Friday, July 5, 2024
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सामाजिक न्याय के लिए जरुरी है सबकी सहभागिता

किसी भी देश का विकास तब तक संभव नहीं है जब तक कि वहां के किसानों, मजदूरों, आदिवासियों और महिलाओं की आर्थिक उन्नति नहीं होती और उनकी आर्थिक उन्नति के लिए जरूरी है, उनकी सामाजिक सहभागिता। बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’(बीडीएम) ने इस क्षेत्र में प्रयास शुरू किए हैं।

स्वाधीनोत्तर भारत के दलित आंदोलनों के इतिहास में 12-13 जनवरी, 2002 तक मध्य प्रदेश के कांग्रेस मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह  द्वारा आयोजित भोपाल सम्मेलन का एक अलग महत्व है, जिसमें प्रख्यात दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद के नेतृत्व में  250 से अधिक शीर्षस्थ दलित बुद्धिजीवियों नें शिरकत किया था। भोपाल के दलित सम्मेलन में दो दिनों के गहन विचार मंथन के बाद 21 सूत्रीय भोपाल घोषणापत्र जारी हुआ था, जिसमें अमेरिका की डाइवर्सिटी पॉलिसी(विविधता नीति) का अनुसरण करते हुए, वहां के अश्वेतों की भांति ही भारत के दलित-आदिवासियों को नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लायर, डीलर, ठेकेदार इत्यादि बनाने का एजेंडा पेश किया गया था।

भोपाल घोषणा जारी करते समय दिग्विजय सिंह ने कहा था कि  भारत का पहला दलित करोड़पति मध्य प्रदेश से ही निकलेगा। किन्तु किसी को भी यकीन नहीं था कि भारत में डाइवर्सिटी पॉलिसी लागू हो सकती है। पर, भोपाल घोषणा जारी करते समय किए गए वादे के मुताबिक, एक अंतराल के बाद 27 अगस्त, 2002 को मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने सरकारी खरीद में एससी- एसटी उद्यमियों को 30 प्रतिशत सप्लाई का आदेश देकर सप्लायर डाइवर्सिटी की शुरुआत कर दिया। दिग्विजय सिंह की उस छोटी सी शुरुआत से दलितों में यह विश्वास पनपा कि यदि सरकारें चाह दें तो सदियों से उद्योग- व्यापार से बहिष्कृत किए गए एससी/ एसटी को उद्योगपति/व्यापारी बनाया जा सकता है। फिर क्या था! देखते ही देखते डाइवर्सिटी लागू करवाने के लिए ढेरों दलित संगठन मैदान में कूद पड़े। किन्तु, कुछ साल बाद ही वे थक-हार कर बैठ गए। वैसे में डाइवर्सिटी के विचार को आगे  बढ़ाने के लिए मान्यवर कांशीराम के भागीदारी दर्शन और अमेरिका के डाइवर्सिटी सिद्धांत से प्रेरणा लेकर, 15 मार्च, 2007 को दलित लेखकों का संगठन : ’बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’(बीडीएम) वजूद में आया, जिसकी स्थापना इस लेख के लेखक ने की।

चूंकि बहुजन डाइवर्सिटी मिशन से जुड़े लेखकों का  यह दृढ़ विश्वास रहा कि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है तथा शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- में सामाजिक और लैंगिक विविधता का असमान प्रतिबिंबन कराकर ही सारी दुनिया के शासक इसकी सृष्टि करते रहे हैं, इसलिए हमने शक्ति के स्रोतों में सामाजिक और लैंगिक विविधता का  सम्यक प्रतिबिंबन कराने की कार्ययोजना बनाया। ऐसे में हमने शक्ति के स्रोतों में  सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिंबन कराने अर्थात भारत के विविध सामाजिक समूहों – एससी, एसटी, ओबीसी, धार्मिक अल्पसंख्यक और  सवर्ण समुदाय- के स्त्री- पुरुषों के संख्यानुपात में अवसरों के बंटवारे की निम्न  दस सूत्रीय कर्मसूची स्थिर किया।

बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का दस सूत्रीय एजेंडा

1- सेना व न्यायालयों, सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी स्तर की सभी प्रकार की नौकरियों सहित पौरोहित्य; 2- सरकारी और निजी क्षेत्रों  द्वारा दी जाने वाली डीलरशिप; 3- सरकारी और निजी क्षेत्र द्वारा की जाने वाली खरीदारी; 4- सड़क- भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग, परिवहन; 5- सरकारी और निजी क्षेत्र द्वारा चलाए जाने वाले छोटे- बड़े स्कूलों, विश्वविद्यालयों, तकनीकी- व्यवसायिक शिक्षण संस्थानों के संचालन, प्रवेश व अध्यापन; 6- सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा अपनी नीतियों, उत्पादित वस्तुओं इत्यादि के विज्ञापन मद में खर्च की जाने वाली धनराशि; 7- देश-विदेश की संस्थाओं द्वारा गैर-सरकारी संस्थाओं(एनजीओ) को दी जाने वाली धनराशि; 9- प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक  मीडिया एवं फिल्म-टीवी के सभी प्रभागों ; 9- रेल-राष्ट्रीय मार्गों की खाली पड़ी भूमि सहित तमाम सरकारी और मठों की जमीन व्यवसायिक इस्तेमाल के लिए अस्पृश्य- आदिवासियों के मध्य वितरित हो एवं 10- ग्राम-पंचायत, शहरी निकाय, संसद- विधानसभा की सीटों एवं केंद्र की कैबिनेट, विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों, विधान- परिषद– राज्यसभा, राष्ट्रपति, राज्यपाल एवं प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्रियों  के कार्यालयों में लागू हो सामाजिक और लैंगिक विविधता!

बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के एजेंडे उपरोक्त 10 सूत्रीय एजेंडा घोषित करने के बाद बीडीएम से जुड़े लेखको ने जुनून के  साहित्य और अखबारी लेखन के जरिए दस सूत्रीय एजेंडे को लागू करवाने का वैचारिक अभियान छेड़ा। इसके लिए साहित्य प्रकाशन के  साथ बीडीएम की ओर देश के विभिन्न शहरों मे 15 मार्च को ‘बीडीएम का स्थापना दिवस’ और 27 अगस्त को ‘डाइवर्सिटी डे’  का आयोजन भी होता रहा। देखते ही देखते बीडीएम साहित्य के लिहाज से देश के समृद्धतम  संगठनों में शुमार हो   गया। आज बीडीएम की ओर से 150 से अधिक पुस्तकें और  पम्फलेट्स प्रकासित हो चुके हैं, जिनमें 85 के करीब किताबें खुद इस लेखक की हैं।

कई राज्य सरकारों ने लागू किया डाइवर्सिटी

बीडीएम की ओर से  साहित्य के जोर से चलाया  गया  डाइवर्सिटी आंदोलन रंग लाया। इसके फलस्वरूप कुछ ही वर्षों बाद ढेरों लेखक/ऐक्टिविस्ट अपने-अपने तरीके से नौकरियों से आगे बढ़कर व्यवसाय- वाणिज्य सहित शक्ति के समस्त स्रोतों में हिस्सेदारी की बात करने लगे। यही नहीं कई राज्य सरकारों ने परंपरागत आरक्षण से आगे बढ़कर अपने राज्य के कुछ-कुछ विभागों के ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब, सप्लाई में आरक्षण देकर राष्ट्र को चौकाय। कई राज्य सरकारों ने आरक्षण का 50 प्रतिशत दायरा  तोड़ने के साथ निगमों, बोर्डों, सोसाइटियों में एससी/एसटी, ओबीसी को आरक्षण दिया। धार्मिक ट्रस्टों में आरक्षण देकर सामाजिक और लैंगिक विवधता को सम्मान दिया। इस मामले में कुछ राज्यों ने डाइवर्सिटी अर्थात विविधता लागू करने का विशेष दृष्टांत स्थापित किया।

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खासकर, झारखंड की हेमंत सोरेन और तमिलनाडु की स्टालिन सरकार ने विविधता को सम्मान देने का विशेष काम किया। वर्ष 2020 में झारखंड की हेमंत सोरेन सरकार ने भवन-निर्माण विभाग के 25 करोड़ के ठेकों में एसटी, एससी, ओबीसी को प्राथमिकता दिए जाने की घोषणा कर डाइवर्सिटी समर्थकों को  हतप्रभ कर दिया। कुछ ऐसा ही काम 2021 में तमिलनाडु में स्टालिन सरकार नें किया। जून 2021 में एमके स्टालिन ने तमिलनाडु के 36,000 मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं को आरक्षण देकर पौरोहित्य के पेशे में विविधता लाने का ऐतिहासिक मिसाल कायम किया। बहरहाल नौकरियों से आगे बढ़कर सीमित पैमाने पर ही सही सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, आउट सोर्सिंग जॉब, मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति इत्यादि में बिना वंचित वर्गों के सड़कों पर उतरे, कलम के जोर से जो हिस्सेदारी मिली, उससे बीडीएम से जुड़े लेखकों को भारी संतुष्टि मिली। संतुष्टि इस बात की  भी रही कि भाजपा सहित कई पार्टियों ने डाइवर्सिटी को अपने चुनावी घोषणापत्रों में जगह दिया।

डाइवर्सिटी को घोषणापत्रों में  जगह देने में सबसे पहले सामने आई : भाजपा

सबसे पहले भाजपा ने  2009  के लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र मे डाइवर्सिटी को जगह देते हुए कहा था, ‘भाजपा सामाजिक न्याय तथा सामाजिक समरसता के प्रति प्रतिबद्ध है। पहचान की राजनीति, जो दलितों, अन्य पिछड़े वर्गों और समाज के अन्य वंचित वर्गों को कोई फायदा नहीं पहुंचाती, का अनुसरण करने के बजाए भाजपा ठोस विकास एवं सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित करेगी। हमारे समाज के दलित, पिछड़े एवं वंचित वर्गों के लिए उद्यमशीलता एवं व्यवसाय के अवसरों को इस तरह बढ़ावा दिया जाएगा, ताकि भारत की सामाजिक विविधता पर्याप्त रूप से आर्थिक विविधता में प्रतिबिंबित हो सकते।‘ भाजपा ने यहीं बातें 2010 के बिहर विधानसभा और 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा में जारी अपने घोषणापत्रों में दोहराई।

भाजपा के अतिरिक्त कांग्रेस व अन्य कई दलों ने भी अपने घोषणापत्रों में डाइवर्सिटी को जगह दिया, किन्तु सबसे स्पष्ट रूप में  2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में डाइवर्सिटी को सम्मान देने के लिए आगे आई लोक जनशक्ति पार्टी। चूंकि लोजपा राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही थी, इसलिए उसके घोषणापत्र में तो नहीं, पर 15 अक्टूबर से 6 नवंबर तक उसे रेडियो-टीवी पर अपनी बात रखने का जो अवसर मिला, उसमें उसकी ओर से 7-8 बार दोहराया  गया, ‘ठेकेदारी, सप्लाई, फिल्म, मीडिया आदि धनोपार्जन के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। इसमें दलित, आदवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यकों को कोई अवसर नहीं है। सदियों से व्याप्त आर्थिक और सामाजिक असमानता के खात्मे के लिए राज्य सरकारें  नीतिगत फैसला नहीं ले सकीं। धनोपार्जन के सभी संसाधनों और स्रोतों में सामाजिक विविधता के आधार पर संख्यानुपात में समान भागीदारी और हिस्सेदारी की जरूरत है, लोजपा इसका समर्थन करती है!’

डाइवर्सिटी लागू करने में चैंपियन कांग्रेस 

जहां तक डाइवर्सिटी लागू करने का सवाल है कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ने भोपाल सम्लमेन के बाद 27 अगस्त, 2002 को मध्य प्रदेश में सप्लायर डाइवर्सिटी लागू कर एक इतिहास तो रचा ही, लेकिन उसके बाद डॉ. मनमोहन सिंह के राज में और बड़े कदम उठाए गए। जिन दिनों उच्च शिक्षा में कांग्रेस सरकार द्वारा ओबीसी के छात्रों के लिए दिए गए 27 प्रतिशत आरक्षण को लेकर देश में कोहराम मचा हुआ था, उसी दरम्यान मनमोहन सिंह ने निजी क्षेत्र में अमेरिका के डाइवर्सिटी पैटर्न पर वंचित वर्गों को आरक्षण दिए जाने की घोषणा कर डाला।

हालांकि उद्योग जगत के असहयोग के कारण वह इसको लागू करने मे सफल नहीं हो सके, पर भविष्य के लिए एक रास्ता बता  दिया था। उनके पहल पर 20 अप्रैल, 2006 को नवभारत टाइम्स ने ‘डंके की चोट पर नहीं’ शीर्षक से अपनी संपादकीय में लिखा था, ‘प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण का मुद्दा एक अरसे से जोर पकड़ता जा रहा है और अब खुद प्रधानमंत्री ने इस बहस में हस्तक्षेप कर दिया है। उन्होंने प्राइवेट सेक्टर से अपील की कि वह अपने कर्मचारियों में विविधता अर्थात डाइवर्सिटी लाए, ताकि महिलाओं और पिछड़े वर्गों को निजी क्षेत्र में उचित प्रतिनिधित्व मिल सके। प्रधानमंत्री का आशय यह लगता है कि प्राइवेट सेक्टर बिना किसी दबाव या कानूनी बाध्यता के अपनी तरफ से किसी तरह आरक्षण लागू करे, जिसे कोटे के बजाय अफरमेटिव एक्शन कहना ज्यादा सही होगा।

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बताया जाता है मंत्रियों के एक समूह का मानना है कि संवैधानिक बदलाव से प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण लागू किया जा सकता है। कुछ मंत्री भी ऐसे संकेत दे रहे हैं कि कानून के जरिए कोटा लागू करवाया जाएगा। इस मामले मे स्थिति साफ होनी  इसलिए जरूरी है कि कानूनन रिजर्वेशन और स्वैच्छिक अफरमेटिव एक्शन में गहरा फर्क है। ‘उसी दिन ‘राष्ट्रीय सहारा’ की संपादकीय में लिखा गया था, ‘निजी क्षेत्र में आरक्षण का मुद्दा अमेरिकी समाज में स्वीकृत ‘डाइवर्सिटी के सिद्धांत’ से प्रेरित है। वहां इस सिद्धांत के उदारता पूर्वक अमल होने से समाज के सभी वर्गों को उचित भागीदारी हासिल हुई। वहां उद्योग जगत में ही नहीं, बल्कि मीडिया में भी अश्वेतों को पर्याप्त नौकरियां मिल जाती  हैं। यह सिद्धांत मूल रूप में आयातित  करना उचित नहीं है, लेकिन इसे भारतीय सामाजिक परिप्रेक्ष्य के अनुरूप ढालकर लागू करने में कोई बात नहीं है।‘

2006 में मनमोहन सिंह द्वारा शुरू किया गया अमेरिका डाइवर्सिटी पैटर्न पर आरक्षण की बहस आगे बढ़ी। 5 जून, 2009 को केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली अमेरिकी अफरमेटिव एक्शन प्रोग्राम के तर्ज पर भारत में भी आरक्षण लागू करने की बात पर विचार करते हुए कहा कि सरकार निजी क्षेत्र में आरक्षण की दिशा में कदम उठाना चाहती है और उसे इस दिशा में अमेरिकी मॉडल अपनाने में कोई गलत बात नजर नहीं आती है। साठ  के दशक में अमेरिका ने समान अवसर की अवधारणा को अपनाया और अब उनके यहां इक्वेलिटी एक्ट है। इसी तरह हम भी इस दिशा में कदम उठाना  चाहते हैं। मोइली की बात का समर्थन करते हुए 5 जुलाई, 2009 को कॉर्पोरेट अफेयर्सएक्ट मंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा कि, ‘निजी क्षेत्र में अवसरों के बंटवारे का मानक बनेगी डिप्राइवेशन और डाइवर्सिटी।’

यही नहीं 15 सितंबर, 2009 को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की ओर से वित्त मंत्रालय को एक प्रस्ताव भेज गया था, जिसमें एससी और एसटी के लिए सरकारी खरीद  में 30 प्रतिशत आरक्षण देने की बात काही गई थी। बहरहाल डॉ मनमोहन सिंह अमेरिका के डाइवर्सिटी सिद्धांत से प्रेरित होकर भले ही निजी क्षेत्र में आरक्षण लागू न करवा सके, लेकिन  उन्होंने एससी–एसटी को उद्यमिता के क्षेत्र में बढ़ावा देने के लिए एमएसएमई के प्रोडक्ट में 4 प्रतिशत सप्लाई का आरक्षण प्रदान कर दिया था। इसी तरह 2012 में ओबीसी को उद्यमिता के क्षेत्र में आगे बढ़ाने के लिए भोपाल घोषणा से प्रेरित होकर पेट्रोल पंपों के डीलरशिप में 27 प्रतिशत हिस्सेदारी देने का साहसिक फैसला लिया। इस तरह देखा जाए तो नई सदी में कांग्रेस ने डाइवर्सिटी लागू करने की दिशा में अन्य दलों के मुकाबले बहुत ज्यादा प्रयास चलाया और अब राहुल गांधी उसे बुलंदी प्रदान करते नजर आ रहे हैं।

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15 मार्च, 2007 को वजूद में आए दलित लेखकों के संगठन बहुजन डाइवर्सिटी मिशन ने भारत में भीषण रूप में फैली मानव जाति  की सबसे बड़ी समस्या : आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए कांशीराम के भागीदारी दर्शन  और अमेरिका के डाइवर्सिटी सिद्धांत से प्रेरणा लेकर डाइवर्सिटी का जो वैचारिक आंदोलन छेड़ा उसका आशय  था विविधतामय  भारत के विविध सामाजिक समूहों के स्त्री और पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों का संख्यानुपात में बंटवारा। राहुल गांधी के ऐतिहासिक पहल से संख्यानुपात में अवसरों का बंटवारा 2024 के लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है। इससे देश भर के डाइवर्सिटी समर्थकों में खुशी की लहर दौड़ रही है।

राहुल गांधी विगत कई महीनों से कांशीराम के भागीदारी दर्शन को आगे बढ़ाते हुए ‘जितनी आबादी–उतना हक’ की हुंकार भरे जा रहे थे। तब लगा था कि धन-संपदा और अवसरों का विभिन्न सामाजिक समूहों के मध्य वाजिब बंटवारा लोकसभा का सबसे बड़ा मुद्दा बन सकता है। किन्तु 14 जनवरी से शुरू हुई भारत जोड़ों न्याय यात्रा में जिस तरह उन्होंने जुनून के साथ इस मुद्दे को उठाना  शुरू किया है, उससे तय है  कि लोकसभा में अवसरों और संसाधनों का वाजिब बंटवारा सबसे बड़ा मुद्दा बनेगा और देर सवेर  गांधी-बाबा साहेब- नेहरू का समतामूलक भारत निर्माण का सपना पूरा होगा।

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 राहुल गांधी भारत जोड़ों न्याय यात्रा में लगातार कहे जा रहे हैं कि आर्थिक और सामाजिक अन्याय सबसे बड़ा मुद्दा है और भारत को सुंदर बनाने के लिए आर्थिक और सामाजिक न्याय लागू करना ही होगा। वह जोर देकर कहे जा रहे हैं कि सारी कंपनियां, अस्पताल, अखबार,मीडिया सहित देश के धन और संपदा पर 90 प्रतिशत कब्जा देश की टॉप 4-5 प्रतिशत आबादी का है। इसमें कैसे दलित, आदिवासी, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और सामान्य वर्ग के गरीबों को वाजिब हिस्सेदारी मिले, इसका नक्शा यात्रा में लगातार पेश किए जा रहे हैं। इस विषय में उन्होंने किसान न्याय,  युवा न्याय के बाद 12 मार्च को महाराष्ट्र के नंदुरबार में ‘आदिवासी न्याय’ और 13 मार्च को  महाराष्ट्र के ही धुले मे ‘नारी न्याय’ का जो एजेंडा पेश किया है, वह सदियों से व्याप्त गैर-बराबरी के खात्मे की दिशा में मील का पत्थर साबित होने जा रहा है।

आजाद भारत में यह एकमात्र बहुजन डाइवर्सिटी मिशन संगठन है जो विगत 17 सालों से जेंडर डाइवर्सिटी के तहत  महिलाओं को शक्ति के समस्त स्रोतों में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी दिलाने की अनवरत अपील देश के नीति निर्माताओं, राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों के समक्ष करता आ रहा था। राहुल गांधी ने सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 50 प्रतिशत भागीदारी दिलाने की जो घोषणा किया है, उससे तय है कि आने वाले दिनों में अमेरिका, यूरोप के विकसित देशों की भांति भारत की आधी आबादी को भी शक्ति के स्रोतों में  आधी हिस्सेदारी सुनिश्चित होगी। बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के स्थापना दिवस के दो दिन पूर्व जेंडर डाइवर्सिटी का मार्ग प्रशस्त होने से डाइवर्सिटीवादियों की खुशी का कोई अंत नहीं हैं। भारत जोड़ों न्याय यात्रा में राहुल गांधी की घोषणाओं ने साबित कर दिया है कि डाइवर्सिटी को सम्मान देने में कांग्रेस ही सबसे आगे रही है। इसलिए आज बहुजन डाइवर्सिटी मिशन से जुड़े देश भर के लेखक लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा करते हैं ! (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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