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ग्राउंड रिपोर्ट

फिल्मों में वैसे ही जाति-गौरव बढ़ रहा है जैसे अर्थव्यवस्था और राजनीति में सवर्ण वर्चस्व

किसी जमाने में 'साहब बीवी और गुलाम' जैसी फिल्मों ने ढहते हुये सामंतवाद का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जिससे लगता था कि अब यह बीते जमाने की बात होने वाला है। हालाँकि इसके पीछे उनकी डूबती हुई अर्थव्यवस्था सबसे प्रमुख कारण था। चीजें और स्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं। ऐसा लगता था कि अब कमानेवाला खाएगा और लूटनेवाला जाएगा लेकिन हाल के दशकों में इसे मुड़कर देखने की जरूरत आ पड़ी है। मेहनतकश समुदायों के लिए स्थितियाँ लगातार बद से बदतर होती गई हैं। देश में मजदूर विरोधी कानून लगातार बने और अधिकारों का संघर्ष धूमिल होने लगा। इसके बरक्स राजनीति और अर्थव्यवस्था में ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ मजबूत होता गया। जातिवादी सामाजिक सोपान पर जिन जातियों को ढहते हुये सामंतवाद के साथ ध्वस्त होते जाने का अनुमान था उन्होंने अपनी सामाजिक एकता को फिर से मजबूत कर लिया और पैसे कमाने के नए-नए ढर्रों में अपने-आप को ढाल लिया। सरकारी और गैर सरकारी ठेकों और विभिन्न एजेंसियों के हासिल करने से मजबूत हुई अर्थव्यवस्था ने उन्हें राजनीतिक ताकत हासिल करने को प्रेरित किया और इस प्रकार अपराध और राजनीति का एक दबंग रूप सामने आया। ज़ाहिर है इसका असर सिनेमा में भी व्यापक रूप से हुआ और पर्दे पर जातीय दंभ और हेकड़ी की एक भाषा ही हावी होती गई। भूमंडलीकरण के बाद इसमें पर्याप्त इजाफा हुआ। प्रकाश झा, तिग्मांशु धूलिया और अनुराग कश्यप जैसे हिन्दी प्रदेश के निर्देशकों की फिल्मों में दिखाई गई जातीय प्रस्थिति, भाषा और कार्य-व्यापार चाहे जितने मौलिक और रचनात्मक बताए जा रहे हों लेकिन इनके निहितार्थों पर ठहर कर सोचना जरूरी है। जाति के मसले पर जाने-माने कवि और सिनेमा के गंभीर अध्येता राकेश कबीर के लंबे लेख की अंतिम और समापन कड़ी।

महिला पहलवानों का धरने पर बैठना और कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पर कार्यवाही होना, उनको टिकट न मिलना दिखाता है कि खेल संघों पर किस तरह राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोग काबिज होकर खिलाड़ियों के हितों और उनके प्रदर्शन को प्रभावित करते हैं। यह वास्तविकता है जिसे हम सभी जानते-समझते हैं। फिल्मकारों ने भी इन विषयों को अपनी फिल्मों में उठाया है। भारतीय समाज की सच्चाइयों को दिखाने की अनुराग कश्यप की अपनी स्टाइल है। गुलाल फिल्म में उन्होंने जमींदारों (ठाकुर जाति) की ढहती-बिगड़ती स्थिति और जातीय गर्व की भावना से नए गुट बनाकर उन्हें एकजुट करने की पूरी डायनमिक्स, विभिन्न गुटों के बीच अपने वर्चस्व को लेकर होने वाले विवादों एवं हिंसा को परदे पर चित्रित करने का काम किया। अनुराग कश्यप ने शूल (1999) फिल्म का संवाद लिखा था। सन 2003 में प्रकाश झा की फिल्म गंगाजल  आई थी। इन दो फिल्मों ने कैमरे को बिहार की राजनीति पर केंद्रित कर यादव टाइटल वाले खलनायकों को बॉलीवुड में प्रस्तुत किया। देश की जनता/दर्शकों और भारतीय राजनीति पर इन फिल्मों का गंभीर एवं दूरगामी असर हुआ। अनुराग ने बिहार, राजस्थान, गुजरात और पंजाब के विवादित राजनीतिक मुद्दों पर फिल्में बनाईं।

मुक्काबाज फिल्म उत्तर प्रदेश के दो शहरों बरेली और बनारस के लोकेशन पर केंद्रित करके खेल संघों की गंदी राजनीति और जातिवादी सोच को सामने लाने का काम करती है।

संजय कुमार (रवि किशन शुक्ल) बनारस में रहने वाले एक दलित हैं जो मुक्केबाजी के कोच भी हैं। श्रवण कुमार सिंह (विनीत कुमार सिंह) एक युवा मुक्केबाज है और जाति से सवर्ण है, जो खेल संघ माफिया भगवान दास मिश्रा (जिम्मी शेरगिल) की गूंगी भतीजी सुनयना मिश्रा से प्रेम करता है। भगवान दास इस प्रेम संबंध के खिलाफ है और किसी भी तरह श्रवण के मुक्केबाजी के कैरियर को खत्म करना चाहता है। कोच संजय कुमार जब श्रवण की मदद करता है तो भगवान दास के गुर्गे उसे बेरहमी से पीटते हैं जिससे वह अपाहिज हो जाता है। रेलवे में खेल कोटे से नौकरी करने के दौरान श्रवण कुमार अपने अधिकारी कृष्णकांत यादव का कॉलर पकड़कर अपमानित करता है और मारने की धमकी देता है।

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हम देखते हैं कि यादव जी के पैंट के नीचे से पेशाब बहकर फर्श पर बहती है। शूल  फिल्म के संवाद लेखक को इस बिरादरी से शायद चिढ़-सी है। पूरी फिल्म में खेल माफिया भगवान दास की अकड़ और जातीय अहंकार का वर्चस्व दिखता है। गरीब परिवार से आने वाला श्रवण कुमार सिंह भी इतना आक्रामक है कि सबसे भिड़ने और मारपीट करने को हमेशा तैयार रहता है। यही जातीय स्तरीकरण पर आधारित भारतीय समाज की सच्चाई है कि कुछ लोगों का मनोबल बहुत ऊंचा रहता है जबकि कमजोर पृष्ठभूमि के लोगों का मनोबल कमजोर होता है।

फिल्म में ब्राह्मण और क्षत्रिय पात्रों के बीच अन्तर्जातीय संघर्ष चलता रहता है बाकी चरित्र तो उनसे मार खाने या दबाए जाने के लिए चित्रित किये गए प्रतीत होते हैं। फिल्म के एक दृश्य में दलित कोच संजय कुमार और सवर्ण कोच भगवान दास मिश्रा की मुलाकात होती है तो एक दूसरे से जान पहचान की बातचीत कैसे करते हैं देखिए और समझिए:

भगवान दास -तुम्हारा नाम क्या है ?

उत्तर -संजय कुमार

भगवान दास -संजय कुमार क्या ? ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ?

संजय कुमार – ‘हरिजन’

हरिजन शब्द सुनते ही भगवान दास पानी का गिलास वापस करके दूसरा पानी का गिलास ऑर्डर करता है। अनुराग कश्यप ऐसी सामाजिक परंतु कटु सच्चाइयों को अपनी फिल्मों में बेहिचक प्रस्तुत करते हैं। फिल्म का यह दृश्य यह बताने के लिए पर्याप्त है कि सवर्ण आदमी अपने बराबर की योग्यता और पद रखने वाले दलित व्यक्ति के साथ किस तरह अपमानजनक व्यवहार करता है।

फिल्म मुक्काबाज़  एक निराशाजनक भाव लेकर आती है। जैसे यथास्थितिवाद बना रहेगा और भारतीय समाज में पिछड़े और दलित लोगों की सामाजिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं घटित हो सकता। फिल्म के क्लाइमैक्स पर भगवान दास मिश्रा, सुनयना मिश्रा और श्रवण कुमार सिंह शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए आपस में एक समझौता करते हैं। श्रवण कुमार अपने प्रेम के लिए मुक्केबाजी का कैरियर छोड़ देता है और भगवान दास के चरण छूकर आशीर्वाद लेता है। मतलब वर्ण व्यवस्था पुनर्स्थापित हो जाती है। अनुराग कश्यप इस फिल्म में क्या दिखाना चाहते हैं वही जानें लेकिन अपनी समझ में यही बात आती है कि उनके अनुसार परिवर्तन संभव नहीं। उनके पात्र जातीय पहचान पर बहुत जोर देते हैं।

इसी भारत देश में महिला पहलवानों ने कुश्ती संघ के अध्यक्ष को कुर्सी छोड़ने पर मजबूर किया और वे लोकसभा चुनाव भी नहीं लड़ पाए। सही मुद्दों और संवैधानिक तरीकों से किये गए संघर्ष से परिवर्तन संभव है इसे स्वीकार करना होगा।

सामाजिक न्याय के मुद्दों पर भारत में लगातार संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। सत्ता और संसाधनों के पुनर्वितरण के मुद्दे पर साधनसम्पन्न और वंचित वर्गों में रस्साकस्सी चलती रहती है। अनुराग कश्यप की फिल्मों में दिखाये गए इन संघर्षों और उनके निराशाजनक परिणामों से हताश होने की जगह सतर्क होकर अपनी लड़ाई लड़ने की जरूरत है क्योंकि संवैधानिक तरीकों से धीमे ही सही आजादी के बाद वंचित-शोषित तबकों को बहुत कुछ हासिल हुआ है।

लोग अपने अधिकारों के प्रति इतने जागरूक हैं कि माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘एससी एसटी अत्याचार निरोधक एक्ट 1989’ के प्रावधानों में परिवर्तन करने के आदेश के खिलाफ 2 अप्रैल 2018 को एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन हुआ जिसके प्रभाव ने सरकारों को सोचने को मजबूर किया कि अब दलित वर्ग के अधिकारों में बिना उनकी सहमति के कटौती नहीं की जा सकती। आज उनके हाथ में साहित्य, राजनीतिक समझ के साथ ही सोशल मीडिया का ऐसा हथियार है जिसके माध्यम से वे बड़े आंदोलनों को आयोजित कर सड़क पर उतरकर जबरदस्त प्रदर्शन कर सकते हैं।

भारतीय समाजशास्त्र के कई विद्वान यह मानकर चलते हैं कि जाति व्यवस्था का अस्तित्व अब समाप्त हो चुका है दीपांकर गुप्ता उनमें सबसे आगे हैं जो अपने एक लेख Whither the Indian village: Culture and Agriculture in Rural Indiaमें लिखते हैं, बंद गांव की अर्थव्यवस्था के टूटने और लोकतांत्रिक राजनीति के उदय के साथ, जाति में अंतर्निहित प्रतिस्पर्धी तत्व सामने आ गया है। इसके परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था का पतन हुआ है, लेकिन जातिगत पहचानों का उदय भी हुआ है… जातिगत पहचान, व्यवस्था नहीं, जातिगत राजनीति को आधार प्रदान करती है और उसे सूचित करती है। यह दृष्टिकोण धीरे-धीरे मानवविज्ञानियों के बीच जगह बना रहा है, जो अब जातिगत पहचानों की पृथक प्रकृति और परिणामस्वरूप कई पदानुक्रमों के टकराव को स्पष्ट रूप से स्वीकार करने लगे हैं।(गुप्ता 2005)।

लेकिन हमारा मानना है कि जाति एक व्यवस्था के रूप में और गाँव एक समुदाय के रूप में न समाप्त हुई है न निकट भविष्य में ऐसा होने की कोई संभावना है, इसके साथ ही जातिवाद का दर्शन शहरों में भी स्पष्ट रूप से होता है। लोग अपनी जातीय पहचान को लेकर सजग हुए हैं और अपने जाति पर शर्म की जगह गर्व का भाव उत्पन्न हुआ है जो कि एक सकारात्मक संकेत है। लोग अपनी इच्छा अनुसार पेशे का चुनाव करते हैं और अपनी मर्जी के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर नौकरियां करते हैं। इसमें दूसरे की इच्छा और बाहरी दबाव का प्रभाव कम या समाप्त हो चुका है।

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गिरमिटिया बनाम न्यू डायसपोरा : जातीय गौरव के साथ मुनाफे की जुगलबंदी

भारत और दुनिया के लिए नब्बे का दशक कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों को लेकर आया। उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को भारतीय अर्थव्यवस्था में लागू किया गया। पूंजी और श्रम का पूरी दुनिया में बिना रोक टोक के प्रवाह बढ़ा। राष्ट्र-राज्य की सीमाएं अर्थहीन हो गईं। संचार और सूचना प्रौद्योगिकी ने पूरे विश्व को ग्लोबल विलिज में बदल दिया। इसी वातावरण में भारतीय फ़िल्मकारों ने प्रवासी भारतीयों को लक्षित करते हुए उनके जीवन और कहानियों को केंद्र मे रखकर फिल्में बनानी आरंभ की। बॉलीवुड ने सबसे पुराने प्रवासियों गिरमिटिया को छोड़कर उच्च शिक्षित/उच्च जातीय समाज से आने वाला न्यू डायसपोरा, जो आजादी के बाद अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और आस्ट्रेलिया में जाकर बस गया, के ऊपर केंद्रित फिल्में बनाई । यह डायसपोरा मुख्यतः पंजाब और गुजरात राज्यों से प्रवास कर विकसित देशों में बसा। इन फिल्मों ने खूब व्यवसाय भी किया।  फ़िजी, मारीशस, नीदरलैंड, श्रीलंका और अन्य कैरेबियन कंट्री के डायसपोरा के ऊपर बॉलीवुड ने आज तक कोई उल्लेखनीय फिल्म नहीं बनाई क्योंकि इन देशों मे भारतीय समाज के कमजोर तबकों और जातियों के लोग ठेका मजदूर बनकर अंग्रेजों द्वारा ले जाए गए थे।

अभी बॉलीवुड में छोटे-छोटे शहरों की कहानियों पर फिल्में बनने लगी हैं लेकिन एक बात अभी भी नहीं बदली है। वह यह कि इन फिल्मों के चरित्र अभी भी उच्च जातीय लोग हैं और उनके नामों में शीर्षकों पर बहुत जोर है। सन 1995 के बाद की सफल और बड़ी फिल्मों के नायक, नायिकाओं एवं अन्य चरित्रों के टाइटल्स को ध्यान से अवलोकन करने पर हम पाते हैं कि मेहरा, मल्होत्रा, सिंघानियाँ, चोपड़ा,  शर्मा, कपूर,  शुक्ला,  भार्गव,  दुबे प्रमुख हैं। समाज में अगर कुछ सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं तो उनका वाहक नायक उच्च जाति-वर्ग का ही होगा।

ऐसे में मन में एक सवाल उठता है कि इतने विशाल और विविधता से भरे हुए देश के अन्य नागरिक समूहों का इस देश के निर्माण में कोई योगदान नहीं है क्या? क्या वे बॉलीवुड निर्माता-निर्देशकों की नजर में इग्ज़िस्ट नहीं करते? क्या अन्य समूह केवल दर्शक मात्र है जो टिकट लेकर फिल्में देखकर दूसरों की जेब तो भरते रहे लेकिन उनकी कहानियों में नदारद रहें और उनके अस्तित्व को नकारा जाता रहे? क्या जान-बूझकर बहुसंख्यकों के जीवन की मुश्किलों, उपलब्धियों और उनके योगदानों को अनदेखा किया जाता है?

आखिरकार क्या लगता है

साहित्य की भांति फिल्में भी समाज का दर्पण है। हमारे समाज में घटित होने वाली सच्चाइयों को फिल्में रुपहले परदे पर कलात्मक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। हम सभी जानते हैं कि जाति भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण संस्था है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करती है। यदि हम फिल्म उद्योग के निर्माता-निर्देशकों व कलाकारों का जातीय आधार पर विश्लेषण करें तो भारतीय सामाजिक संरचना के अनुसार वहाँ भी उच्च जाति-वर्ग के लोगों का वर्चस्व मिलता है और यही कारण है कि उनकी फिल्मों में दलित, पिछड़े, जनजातीय और अल्पसंख्यकों के मुद्दे बहुत काम उठाए जाते हैं। ये लोग देश की जनसंख्या में बहुसंख्यक हैं और उनसे जुड़े मुद्दों में भारी विविधता है लेकिन दुख की बात है कि सिनेमा में उनके मुद्दे नदारद हैं।

मनोरंजन के लिए ये लोग भी फिल्में देखते हैं, परंतु वंचित बहुसंख्यकों के मुद्दे सिनेमा से गायब से हैं। लिखने और कहने वाले मुंबई और बॉलीवुड को अवसरों और सपनों का शहर और ‘ग्रेट मेल्टिंग पॉट’ इत्यादि कहते हैं लेकिन वास्तविकता में यहाँ भी जातिवाद, रंगभेद, क्षेत्रवाद, और भाई-भतीजावाद जैसी बुराइयाँ मौजूद हैं। पहले कंगना राणावत और अब कोंकना सेन शर्मा (2024) ने खुलकर कहा है कि बॉलीवुड में खूब जातिवाद और भाई भतीजावाद होता है। कंगना तो करण जौहर को मूवी माफिया और नेपोटिज्म का सपोर्टर कहती हैं। लारेंस विश्नोई गैंग के सक्रिय होने और सलमान खान के ऊपर इस बात के कारण हमलावर होने को भी इन्हीं बातों से जोड़कर देखा जा रहा है कि वह कौन होते हैं कि किसी फिल्म में कौन काम करेगा और किसे काम न देकर उसके कैरियर को बर्बाद किया जाएगा। महिला कलाकारों के शोषण पर भी बॉलीवुड में ‘मी टू’ अभियान चलाया जा चुका है।

सौ साल से ज्यादा पुराने बॉलीवुड फिल्म उद्योग की फिल्मों में धार्मिक कथानकों, जाति-वर्ग और सांप्रदयिकता की समस्याओं पर तमाम फिल्में बनीं लेकिन नायक और नायिका की भूमिका में पिछड़े, दलित और आदिवासियों को सम्मानजनक स्थान देकर चित्रित नहीं किया गया। अनिरुद्ध देशपांडे बॉलीवुड फिल्मों की इस प्रवृत्ति पर लिखते हैं-  अधिकांश फिल्मों में नायक गरीब हो सकता है लेकिन आम तौर पर दलित, ईसाई, सिख या मुस्लिम उपनाम वाला नहीं होता और पात्रों के पदानुक्रम ने इसे स्पष्ट रूप से स्थापित किया। (देशपांडे 2007:97)।

हिन्दी फिल्मों में पहली बार कमल हसन अभिनीत फिल्म चाची 420 में नायक के सरनेम में पासवान शब्द का प्रयोग किया गया था जो अपने देश, खासकर उत्तर भारत के एक दलित समुदाय के लोग अपने नाम के साथ लगाते हैं। यद्यपि हिन्दी फिल्मों में दलितों और पिछड़ों का चित्रण किया जाता रहा है लेकिन उनको लीड रोल नहीं दिया जाता है। बॉलीवुड की प्रकृति मूलतः पूंजीवादी रही है जो गरीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों और ग्रामीण जीवन की कहानियों को अनदेखा करता है।

संदर्भ

दामोदरन के. &गोरिंग, ह्यूगो (2017) मदुरई फार्मूला फिल्म्स: कास्ट प्राइड एंड पॉलिटिक्स इन तमिल सिनेमा, इन साउथ एशिया मल्टी डिस्प्लनरी एकेडेमिक जर्नल, द यूनिवर्सिटी ऑफ़ एडिनबर्ग.

देशपांडे, अनिरुद्ध (2007) इंडियन सिनेमा  एंड बुर्जुआजी नेशन स्टेट, इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, वॉल्यूम 42, नंबर 50 (दिसम्बर 15-21) पेज 95- 103.

दुदराह, के (2006) बॉलीवुड: सोशियोलॉजी गोज टूद मूवीज, सेज पब्लिकेशंस, नई दिल्ली.

गुप्ता, दीपांकर (2005) विदर द इंडियन विलेज: कल्चर एंड अगरी कल्चर इन रूरल इंडिया, इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, जनवरी 2005.

 

 

डॉ. राकेश कबीर
डॉ. राकेश कबीर
राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

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