इश्क में कुछ हासिल करना ही अंतिम लक्ष्य नहीं होता। इश्क में आदमी को खोने के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन इश्क का मतलब यह भी नहीं कि आदमी कुछ हासिल करने का प्रयास ही न करे। इश्क में तो आदमी आग का दरिया भी पार कर जाता है। यही इश्क की परंपरा है और मूल भावना भी। इश्क का यही सिद्धांत जीवन में भी लागू होता है। जीवन का मतलब तभी है जब आप कुछ खोने को तैयार रहते हैं और पाने के लिए संघर्ष करते हैं। रही बात इश्क की तो इसकी परिभाषा हमेशा एक समान नहीं होती। काल और परिस्थितियों के हिसाब से इसकी परिभाषा बदलती रहती है। लेकिन खास बात यह कि हर रूप में इश्क अलहदा होता है। कहने का मतलब यह कि इश्क के जैसा अलहदा कुछ भी नहीं।
एक बात और। केवल इश्क ही नहीं, जीवन के विभिन्न आयामों के संबंध में लोगों को जागरूक बनाने का काम साहित्यकार करते आए हैं। आधुनिक दौर में फिल्में भी साहित्य का हिस्सा हैं। हालांकि अब तो लंबा समय हो गया जब साहित्य पर आधारित कोई नई फिल्म देखी हो। अब तो जब कभी बेहतर साहित्य पर बनाई गई बेहतर सिनेमा देखने का मन करता है तो सिवाय पुरानी फिल्मों के कोई विकल्प नहीं रह जाता।
दरअसल दिल्ली में ठण्ड का आगमन हो चुका है। हालांकि अभी यह अत्यंत ही प्रारंभिक अवस्था में है इसलिए पंखा का सहारा लेना पड़ता है। परंतु, रात के तीसरे पहर या तो मुझे पंखा बंद कर देना पड़ रहा है या फिर ऊनी चादर ओढ़ ले रहा हूं। इस चक्कर में रात के तीसरे पहर जाग जाता हूं। फिर एक बार जगने के बाद नींद आसानी से नहीं आती। उसे मनाने के लिए कहानियां सुनानी होती है। बाजदफा कोई किताब पढ़ने बैठ जाता हूं तो कभी फिल्में देख लेता हूं। हालांकि प्रयास करता हूं कि वही फिल्म देखूं जो छोटी हो और बहुत गंभीर किस्म की न हो कि दिमाग फिल्म की कहानी में ही उलझ जाय। मेरे लिए नींद महत्वपूर्ण है। वह भी कम से कम 8 घंटे की नींद।
[bs-quote quote=”खैर, रात के तीसरे पहर आंखों से अभिनय करने वाली स्मिता पाटिल के बारे में जानकारी मिल जाय तो मन भला कैसे शांत रहता। वैसे भी मुझे रेखा और स्मिता पाटिल सबसे खूबसूरत अभिनेत्री लगती हैं। उनके बाद नंदिता दास प्रभावित करती हैं। रंग इन अभिनेत्रियों के लिए कोई मायने नहीं रखता। स्मिता पाटिल की कई और फिल्में देख चुका हूं। इसलिए यह कह सकता हूं कि मुझे उनके अभिनय से लगाव रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
तो हुआ यह कि रात के तीसरे पहर ठंड लगने लगी और नींद खुल गयी। आलस की वजह से पंखा बंद करने की इच्छा नहीं हुई। कंबल से खुद को ढंक लिया। फिर समय देखने के इरादे से मोबाइल को सक्रिय किया तो फेसबुक पर कुछ नोटिफिकेशन थे। ये नोटिफिकेशन भी अजीब होते हैं। काश फेसबुक नोटिफिकेशन को नियंत्रित करने की सुविधा भी प्रदान करता। कई बार तो अपने ही पोस्ट पर की गई टिप्पणियां बोझिल लगने लगती हैं। अब मैं पत्रकार आदमी हूं तो खबरें तो रहेंगी ही। खबरों को पोस्ट करने पर भी नोटिफिकेशन मिलता है तो अजीब सा लगता है।
खैर, हुआ यह कि फेसबुक पर स्मिता पाटिल के जन्मदिन के गुजर जाने की जानकारी मिली। फिर तो एक चलचित्र जेहन में खुद-ब-खुद चलने लगा। एक सांवली सी अभिनेत्री, जिसने हर तरह का अभिनय किया। उन दिनों जब भैया को दहेज में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी मिली थी, तब स्मिता पाटिल की छवि एकदम अलग दिखती थी। बिल्कुल अपने टाइप की। मेरा रंग भी सांवला है। शायद समरंग होने की वजह से भी स्मिता पाटिल की फिल्में अच्छी लगती थीं। स्मिता पाटिल को शायद मैंने पहली बार मिर्च-मसाला में देखा था। वैसे यह फिल्म तो आयी थी 1987 में और निर्देशक थे केतन मेहता। मैंने यह फिल्म शायद 1999 में देखी। उस दिन रविवार का दिन था। शाम में दूरदर्शन पर इस फिल्म का प्रसारण किया गया था। बाद में 2008 में यह फिल्म मैंने दुबारा देखी। तब एक खास संयोग हुआ था।
खैर, रात के तीसरे पहर आंखों से अभिनय करने वाली स्मिता पाटिल के बारे में जानकारी मिल जाय तो मन भला कैसे शांत रहता। वैसे भी मुझे रेखा और स्मिता पाटिल सबसे खूबसूरत अभिनेत्री लगती हैं। उनके बाद नंदिता दास प्रभावित करती हैं। रंग इन अभिनेत्रियों के लिए कोई मायने नहीं रखता। स्मिता पाटिल की कई और फिल्में देख चुका हूं। इसलिए यह कह सकता हूं कि मुझे उनके अभिनय से लगाव रहा है।
कल रात जब तीसरे पहर नींद गायब थी तो स्मिता पाटिल की फिल्म देखने की इच्छा हुई। यूट्यूब पर सर्च किया तो कई फिल्में मिलीं। अधिकांश देखी हुई फिल्में। पोस्टर देखते ही पूरी कहानी मेरे सामने थी। एक फिल्म के पोस्टर पर मन रूका। यह फिल्म थी- जब्बार पटेल द्वारा निर्देशित सुबह। पूरी फिल्म देख गया। बिना करवट बदले। पटकथा है ही इतनी दमदार कि आदमी करवट क्या बदले। उपर से स्मिता पाटिल का जादुई अभिनय। गिरीश कर्नाड एक पुरूष की भूमिका में शानदार दिखते हैं। पटकथा में उनके द्वारा अभिनीत पात्र वाकई में एक पुरूष पात्र है जो 1970-80 के दशक में समाज में महिलाओं के बारे में प्रगतिशील विचार रखता है लेकिन पुरूष होने का अहंकार भी है।
[bs-quote quote=”कल रात जब तीसरे पहर नींद गायब थी तो स्मिता पाटिल की फिल्म देखने की इच्छा हुई। यूट्यूब पर सर्च किया तो कई फिल्में मिलीं। अधिकांश देखी हुई फिल्में। पोस्टर देखते ही पूरी कहानी मेरे सामने थी। एक फिल्म के पोस्टर पर मन रूका। यह फिल्म थी – जब्बार पटेल द्वारा निर्देशित सुबह। पूरी फिल्म देख गया। बिना करवट बदले। पटकथा है ही इतनी दमदार कि आदमी करवट क्या बदले।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
खैर यह फिल्म गिरीश कर्नाड की नहीं स्मिता पाटिल की फिल्म है। एक बच्ची की मां और एक संपन्न परिवार की बहू सावित्री महाजन (स्मिता पाटिल द्वारा अभिनीत पात्र) एक महिला आश्रम में निरीक्षक का पद स्वीकार कर लेती है। उसने मुंबई के टाटा इंस्टसीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज से अध्ययन किया हुआ है। वह अपने घर में कैद नहीं रहना चाहती। अपने बूते अपनी दुनिया बनाना चाहती है।
महिला आश्रम में उसे बाहर की दुनिया से साबका पड़ता है जिसमें अनेक किरदार हैं। महिला आश्रम की हर महिला की अपनी कहानी है। महिलाएं आपस में झगड़ती हैं तो एक-दूसरे को गंदी गालियां भी देती हैं और जब कोई मुसीबत की घड़ी आती है तो सब एकजुट भी हो जाती हैं।
पटना में मेरे गांव में अनेक बार दृश्य देखे है मैंने जिनमें महिलाएं आपस में झगड़ती हैं और ऐसा करते समय वह तमाम गालियों का उपयोग करती हैं। भतारखौकी से लेकर छिनार और घाट-घाट का पानी पीने वाली तक। कभी-कभार झोंटा-झोंटी के दृश्य भी गांव में देखने को मिला है। लेकिन महिलाएं कोमल हृदय की होती हैं। अधिकांश मौकों पर मैंने पाया है कि झगड़ा के कुछ देर बाद ही वे मंदिर के पास नीम के पेड़ के नीचे एक-दूसरे के बाल से जूं निकाल रही थीं। तब उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता कि ये दोनों कुछ देर पहले झगड़ रही थीं।
खैर सुबह फिल्म का एक दृश्य मेरी कल्पना के परे था। फिल्म की एक पात्र अपनी छह माह की बच्ची की खुद ही हत्या कर देती है ताकि उसे बूढ़े पति के पास वापस न जाना पड़े। अपनी आजादी की इतनी बड़ी कीमत !
फिल्म के एक हिस्से में दो संवासिनें महिला आश्रम से भाग जाती हैं और पुलिस उन्हें वापस ले आती है। इनमें से एक संवासिन इसके पहले एक और दृश्य में सामने आती है। इस दृश्य में सावित्री महाजन (स्मिता पाटिल) उसे एक दुकानदार के साथ सेक्स करते हुए पकड़ लेती है, लेकिन कुछ नहीं कहती। फिल्म का क्लाइमेक्स है भागने वाली एक संवासिन का खुद को जला लेना। लेकिन यह खुदकुशी नहीं थी। यह बदला था भारतीय समाज से जिसने उसे उसका जीवन जीने ही नहीं दिया।
फिल्म का अंत बहुत ही शानदार है। सावित्री महाजन (स्मिता पाटिल) सबकुछ छोड़कर फिर से अपने घर लौट आती है। उसे विश्वास है कि उसका परिवार उसे पूर्ववत अपना लेगा। लेकिन उसकी अपनी बेटी उससे दूर हो गई है। पति (गिरीश कर्नाड) उसकी वापसी से खुश है और रात में सेक्स के बाद उसे बताता है कि उसकी अनुपस्थिति में उसने एक दूसरी महिला से संबंध बना लिया है जिसे वह छोड़ नहीं सकता। सावित्री महाजन (स्मिता पाटिल) रोती है। वह क्यों रो रही है? एकबार मेरे मन में यह सवाल आया। क्या वह इससे वाकिफ नहीं थी कि पितृसत्ता के लिए यह सामान्य बात है।
खैर, अंत सुबह के साथ होती है। वह घर छोड़कर जाना चाहती है। उसका पति उसे रोकता है और लगेज में रखे गए कपड़े वापस आलमारी में रख देता है। प्रतीक के रूप में लगेज का सबसे खूबसूरत उपयोग किया गया है। फिल्म के प्रारंभ में जब सावित्री महाजन (स्मिता पाटिल) नौकरी करने जा रही होती है तब वह आलमारी के उपर रखा लगेज उतार नहीं पाती। तब उसका पति लगेज उतार देता है। फिल्म के अंत में लगेज वह वापस आलमारी पर रख देता है इस विश्वास के साथ कि सावित्री महाजन उसे नहीं उतारेगी और नहीं जाएगी। स्वयं सावित्री भी यही सोचती है। लेकिन वह देखती है कि जिसे वह अपना परिवार मानती है, वह उसके बगैर भी खुश है और अब वह स्वयं एक मेहमान बन चुकी है।
फिल्म के अंतिम फ्रेम में ट्रेन है और ट्रेन में जागी हुई एक नये तरह के इश्क में अलहदा सावित्री महाजन।
खैर, अब सुबह यहां दिल्ली में भी होने वाली है। ठंड की थपकियां मां के मौजूद होने का अहसास दिला रही हैं। मुझे अपनी नींद पूरी करनी है। इश्क करने हैं अपने जीवन में। सोने से पहले स्मिता पाटिल के लिए बस इतना ही कि आप शानदार अभिनेत्री रहीं। बेहद शानदार।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।
बहुत ही बढ़िया लेखन
बहुत बढ़िया आलेख। बधाई।