Saturday, July 27, 2024
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भारतीय राजनीति में बसपा की उपस्थिति की मायने

उत्तर प्रदेश में 10 मार्च को जो भी चुनाव परिणाम हों, भारतीय राजनीति में दो चीजें हमेशा अत्यंत महत्वपूर्ण रहेंगी क्योंकि वे कभी भी फीनिक्स की तरह उठ सकती हैं। वे हैं बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता मायावती। मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि मायावती भारतीय राजनीति में अभी भी बहुत महत्वपूर्ण और लोकतंत्र के लिए जरूरी हैं, उनकी […]

उत्तर प्रदेश में 10 मार्च को जो भी चुनाव परिणाम होंभारतीय राजनीति में दो चीजें हमेशा अत्यंत महत्वपूर्ण रहेंगी क्योंकि वे कभी भी फीनिक्स की तरह उठ सकती हैं। वे हैं बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता मायावती। मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि मायावती भारतीय राजनीति में अभी भी बहुत महत्वपूर्ण और लोकतंत्र के लिए जरूरी हैं, उनकी और बसपा जैसे दलों की सफलता अत्यंत आवश्यक है।

कई विशेषज्ञों ने बसपा की राजनीतिक श्रद्धांजलि लिखी है और उन्हें लगता है कि मायावती अप्रासंगिक हो गई हैं। कई लोग उन पर आरोप लगा रहे हैं कि वह अपने घर के अंदर अलग-थलग कैद हैं और जनता के बीच नहीं जा रही हैं। चुनावी‘ प्रणाली में हर विशेषज्ञ‘ का कहना है कि वह एक या दो वाक्य नहीं बोल सकती हैं और प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी इमला पढ़ती हैं। यह सब तब होता है जब हमें किसी आंदोलन या व्यक्ति का इतिहास नहीं पता होता है। मायावती बहुजन आंदोलन की उपज हैं, उनके पास विचार हैं और उन्होंने ऐसे ही ऊंचाइया नहीं छुईं। मायावती अगर कुछ नहीं भी करती हैं तो भी उनका जीवन हमेशा प्रेरणादायी रहेगा और हमें इसे समझने की जरूरत है।

कोई भी इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता कि कैसे बसपा अब एक ऐसी पार्टी बन गई जिसे कम से कम उत्तर प्रदेश मे कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता। अपने शुरुआती दौर में तो लोग उन्हे ‘वोटकटुआ’ पार्टी ही कहते थे और कांशीराम साहब यह कह भी देते थे कि हम चाहे चुनाव जीतें या नहीं, लेकिन हम चुनाव हरवा सकते हैं और ये भी हमारी ताकत है। मान्यवर कांशीराम ने कड़ी मेहनत की। देश भर में यात्रा की और फिर बसपा बनी लेकिन सफलता उन्हें उत्तर प्रदेश में मिली। यह भी समझना पड़ेगा कि वह उत्तर प्रदेश में क्यों सफल रहे और दूसरी जगह क्यों नहीं उतनी सफलता प्राप्त कर सके? और इस बात को समझने के लिए महत्वपूर्ण है मायावती को समझना। कोई इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता कि बसपा की उत्तर प्रदेश मे सफलता के पीछे मायावती थीं जो जनता की आकांक्षाओं और आशा की प्रतीक बनीं।

[bs-quote quote=”सपा अब एक ऐसी पार्टी बन गई जिसे कम से कम उत्तर प्रदेश मे कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता। अपने शुरुआती दौर में तो लोग उन्हे ’वोटकटुआ’ पार्टी ही कहते थे और कांशीराम साहब यह कह भी देते थे कि हम चाहे चुनाव जीतें या नहीं, लेकिन हम चुनाव हरवा सकते हैं और ये भी हमारी ताकत है। मान्यवर कांशीराम ने कड़ी मेहनत की। देश भर में यात्रा की और फिर बसपा बनी लेकिन सफलता उन्हें उत्तर प्रदेश में मिली। यह भी समझना पड़ेगा कि वह उत्तर प्रदेश में क्यों सफल रहे और दूसरी जगह क्यों नहीं उतनी सफलता प्राप्त कर सके?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मायावती कैराना से 1984 के चुनावों में बसपा की स्थापना के बाद पार्टी द्वारा चुनाव मैदान में उतरने वाली पहली उम्मीदवार थींलेकिन हार गईं। लेकिन यह समझना जरूरी है कि राजीव गांधी और कांग्रेस पार्टी ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भारी सहानुभूति लहर के तहत चुनाव में जीत हासिल की और पूरी तरह से नए राजनीतिक दल के लिए सफल प्रदर्शन करना उस समय असंभव था। उस समय विपक्ष के सभी धुरंधर कांग्रेस की ‘राष्ट्रवादी’ आंधी में साफ हो गएउसके बाद वह दो अन्य चुनावों में भी हार गईं। पहली बार बिजनौर सुरक्षित से 1989 में जीत हासिल की। संयोग से, 1985 के बिजनौर के चुनावों में रामविलास पासवान भी चुनाव लड़ने के लिए आए, क्योंकि वह अपने हाजीपुर निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव हार चुके थे और संसद में प्रवेश करना चाहते थेलेकिन बुरी तरह विफल रहे। दरअसल उनके खिलाफ कांग्रेस ने विदेश मंत्रालय से इस्तीफा दिलवाकर मीरा कुमार को मैदान में उतारा और वह जीत गईं। मायावती और पासवान दोनों चुनाव हार गये। पासवान ने 1987 में हरिद्वार निर्वाचन क्षेत्र से फिर कोशिश की लेकिन हार गए। बिजनौर की कहानी के बहुत से सबक हैं कि कैसे दलितों के नेतृत्व को खत्म करने के लिए ऊपर से लोग लादे जाते हैं और समुदायों में अपने व्यक्तिगत हितों के लिए ऐसे लोग उपलब्ध भी हैं। बाबा साहेब के समय बाबू जगजीवन राम भी थे जिनका इस्तेमाल उनके खिलाफ हुआ था और उनकी पुत्री मीरा कुमार को बिजनौर से लाकर काँग्रेस ने उस समय दलितों में खड़ी होने वाले स्वतंत्र अम्बेडकरवादी नेतृत्व को राजनैतिक तौर पर खत्म करने की कोशिश की, लेकिन लोकतंत्र में मात्र चुनावों से आप किसी को खत्म नहीं कर सकते। 1984 से 1992 तक की बसपा की यात्रा बेहद महत्वपूर्ण है और इस यात्रा में आप  मायावती की भूमिका को नकार नहीं सकते।

अगर आप आज बिजनौर और हरिद्वार निर्वाचन क्षेत्रों में जाएं तो वहां मीरा कुमार और रामविलास पासवान को कोई भी कभी याद नहीं करेगा लेकिन गांवों में मायावती और बसपा के चाहने वाले अभी भी बहुत बड़ी संख्या मे मौजूद हैंआज बिजनौर और हरिद्वार दोनों बसपा के मजबूत गढ़ बने हुए हैं। मायावती और बसपा दलितों की केवल विकास की पार्टी नहीं है अपितु उनकी आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतीक भी है, इसलिए कुछ न करने के आरोपों के बावजूद भी दलितों की सुरक्षा और आत्मसम्मान का प्रतीक बसपा से बड़ा कोई नहीं हो सकता। जिन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति का पता है वे सब जानते हैं कि बसपा के उदय से पहले इस क्षेत्र में दलितों का वोट स्वयं ही डाल दिया जाता था। बागपत, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, सहारनपुर आदि क्षेत्रों में पहले ऐसी स्थिति थी लेकिन आज वहां बसपा का जनाधार है, क्योंकि पार्टी ने लोगों में इतने बड़े स्वाभिमान का संचार किया है कि उसको आप मात्र इस पार्टी या उस पार्टी के तौर पर नहीं देख सकते हैं। बसपा वहां दलितों की अस्मिता और स्वाभिमान का प्रतीक है।

[bs-quote quote=”बसपा या मायावती को कोई पसंद करे या न करे लेकिन प्रशासन पर उनकी मजबूत पकड़ को कोई नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। उन्हें कोई दोष नहीं दे सकता कि उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए अपने समुदाय या जाति को फायदा पहुंचाया। यूपी में हर कोई जानता है कि मायावती एक फायर ब्रांड स्पीकर रही हैं, जहां लोग उन्हें सुनने के लिए इंतजार करते थे। वह उस बहुजन आंदोलन से निकलीं थी जिसको सफल बनाने के लिए मान्यवर कांशीराम सहित अनेकों लोगों ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। यह वह समय था जब कांशीराम के आंदोलन में शामिल होने के लिए पुरुष बड़ी संख्या में आ रहे थे, लेकिन तब महिलाओं की संख्या ज्यादा नहीं थी। एक युवती के लिए यह निर्णय लेना और अपनी प्रतिबद्धता के प्रति पूरी तरह से वफादार रहना एक कठिन निर्णय था। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कल्याण सिंह के नेतृत्व में बाबरी के विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश में हिंदुत्ववादी ताकतों को हराने में बसपा द्वारा निभाई गई ऐतिहासिक भूमिका को कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता है। सपा-बसपा के बीच गठबंधन एक ऐतिहासिक जरूरत थी और इसने बहुजन समुदायों के बीच बहुत बड़ी ऊर्जा का संचार किया जिसको मजबूत कर एक अखिल भारतीय गठबंधन बन सकता था लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ।

दूसरी बात कि बसपा या मायावती को कोई पसंद करे या न करे लेकिन प्रशासन पर उनकी मजबूत पकड़ को कोई नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। उन्हें कोई दोष नहीं दे सकता कि उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए अपने समुदाय या जाति को फायदा पहुंचाया। यूपी में हर कोई जानता है कि मायावती एक फायर ब्रांड स्पीकर रही हैंजहां लोग उन्हें सुनने के लिए इंतजार करते थे। वह उस बहुजन आंदोलन से निकलीं थी जिसको सफल बनाने के लिए मान्यवर कांशीराम सहित अनेकों लोगों ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया यह वह समय था जब कांशीराम के आंदोलन में शामिल होने के लिए पुरुष बड़ी संख्या में आ रहे थे, लेकिन तब महिलाओं की संख्या ज्यादा नहीं थी। एक युवती के लिए यह निर्णय लेना और अपनी प्रतिबद्धता के प्रति पूरी तरह से वफादार रहना एक कठिन निर्णय था। जिस दौर में वह अपने घर से अकेले जाती रही होंगी उस समय उन्हें कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा होगा, कितनी बातें सुनी होंगी क्योंकि भारत में राजनीति में अभी भी भयंकर मिसोजिनी है, यानी घनघोर महिला विरोध। एक महिला यदि सफल हो गई तो उसे न जाने कितनी बातें सुननी पड़ती हैं। उसके संबंधों के चर्चे होते हैं। उसकी जिंदगी चटकारे लेकर चर्चा करने वालों का एजेंडा बन जाती है। कॉफी हाउस से लेकर बड़े-बड़े होटलों में ऐसे विशेषज्ञ मिल जाएंगे जो ऐसी कहानियां सुनाते फिरेंगे। उस दौर में सुश्री मायावती के लिए मान्यवर कांशीराम साहब के साथ संघर्ष करते समय बहुत बड़ी चुनौतियां रही होंगी लेकिन आज बसपा उत्तर प्रदेश में जहां पहुंची है उसमें उनकी बहुत बड़ी भूमिका है। मायावती उस संदर्भ में भारत की सबसे बड़ी फेमिनिस्ट हैं जिन्होंने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को चुनौती दी है और उसके लिए उन्होंने कोई दुर्भावना नहीं दिखाई अपितु अपने व्यक्तिगत आचार-विचार से वह पूर्णतः एक मानववादी बुद्धिवादी व्यक्तित्व हैं।

यह एक बहुत महत्वपूर्ण बात है जहां नेताओं में अपने आपको बड़ा ‘भक्त’ दिखाने की होडं लगी है वहां मायावती जैसी महिला और नेता भी हैं जो उस मजमे में शामिल नहीं हुईं और यह उनके अम्बेडकरवादी चरित्र की सबसे बड़ी पहचान है। लेकिन आज की सवर्ण फेमिनिस्ट उनके योगदान को भी स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि उनके वजूद को चुनौती सवर्णों ने ही दी हो। मान्यवर कांशीराम के निधन के बाद मायावती पर उनके विरोधियों ने भी बहुत से आरोप लगाए। अचानक कांशीराम जी के परिवार के सदस्य भी आ गए और तरह-तरह के आरोप लगाए गए। मुझे भी ऐसी बातें सुनने को मिलीं लेकिन मेरा हमेशा यह मानना था कि मान्यवर कांशीराम ने अपना जीवन समाज को समर्पित कर दिया और ऐसे उदाहरण इतिहास में ढूँढने पर भी नहीं मिलते। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि मायावती ने कांशीराम की अंतिम समय तक बहुत देखभाल की और उन्हें बेहतरीन सुविधायें उपलब्ध करवाईं। लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में ऐसे ही होता है कि महिलाओं को ही सारे उत्तर देने पड़ते हैं। बाबा साहब के महापरिनिर्वाण के बाद उनकी पत्नी सविता अंबेडकर के ऊपर भी बहुत से आरोप लगे और वे जिंदगी भर उन आरोपों के सहारे जीती रहीं। यदि कोई इन आरोपों को देख ले तो पता चल जाएगा कि आरोप लगाने वालों का लेवल क्या है और उनके अंदर कितना ‘पुरुषार्थ’ छुपा हुआ है।

[bs-quote quote=”आज भले ही नए आकांक्षी युवा नेता उभरे हों, लेकिन फिर भी लोग उनमें उतनी उम्मीद नहीं देखते जो बसपा या मायावती में है क्योंकि वे जानते हैं कि दलितों की ओर से उत्तर प्रदेश में अभी भी बसपा ही मुख्य उम्मीद है। और जो नए लोग हैं उनके लिए अभी स्वयं के लिए ही एक दो स्थानों पर जगह बनाना बहुत मुश्किल होगा। यह दुखद है कि प्रदेश के महत्वाकांक्षी दलित युवाओं की ऊर्जा अन्य राजनीतिक दलों में जाकर बर्बाद हो रही है। समय आ गया है कि बसपा सभी बहुजन ताकतों को एक साथ लाने और एक विश्वसनीय चुनौती प्रदान करने की ऐतिहासिक भूमिका निभाए। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

में इस तरह का पुरुषवाद है जो बेहद खतरनाक और महिलाओं का चरित्रहनन करता है और कोई भी समूह या ‘वाद’ इससे अछूता नहीं है। लेकिन इन सबके बावजूद मायावती ने जिस वैचारिक मजबूती से इन सबका मुकाबला किया वह बहुत प्रेरक है क्योंकि उसमें कहीं पर भी विक्टिम कार्ड नहीं खेला गया। दरअसल, उनकी राजनीति की सबसे बड़ी सकरात्मकता इस बात में है उन्होंने कभी भी इस प्रकार के प्रसंगों के जरिए राजनीति नहीं की। उनकी राजनीति के केंद्र में भूत नहीं अपितु वर्तमान और भविष्य की संभावनाएँ हैं।

आज की राजनीति तेजी से बदल रही है। युवा अब इससे जुड़ रहे हैं और उनकी आकांक्षाएं बहुत ऊंची हैं। अम्बेडकरवादी युवा अब शैक्षणिक परिसरों में यथास्थितिवाद को चुनौती दे रहे हैं। अब वे अच्छे पुराने दिन चले गए जब लोग राजनीतिक रैलियों में घंटों इंतजार करते थे और पूरी रात गाने सुनते थे। अब युवा तकनीक का उपयोग करना चाहते हैं और वे अपने बड़ों से भी तत्काल प्रतिक्रिया की उम्मीद रखते हैं। कांग्रेस पार्टी को सोशल मीडिया की ताकत को समझने में कई साल लग गएलेकिन जब वे सक्रिय हो गए तब तक बीजेपी और हिंदुत्व का उस पर बहुत बड़ा नियंत्रण हो चुका था। सोशल मीडिया पर बसपा की भी भारी कमी है लेकिन अच्छी बात यह है कि अम्बेडकरवादी, पेरियारवादी, बहुजन युवाओं की संख्या बहुत बढ़ रही है और बेहद संजीदगी और तर्कों के साथ अपने सवाल उठा रही है। अब अम्बेडकरवादी युवा सभी मुद्दे न केवल उठा रहे हैं अपितु उन पर अपनी बेबाक राय भी रख रहे हैं और एक समान विचारधारा के लोगों के साथ सहयोग और नेटवर्किंग भी कर रहे हैं। बड़ी संख्या में युवाओं ने अपना यूट्यूब चैनल शुरू किया है, रोज अपने संशाधनों के जरिए वे खबरें शेयर कर रहे हैं और उन सभी के लाखों फॉलोअर्स हैं। बसपा को देश के व्यापक हित में इस विशाल समूह के साथ बात करने की जरूरत है। अम्बेडकरवादी चाहते हैं कि बसपा एक मजबूत पार्टी बनें और उनके प्रश्नों को उठाए, युवाओं को नेतृत्व दे और दूसरे प्रांतों को भी प्राथमिकता दे क्योंकि यह एक अखिल भारतीय पार्टी है जिसकी उपस्थिति हर जगह है।

आज भी बहुजन समाज पार्टी की कल्पना मायावती के बिना नहीं की जा सकती क्योंकि इसको बनाने में मान्यवर कांशीराम साहेब के साथ उन्होंने भी बड़ी भूमिका निभाई। उत्तर प्रदेश में मायावती के लिए बहुजन समाज में अपार सद्भावना है। हकीकत यह है कि यदि बहन जी उत्तर प्रदेश में सड़क मार्ग से एक यात्रा कर लें और गाँव-देहातों में महिलाओं -बुजुर्गों से मिल लें तो आप इस बात का अंदाज भी नहीं लगा पाएंगे के लोगों के हौसले कितने बढ़ जाएंगे। आज भले ही नए आकांक्षी युवा नेता उभरे होंलेकिन फिर भी लोग उनमें उतनी उम्मीद नहीं देखते जो बसपा या मायावती में है क्योंकि वे जानते हैं कि दलितों की ओर से उत्तर प्रदेश में अभी भी बसपा ही मुख्य उम्मीद है। और जो नए लोग हैं उनके लिए अभी स्वयं के लिए ही एक दो स्थानों पर जगह बनाना बहुत मुश्किल होगा। यह दुखद है कि प्रदेश के महत्वाकांक्षी दलित युवाओं की ऊर्जा अन्य राजनीतिक दलों में जाकर बर्बाद हो रही है। समय आ गया है कि बसपा सभी बहुजन ताकतों को एक साथ लाने और एक विश्वसनीय चुनौती प्रदान करने की ऐतिहासिक भूमिका निभाए। बसपा जैसी पार्टी, जिसके पास बहुजन समाज की ऐतिहासिक विरासत हैउसे दलितों की राजनीतिक पहचान के रूप में संरक्षित और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है और मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि दूसरी पार्टियों मे अभी भी दलितों को सेल’ में रहना होगा, उनका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होगा।

[bs-quote quote=”छोटे दल या छोटे-छोटे संगठन हमें कहीं नहीं ले जाएँगे। सभी लोगों को एक साथ लाने की जिम्मेदारी नेतृत्व पर होती है, ताकि लोग निराश न हों और जरूरत पड़ने पर पार्टी के साथ खड़े हों। सभी के लिए यह समझना जरूरी है कि मनुस्ट्रीम पार्टियों का विकल्प बनाना बहुत मुश्किल है। जहां उपलब्ध विकल्प कमजोर हो वहां उन्हें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए। देश के 20 करोड़ दलितों के हितों के लिये बात करने वाली उनकी एक पार्टी का होना आवश्यक है चाहे वो सत्ता मे आए या नहीं। बसपा की सफलता केवल इस बात में नहीं है कि उसने उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कुछ दिन पहले ही मायावती ने अपना 66 वाँ जन्मदिन पूरा किया है जिसके लिए हम उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हैं और उम्मीद करते हैं कि बसपा मजबूत हो और उसे राजनीतिक सफलता मिले ताकि मान्यवर कांशीराम द्वारा शुरू किए गए मिशन को आगे बढ़ाया जा सके। बसपा की मूल ताकत उत्तर प्रदेश में है और यह महत्वपूर्ण है कि इसे कम नहीं किया जाना चाहिए। एक मजबूत लोकतांत्रिक भारत के लिए हमें विविध समूहों और राजनीतिक दलों की जरूरत है। बसपा एक ऐसा ब्रांड है जो कांशीराम और उनके संगी-साथियों के बहुत सारे बलिदानों के बाद आया है इसलिए इसे मजबूत करें और इसलिए जरूरी है कि सैकड़ों स्वयंभू छोटे अंबेडकरवादी समूहों में निवेश न करें अन्यथा किसी को कोई लाभ नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में दलितों की दर्जनों पार्टियां भाजपा या किसी अन्य पार्टी का नुकसान नहीं करेंगी अपितु बसपा को ही घाटा पहुंचाएंगी और स्वयं भी कुछ नहीं कर पायेंगी। कम से कम उत्तर प्रदेश में दलितों को नई राजनीतिक पार्टी नाने से बचना चाहिए। यहां बसपा का अपना जनाधार है और वह मजबूती से खड़ी है। चाहे मीडिया उसके बारे में कुछ भी प्रचारित न कर रहा हो।

बसपा नेतृत्व के लिए भी यह आवश्यक है कि वह इन विविध अम्बेडकरवादी बहुजन समूहों तक पहुँचे और एक अखिल भारतीय मंच बनाये, ताकि युवा आवाज अपनी बात और ऊर्जा समाज व संगठन को दे। छोटे दल या छोटे-छोटे संगठन हमें कहीं नहीं ले जाएँगे। सभी लोगों को एक साथ लाने की जिम्मेदारी नेतृत्व पर होती है, ताकि लोग निराश न हों और जरूरत पड़ने पर पार्टी के साथ खड़े हों। सभी के लिए यह समझना जरूरी है कि मनुस्ट्रीम पार्टियों का विकल्प बनाना बहुत मुश्किल है। जहां उपलब्ध विकल्प कमजोर हो वहां उन्हें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए। देश के 20 करोड़ दलितों के हितों के लिये बात करने वाली उनकी एक पार्टी का होना आवश्यक है चाहे वो सत्ता मे आए या नहीं। बसपा की सफलता केवल इस बात में नहीं है कि उसने उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई। वह तो उसका सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है ही लेकिन यह बात भी समझना जरूरी है कि बसपा के होने के कारण अन्य पार्टियों को भी दलितों को सम्मान देना पड़ा है। और दलितों को उच्चतम स्तर की ओर प्रतिनिधित्व देने के लिए सभी दल मजबूर हो गए हैं। उत्तर प्रदेश की विधानसभा के चुनाव परिणाम अंततः दिखा देंगे कि बहुजन राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ेगी और यह सब कुछ बसपा की सफलता या विफलता पर निर्भर करता है। हम समझते हैं कि लोगों को पार्टी से बहुत आशाएं हैं, इसलिए अब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का कर्तव्य है कि वह जनता तक पहुंचे और अपना एजेंडा उसे समझाए और ये बताए कि हम पूरे दम-खम के साथ मैदान में मौजूद हैं और लोगों को  अधिकार दिलाने के लिए कृतसंकल्प हैं। 

 

विद्याभूषण रावत प्रखर सामाजिक चिंतक और कार्यकर्ता हैं। उन्होंने भारत के सबसे वंचित और बहिष्कृत सामाजिक समूहों के मानवीय और संवैधानिक अधिकारों पर अनवरत काम किया है।

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3 COMMENTS

  1. अच्छा विश्लेषण है।मायावती जैसी शख्सियत की भारत जैसे समाज, खासकर काउ बेल्ट बेल्ट में हमेशा जरूरत बनी रहेगी।जरूरत है सत्ता में आने पर अपना आधार बनाने की।आधार ही विकल्प का आधार बनेगा।सवर्ण समाज की राजनीति अपने आधार को कमजोर करने वाला है। यदि ऐसा नहीं होता है तो मनुस्ट्रीम की संसदीय पार्टियों और बसपा में गुणात्मक फर्क के पाना बहुजन समझ के लिए मुश्किल होगा।

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