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चंद्रशेखर आजाद को अपने ऊपर जनता के भरोसे का सही आकलन करना होगा वरना वे भटकाव का शिकार होंगे

आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद ने योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध चुनाव लड़ने की घोषणा की है। उन्होंने यह भी कहा है कि वह उत्तर प्रदेश की सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। चंद्रशेखर पहले समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के प्रश्न पर बातचीत कर रहे थे लेकिन अंतिम समय पर यह गठबंधन नहीं […]

आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद ने योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध चुनाव लड़ने की घोषणा की है। उन्होंने यह भी कहा है कि वह उत्तर प्रदेश की सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। चंद्रशेखर पहले समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के प्रश्न पर बातचीत कर रहे थे लेकिन अंतिम समय पर यह गठबंधन नहीं हो पाया जिसके लिए चंद्रशेखर ने समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव पर गंभीर आरोप लगाए और कहा कि वे दलित विरोधी हैं। सवाल इस बात का है, कि आखिर समाजवादी पार्टी क्या केवल इसलिए दलित विरोधी हो गई क्योंकि चंद्रशेखर से उसका तालमेल नहीं हुआ? मात्र एक दिन में बात न बनने के कारण कोई भी व्यक्ति या पार्टी दलित विरोधी नहीं हो जाती, जिसके साथ पिछले साल भर से वह एलायंस  की बात कर रहे थे।

ऐसी खबरें आ रही थीं कि चंद्रशेखर यह उम्मीद कर रहे थे कि अखिलेश यादव उन्हें 25-30 सीटों पर उनकी पार्टी के लोगों को खड़ा करने पर राजी हो जाएंगे। बाद में यह पता चला कि शायद 5 सीटों की बात हो रही थी। लेकिन अंत में अखिलेश मात्र एक सीट छोड़ने के लिए राजी हुए। चंद्रशेखर को बहुत दुख हुआ। हम नहीं जानते कि वास्तव में क्या बात हुई लेकिन यह भी हकीकत है कि गठबंधन के दौर में पार्टियां अभी दूसरी पार्टियों के साथ समझौता तभी कर रही है जब उनकी बहुत मजबूरी हो। बड़ी पार्टी के नेता, समाजवादी पार्टी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे राष्ट्रीय लोक दल के लिए 25 सीटे छोड़ी हैं और शायद चंद्रशेखर का दावा भी इसी क्षेत्र के लिए था इसलिए अखिलेश उनकी बातों पर शायद राजी नहीं हो पाए।

[bs-quote quote=”यह भी एक हकीकत है कि बहुजन और अम्बेडकरवाद के नाम पर काम करने वाले अधिकांश लोग उत्तर प्रदेश में आकर ही अपने सारे प्रयोग करना चाहते हैं। वे सभी उसी समुदाय में जा रहे हैं जो पहले से ही बसपा के साथ है और उसकी प्राथमिकताएं साफ हैं, लेकिन ऐसे दल उत्तर प्रदेश में लोगों को और कन्फ्यूज़ करना चाहते हैं। सवाल यह भी है कि देश के उन हिस्सों में ये लोग और दल क्यों नहीं जा रहे जहां अम्बेडकरवादी आंदोलन को मजबूत राजनैतिक प्लेटफॉर्म चाहिए। मसलन गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा, बंगाल आदि।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

एक टीवी चैनल के साथ बात करते-करते चंद्रशेखर की आँखों मे आँसू भी आ गए, लेकिन ये राकेश टिकैत के आँसुओं की तरह नहीं बन पाए और इसका कारण साफ है कि उत्तर प्रदेश के दलितों में चंद्रशेखर के जनआन्दोलन के लिए सम्मान तो है लेकिन वे राजनीतिक लड़ाई में बसपा को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। वे चंद्रशेखर को उस लेवल पर नहीं देख सकते जो सम्मान और अपेक्षायें बहिन मायावती से है। इसका कारण साफ है। बसपा एक कैडर बेस पार्टी है और उसके साथ मान्यवर कांशीराम की विरासत है। बहुत से लोग इसलिए अभी भी बसपा को ही दलितों की अंतिम उम्मीद मानते हैं। चंद्रशेखर ने बहुत मेहनत की है लेकिन कई बार लोग आपको आंदोलनों में ही देखना चाहते हैं और वह इसलिए भी है क्योंकि राजनीति मे कम से कम उत्तर प्रदेश मे दलितों के लिए बसपा ही उम्मीद की किरण है। बहुत लोग ये मानते हैं कि चंद्रशेखर अंततः बसपा को ही कमजोर कर रहे हैं और उन्हें ईमानदारी से बहिन जी के साथ काम करने की सोचनी चाहिए थी। दलितों के हित की बात करने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए यह सवाल भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि उसकी राजनीति से अंततः लाभ किसको होगा।

यह भी एक हकीकत है कि बहुजन और अम्बेडकरवाद के नाम पर काम करने वाले अधिकांश लोग उत्तर प्रदेश में आकर ही अपने सारे प्रयोग करना चाहते हैं। वे सभी उसी समुदाय में जा रहे हैं जो पहले से ही बसपा के साथ है और उसकी प्राथमिकताएं साफ हैं, लेकिन ऐसे दल उत्तर प्रदेश में लोगों को और कन्फ्यूज़ करना चाहते हैं। सवाल यह भी है कि देश के उन हिस्सों में ये लोग और दल क्यों नहीं जा रहे जहां अम्बेडकरवादी आंदोलन को मजबूत राजनैतिक प्लेटफॉर्म चाहिए। मसलन गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, पंजाब, हरियाणा, बंगाल आदि। इसलिए इसका अभिप्राय तो साफ है कि जो भी दल दलितों के नाम पर उत्तर प्रदेश मे राजनीति करेंगे उनसे बसपा को ही नुकसान होगा। दूसरी बात यह भी है कि इन दलों में पार्टी के नाम पर सिर्फ कुछ नाम ही हैं। उत्तर प्रदेश के दलित वर्ग के लोग अभी बसपा को छोड़ने को तैयार नहीं है और जब तक मायावती राजनीति में एक्टिव हैं तब तक लोगों की पहली पसंद वही रहेंगी। किसी भी व्यक्ति को इस स्थिति तक पहुंचने में उसका इतिहास होता है।

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भारतीय राजनीति में बसपा की उपस्थिति की मायने

मैं यह मानता हूँ कि बसपा के नेतृत्व को चंद्रशेखर जैसे युवाओं को स्थान देना पड़ेगा। रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या के बाद देश भर मे युवाओं में विशेषकर दलित बहुजन युवाओं में बहुत आक्रोश था और उन्होंने प्रदर्शन भी किए। पिछले कुछ वर्षों मे उन्होंने अपने संगठनों को मजबूत भी किया और अपनी स्वायत्तता को बनाए रखा। ऐसे युवाओं के लिए बीएसपी में जगह होनी चाहिए। ये युवा अब सोशल मीडिया पर भी सक्रिय हैं और उनके अपने चैनल्स भी हैं जिसको लाखों लोग देख रहे हैं। ऐसे लोगों पर बसपा की दृष्टि होनी चाहिए और उन्हें अपने संगठन में लाकर सोशल मीडिया मे नेरटिव को मजबूत किया जाना चाहिए।

कोई भी युवा जब संघर्षों से आता है तो उसकी अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं होती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत को भी देखना पड़ेगा। चंद्रशेखर ने मेहनत की है लेकिन कही न कही वह अपनी राजनैतिक हैसियत को बहुत अधिक आँक रहे थे और अखिलेश शायद इसके लिए तैयार नहीं थे। अभी अखिलेश ने बहुत से दलों से तालमेल किया है और उनके एजेंडे में पिछड़ी जातियों के दल भी शामिल हैं। फिर दलितों के भी कुछ समूहों ने उन्हे वोट दिया है इसलिए उन्हे शायद ये लगा कि चंद्रशेकर जरूरत से ज्यादा मांग रहे हैं। ओम प्रकाश राजभर ने तो यहां तक कहा कि अखिलेश ने चंद्रशेखर को जीतने पर मंत्री तक बनाने के बात कही थी। चंद्रशेखर को थोड़ा संयम और मैच्योरिटी दिखानी चाहिए थी। दरअसल आज के सोशल मीडिया के दौर में कई बार हम गलतफहमी का शिकार होते हैं। फेसबुक और ट्विटर पर लाइक से अपनी जमीनी हैसियत की माप करते हैं लेकिन वैसे होता नहीं है। दूसरी बात यह है कि चंद्रशेकर ने अभी तक सिर्फ आंदोलन किए हैं, राजनीतिक तौर पर उनकी हैसियत का इम्तेहान इस बार होगा। अगर वो पहले से एक दो उपचुनाव भी लड़े होते तो उनकी पार्टी की ताकत का पता चलता। चंद्रशेखर के समक्ष किसान आंदोलन का उदाहरण भी था। अभी कुछ दिनों पहले राकेश टिकैत से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह चाहते है कि योगी चुनाव जीते क्योंकि प्रदेश में एक मजबूत विपक्ष भी चाहिए। कहने का आशय ये कि चंद्रशेखर राजनीति को प्रभावित कर सकते थे। हम मानते हैं कि युवाओं को राजनीति में आना पड़ेगा लेकिन उन्हे ये भी देखना पड़ेगा कि क्या वाकई लोग अभी स्पेस देने को तैयार हैं। राजनीतिक दलों की भीड़ में सभी पार्टियां सर्वजन का दावा कर रही हैं लेकिन उनके कोर वोटर जाति विशेष के लोग ही होते हैं। ये बात बसपा और चंद्रशेखर पर भी लागू है जो एक ही कोर वोटर को लेकर चल रही है, इसलिए बसपा जब तक है तब तक चंद्रशेखर के लिए उम्मीदे कम हैं। इस हकीकत को समझना पड़ेगा कि अभी लोग बसपा से नाराज हो सकते हैं लेकिन उनकी उम्मीदें उसी पर टिकी हैं। इसलिए चंद्रशेखर या तो बसपा सुप्रीमों मायावती से बातचीत करें और सम्मानपूर्वक उसे मजबूत करें। बसपा को चंद्रशेखर जैसे युवाओ की जरूरत होगी लेकिन पार्टी को तो उसका अपना अनुशासन चलता है। दूसरे, जब भी बसपा कमजोर होगी या बिल्कुल इस स्थिति में होगी कि लोगों की उम्मीदें खत्म हो जाएं तो धीरे-धीरे उन्हें भी जिग्नेश की तरह काँग्रेस का रुख करना पड़ेगा। यदि पार्टी सत्ता में आयी तो वे उसका लाभ लेकर अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत कर सकते हैं। फिलहाल यूपी में उनके लिए अकेले बहुत संभावनाएं नही हैं लेकिन यह उनका अधिकार है कि वो अपना निर्णय करें। राजनीति मे अपनी संभावनाएँ तराशने का हक हर एक को है।

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अब चंद्रशेखर ने योगी आदित्यनाथ के विरुद्ध चुनाव लड़ने का फैसला किया है। इससे योगी पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। चंद्रशेखर अगर विपक्ष के सर्वमान्य उम्मीदवार हो जाएं तब भी कुछ ज्यादा नहीं होगा क्योंकि योगी आदित्यनाथ 1998 से गोरखपुर के सांसद हैं और उससे पहले भी उन्हीं के गुरु अवैद्यनाथ वहा के सांसद थे। सभी नेताओं की अपनी अपनी एक मजबूत सीट होती है जैसे अखिलेश अपने गृह जनपद से लड़ रहे हैं। चंद्रशेखर को भी एक सीट पर अपनी पकड़ मजबूत करनी चाहिए। अभी वे इस स्थिति मे कतई नहीं हैं कि कहीं से भी खड़े हो गए तो सीट निकाल लेंगे। विपक्ष भी उन्हें सर्वमान्य उम्मीदवार बनाने से रहा लेकिन सोशल मीडिया में उनके भक्त लोग हंगामा जरूर कर सकते हैं इसके अलावा उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि अगर वह कह रहे हैं कि 403 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे तो गोरखपुर को छोड़कर अन्य स्थानों पर समय कैसे देंगे क्योंकि गोरखपुर में चुनाव अंतिम चरण में हैं। जिसने भी उन्हें यह विचार दिया वह ओवर एस्टिमेटेड है।  कोई बहुत क्रांतिकारी या लाभदायक विचार तो नहीं ही है।  हां, वह चुनावों तक समाचारों में बने रहेंगे यह पक्का है।

[bs-quote quote=”पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया के चलते नए युवाओं को बहुत उभारा गया। जिग्नेश मेवानी, हार्दिक पटेल, कन्हैया कुमार और चंद्रशेखर को लोग उभरता हुआ देख रहे थे। बहुतों ने सोचा कि पार्टियों का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं करेगा। कइयों को लगा कि भारत में अब क्रांति आने वाली है। बहुत से बाहरी लोग उनको प्रमोट भी कर रहे थे लेकिन अंत में क्या हुआ। कन्हैया से लेकर हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी तक अब काँग्रेस में हैं क्योंकि उनको अंदाजा हो गया है कि राजनीति का मामला इतना आसान नहीं है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

पिछले कुछ वर्षों में सोशल मीडिया के चलते नए युवाओं को बहुत उभारा गया। जिग्नेश मेवानी, हार्दिक पटेल, कन्हैया कुमार और चंद्रशेखर को लोग उभरता हुआ देख रहे थे। बहुतों ने सोचा कि पार्टियों का नेतृत्व उन्हें स्वीकार नहीं करेगा। कइयों को लगा कि भारत में अब क्रांति आने वाली है। बहुत से बाहरी लोग उनको प्रमोट भी कर रहे थे लेकिन अंत में क्या हुआ। कन्हैया से लेकर हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी तक अब काँग्रेस में हैं क्योंकि उनको अंदाजा हो गया है कि राजनीति का मामला इतना आसान नहीं है। वर्षों तक ‘वैकल्पिक राजनीति करने वाले उदित राज जी को भी पता चल गया कि राजनीति की डगर इतनी आसान नहीं है। आम आदमी पार्टी भी अलग-अलग जगह हाथ मार रही है लेकिन अभी तक दिल्ली छोड़ सफलता हाथ नहीं लगी है फिर भी पंजाब, उत्तराखंड आदि जगहों में वह कोशिश कर रही है। लेकिन उसके लिए भी रास्ते बहुत कठिन हैं। चंद्रशेखर को भी लंबे समय में अपनी दिशा देखनी पड़ेगी और कुछ समय तक इंतज़ार करना चाहिए था। अभी उनका प्रयास होना चाहिए था कि वह भाजपा विरोधी ताकतों को मजबूत करते। राजनीति केवल विधायक या सांसद बनने तक नहीं होती। बिना सांसद और विधायक बने भी आप राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं और ऐसे बहुत लोग हैं जिन्होंने ऐसा किया है।

अब क्योंकि चंद्रशेखर ने घोषणा कर दी है कि वह अकेले ही 403 सीटों पर प्रत्याशी खड़े करेंगे तो अब सब उनकी पार्टी की राजनीतिक हैसियत को समझेंगे और मार्च 10 को चुनाव के नतीजे उनका भविष्य भी निर्धारित कर देंगे। यदि बसपा और सपा अच्छा प्रदर्शन करते हैं तो उनके लिये आने वाले दिन बहुत चुनौतीपूर्ण रहेंगे और फिर उन्हे निर्धारित करना पड़ेगा कि क्या वह अपनी पार्टी के बल पर राजनीति करेंगे या किसी अन्य दल में शामिल होकर दलित एजेंडे को मजबूत करेंगे या सत्ता की राजनीति के बिना दलित बहुजन एजेंडे को आगे बढ़ाते रहेंगे। लेकिन यह कैसे हो इसका निर्णय उनको अपने विवेक और मित्रों के साथ बातचीत के जरिए ही करना पड़ेगा।

विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।

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3 COMMENTS
  1. बिल्कुल सही।आजाद को अभी अपनी राजनीतिक हैसियत का आकलन करना चाहिए,उसके बाद आगे की राजनीति की परिधि तय करते।प्रतिक्रिया और उन्माद में लिया गया निर्णय और उठाया गया कदम कभी भी सही परिणाम नहीं देता।

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