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नेताजी सुभाष चंद्र बोस से तत्कालीन आरएसएस प्रमुख बीमारी का बहाना बनाकर क्यों नहीं मिले

आरएसएस आज़ादी की लड़ाई में हिस्से लेने के चाहे जितने दावे प्रस्तुत करे लेकिन उसका सच व झूठ सबके सामने है। देश के महान नेताओं की कमियों को सामने रख उनकी छवि बिगाड़ने का काम आरएसएस लगातार कर रहा है जबकि नेताजी सुभाषचंद्र बोस से आरएसएस के संस्थापक और प्रथम संघ प्रमुख डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने स्वस्थ्य रहते हुए बीमारी का बहाना बना उनसे मिलने से इनकार किया। मतलब आरएसएस की सत्ता और कार्यशैली हमेशा से ही झूठ पर चल रही है। आज नेताजी की 128वीं जयंती पर आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार और नेताजी की मुलाक़ात को लेकर हुई घटना का ज़िक्र इस लेख में किया गया है।

 23 जनवरी को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 128वीं जयंती के अवसर पर विनम्र अभिवादन। आने वाले दशहरे पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 100 वर्ष का होने जा रहा है, लेकिन इन 100 वर्षों में यह एक भी राष्ट्रीय स्तर का नेता पैदा नहीं कर सका और राष्ट्रीय स्तर का नेता बनने का सबसे बड़ा अवसर भारत का स्वतंत्रता संग्राम था, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने खुद को दूर रखा ताकि ब्रिटिश शासक नाराज न हों। इसके विपरीत, वे ब्रिटिश सेना और पुलिस के लिए सैनिकों की भर्ती के काम में लगे रहे। यह तथ्य आचार्य विनोबा भावे ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद मार्च 1948 में सेवाग्राम में पांच दिनों के लिए आयोजित सर्व सेवा संघ की स्थापना बैठक में आरएसएस के बारे में बोलते हुए बताया था। लेकिन उसके बावजूद, संघ समय-समय पर दावा करता रहता है कि उन्होंने देश की आजादी के दौरान पराक्रम पर्व किया है! जो सरासर झूठ है। मैं इस झूठ का एक नमूना प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिससे कोई भी आम पाठक यह जान सकेगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वास्तव में स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल था या नहीं।

आरएसएस के संस्थापक और प्रथम संघ प्रमुख डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा नेताजी सुभाष चंद्र बोस से मिलने से इनकार करने की घटना का पर्दाफाश स्वयं उस घटना के प्रमुख प्रत्यक्षदर्शियों में से एक और संघ के संस्थापक पंचायतनों में से एक बालाजी हुद्दार ने इलस्ट्रेटेड वीकली में लिखे एक लेख में किया है। वे स्वतंत्रता आंदोलन के शहीद शहीद-ए-आजम भगत सिंह के बारे में यह दावा करते रहते हैं कि संघ उनके प्रति कितना सम्मान रखता है और कांग्रेस या खासकर महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरु ने उनके साथ किस तरह का अन्याय किया? आरएसएस अपनी भगवा डिजिटल सेना के माध्यम से पर्दे के पीछे से लगातार इन बातों को प्रचारित करने की कोशिश कर रहा है। बालाजी हुद्दार के इस लेख से यह बात साफ तौर पर उजागर होती है। यह घटना 1939 की है, जब नेताजी भारत को स्वतंत्र कराने के लिए विदेश गए थे। उनका मुख्य उद्देश्य आरएसएस द्वारा शुरू की गई आईएनए में शामिल होना था। उन्होंने आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से मिलने की कोशिश की। यह कोशिश करने वाले व्यक्ति, आरएसएस के संस्थापकों में से एक बालाजी हुद्दार ने कहा कि ‘आरएसएस केवल हिंदू धर्म के गौरवशाली अतीत की चर्चा में व्यस्त है, लेकिन वर्तमान स्वतंत्रता आंदोलन से वह निश्चित रूप से दूर है।‘ यह देखकर बालाजी हुद्दार ने कहा कि ‘आरएसएस अपने इर्द-गिर्द घूमने के अलावा कुछ नहीं कर सकता।’

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बालाजी हुद्दार स्पेन जाकर इंटरनेशनल ब्रिगेड के साथ स्पेनिश तानाशाह फ्रैंको के खिलाफ युद्ध में शामिल हुए थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भी यह बात पता थी। इसलिए, अपने स्वयं के प्रयास करने के लिए, नेताजी ने त्रिपुरी कांग्रेस के बाद कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया और उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना करके ब्रिटिश राज के खिलाफ सीधा युद्ध छेड़ने की तैयारी शुरू कर दी। उन्होंने सबसे पहले भारत में लोगों को इसमें शामिल करने के प्रयास शुरू किए। इसीलिए वे मुंबई आए थे। एक दिन उन्होंने बालासाहेब हुद्दार को रात में मिलने के लिए बुलाया और बालाजी हुद्दार ने देखा कि शाह नाम के एक सज्जन भी नेताजी के साथ थे, नेताजी ने कहा कि मैं नासिक जाऊंगा और डॉ हेडगेवार से मिलूंगा और उनसे कहूंगा कि वे मेरी और सुभाष बाबू की मुलाकात तय करें। हेडगेवार उस समय नासिक में ठहरे हुए थे। तो शाह और मैं साथ में नासिक गए  और जब मैं हेडगेवार से मिलने उनके कमरे में अकेला गया, तो मैंने देखा कि हेडगेवार अन्य स्वयंसेवकों के साथ मजाक कर रहे थे। मैंने स्वयंसेवकों को थोड़ी देर के लिए बाहर जाने को कहा, और हेडगेवार जी से कहा कि ‘मैं मुख्य रूप से नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आग्रह पर आपसे मिलने आया हूँ। और नेताजी आपसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक हैं और इसीलिए उन्होंने मुझे भेजा है।’ तब हेडगेवार ने कहा कि ‘मैं बहुत बीमार हूँ और मैं बोल भी नहीं सकता। इसलिए मैं किसी से नहीं मिल पा रहा हूँ।‘ मैंने उन्हें बहुत समझाया कि ‘कांग्रेस के इतने बड़े नेता से मिलने का अवसर नहीं छोड़ना चाहिए’, लेकिन वे बार-बार अपनी बीमारी का बहाना बना रहे थे। मैंने कहा कि शाह नाम के एक सज्जन, जो उनके करीबी हैं, बाहर खड़े हैं, कम से कम आप उन्हें यह सब तो बता दें, नहीं तो नेताजी को लगेगा कि मैंने यह मुलाकात नहीं होने दी। लेकिन वे इस पर भी सहमत नहीं हुए और बिस्तर पर सोते समय खुद को चादर से ढक लिया, इसलिए मुझे मजबूरन बाहर जाना पड़ा और जो लोग पहले से ही हेडगेवार का मजाक उड़ा रहे थे, वे उस कमरे के अंदर जाते ही हंसने लगे और उनका मजाक उड़ाने लगे।

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 नेताजी सुभाष चंद्र बोस की यह पहल जर्मनी जाने से पहले की गई थी। इस प्रकरण को पढ़ने के बाद क्या आरएसएस को यह कहने का कोई नैतिक अधिकार है कि वह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल था? आरएसएस की स्थापना 1925 में हुई थी, इसलिए यह वर्ष आरएसएस की शताब्दी मनाने का वर्ष है, इसलिए मेरा आरएसएस को विनम्र सुझाव है कि उसने सौ साल का सफर कैसे पार किया है?  उसके कारण उसे क्या उपलब्धियाँ मिली हैं, उसे इस पर ईमानदारी से आत्मचिंतन करना चाहिए और स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े चरण (1920-47) के दौरान जब वह जमीन पर खड़ा था और उस समय वास्तव में उसका क्या योगदान था? उसे इस बारे में जरूर सोचना चाहिए क्योंकि जो संगठन आज सबसे ज्यादा देशभक्ति दिखा रहा है, उसने हमारे देश की आजादी में क्या योगदान दिया है?

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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