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ग्राउंड रिपोर्ट

वर्तमान राजनीति को समझने के लिए जरूरी है कार्ल मार्क्स को याद करना

कार्ल मार्क्स अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के लिए समय निकालने के लिए हमेशा आतुर रहते थे। उन्होंने अपने जीवन के कुल  पैंसठ साल के जीवन में से लगभग चालीस साल से भी ज्यादा समय समाजवाद के चिंतन और उसके अनुसार आदर्श समाज की स्थापना के लिए लगा दिया।

अमूमन विद्यार्थी को पढ़ाई के समय, पास होने के बाद अपने भविष्य और कैरियर पर निबंध लिखने कहा जाता है, विद्यार्थी लिखते भी हैं लेकिन बाद में उसमें लिखी बातों को शायद ही कोई अपने जीवन में उतारता है।

लेकिन कार्ल मार्क्स को उम्र के सत्रहवें साल में मैट्रिक की परीक्षा में ‘व्यवसाय चुनने’ को लेकर एक निबंध लिखने को कहा गया, तब कार्ल मार्क्स ने ऐसा नहीं किया, उन्होंने परीक्षा के लिए भावी व्यवसाय के बारे मे जो भी कुछ लिखा था, उसमें उन्होंने उदात्त सपने बुनने में बिल्कुल भी कोताही नहीं बरती थी। सबसे अहम बात उसने लिखी थी ‘कि हम किसी के भी मातहत सिर्फ हुकुम मानने वाले काम को स्वीकार करने के बजाय, अपने खुद के व्यवसाय या स्वतंत्र काम शुरू कर लोकसेवा भी कर सकते हैं। ऐसे काम को प्राथमिकता देंगे। किसी साहित्यकार या कवि को कितनी भी प्रसिद्धि मिले लेकिन बगैर लोकसेवा किये वह कभी भी महान नहीं हो सकता।

क्या महात्मा गाँधी और उन्हें गुरू मानने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया की सोच कार्ल मार्क्स से मिलती-जुलती नहीं है। डॉ. राम मनोहर लोहिया तो सफाईकर्मी और बड़े अधिकारी की तनख्वाह बराबर होनी चाहिए, ऐसा आग्रह किया करते थे। उनके गुरु महात्मा गाँधी भी चाहते थे कि नाई और वकील का मेहनताना एक जैसा ही होना चाहिए। मतलब श्रम के मूल्य के बारे में कार्ल मार्क्स के सिध्दांत के अनुसार कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता है। इसी में समता निहित है।

इस निबंध के एक महत्वपूर्ण मुद्दे ने परीक्षक का ध्यान खींचा था और वह था कि ‘अपनी महत्वाकांक्षा पर परिस्थितियों का क्या प्रभाव पड़ता है?’ और जिस तरह समाज के साथ आपके खुद का निर्णय होने के पहले ही, कुछ रिश्ते पहले ही निश्चित हो जाते हैं। हमें जो स्वभाव जन्मजात मिलता है उसे बदल कर कोई तयशुदा व्यवसाय आप कर सकते हो यह संभव नहीं।

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इतनी कम उम्र में भी कार्ल मार्क्स की सामाजिक संरचना की समझ का कोई जवाब नहीं था। उन पर जर्मन दार्शनिक जोहान गॉटफ्राइड वॉन हर्डर जैसे लेखकों के साहित्य का गहरा प्रभाव था, उनके साहित्य में मानवीय संस्कृति, भौगोलिक और तत्कालीन भौतिक स्थिति केंद्र में थी। जब वे युवा थे, उन दिनों यहूदियों पर अनेक तरह की बन्दिशें लगी हुई थीं, जिसमें उन्हें किसी भी प्रकार के व्यवसाय की मनाही थी। सरकारी नौकरी करने पर रोक थी।

 उन पर हर्डर जैसे लेखकों के साहित्य के विचारों के प्रभाव था जिस वजह इतनी कम उम्र में भी सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विश्लेषण करने की समझ आ गई थी।

कार्ल मार्क्स का जन्म 5 मई  1818 में हुआ था। उनका परिवार तथा माता-पिता कई पीढ़ियों से धर्मगुरू का व्यवसाय करते आ रहे थे। यहूदी पिता हिसेल मार्क्स मशहूर वकील थे। उन पर फ्रेंच और जर्मन दोनों संस्कृतियों का प्रभाव था   इसलिए गॉटफ्रीड विल्हेम लीबनिज के तत्वमीमांसा और दार्शनिक ग्रंथों का बहुत ही लगन से अध्ययन किया था।  राजनैतिक दृष्टि से उन्हें प्रशियन राष्ट्रवादी कह सकते हैं। कार्ल मार्क्स की मां का नाम हेन्रिएट्टा था, जो आठ बच्चों की माँ थीं। वे पूरे समय अपने बच्चों और पति की सेवा करने में ही व्यस्त रहीं, उन्होंने कार्ल मार्क्स के बौद्धिक विकास या बौद्धिक संघर्ष में कभी भी भाग नहीं लिया है। आठ बच्चों मे सिर्फ कार्ल मार्क्स ने ही बौद्धिक क्षेत्र में अपनी क्षमता का परिचय दिया है, बाकी अन्य सामान्य ही थे  !

 पिता हिशेल मार्क्स ने आज से दो सौ साल पहले, 1824 को ख्रिस्ती धर्म स्वीकार कर लिया था। उस समय कार्ल मार्क्स की उम्र छ: साल थी और हिशेल ने धर्म परिवर्तन के साथ अपने नाम में भी परिवर्तन किया। धर्म परिवर्तन के बाद वे हेन्रिख नाम से जाने जाने लगे थे। और कार्ल मार्क्स के जीवन पर इस धर्म परिवर्तन का क्या परिणाम हुआ? यह तो नहीं मालूम, लेकिन यहूदी धर्म में रहते हुए जो परिणाम भुगतने पड़ सकते थे, उससे बच गए  लेकिन कुछ ऐसे प्रमाण मिले, जिनमें वे यहूदी धर्म के विरोधी हो गए थे।

  ट्रिएर में मार्क्स परिवार के पड़ोस में फॉन वेस्टफालेन नाम के प्रशियन सरकार के अधिकारी रहते थे। वे कई भाषाओं के जानकार थे। वह शेक्सपियर और होमर के दीवाने थे। ज्ञान और साहित्य में रूचि के साथ ही वे बहुभाषाविद थे, जिसके कारण वे उस परिवार के साथ घुल-मिल गये। उनकी बेटी जेनी और कार्ल मार्क्स की बहन की गहरी दोस्ती थी।

बाद में कार्ल मार्क्स भी जेनी के प्रति आकर्षित हुए। हालांकि जेनी कार्ल मार्क्स से चार साल बड़ी थीं। कार्ल मार्क्स ने उम्र के अठारहवें साल मे शादी का निर्णय लिया। जेनी बहुत ही सुंदर और अन्य गुणों से सम्पन्न होने के कारण वे जीवन के अंतिम समय तक जेनी के प्रति वफादार रहे।

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कार्ल मार्क्स ने वर्ष 1835 की गर्मियों में बाॅन यूनिवर्सिटी मे प्रवेश लिया। साल-भर बड़ी मुश्किल से वहाँ रहे और वहां बहुत ही सामान्य विद्यार्थी रहे। बाद में पिताजी ने उनका दाखिला बर्लिन विश्वविद्यालय में कराया। वहां पर न्यायतत्वशास्र का अध्ययन किया लेकिन उनकी रुचि इतिहास, तत्वज्ञान, भूगोल, साहित्य एवं सौंदर्यशास्त्र जैसे विषयों में बढ़ी और उसका अध्ययन किया। वे नोट्स लिए बिना पढ़ते नहीं थे। इस कारण उसने अपनी पढ़ाई की धुन में लेसिंग, सोलगर, विंकलमान, लुडेन के, हिस्ट्री ऑफ जर्मनी जैसे ग्रंथों का बहुत ही लगन से अध्ययन किया था। साथ में ही अंग्रेजी और इटालियन भाषाओं की किताबों की सहायता लेकर अध्ययन करने की कोशिश की लेकिन उनमें विशेष तरक्की नहीं कर सके।

अध्ययनशीलता के कारण कोई विशेष मित्र नहीं बना। फुर्सत के समय में खुद ही तत्वों के व्यूह तैयार करना और कांटका नव कल्पनावाद का त्याग कर के, हेगेल के सत्ताशास्त्र का स्वीकार किया। उसे तब तक अपने अंदर के सुप्त शक्ति का परिचय नहीं था। यह समय उनके जीवन का सबसे बड़ा संक्रमण काल का रहा है और इसी स्थिति में अपने पिताजी को पत्र में लिखा है कि, ‘मैं (10 नवम्बर 1837 ) जीवन का एक पर्व समाप्त कर लिया है, अगले पर्व में प्रवेश करते हुए लग रहा है कि इसी  समय  मेरे जीवन की आगे की दिशा निश्चित होने की संभावना है।’

और उसके बाद हेगेल के आधुनिक युग का तत्वज्ञान, इस किताब में वे पूरी तरह से अटक गए।  उधर पिता को पुत्र के खत से काफी निराशा हुई। उन्होंने उसे लिखा कि, ‘कम से कम किसी सीनियर वकील के मातहत कुछ सीखो या कोई सरकारी नौकरी करो।’ लेकिन कार्ल मार्क्स ने लिखा कि, ‘मैं प्रोफेसर बनना चाहता हूँ ।’ 1841 में उन्होंने डेमोक्रिटिक और एपिक्यूरस के तत्वज्ञान पर प्रबंध लिखा। उसी प्रबंध पर डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की लेकिन उनके इस यश को देखने से पहले ही मई, 1838 में 56 साल की उम्र में अचानक किसी बीमारी से चल बसे। वे कार्ल मार्क्स की शैक्षिक योग्यता का प्रमाण नहीं देख सके ।

उनकी इच्छा के अनुसार प्रशियन सरकार की, शिक्षक की नौकरी भी उनके क्रांतिकारी विचारों के कारण नहीं मिली। तब वह पत्रकारिता की तरफ मुड़े। वर्ष 1842  हेनिश ज़िटुंग नामक अखबार का पहला अंक 1, जनवरी 1842 में निकालने का मौका मिला और उसी साल अक्टूबर में पहले संपादक की सेवानिवृत्ति  के बाद कार्ल मार्क्स को अनायास संपादक की जिम्मेदारी का वहन करना पड़ा।

लेकिन प्रशियन सरकार के सूचना विभाग की नजरों में कार्ल मार्क्स की सामाजिक, राजनीतिक और अन्य विषयों पर लिखने की बात काफी नागवर लगने लगी। सरकार की वक्रदृष्टि के कारण कार्ल मार्क्स ने सूचना का अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर, सरकार और अखबार के प्रबंधकों के बीच के झगड़े के कारण, संपादक पद को छोडना पड़ा।

वैसे भी वह अर्थशास्त्र में अध्ययन करने के लिए समय निकालने के लिए आतुर थे।  इसके बाद वे ज्यादा गंभीर चिंतन-मनन करने और उसके लिए अध्ययन करने के लिए, अपने शहर को छोड़ने की बात सोची लेकिन उसके पहले हेगेल के साथ वैचारिक टक्कर लेने की बात मन में आई।

वैसे कार्ल मार्क्स के उपर हेगेल के विरोध-विकासवाद का काफी प्रभाव था। कार्ल मार्क्स के क्रांतिकारी विचारों के कारण जर्मनी से फ्रांस और फ्रांस से बेल्जियम और 1849 से मृत्यु तक 5 मई, 1883 तक इंग्लैंड में ही रहे। जहां पर उनके फ्रेडरिक एंजिल्स जैसे मिल मालिकों के बेटे के साथ दोस्ती हुई। उन्होंने मिलकर 1848 मे कम्युनिस्ट मेनीफस्टो का प्रकाशन किया।

कार्ल मार्क्स की मृत्यु के बाद ‘कैपिटल’ के खंडों को फ्रेडरिक एंगेल्स ने प्रकाशित किया और उनके परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा भी उठाया। इस तरह की मैत्री दुर्लभ ही होती है। कार्ल मार्क्स की पत्नी जेनी जो खुद सम्पन्न परिवार से  थीं ने कार्ल मार्क्स की बौद्धिक क्षमता को सम्हालने संवारने के लिए अपने आप को न्योछावर कर दिया है। ऐसी पत्नियां भी दुर्लभ होती हैं।

 कार्ल मार्क्स के जीवन में जेनी और फ्रेडरिक एंजिल्स जैसे शख्सियतों के कारण विश्व के औद्योगिक विकास के बाद उपजे पूंजीवाद को लेकर, शास्त्रीय विवेचना करने के लिए कार्ल मार्क्स ने अपने जीवन के कुल  पैंसठ साल के जीवन में से लगभग चालीस साल से भी ज्यादा समय समाजवाद के चिंतन और उसके अनुसार आदर्श समाज की स्थापना के लिए लगा दिया। ( मृत्यु 14 मार्च 1883 लंदन में )

यह हमारे ऋषि-मुनि जैसी अविरत ज्ञान की साधना करने के कारण आज कार्ल मार्क्स के 141वें  पुण्यस्मरण के बहाने वर्तमान दुनिया में, पूंजीवाद और मुक्त बाजारवाद के बढ़ते हुए खतरे की पृष्ठभूमि में समस्त विश्व के लिए सचमुच समाजवाद की आवश्यकता महसूस हो रही है। इसके लिए सही मायनों में भारत से लेकर संपूर्ण विश्व के समाजवादियों का एक होने का मौका है और यही कार्ल मार्क्स के प्रति सही श्रद्धांजलि हो सकती है।

 

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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