सर्जनात्मकता चाहे ललित कलाओं की हो या लेखन की, लोकप्रियता के अनुबंध को तोड़ कर ही विकसित होती है और आदमी की सोच को विकसित कर पाती है। लोकप्रियता दरअसल एक तरह का बाज़ारवाद है जिसके चंगुल में फसने से इक्के-दुक्के ही बच पाते हैं, बावज़ूद इसके कि बाज़ार विहीन होकर विकास असम्भव है।
लोकप्रियता के विरुद्ध रचा गया सब कुछ एक ख़ास समय और दौर के बाद स्वयं लोकप्रियतावाद का शिकार हो जाता है। हर दौर में लोकप्रियता के अधिनायक्त्व से संघर्ष का ख़तरा मौलिक लेखन उठाता रहा है। लोकप्रियता की तानाशाही सर्जनात्मकता की आज़ादी को ख़तरे में डालती है।
[bs-quote quote=”हमें लोकप्रियता की कमायी और कमायी के लिये लोकप्रियता को ध्यान में रखना होगा। मौलिक सर्जना का प्रत्येक संघर्ष अपने दौर की लोकप्रियता की विरुद्ध खड़ा हो कर ही अपनी अर्थवत्ता साबित करता रहा है। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
लोकप्रियता बनाम लोकप्रियता का मुद्दा तब तक कोई मुद्दा नहीं है जब तक लोकप्रियता बाज़रवाद के संदर्भ में चिन्हित न की जा रही हो। सर्जना की आत्मीयता से उत्पन्न लोकप्रियता और पैसा कमाउ या पद जमाउ उद्देश्य से गढ़ी-खड़ी लोकप्रियता में अन्तर है, जिसे समय और जनता पहचानने में कभी गलती नहीं करती। यही बाज़ार और बाज़ारवाद का अन्तर है।
हमें लोकप्रियता की कमायी और कमायी के लिये लोकप्रियता को ध्यान में रखना होगा। मौलिक सर्जना का प्रत्येक संघर्ष अपने दौर की लोकप्रियता की विरुद्ध खड़ा हो कर ही अपनी अर्थवत्ता साबित करता रहा है। यह बहुत कुछ धारा के विरुद्ध चलने जैसा है। नयी राह निकलने जैसा। मगर नयेपन की खोज का उद्देश्य भी ध्यान में रखना होगा। नया किसलिए, किसके लिए ?
नयापन कहीं नये बाज़ार के लिये तो नहीं ?
देवेंद्र आर्य सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार हैं और गोरखपुर में रहते हैं ।