Thursday, March 28, 2024
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रसोई से विद्यालय तक फैला है जातिवाद का जहर

उत्तराखंड। देश का संविधान कहता है कि भारत में किसी के भी साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा क्योंकि यहां सभी वर्ग समान हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस दौर में भी भारत के कई स्थानों से ऐसी खबरें हर दिन हमारे सामने आती हैं जिसमें […]

उत्तराखंड। देश का संविधान कहता है कि भारत में किसी के भी साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा क्योंकि यहां सभी वर्ग समान हैं। लेकिन इक्कीसवीं सदी के इस दौर में भी भारत के कई स्थानों से ऐसी खबरें हर दिन हमारे सामने आती हैं जिसमें किसी न किसी के साथ धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर बुरा बर्ताव किया जाता है। कभी दूल्हे के घोड़ी चढ़ने पर तो कभी स्कूल में एक ही मटके से पानी पीने के मुद्दे पर निम्न जाति के बच्चों के साथ अमानवीय बर्ताव सुनने को मिलता रहता है। शहरों की अपेक्षा देश के ग्रामीण क्षेत्रों में यह मुद्दा आज भी अहम बना हुआ है। हालांकि सरकार और प्रशासन इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हैं और ऐसा कृत्य करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई जाती है। इसके बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों से भेदभाव समाप्त होता नज़र नहीं आ रहा है।

उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के गरुड़ ब्लॉक स्थित चोरसौ गांव में लोग जातिगत भेदभाव का शिकार हो रहे हैं। इसकी वजह से गांव का सामाजिक परिवेश भी प्रभावित हो रहा है। करीब 3569 की आबादी वाले इस गांव में निम्न और उच्च जातियों की संख्या आधी आधी है। इसके बावजूद गांव में निम्न जाति के लोगों के साथ कई बार अमानवीय व्यवहार देखने को मिलता है। चिंता की बात यह है कि यह बुराई शिक्षा के मंदिर तक पहुंच गई है। इसकी वजह से गांव की किशोरियों की शिक्षा पर सबसे अधिक असर पड़ रहा है। इस वजह से वह ठीक से पढ़ नहीं पाती हैं। मानसिक रूप से उन्हें लगता है कि गांव में तो उनके साथ जातिगत भेदभाव होता ही था, अब स्कूल में भी वह इस भेदभाव का सामना कर रही हैं।

किशन सिंह कहते हैं कि पहाड़ों में यह जाति भेदभाव बहुत गहरा है। आज भी उच्च जाति के लोग छोटी जाति के लोगों के साथ बैठकर खाना नहीं खाते हैं। अभी भी गांव में शादी समारोह से जुड़े कामकाज में दो रसोई लगाई जाती है, जिसमें बड़ी जाति और छोटी जाति वालों के लिए अलग अलग खाने की व्यवस्था होती है।”

जातिगत भेदभाव से परेशान गांव की किशोरी कुमारी रितिका का कहना है कि न केवल हमारे गांव में बल्कि स्कूल में भी हमारे साथ जातिगत भेदभाव किया जाता है। निम्न समुदाय से जुड़ी रितिका बताती है कि जब कक्षा में सब बच्चे बैठे होते हैं तो टीचर सिर्फ उन्हीं बच्चों को पानी लाने के लिए बोलते हैं जो उच्च जाति से होते हैं। इतना ही नहीं, निम्न जाति के बच्चों के साथ उच्च जाति के शिक्षकों द्वारा भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। यह भेदभाव हमें साफ़ नजर आता है। स्कूल में जब सभी बच्चों को समान समझा जाता है तो फिर हमारे साथ यह भेदभाव क्यों किया जाता है? यह सब हमें बहुत बुरा लगता है और इसकी वजह से हम अच्छे से पढ़ाई भी नहीं कर पाती हैं। इसी जाति की एक अन्य किशोरी कुमारी अंजली कहती हैं कि यह बात सत्य है कि जाति के कारण ही धार्मिक स्थानों पर हमारे साथ भेदभाव होता है। हमारी जाति छोटी है इसलिए हमारे साथ धर्मस्थलों पर भी भेदभाव किया जाता है। हमें मंदिर के अंदर जाने नहीं दिया जाता है। मैं तो हर जगह भेदभाव देखती हूं। यहां तक कि शादी-ब्याह जैसे उत्सवों में भी हमारे साथ भेदभाव किया जाता है। खाना पकाने से लेकर परोसने तक उच्च और निम्न जातियों के बीच भेदभाव किया जाता है। निम्न जाति का होने के कारण हमें समाज में बराबरी का हिस्सा नहीं मिलता है।

जातिगत भेदभाव से परेशान गांव की एक 40 वर्षीय महिला भागा देवी कहती हैं कि सिर्फ मंदिर ही नहीं, कार्यस्थल पर भी जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ता है। जब हम कहीं काम करने के लिए जाते हैं तो न केवल जाति के आधार पर काम बांटा जाता है बल्कि मज़ाक के नाम पर जातिगत टिप्पणियां भी की जाती हैं। पैसे की ज़रूरत के कारण हमें यह सब सहने पर मजबूर होना पड़ता है हालांकि गांव की आंगनबाड़ी कार्यकर्ता आमना देवी गांव में जाति के आधार पर भेदभाव किये जाने की बात को स्वीकार करती हैं, लेकिन उनका कहना है कि आंगनबाड़ी सेंटर पर बच्चों के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है। ग्राम प्रधान किशन सिंह भी गांव में जातिगत और धार्मिक भेदभाव को स्वीकारते हैं। वह कहते हैं कि भेदभाव का स्वरूप अब बदल गया है। पहले लोग खुलेआम और प्रत्यक्ष रूप से भेदभाव करते थे। अब वह अप्रत्यक्ष रूप से करते हैं।

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किशन सिंह कहते हैं कि पहाड़ों में यह जाति भेदभाव बहुत गहरा है। आज भी उच्च जाति के लोग छोटी जाति के लोगों के साथ बैठकर खाना नहीं खाते हैं। अभी भी गांव में शादी समारोह से जुड़े कामकाज में दो रसोई लगाई जाती है, जिसमें बड़ी जाति और छोटी जाति वालों के लिए अलग अलग खाने की व्यवस्था होती है। हालांकि नई पीढ़ी के लोग यह भेदभाव बहुत कम करते हैं, लेकिन फिर भी गांव की पुरानी सोच के लोग नई पीढ़ी के लोगों को यह भेदभाव करने के लिए मजबूर करते हैं। वह इसे संस्कृति का हिस्सा मानते हैं। किशन सिंह को भरोसा है कि धीरे-धीरे ऐसा समय आएगा जब गांव से यह भेदभाव समाप्त हो जाएगा। यह बदलाव गांव की युवा पीढ़ी से ही आएगा।

सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रैंडी कहती हैं कि ‘यह बात सत्य है कि आज भी हमारे देश में जातिगत भेदभाव बहुत ही बड़े स्तर पर किया जाता है। शहरों से लेकर गांव तक छोटे-छोटे कस्बों नगरों में भी जातिगत भेदभाव होता है। अनपढ़ लोग तो भेदभाव करते ही हैं, बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी जातिगत द्वेष रखते हैं। आज भी लोग खुशियों की बात तो दूर, दुख में भी भेदभाव करते हैं। बड़ी जाति वाले के शव को आज भी निम्न जाति के लोग कंधा नहीं दे सकते हैं। यह किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्म की बात है। यह सच है कि आज की युवा पीढ़ी भेदभाव कम करती है, लेकिन कहीं न कहीं करती जरूर है। इसमें बदलाव लाने की जरूरत है। जातिगत भेदभाव को मिटाने के लिए सामाजिक चेतना जगाने की ज़रूरत है, क्योंकि यह समाज के विकास के लिए बहुत घातक है। (चरखा फीचर)

 

तानिया
तानिया उत्तराखंड की सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

1 COMMENT

  1. कहते हुए शर्म आती है कि यह हमारी धार्मिक संस्कृति है परन्तु कारण है इसका
    कलम पर केवल एक समाज का ही कब्जा होना

    अपनी मीडिया नहीं बनी तो मिट जायेगा ओबीसी समाज

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