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पॉल्ट्री उद्योग : अपने ही फॉर्म पर मजदूर बनकर रह गए मुर्गी के किसान

भारत में पॉल्ट्री फ़ार्मिंग का तेजी से फैलता कारोबार है। अब इसमें अनेक बड़ी कंपनियाँ शामिल हैं जिनका हजारों करोड़ का सालाना टर्नओवर है लेकिन मुर्गी उत्पादक अब उनके बंधुआ होकर रह गए हैं। बाज़ार में डेढ़-दो सौ रुपये बिकनेवाला चिकन पॉल्ट्री फार्म से मात्र आठ रुपये किलो लिया जाता है। अब मुर्गी उत्पादक स्वतंत्र इकाई नहीं हैं। कड़े अनुबंध शर्तों पर वे कंपनियों के चूजे और चारे लेकर अपनी मेहनत से उन्हें पालते हैं और कंपनी तैयार माल उठा लेती है। मुर्गी उत्पादक राज्य और केंद्र सरकार से यह उम्मीद कर रहे हैं कि सरकारी नीतियाँ हमारे अनुकूल हों और हमें अपना उद्योग चलाने के लिए जरूरी सहयोग मिले। लेकिन क्या यह संभव हो पाएगा? पूर्वांचल के पॉल्ट्री उद्योग पर अपर्णा की रिपोर्ट।

कुछ वर्ष पहले लागू किए जानेवाले तीन कृषि क़ानूनों को लेकर किसानों में यह असमंजस की स्थिति थी कि अगर वे लागू हो गए तो किसान अपने ही खेतों में मजदूर होकर रह जाएंगे।

अब कृषि कानून वापस हो चुके हैं लेकिन किसानों का अपनी ही जगह पर कंपनियों का मजदूर बनकर काम करने की स्थिति लगातार मजबूत होती जा रही है। मुक्त बाज़ार में अपने उत्पादों का उचित मूल्य पाने का किसानों का सपना धराशायी होता जा रहा है। पूर्वांचल में पॉल्ट्री फार्म से जुड़े किसानों की हालत आज अपने ही फार्म पर काम कर रहे मजदूरों से अधिक कुछ नहीं रह गई है।

खपत और मुनाफे की दृष्टि से देखा जाय तो यह काफी फायदेमंद धंधा है लेकिन इसकी बुनियादी इकाई यानी  उत्पादक किसान के हाथ में मजदूरी के सिवा कुछ नहीं आता। एक आँकड़े के मुताबिक पूर्वांचल के सत्रह जिलों से प्रतिदिन तकरीबन दस-पंद्रह हज़ार कुंटल से अधिक चिकन बाजारों में आता है और इसका बाज़ार मूल्य 15 से 22  करोड़ तक होता है। लेकिन उत्पादकों के हिस्से में इसका महज़ पाँच प्रतिशत ही आता है।

किसानों से सात-आठ रुपये किलो खरीदे जानेवाला चिकन उपभोक्ता तक पहुँचते-पहुँचते डेढ़ सौ से ढाई सौ रुपये किलो तक हो जाता है। पूरे उत्तर प्रदेश और देश के अन्य राज्यों के उत्पादन और बाज़ार मूल्य का आंकड़ा बहुत बड़ा है। उसी अनुपात में किसानों की आय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

अब अगर इसकी तुलना में की जानेवाली मेहनत को देखा जाय तो यह बहुत ज्यादा है। पॉल्ट्री फार्म चलानेवाले को चौबीस घंटे मजदूरी करनी पड़ती है। सामान्यतः चूजे से मुर्गियों के विकसित होने में चालीस दिन का समय लगता है। इसमें भी एक हफ़्ते का समय सबसे भीषण मेहनत का होता है। इस काम में होनेवाली जरा सी चूक से भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।

गौरतलब है कि सगुणा, आई बी, वेंकीज़, फ़ीनिक्स और रेणुका जैसी कंपनियाँ चिकन बाज़ार पर राज कर रही हैं जिनका हजारों करोड़ का कारोबार है। लोग कहते हैं कि अब पॉल्ट्री फार्म खोलने का मतलब इनमें से किसी न किसी कंपनी के अनुबंध पर काम करना है। एक व्यक्ति ने हंसते हुये कहा-‘अनुबंध माने बंधुआ।’

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बहुत मेहनत का काम है मुर्गी पालन

आजमगढ़ जिले में मुर्गी फार्म चलानेवाले रंजीत कुमार का कहना है कि ‘अब इसमें मज़ा नहीं, सिर्फ मगज़मारी है। मुर्गियों की देखभाल इतनी ज़रूरी है कि हम चौबीसों घंटे के बंधुआ होकर रह गए हैं। कहीं जाना जरूरी ही हो तो किसी न किसी को इसके लिए लगाना पड़ता है। एक फार्म पर अकेला आदमी काफी नहीं है। कम से कम दो या तीन आदमी का काम होता है।’

वह कहते हैं ‘मुर्गियाँ अंधेरे में नहीं रह सकतीं इसलिए चौबीस घंटे बिजली की जरूरत होती है। कटौती के समय वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ती है। इसी तरह अगर पानी की उपलब्धता में जरा भी दिक्कत हुई तो मुर्गियाँ मर सकती हैं। वे एक जगह इकट्ठा होकर एक दूसरे पर चढ़ न जाएँ इसके लिए उन्हें लगातार छितराना पड़ता है। एक जगह इकट्ठा होने से वे दब कर मर सकती हैं। इनमें से कुछ भी हो घाटा हमेशा किसान को ही उठाना पड़ता है।’

पूर्वांचल के अनेक मुर्गी पालकों ने बताया कि ‘अब हम बड़ी कंपनियों के मजदूर भर हैं। चूजे और चारे पर उनका ही आधिपत्य है लेकिन फार्मों के निर्माण और पालने की ज़हमत से उनका वास्ता नहीं है। वे यह काम हमसे कार्वा रही हैं और हमारी मजदूरी यह है कि हमारे सामने और कोई विकल्प नहीं है। अगर हम काम बंद करते हैं तब भी हमें घाटे और कर्ज़ के दलदल में जाना पड़ेगा। अगर उत्पादन में कोई गड़बड़ी होती है तब कंपनियाँ हमें ब्लैकलिस्ट कर देंगी और हमें यह काम छोड़ना पड़ेगा।

कोरोना काल में सिक्का बदल गया

आजमगढ़ निवासी किसान नेता वीरेंद्र यादव अपनी आजीविका के लिए खेती करते हैं। कई साल तक उन्होंने पॉल्ट्री फार्म चलाया लेकिन कोरोनाकाल में काफी घाटा उठाकर उन्हें यह काम बंद करना पड़ा।  उन्होंने बताया कि इस काम में कोरोना से पहले एक स्वायत्तता थी और अच्छा-खासा मुनाफा निकल आता था लेकिन इस दौर में कंपनियों ने चारा देना बंद कर दिया। दूसरा धक्का तब लगा जब यह अफवाह फैली कि मुर्गियों से कोरोना फैल रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि एकाएक खपत बंद हो गई और सब कुछ ब्लॉक हो गया।’

वीरेंद्र यादव कहते हैं –‘ पूरे फार्म में मुर्गियाँ थीं लेकिन उनके उपभोक्ता न थे। यहाँ तक कि मैंने ऐलान कर दिया कि फ्री में ले जाओ लेकिन डर के मारे लोगों ने एक भी न लिया। मुझे साथ लाख से ज्यादा का घाटा उठाना पड़ा और एक तरह से मेरी कमर ही टूट गई। आखिरश मुझे वह सब बंद करना पड़ा।’

बनारस के कोइरान गाँव में पॉल्ट्री फार्म चलाने वाले मनोज सिंह तीस साल से यह काम कर रहे हैं लेकिन इधर के वर्षों में उन्होंने इसमें आई गिरावट को लेकर क्षोभ व्यक्त किया। उनका कहना है कि अब पॉल्ट्री फार्म को लेकर कोई चार्म नहीं रह गया है। रोजगार का कोई विकल्प नहीं है इसलिए एक रूटीन में यह भी चल रहा है।

मनोज सिंह कहते हैं इसमें यह भी नहीं है कि इस कंपनी से मामला नहीं सेट हुआ तो दूसरे के साथ सेट हो गए। सब जगह एक ही रेट है क्योंकि बाज़ार पर उन्हीं का कब्जा है। उनसे लड़कर बहुत दूर तक कोई नहीं चल सकता।

इसके उलट मिर्ज़ापुर के मुर्गीपालक सुभाष कहते हैं कि अगर बहुत बड़ी एकता हो तो दाम बढ़ाने के लिए लड़ा जा सकता है लेकिन सभी की अपनी-अपनी सीमा और समस्याएँ हैं। फिर भी यह कभी न कभी तो बदलेगा।

वीरेंद्र यादव

पॉल्ट्री फार्म चलानेवालों की दिक्कतों का कोई अंत नहीं है। शहंशाहपुर के एक पॉल्ट्री संचालक कहते हैं ब्रायलर मुर्गों की बढ़त में चालीस दिन लगते हैं। इसको आप अस्सी कार्यदिवसों में विभाजित कर दीजिये। होना तो 120 कार्यदिवस चाहिए। फिर भी अस्सी ही मान लीजिये। और तीन लोगों की टीम ने साठ से अस्सी कुंटल माल पैदा किया तो जोड़ लीजिये कुल कितना हुआ? किसी को भी सात-आठ हज़ार रुपये से अधिक नहीं मिलेगा। पानी, बिजली और ज़मीन का खर्चा जोड़ लीजिये तब हम भिखारी से भी गए गुजरे हो जाते हैं। इस पर भी हमें कंपनी की शर्तों पर काम करना होता है।

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सरकारी योगदान का मिथक

किसी भी राज्य सरकार की आधिकारिक वेबसाइट पर जाइए तो ऐसा लगता है गोया सरकार पॉल्ट्री फार्म चलाने वालों के लिए पलक पांवड़े बिछाए बैठी है। कथित रूप से मुर्गी पालन के लिए सरकार 9 लाख रुपये तक का लोन देती है। इसके अलावा, सामान्य वर्ग के लिए 25 प्रतिशत और अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए 33 प्रतिशत तक की सब्सिडी भी मिलती है। कुछ राज्य सरकारें तो मुर्गी पालन योजना के तहत, फ़ार्म खोलने के लिए 3 से 40 लाख रुपये तक की आर्थिक सहायता देती हैं।

सरकारी सहायता पाने के लिए जो मानक निर्धारित किए गए हैं उसके अनुसार आवेदक 10 हज़ार मुर्गियों से पॉल्‍ट्री लेयर फ़ार्मिंग करने के लिए 10 से 12 लाख रुपये का इंतज़ाम करना होगा। 1000 चिक्स के साथ शुरुआत करने के लिए 1200 वर्ग फ़ुट का शेड बनवाना पड़ेगा जिसकी लागत 1,50,000 से लेकर 1,80,000 रुपये होगी। इसी तरह के अन्य मानकों की पूर्ति होने पर सरकारी सहायता पाई जा सकती है।

लेकिन वास्तविकता के धरातल पर इसमें काफी कंट्रास्ट है। वीरेंद्र यादव कहते हैं कि सरकार का प्रचार केवल हाथी के दाँत हैं। धरातल पर उसकी कीमत एक पैसा नहीं है।

वह कहते हैं ‘सरकार ने मुर्गी पालकों को सब्सिडाइज़ चारा तक तो दिया नहीं और किस बात की उम्मीद करें। लाखों रुपये लगाकर पॉल्ट्री फार्म शुरू करते हैं लेकिन अगर बाज़ार और चारे पर हमारा अख़्तियार होता तो हमारी स्थिति कंपनियों के बंधुआ की न होती। बल्कि आज जो भी हालात हैं उसके लिए सरकार की नीतियाँ ही जिम्मेदार हैं।’

चारे-पानी और रखरखाव में बेहिसाब मशक्कत

पॉल्ट्री फार्म बहुत मशक्कत और कौशल का काम है। इसका खर्च भी क्रमशः बढ़ता जाता है। उनके उचित रख-रखाव पर बारीकी से ध्यान देना होता है। पानी की पर्याप्त व्यवस्था करनी होती है। 1 ब्रॉयलर मुर्गा 1 किलो दाना खाने पर 2-3 लीटर पानी पीता है। गर्मियों में पानी दोगुना हो जाता है। मुर्गियों और चूजों को सुखी जमीन में रखना अनिवार्य है अन्यथा जगह गीली होने से उनके बीमार होने का खतरा बढ़ जाता है।

अच्छी पैदावार के लिए उत्तम चारा और चारे का कुशल का प्रबंधन बेहद जरूरी है। जो चारा दिया जा रहा है उसमें सभी जरूरी पोषक तत्व यानी कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन, मिनरल्स और विटामिन्स शामिल होना चाहिए। नियमित पोषक तत्वों के अलावा अलग से कुछ और बेहतर पोषक तत्व देने की जरूरत पड़ती है  जिससे खाना ठीक से पच सके और उनका जल्दी से विकास हो सके।

ज्यादा विकास के लिए चूजों को अलसी और मक्का दिया जाना चाहिए। ठीक से खाना देने पर एक चूजे को 1 किलो वजन करने में लगभग 40-45 दिन लग सकते हैं। वजन बढ़ाने के लिए खाने का विशेष ध्यान रखना पड़ता है।

खाने के बाद बीमारियों से सुरक्षा दूसरा महत्वपूर्ण काम है। आमतौर पर मुर्गियों में रानीखेत अथवा न्यू कैसल सबसे खतरनाक बीमारियों में है। पैरामाइक्सो वायरस की वजह से यह बीमारी होती है। यह एक संक्रामक रोग है, जो मुर्गी पालन के लिए अत्यधिक घातक है। इसमें मुर्गियों को सांस लेने में परेशानी होती है और उनकी मौत हो जाती है। संक्रमित होने पर मुर्गियां अंडा देना भी बंद कर देती हैं।

बर्ड फ्लू मुर्गियों और दूसरे पक्षियों में होने वाली एक घातक बीमारी है। यह बीमारी इन्फ्लूएंजा-ए वायरस की वजह से होती है। एक मुर्गी में संक्रमण होने से दूसरी मुर्गियां भी बीमार पड़ने लगती हैं। इसका वायरस संक्रमित मुर्गी की नाक व आंखों से निकलने वाले स्राव, लार और बीट में पाया जाता है। मुर्गी के सिर और गर्दन में सूजन आ जाती है। अंडे देने की क्षमता कम हो जाती है। मुर्गियां खाना-पीना बंद कर देती हैं और तेज़ी से मरने भी लगती हैं।

एक अन्य संक्रामक बीमारी में मुर्गियों में छोटी-छोटी फुंसियां हो जाती हैं। आंख की पुतलियों और सिर की त्वचा पर इन्हें आसानी से देखा जा सकता है। यह भी एक वायरस जनित रोग है, जिसका संक्रमण तेज़ी से फैलता है। इसके होने पर आंखों से पानी बहने लगता है। सांस लेने में परेशानी होती है, मुर्गियां खाना-पीना कम कर देती हैं। अंडे देने की क्षमता में कमी आती है। मुंह में छाले पड़ जाते हैं। संक्रमण बढ़ने पर मुर्गियों की मौत भी हो जाती है।

इन बीमारियों के बचाव और इलाज के सही समय पर वैक्सीनेशन कराना तथा दूसरी दवाइयों का प्रबंध करना पड़ता है। कुल मिलाकर मुर्गी पालन बहुत मशक्कत और कौशल का काम है। इसीलिए पॉल्ट्री फार्म चलाने वालों में असंतोष है कि इतनी मेहनत के बावजूद उन्हें कोई खास फायदा नहीं होता।

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जो कंपनियाँ चिकन उद्योग पर आधिपत्य जमाये हुये हैं

फिलहाल भारत के चिकन बाज़ार पर पूरी तरह से कुछ बड़ी कंपनियों का संगठित कब्जा है और बहुत छोटे स्तर पर उत्पादन करने और बेचने वालों का दायरा लगता सिमटता जा रहा है। इनमें सुगुना फ़ूड्स भारत की सबसे बड़ी ब्रॉयलर उत्पादक कंपनी है। यह दुनिया की शीर्ष 10 पॉल्ट्री कंपनियों में शामिल है। बताया जाता है कि सगुणा पॉल्ट्री फार्म 40000 से अधिक मुर्गी उत्पादकों के साथ अनुबंध पर उत्पादन कराती है। सुगुना फ़ूड्स एक पॉल्ट्री फ़ार्म से शुरू हुई थी जो आज देश के 21 राज्यों तक फैल चुकी है। कंपनी की वेबसाइट के मुताबिक पिछले 40 वर्षों में, सुगुना फूड्स 9380 करोड़ रुपये से अधिक के टर्नओवर वाली कंपनी बन गई है।

आईबी ग्रुप भारत में पोल्ट्री उद्योग में काम करने वाला एक समूह है जो हैचरी, ब्रॉयलर और लेयर ब्रीडिंग, पॉल्ट्री रोग निदान और पशुधन चारा बेचने जैसे कार्यों में शामिल है। आईबी ग्रुप के पास यूपी का सबसे बड़ा पॉल्ट्री फ़ीड प्लांट और हैचरी यूनिट है।

अपनी प्रचार सामग्री में आईबी ग्रुप का दावा है कि आईबी ग्रुप प्रौद्योगिकी और नवाचार के ज़रिए पॉल्ट्री उद्योग को बदल रहा है। यह अपने संबद्ध किसानों को बेहतर सेवाएं देने के लिए प्रतिबद्ध है। यह यूपी में युवा और नए पोल्ट्री किसानों को व्यावसायिक अवसर और तकनीकी सहायता देता है।

गूगल पर 14 Aug 2024  को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कंपनी फार्म जगहों के लिए कम से कम पालन शुल्क 8 रुपये प्रति किलोग्राम है, जबकि आईबी ग्रुप ने उन्हें 13.25 रुपये प्रति किलोग्राम का भुगतान किया।

वेंकीज़ की स्थापना 1971 में हुई थी और अब इसकी भारत भर में महत्वपूर्ण उपस्थिति है तथा यह केएफसी सहित देश के अनेक फास्ट-फूड रेस्तरां को आपूर्ति करता है।

रेणुका पॉल्ट्री फार्म एक प्रमुख कंपनी है, जिसे फसल और पशु उत्पादन, शिकार और संबंधित सेवा गतिविधियों में उप-वर्गीकृत किया गया है और यह मुख्य रूप से अंडों के उत्पादन में लगी है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में रेणुका पॉल्ट्री फार्म को माइक्रो उद्यम के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

फ़ीनिक्स पॉल्ट्री मध्य प्रदेश के जबलपुर में स्थित एक पॉल्ट्री फार्म है। यह लेयर और ब्रॉयलर चूज़ों, पक्षियों, और अंडों का उत्पादन करती है। इसकी स्थापना 1972 में हुई थी। इसके पास एक फ़ीड फ़ैक्ट्री भी है। इसका उत्पादन कैप्टिव रूप से इस्तेमाल किया जाता है और खुले बाज़ार में भी बेचा जाता है। यह मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लेयर बीवी 300 पक्षियों के लिए वेंकटेश्वर हैचरी प्राइवेट लिमिटेड की एकमात्र फ़्रैंचाइज़ी है।  पोल्ट्री फ़र्म में मुर्गियों, टर्की, बत्तख, और गीज़ जैसे पालतू पक्षियों को पाला जाता है। इन जानवरों को उनके मांस और अंडों के लिए पाला जाता है।

उत्पादन और वितरण व्यवस्था पर कंपनियों का एकाधिपत्य

कंपनियों ने पूरी उत्पादन और वितरण प्रणाली को अपने कब्जे में कर रखा है। किसानों को कंपनियों से ही चारा और चूजे खरीदने की बाध्यता है। इसके अलावा दवाइयों और टीकों पर भी कंपनियों का ही एकाधिपत्य है। कई बार फायदा उठाने के लिए कंपनियाँ मानव जीवन के लिए खतरा भी पैदा कर देती हैं।

पिछले साल द हिन्दू में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक द हिन्दू और ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिज्म (टीबीआईजे) ने खुलासा किया कि प्रमुख पॉल्ट्री कंपनी वेंकीज़ पोल्ट्री उत्पादक एंटीबायोटिक्स को इस तरह बढ़ावा दे रही है जो दवा प्रतिरोधी संक्रमणों के प्रसार में योगदान देनेवाला है।

वेन्कीज़ की वेबसाइट पर उत्पाद सूची में कहा गया है कि टायलोमिक्स का उपयोग मांस के लिए पाले जाने वाले मुर्गों के विकास को बढ़ावा देने के लिए किया जा सकता है और कहा गया है कि इसे ‘प्री-स्टार्टर’ चरण में भोजन में शामिल किया जाता है।

चूजों के विकास को बढ़ावा देने के लिए वेन्कीज़ द्वारा बेचा जानेवाला एक अन्य औषधीय फ़ीड एमो-प्रीमिक्स है। इस उत्पाद में एमोक्सिसिलिन होता है, जो मनुष्यों के इलाज के लिए नियमित रूप से इस्तेमाल की जाने वाली दवा है और डब्ल्यूएचओ द्वारा मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण औषधि के रूप में वर्गीकृत की गई है।

यूरोपीय संघ और अमेरिका में मांस, वजन या आकार को बढ़ाने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं के उपयोग पर प्रतिबंध है। अपवादस्वरूप मामलों को छोड़कर यूरोपीय संघ में भी एंटीबायोटिक के उपयोग पर प्रतिबंध है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने वृद्धि को बढ़ावा देने और निवारक उपयोग दोनों के लिए एंटीबायोटिक के उपयोग का विरोध किया है क्योंकि वे मनुष्यों में संक्रमण के उपचार के दौरान दवाओं की प्रभावशीलता को कम कर सकते हैं।

सवाल उठता है

इन सभी कंपनियों का सालाना टर्नओवर 50 हज़ार करोड़ के आसपास या उससे अधिक हो सकता है, लेकिन इसका लाभ केवल मुट्ठी भर लोगों तक ही सीमित है। बुनियादी उत्पादक लगातार आर्थिक तंगी झेलने और घाटा उठाने के लिए मजबूर हैं।

एक सवाल यह भी उठता है कि इतना बड़ा उद्योग होने के बावजूद बहुत सीमित लोगों को रोजगार मिल पा रहा है। रेट कम होने के कारण अधिक लोग इसमें इसलिए नहीं लगते क्योंकि कमाई का कोई आकर्षण नहीं है। मुर्गी उत्पादकों की मांग है ही उन्हें खुले बाज़ार में अपना माल बेचने की स्वतन्त्रता हो या उनके रेट में वृद्धि हो।

पूर्वांचल के मुर्गी उत्पादक चाहते हैं कि सरकार उन्हें सब्सिडाइज़ चारे के अलावा दूसरी अन्य सहूलियात दे जिससे वे अपने काम को अत्यधिक मन लगाकर कर सकें और कंपनियों के शोषण से बच सकें। उनका मानना है कि इस प्रकार देश की अर्थव्यवस्था में हमारा सीधा योगदान होगा।

उनका कहना है कि अगर मुर्गी उत्पादक कंपनियों के दायरे बाहर एक स्वतंत्र उत्पादक होंगे तो बड़ी संख्या में रोजगार का सृजन हो सकेगा। अगर अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए कंपनियाँ हमारा शोषण करेंगी तो हम स्वयं ही कमजोर हालत में रहेंगे। ऐसे में अन्य को रोजगार देना बहुत अधिक संभव नहीं है।

मुर्गी उत्पादकों को कंपनियों की कड़ी अनुबंध शर्तों को मानने की बाध्यता बन चुकी है। यह एक तरह से पूरी तरह उनका गुलाम होकर रह जाना है। अगर वे इससे मुक्त होने की कोशिश करेंगे तो उन्हें इस काम से बाहर जाना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में घाटे और कर्ज का एक बड़ा बोझ उनके सिर पर बना रह जाएगा।

मुर्गी उत्पादक राज्य और केंद्र सरकार से यह उम्मीद कर रहे हैं कि उसकी नीतियाँ हमारे अनुकूल हों और हमें अपना उद्योग चलाने के लिए जरूरी सहयोग मिले। अब सवाल उठता है कि क्या सरकार ऐसा करने की कोई मंशा रखती है?

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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