बाह, आगरा। चंबल के क्रांतिवीर कमांडर इन चीफ गेंदालाल दीक्षित की पुण्यतिथि पर उन्हें शिद्दत से याद किया गया। चंबल संग्रहालय परिवार की तरफ से बाह क्षेत्र के मई गांव में पं. गेंदालाल दीक्षित के राष्ट्रीय स्मारक पर ‘चंबल गाथा’ कार्यक्रम के तहत समारोह आयोजित किया गया था। यहां वक्ताओं ने पं. गेंदालाल दीक्षित के आजादी की लड़ाई में योगदान को याद करते हुए अपने विचार व्यक्त किये। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार शंकर देव तिवारी और अध्यक्षता प्रयाग नरायण शर्मा ने किया।
समारोह को सम्बोधित करते हुए स्थानीय समाजसेवी दिनेश मिश्रा ने कहा कि जल्द ही राष्ट्रीय स्मारक की बाउंड्री, सड़क और उसका नामकरण सहित आजादी के योद्धा गेंदालाल दीक्षित की भव्य प्रतिमा स्थापित की जाएगी। पवन टाइगर ने कहा कि चबंल के क्रांतिवीरों की पुस्तकें छपवाकर, अभियान चलाकर विभिन्न स्कूलों व कॉलेज में चंबल क्षेत्र के नायकों से युवा पीढ़ी को परिचित कराया जाएगा। कवि विनोद साँवरिया ने अपनी मार्मिक कविताओं के जरिये महानायकों के योगदान को रेखांकित किया।
इस दौरान कमांडर इन चीफ गेंदालाल दीक्षित के जीवनीकार और महुआ डाबर एक्शन के महानायक पिरई खां के वंशज डॉ. शाह आलम राना को सम्मानित किया गया। स्मारक पर पुष्पांजलि के बाद दीपों से जगमग किया गया। इस अवसर पर विजितेंद्र गुप्ता,रमेश कटारा,बबलू यादव, रिंकल दीक्षित, राहुल यादव, नरेंद्र भारतीय, कमल किशोर दीक्षित, राम मोहन यादव, दीपक भारतीय, आलोक यादव, विजेंद्र कुमार दीक्षित आदि ने श्रद्धा अर्पित किया।
ऐसा था गेंदालाल दीक्षित का क्रांतिकारी जीवन
जंग-ए-आजादी के दौरान संयुक्त प्रांत के क्रांतिकारियों के बीच ‘मास्साब’ नाम से सुविख्यात गेंदालाल दीक्षित ने न सिर्फ छात्रों और नवयुवकों को स्वतंत्रता की लड़ाई से जोड़ा बल्कि बीहड़ के दस्यु सरदारों में राष्ट्रीय भावना जगाकर उन्हें स्वतंत्रता की लड़ाई के लिए जीवन सौंपने की शपथ भी दिलवाई। इतिहास में उनकी पहचान मैनपुरी षड्यंत्र केस के सूत्रधार, उस दौर के सबसे बड़े सशस्त्र संगठनों शिवाजी समिति व मातृवेदी के संस्थापक-कमांडर के रूप में होती है।
कमांडर-इन-चीफ गेंदालाल दीक्षित और मातृवेदी
बागियों की अमरगाथा पुस्तक के लेखक डॉ. शाह आलम राना ने बताया कि कमांडर गेंदालाल दीक्षित को संगठन में युवाओं व बागियों को जोड़ने के बाद उन्हें राष्ट्र प्रेम की दीक्षा और हथियार चलाने की शिक्षा देने के नाते क्रांतिकारियों का गुरू कहा जाता है। महान क्रांतिकारी पं. रामप्रसाद बिस्मिल को स्वतंत्रता आन्दोलन से जोड़ने व शस्त्र शिक्षा देने का श्रेय भी इन्हीं को है। उन्होंने अलग-अलग प्रान्तों में काम कर रहे क्रांतिक्रारी संगठनों को एकीकृत कर विप्लवी महानायक रास बिहारी बोस की सन् 1915 की क्रांति योजना का खाका खींचा था।
इटावा और आगरा से की पढ़ाई
पं. गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवंबर 1890 को संयुक्त प्रांत के आगरा में बटेश्वर के पास मई गांव में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा गांव में ही हुई और आगे की पढ़ाई उन्होंने इटावा व आगरा में की। स्वतंत्रता आन्दोलन से, वे मिडिल पास करने के बाद ही जुड़ गये थे, जब 1905 में बंग-भंग के विरोध में देशव्यापी आन्दोलन शुरू हुआ था। इसी के चलते वह कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर आगरा से औरैया चले आये और वहां डीएवी स्कूल में पढ़ाने लगे।
जब पहले विश्व युद्ध की आहट हुई तो अधिकतर ब्रितानिया सेना सुदूर मोर्चों पर भेज दी गई। यह अन्य क्रांतिकारियों सहित गेंदालाल दीक्षित के लिए सुनहरा मौका था। उन्होंने प्रांत भर में दौरे शुरू किये। इसी दौरान शाहजहांपुर में उनकी मुलाकात राम प्रसाद बिस्मिल से हुई। बिस्मिल उनसे प्रभावित हुए और संगठन से जुड़ गये। आगरा जनपद के अंतर्गत बाह तहसील के पिनाहट कस्बे के नजदीक चंबल घाटी के बीहड़ों में बिस्मिल सहित और क्रांतियोद्धाओं को गुरिल्ला प्रशिक्षण दिया गया।
इन क्रांतिकारियों के संपर्कों के सहारे उन्होंने पंजाब, महाराष्ट्र, दिल्ली, राजपूताना और बंगाल के क्रांतिकारी संगठनों को एक सूत्र में पिरोया। रासबिहारी बोस ने 21 फरवरी 1915 जिस महान क्रांति की तैयारी की थी, उसके लिए दीक्षित ने उन्हें 5000 लड़ाके देने का वादा किया था। हालांकि मुखबिरी के चलते वह क्रांति असफल रही और रासबिहारी को देश छोड़ना पड़ा। इसके बाद गेंदालाल सिंगापुर गए और गदर पार्टी के नेताओं से मिलकर तख्तापलट की रणनीति बनाई।
सिंगापुर से वापस आकर उन्होंने बिस्मिल सहित कई बड़े क्रांतिकारियों के साथ 1916 में मातृवेदी दल की स्थापना की। मातृवेदी के कमांडर स्वयं गेंदालाल दीक्षित थे, इसका अध्यक्ष दस्युराज पंचम सिंह को बनाया गया और संगठन की जिम्मेदारी लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी को दी गई। दल को चलाने के लिए 40 लोगों की केंद्रीय समिति बनी जिसमें 30 चंबल के बागी और 10 क्रांतिकारी शामिल थे। इन 10 क्रांतिकारियों में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और प्रताप समाचार पत्र के पत्रकार शिव चरण लाल शर्मा भी शामिल थे।
दल का गठन पूरी तरीके से गोपनीय रखा गया था और इसमें शामिल होने के लिए सैनिकों को मर मिटने की शपथ लेनी होती थी। यह शपथ हाथ में गंगाजल लेकर दीक्षित के सहयोगी क्रांतिकारी देवनारायण भारतीय दिलाते थे। उनका नारा था, भाइयों आगे बढ़ो फोर्ट विलियम छीन लो, जितने भी अंग्रेज सारे एक-एक कर बीन लो। मातृवेदी के इन मतवालों के उद्घोष से वीरान पड़े चंबल के बीहड़ गूंज उठे, लेकिन इसकी भनक ब्रितानी सत्ता तक न पहुंचने दी गई।
मातृवेदी दल के पास एक व्यवस्थित वर्दीधारी सेना थी, इसमें बड़ी संख्या में बीहड़ों के डाकू शामिल थे। सैनिकों को वेतन दिया जाता था। उस समय दल की सेना में 2000 पैदल सैनिक और 500 घुड़सवार शामिल थे। दल के पास करीब आठ लाख रूपये का कोष संग्रह था। इसका सैन्य मुख्यालय कोंच, जालौन में था।
28 फरवरी से लेकर 2 मार्च 1918 की रात में मुहर लगे पर्चे अंग्रेजों को मार डालो और आजाद रहो संयुक्त प्रांत में दीवारों पर चिपकाये गए थे। इन माटी के लाल को ‘आयरलैण्ड का स्वतंत्रा का इतिहास’ और मातृवेदी द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘अमेरिका को स्वतंत्रता कैसे मिली’ पढ़ने को दी जाती थी। गौरतलब है कि प्रताप अखबार में चंपारण के किसानों की पीड़ा उकेर कर देश का ध्यान खींचने वाले पीर मुहम्मद मुनिस ने अमेरिका का स्वतंत्रता का इतिहास पुस्तक लिखी थी। इसी किताब को आधार बनाकर मातृवेदी साहित्य प्रचार विभाग के प्रमुख पं. देवनारायण भारतीय ने अमेरिका को आजादी कैसे मिली किताब तैयार की थी। इस पुस्तक को रामप्रसाद बिस्मिल ने मां मूलमती से 200 रुपये व्यापार करने के बहाने लेकर मार्च 1918 में छपवाई थी। पुस्तक में सशस्त्र क्रांति के जरिये अंग्रेजी शासन को देश से खदेड़ देने की सीख नौजवानों को दी गई थी। इसकी बढ़ती लोकप्रियता से बौखलाई तत्कालीन संयुक्त प्रांत की सरकार ने इसे 24 सितंबर 1918 को जब्त कर लिया था।
उधर सन 1915 की क्रांति असफल होने के बाद हो रही तख्तापलट की तैयारियों की भनक ब्रितानी सरकार को लग गई। इस तैयारी के तार संयुक्त प्रान्त से जुड़े तो ब्रिटिश सरकार ने फैड्रिक यंग (जिसने बाद में सुल्ताना डाकू को पकड़ा था) नामक पुलिस कमिश्नर को विशेष रूप से मलाया से बुलाकर आगरा में विशेष अधीक्षक नियुक्त किया और क्रांतिकारियों के दल को कुचलने का आदेश दिया। उसकी धरपकड़ में कुछ क्रांतिकारी पकड़े गए।
गेंदालाल और पंचम सिंह के 90 सदस्यों का दल भिंड जिले के मिहौना में घने जंगल में था तो 31 जनवरी 1918 को फैड्रिक यंग की अगुवाई में पुलिस की बड़ी टुकड़ी ने चारों तरफ से घेर कर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं। यंग के जासूस ने खाने में जहर मिला दिया था, जिससे दल बेहोशी की हालत में था इसलिये जवाबी कार्रवाई न हो सकी। इस गोलीबारी में 36 क्रांतिकारी शहीद हुए। गेंदालाल दीक्षित को तीन और लक्ष्मणानंद ब्रह्मचारी को नौ गोली लगी, दोनों गिरफ्तार हुए। सभी घायल गिरफ्तार क्रांतिकारियों को ग्वालियर किले में मिलिट्री की निगरानी में बंद कर दिया गया। इस मामले का मुकदमा मैनपुरी षड्यंत्र केस के रूप में चलाया गया, क्योंकि दल के सदस्य दलपत सिंह ने मुखबिरी मैनपुरी जिलाधीश को ही की थी।
जब गेंदालाल को किले के बंदीगृह से निकालकर मैनपुरी में आईजी सामने लाया गया तो उन्होंने कहा, आपने इन बच्चों को व्यर्थ ही पकड़ रखा है। इस केस का तो मैं स्वयं जिम्मेदार हूं। पंजाब, बंगाल, बम्बई, गुजरात सहित विदेशों से मेरा कनेक्शन है, इन सबको आप छोड़ दीजिये। आईजी ने उनकी बात पर भरोसा कर लिया और कई नौजवानों को छोड़ दिया। इसके बाद उन्हें कप्तान की कोठी पर ले जाकर मुखबिरों के साथ ही हवालात में बंद कर दिया गया।
मैनपुरी में हवालात में बंद होने के दौरान उनके सहयोगी देवनारायण भारतीय ने उन तक फलों की टोकरी में रिवाल्वर व लोहा काटने की आरी पहुंचा दी, जिसकी मदद से गेंदालाल सलाखें काटकर फरार हो गये। इस दौरान कुछ समय उन्होंने ग्वालियर स्टेट के छोटे से गांव में मात्र राशन पर अध्यापन किया, लेकिन किले में कैद के समय हुआ क्षय रोग बढ़ता जा रहा था, वह हरिद्वार गये फिर दिल्ली होते हुए बीमारी की हालत में अपने वीरान पड़े गांव आए। उनकी हवेली काफी समय से खाली पड़ी थी, उनके सहयोगी वहीं रात में खाना-पानी और दवा पहुंचाते थे। उनके साथ परिवार भी न उलझ जाए यह सोचकर गेंदालाल फिर हरिद्वार चले गये। जब वह वापस दिल्ली लौटे तो पहाड़गंज के महावीर मंदिर में प्याऊ पर नौकरी कर ली। प्याऊ पर नौकरी करने के दौरान उनका स्वास्थ्य बिगड़ता रहा और दिल्ली के एक अस्पताल में 21 दिसंबर 1920 को मात्र 30 वर्ष की अवस्था में उनका देहांत हो गया।
देश को आजाद कराने का सपना लेकर यमुना तट के एक छोटे से गांव में जन्मे गेंदालाल को फिर उसी यमुना तट ने प्रश्रय दी। पार्थिव को लावारिस समझकर मिट्टी के तेल से झुलसाकर यमुना तट पर फेंक दिया गया। सरकारी तंत्र में गेंदालाल को लेकर जो रिपोर्ट दी गई थी, उसके आधार पर पुलिस के लिए यह स्वीकार करना कठिन था कि इतने बड़े क्रान्तिकारी की ऐसी गुमनाम व सामान्य मृत्यु हो सकती है। इसलिए अगले 20 वर्षों तक पुलिस उनकी खोज करती रही और उनके परिवार पर नजर रखती रही। कई बार उनके घर के पास में सेना की टुकड़ियों ने पड़ाव भी डाला, परिजनों से पूछताछ भी हुई।
दरअसल होम मिनिस्ट्री के तत्कालीन आफिसर स्पेशल आन डयूटी एल एफ रसब्रूक विलियम की ब्रिटिश पार्लियामेंट में पेश रिपोर्ट ‘इण्डिया इन 1919’ से अंग्रेजी हुकूमत घबरा गई थी। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मातृवेदी के क्रांतिकारी देश भर में फैले हुए हैं और ब्रिटिश सरकार को पलट देना चाहते हैं। जुलाई 1919 की डायरेक्टर सेन्ट्रल इंटलीजेंस रिपोर्ट भी यह बताती है कि मातृवेदी का जापान, शंघाई और अमेरिका की गदर पार्टी से लिंक था। इतना ही नही युगांतर पार्टी के गुप्त प्रकाशन का खर्च भी मातृवेदी दल उठाती है। बताते चलें कि प्रताप प्रेस से प्रकाशित प्रभा मासिक के सितंबर 1924 के अंक में रामप्रसाद बिस्मिल ने अज्ञात नाम से गेंदालाल दीक्षित पर 9 पेज की कवर स्टोरी की थी।
युवाओं, छात्रों और दस्युओं के हृदय में राष्ट्रीयता के अरमान भरने और हाथ में स्वतंत्रता के लिए हथियार थमाने वाले इस योद्धा के साथ न इतिहास लिखने वालों ने न्याय किया, न आजाद भारत की सरकार ने। स्वतंत्र भारत में उनकी विधवा पति व पुत्री के बिछोह में रो-रोकर अपने ही आंसुओं में घुल गईं, किसी ने उनकी सुधि न ली। न ही उनके नाम पर गौरवशाली स्मारक बन सका। सवाल यह उठता है कि अगर हम इसी तरह से सब कुछ भुलाने पर अमादा हो जाएगें तो भला क्या और किसे याद रखेंगे।