीं कर सकती। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बातें जनता का जरूरी सरोकार बनेंगी। मंहगाई के दर्द को हिन्दुत्व के आभासी दर्द में बहुत देर तक नहीं कुचला जा सकता है। कर्नाटक जीतकर राहुल ने भाजपा को बता दिया है कि जिसे अब तक भाजपा बैकबेंचर समझ रही थी वह अब फ्रंट लाइन का प्लेयर बन चुका है। बिना बेईमानी का सहारा लिए भी वह अपना खेल जीतने की कला में माहिर है। राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा में जिस मोहब्बत का शोरूम खोलने की बात कर रहे थे उसका उद्घाटन कर्नाटक में बहुत सम्मानजनक तौर पर हो चुका है। अब देखना है कि क्या घृणा की दुकान पर भी राहुल ताला भी लगा सकेंगे? फिलहाल, कांग्रेस की कर्नाटक जीत ने विपक्ष के राजनीति की उम्मीद का केंद्र तो राहुल गांधी को बना ही दिया है।

कुमार विजय गाँव के लोग डॉट कॉम के मुख्य संवाददाता हैं।

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