(शाहूजी महाराज की जयंती पर)
आज से 100 साल पहले महाराजा श्री शाहूजी ने यह समझ लिया था कि शिक्षा से ही समाज का उद्धार हो सकता है। अत: समाज में शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने अथक और अनवरत प्रयास किए। उनका एक प्रयोग असफल हो जाता तो वह तुरंत उसे बंद कर उसमें सुधार कर नया प्रयोग शुरू कर देते। शाहूजी महाराज के समय वतनी शिक्षा योजना चल रही थी। इसमें शिक्षक को वेतन के बदले भूमि दी जाती थी और पीढ़ी दर पीढ़ी वह भूमि उसी के पास रहती थी। चाहे वह जैसा भी शिक्षक हो। शिक्षक का पद वंशानुगत था। यह आदिम व्यवस्था थी। शाहूजी महाराज ने इसे बंद कर दिया और शिक्षकों को राजकोष से वेतन देना प्रारम्भ कर दिया।
प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने हर गाँव में पाठशाला की योजना प्रारम्भ की। प्रत्येक गाँव में पाठशाला खोलना एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी निर्णय था। लेकिन इसके लिए आर्थिक समस्या सामने आने लगी। राजकोष में इतना धन नहीं था कि उससे प्रत्येक गाँव में स्कूल खोला जा सके। फिलहाल ऐसे गाँवों, जहाँ की जनसंख्या 500 से अधिक थी, वहाँ विद्यालय खोलकर सभी के लिए शिक्षा योजना की शुरुआत कर दी गई और इस कार्य के लिए उन्होंने एक लाख रुपये की व्यवस्था की। यह कहने की आवश्यकता नहीं हैं कि उस समय वर्ण व्यवस्था अपनी पूरी कठोरता के साथ लागू थी। परम्परागत रूप से पढ़ने और पढ़ाने वाले, दोनों केवल ब्राह्मण ही हुआ करते थे।
वर्ण व्यवस्था के इनबिल्ट (अंतर्स्थापित) कानूनों के अनुसार ब्राह्मण वर्ण के अतिरिक्त अन्य वर्णों को पढ़ने का अधिकार नहीं था और इसको लागू कराने वाले ब्राह्मण ही थे। राजवंशों की बात अलग है। उनकी तुलना हम जनसामान्य से नहीं कर सकते हैं। उनके प्रचार का दुष्प्रभाव जनमानस पर इस कदर हावी था कि बहुसंख्यक जनमानस का यह मानना था कि पढ़ना-लिखना अपना काम नहीं है।
वर्ण व्यवस्था के अनुसार जिसे जो कार्य दिया गया था वह उससे आगे बढ़ने की सोच भी नहीं पाता था। साथ ही आर्थिक समस्या सिर पर सवार रहती थी। बच्चे, पिता के कार्य में शुरू से ही हाथ बँटाते रहे हैं और इस तरह से वह पिता के व्यवसाय में निपुण होते जाते हैं। विद्यालय जाना इस तरह से अपने परम्परागत व्यवसाय के लिए बाधा बन जाता था और दूसरी ओर, एक वर्ग का काम ही पढ़ाई करना और शासन करना था। यह एक इतना बड़ा षड्यंत्र था, जिसे आज भी लोग समझ नहीं पाते हैं। शाहूजी महाराज ने इस षड्यंत्र को बड़ी शिद्दत से समझा। अनिवार्य और नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा उसी का परिणाम थी। उस समय यह कहावत प्रचलित थी-
महारों का गाना, कुनबी का दाना और ब्राह्मणों का लिखना-पढ़ना।
ऐसे में सभी के लिए शिक्षा जनसामान्य के लिए एक अजूबा योजना थी। मराठा ही इसका विरोध करते थे और इसको हवा देने के लिए ब्राह्मण समाज पहले से ही कमर कसे बैठा था। अज्ञानता के साथ-साथ गरीबी से मराठा समाज अपने बच्चों को स्कूल भेजता ही नहीं था। इसका पूरा लाभ धूर्त पुरोहित समाज उठाता था। गाँव में खुलने वाले विद्यालयों में सबसे अधिक संख्या ब्राह्मण समाज के बच्चों की ही बनी हुई थी।
मराठा समाज के बच्चे पढ़ाई में आगे बढ़ें, इसके लिए इन बच्चों की स्कूल फीस भी माफ की गई। इस योजना का एक तोड़ यह निकाला गया कि एक निश्चित समय निकल जाने पर सीट खाली रह जाने पर फीस माफी का लाभ अन्य समाज के बच्चों को दे दिया जाए। किससे पूछना था, सभी ऊपर से नीचे तक अपने ही आदमी थे। कुछ समय बाद उन्होंने एक रास्ता और निकाल लिया। वह जान-बूझकर बच्चों को स्कूल से भगा देते और एक समय के बाद सीट खाली दिखाते और नि:शुल्क सीट पर अपने समाज के बच्चों का प्रवेश ले लेते। जब शाहूजी को यह पता चला तो उन्होंने निर्देश जारी किया कि कुछ भी हो मराठों के लिए दी गई नि:शुल्क सीटें वर्ष भर खाली ही रखी जाएँगी। उन पर किसी और समाज के बच्चों की भर्ती नहीं की जाएगी। जानकारी के लिए बताते चलें कि यह धूर्तता आज भी चल रही है।
मराठा समाज के बच्चों और उनके अभिभावकों को प्रोत्साहित करने के लिए कई प्रयास किए गए, जिसमें प्रभातफेरी निकालना भी शामिल था। लेकिन अपेक्षित परिणाम न आते देख उन्होंने अनिवार्य और नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा की योजना बनाई। इस योजना में बहुत व्यय आ रहा था। इस योजना में हर गाँव में स्कूल खोला जाना अनिवार्य था। यह एक बड़ा काम था जिसमें अदम्य साहस, दृढ़ इच्छाशक्ति और कठोर अनुशासन की आवश्यकता थी। शाहूजी महाराज ने यह खोज करना प्रारम्भ किया कि कौन-सी ऐसी संस्था है जो साम्राज्य के हर गाँव तक फैली हो उसी को साथ में ले लिया जाए। उन्होंने देखा कि मंदिर हर गाँव में बने हुए हैं और जनसामान्य की इनमें बहुत बड़ी आस्था भी है। यदि इनके परिसरों का उपयोग विद्यालय के लिए कर लिया जाए तो विद्यालय स्थापना का एक बहुत बड़ा कार्य हो सकता है। लेकिन वह जानते थे कि यदि इसे ऐच्छिक रखा गया तो केवल 10 विद्यालयों की स्थापना ही हो पाएगी। अत: उन्होंने एक ही झटके में आदेश कर समस्त मंदिरों का अधिग्रहण कर लिया और मंदिर परिसर में प्राथमिक विद्यालय की स्थापना का आदेश कर दिया। शाहूजी महाराज का यह आदेश एक कालजयी और महान क्रांतिकारी आदेश था। यदि इस फार्मूले का उपयोग आगामी शासकों ने किया होता तो हम आज फ्रांस और ब्रिटेन से पीछे नहीं होते। मंदिरों का अधिग्रहण एक ऐसा आदेश था जिसकी बराबरी आज तक भारतीय इतिहास में कोई शासक नहीं कर पाया है।
मंदिरों में स्कूलों की स्थापना हो गई। अब आगे समस्या आई कि शिक्षकों की कमी कैसे पूरी की जाए। इसके हिसाब से शिक्षकों की भर्ती करने में बहुत समय लग रहा था। शिक्षकों की कमी को दूर करने के लिए भी उन्होंने एक नायाब तरीका खोज निकाला। अपने कार्यालय में राजकीय सेवा में कार्यरत ऐसे सभी कर्मचारियों के लिए आदेश कर दिया कि उन्हें प्राथमिक विद्यालय में पढ़ाना अनिवार्य होगा, जिनकी उम्र 25 वर्ष से कम है। इस तरह से शिक्षकों की कमी को दूर करने का प्रयास किया गया।
तत्कालीन ब्राह्मण संगठनों और समाचार पत्रों ने अनिवार्य व नि:शुल्क शिक्षा का कड़ा विरोध किया, साथ ही लिखा कि यह राज्य के संसाधनों की बर्बादी है। ठीक इसी समय राजा राम कॉलेज का एक प्रकरण चल रहा था जिसमें धनाभाव के चलते राजा राम कॉलेज को बंद कर दिया गया था। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि केसरी जैसे समाचार पत्र इस घटना की यह कह कर आलोचना कर रहे थे कि छोटे बच्चों के लिए बड़े बच्चों की पढ़ाई रोकने का क्या मतलब है? (उस समय अजीब मूर्खतापूर्ण बौद्धिकता फैली हुई थी- जब छोटे बच्चे पढ़ेंगे ही नहीं तो बड़े व शिक्षित बच्चे क्या ब्रह्मा के मुख से पैदा होकर आएँगे?) आज भी यही चल रहा है जब कक्षा आठ तक किसी को फेल न करने का आदेश किया गया है। मज़े की बात यह है कि वह स्वयं तो अपने स्तर से कोई प्रयास भी नहीं कर रहे थे। मंदिरों के पास अथाह दौलत थी। उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि राजा राम कॉलेज के लिए मंदिरों और बड़े सामंतों को आगे आना चाहिए। उनका काम ही आलोचना करना था। मानो आलोचना करने का उन्हें पैदायशी विशेषाधिकार प्राप्त हो।
अनिवार्य शिक्षा का यह कहकर भी विरोध किया गया कि जो नहीं चाहते उनके लिए राज्य के संसाधनों को व्यय करना मात्र फिजूलखर्ची है। क्या जमाना था। अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को हमारे समाचार पत्र फिजूलखर्ची बता रहे थे। मतलब बौद्धिक दिवालिएपन के सारे संसाधन मौजूद थे। शुल्क माफी योजना से शाहूजी महाराज को यह कटु अनुभव मिल चुका था कि यदि प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य नहीं बनाया जाएगा तो बहुजन समाज के बच्चों को धूर्त-पुरोहित समाज विद्यालय में आने ही नहीं देगा। चूँकि ब्राह्मण समाज को हटा पाना सम्भव नहीं है। अत: अनिवार्य शिक्षा ही एकमात्र रास्ता है। बहुत ही आसानी से यह लोग बहुजन बच्चों को मूर्ख बताकर और उनके अभिभावक, जो पहले से ही कमजोर और धर्म भीरु हैं, को बड़ी आसानी से बाहर कर देंगे।
इस सम्बंध में एक और मजेदार वाकया प्रकाश में आता है। अंग्रेजी सरकार के दबाव और प्रलोभन के चलते (यह तथ्य अपने आप में इतना महत्वपूर्ण है कि हमारे इतिहास की चूलें हिला सकता है। दबाव अैर प्रलोभन किसके लिए! हमारे समाज और बच्चों के लिए!! अंग्रेजों ने किया। जो हमारे दुश्मन थे?) दरभंगा के महाराजा अपने राज्य में अनिवार्य और नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा लागू करने के लिए तैयार हो गए। (आज की तारीख में कितने शर्म की बात है कि ‘अंग्रेज सरकार के दबाव में’) उनके दरबार के लोगों, हम समझ सकते हैं कि ये कौन लोग होंगे, ने यह कहकर महाराजा को समझा लिया कि जो नहीं पढ़ना चाहते उनसे जबरदस्ती न की जाए। यह उन बेचारे गरीब लोगों पर दोहरी मार से कम नहीं होगा कि जो बेचारे दो समय की रोटी जुटा नहीं पाते उन्हें बच्चों को स्कूल भेजने के लिए बाध्य किया जाए। इससे उन गरीबों की दशा और भी खराब होगी। यह अपने परिवार के साथ अपनी रोजी कमाने में लगे रहते हैं। ऐसे में उनको भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। बहुत से लोगों को वह दरबार में बुला भी लाए और उनसे कहलवा दिया कि हम सब दिहाड़ी मजदूर हैं, हमें इससे दूर ही रखा जाए। अब दरभंगा के महाराजा, शाहूजी तो थे नहीं कि दरबार के विरोध को झेल पाते। चारों ओर वही सब थे। दबाव पड़ा और उन्होंने नि:शुल्क शिक्षा को तो मान लिया लेकिन उसमें से अनिवार्य शब्द निकाल दिया। परिणाम बिहार और शेष भारत में, विशेष रूप से देशी राजाओं के शासन क्षेत्र में, वर्ण व्यवस्था की सख्ती बरकरार रही। पाठक यह समझ सकते हैं कि हमारे असली दुश्मन कौन हैं या थे?
अनिवार्य और नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा की योजना के लिए सबसे पहले ऐसे गाँवों का चयन किया गया, जिनकी जनसंख्या 500 से एक हजार तक थी। आगे चलकर इसे सभी ग्रामों में लागू किया गया। अध्यापकों की कमी को पूरा करने के लिए ऐसे राजकीय कर्मचारी जो 25 वर्ष से कम उम्र के थे, को अनिवार्य रूप से ट्रेनिंग देकर शिक्षण कार्य में लगाया। इससे शिक्षकों की कमी की समस्या तात्कालिक तौर पर समाप्त हो गई। आगे चलकर शिक्षकों की भर्ती पर विशेष जोर देकर शिक्षा विभाग को और अधिक मजबूत बनाया गया। आज भी शाहूजी महाराज के द्वारा किए गए कार्यों का प्रतिफल हमें पूरे महाराष्ट्र में दिखाई पड़ता है। हमें वहाँ गली-मोहल्लों में विद्यालय और छात्रावास मिल जाते हैं।