लोकतंत्र को अब तक की सबसे अच्छी शासन प्रणाली माना गया है। ज्यादातर देश इसे पाने या बनाये रखने की रात-दिन कोशिशें कर रहे हैं लेकिन विश्वप्रसिद्ध ओपन सोसायटी फाउंडेशन (ओएसएफ) की हालिया वह सर्वे रिपोर्ट चिंताजनक है जिसमें दुनिया के 42 प्रतिशत युवा अपने देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं बल्कि सैन्य शासन चाहते हैं। यह बदलती पसंद सारी दुनिया के लिये एक खतरनाक वैचारिक ट्रेंड हो सकता है। इस लिहाज से सर्वे रिपोर्ट यह संदेश भी देती है कि जिन लोगों पर लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने की जिम्मेदारी हैं, उन्हें ईमानदारी और समर्पण भाव से अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने की आवश्यकता है फिर वे चाहें सरकारें हों, संवैधानिक संस्थाएं हों, विपक्षी दल अथवा नागरिक हों। लोकतंत्र अगर लोगों की पहली वरीयता नहीं रह जाता तो नि:संकोच यह माना जा सकता है कि दुनिया एक खतरनाक मोड़ पर जा खड़ी हुई है। किंतु आज के राजनीतिक परिवेश यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि आज लोकतंत्र के ‘हालात चिंताजनक हैं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोगों की आस्था लोकतंत्र में घटती जा रही है। युवाओं को लगता है कि लोकतंत्र उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने में सक्षम नहीं है।’ यह सोचने की बात है हमारे देश के नागरिकों, खासकर युवाओं के दृष्टिकोण में ऐसा परिवर्तन किस लिये आया है।
आज यह एक खतरनाक सत्य है कि राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो रहा है। आज के अधिकतर युवा वर्तमान राजनीति की अराजकता/भ्रष्टाचार के चलते राजनीति से जुडऩा चाहते हैं, यह एक अच्छा संकेत नहीं हैं, लेकिन होना ये चाहिए कि युवाओं को लोकतंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में प्रयास करना चाहिए, न कि किसी की अंधभक्ति करना चाहिए। इन युवाओं को सोचना चाहि़ए कि किसी भी राजनेता की व्यक्तिग पूजा करने में उनका ही शोषण होता है। सबसे बड़ी चिंता की बात तो ये है कि देश में सत्तासीन राजनीतिक तथा सामप्रदायिक शक्तियां देश के संविधान में अपने दिमागी दिवालियापन के चलते हुए कुछ न कुछ कमियां ढूंढते रहते हैं और संविधान की समीक्षा के नाम पर संविधान को बदलना चाहते हैं। ऐसे लोगों का मुख्य मकसद संविधान के स्थान पर पुन: ‘मनुस्मृति’ को लागू करना है। कुछ मनुवादी शक्तियों द्वारा अधोलिखित आरोप केवल और केवल संविधान को बदनाम करने के लिए लगाए जाते हैं
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यह एक विदेशी संविधान है। ऐसा कहने वाले लोगों का कहना है कि संविधान के बहुत से प्रमुख अंश विदेशी संविधानों से लिए गए हैं। यहाँ समझ नहीं आ रहा कि यदि कहीं देश हित में कोई अच्छी बात कहीं से मिलती है, उसे मान लेना चाहिए अथवा नहीं? मेरा मत है कि किसी भी अच्छी बात को स्वीकारने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। एक तरफ तो यह कहा जाता है कि सारा विश्व एक पारिवार है तो फिर यह विदेशी संविधान कैसे हुआ?
- यह एक हिंदू विरोधी संविधान है। भारतीय संविधान को हिंदू विरोधी बताने वाले वो लोग है जिनकी समाज के प्रति दोहरी नीति अपनाने पर मनमानी करने की सोच पर पर कुठाराघात हुआ है। समाज के गरीब और निरीह लोगों पर मनुवादी व्यवस्था पर अंकुश लगना तय है। दूसरे संविधान विरोधियों को असल में संविधान से विरोध नहीं है, विरोध तो इस बात का है कि इस संविधान निर्माण के मुख्य शिल्पी दलित समाज के बाबा साहेब डॉ बीआर अम्बेडकर हैं। इसी कारण संविधान को पूर्णरुपेण क्रियांवित नहीं किया जा रहा है।
- यह केवल दलितों का संविधान है। ऐसी सोच उन लोगों की है जो समाज के बहुजनों के हितों का दमन करने में विश्वास रखते हैं। ऐसे लोग ब्राहम्णवादी मानसिकता के गुलाम हैं।
उक्त संदर्भ के आलोक में संविधान निर्माता बाबा साहेब के ये शब्द स्मरण हो आते हैं। जब विधिमंत्री के तौर पर अपने पहले ही साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि यह संविधान अच्छे लोगों के हाथ में रहेगा तो अच्छा सिद्ध होगा, लेकिन बुरे हाथों में चला गया तो इस हद तक नाउम्मीद कर देगा कि ‘किसी के लिए भी नहीं’ नजर आयेगा। उनके शब्द थे, ‘मैं महसूस करता हूं कि संविधान चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, खराब निकले तो निश्चित रूप से संविधान खराब सिद्ध होगा। दूसरी ओर, संविधान चाहे कितना भी खराब क्यों न हो, यदि वे लोग, जिन्हें संविधान को अमल में लाने का काम सौंपा जाये, अच्छे हों तो संविधान अच्छा सिद्ध होगा।’
उन्होंने चेताया था कि ‘संविधान पर अमल केवल संविधान के स्वरूप पर निर्भर नहीं करता। संविधान केवल विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे राज्य के अंगों का प्रावधान कर सकता है। उन अंगों का संचालन लोगों पर तथा उनके द्वारा अपनी आकांक्षाओं तथा अपनी राजनीति की पूर्ति के लिए बनाये जाने वाले राजनीतिक दलों पर निर्भर करता है।’ फिर उन्होंने जैसे खुद से सवाल किया था कि आज की तारीख में, जब हमारा सामाजिक मानस अलोकतांत्रिक है और राज्य की प्रणाली लोकतांत्रिक, कौन कह सकता है कि भारत के लोगों तथा राजनीतिक दलों का भविष्य का व्यवहार कैसा होगा? वे साफ देख रहे थे कि आगे चलकर लोकतंत्र से हासिल सहूलियतों का लाभ उठाकर विभिन्न तथा परस्पर विरोधी विचारधाराएं रखने वाले राजनीतिक दल बन जायेंगे, जिनमें से कई जातियों व संप्रदायों के लोग हमारे पुराने शत्रुओं के साथ मिलकर कोढ़़ में खाज पैदा कर सकते हैं। इस सोच के चलते उनके निकट इसका सबसे अच्छा समाधान यह था कि सारे भारतवासी देश को अपने पंथ से ऊपर रखें, न कि पंथ को देश से ऊपर। लेकिन ऐसा होने को लेकर वे आश्वस्त नहीं थे, इसलिए अपने आप को यह कहने से रोक नहीं पाये थे ‘यदि राजनीतिक दल अपने पंथ को देश से ऊपर रखेंगे तो हमारी स्वतंत्रता एक बार फिर खतरे में पड़़ जायेगी और संभवत: हमेशा के लिए खत्म हो जाय। हम सभी को इस संभाव्य घटना का दृढ़ निश्चय के साथ प्रतिकार करना चाहिए। हमें अपनी आजादी की रक्षा खून के आखिरी कतरे के तक करने का संकल्प करना चाहिए।’ उनके अनुसार संविधान लागू होने के साथ ही हम अंतर्विरोधों के नए युग में प्रवेश कर गए थे और उसका सबसे बड़ा अंतर्विरोध था कि वह एक ऐसे देश में लागू हो रहा था जिसे उसकी मार्फत नागरिकों की राजनीतिक समता का उद्देश्य तो प्राप्त होने जा रहा था लेकिन आर्थिक व सामाजिक समता कहीं दूर भी दिखाई नहीं दे रही थी।
यहां यह जानना अत्यावश्यक है कि लोकतंत्र में राजा की स्थिति प्रजा पर ही निर्भर होती है। यदि लोकतंत्र में राजा (प्रधानमंत्री) को देशवासियों को प्रसन्न रखने की कला नहीं आती है, तो ऐसे राजा को लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। कारण है कि लोकतंत्र में राजा रानी की पेट से नहीं आता, जनता द्वारा चुना जाता है। लेकिन राजतंत्र में मछलियों की भांति सब लोग एक-दूसरे को अपना ग्रास बनाते, लूटते-खसोटते रहते हैं। जैसा कि आज के भारत में हो रहा है। लोकतंत्र में राजा को समस्त मानवों का हित साधन करने वाला होना चाहिए। जिस देश को राजनीतिक उन्नति करना हो, वह यदि पहले सामाजिक उन्नति नहीं कर लेगा तो राजनीतिक उन्नति का महल आकाश में बनाने जैसा है। इस संदर्भ में हमारे महापुरुषों का साफ-साफ मानना है कि यदि राजसत्ता अत्याचारी हो तो जनता ऐसे राजा को ज्यादा दिन तक गद्दी पर नहीं रहने देती। जनता का सीधा उत्तर होता है- जा, जा, तेरे जैसे कितने ही राजा हमने मिट्टी में मिलते देखे हैं। जय प्रकाश नारायण ने कहा है कि राज शक्ति का स्थान जन शक्ति से ऊंचा नहीं है।
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संविधान को कमजोर बताने वाले लोगों को यह ज्ञान होना चाहिए कि भारत के संविधान निर्माता बी आर अंबेडकर ने प्रारूप सौंपते हुए संविधान सभा में अपने भाषण में कहा था कि उन्होंने तो संविधान बना दिया है लेकिन यह लागू करने वालों पर निर्भर करेगा कि वे इसे किस तरह से लागू करते हैं। लगभग यही बात लोकतांत्रिक प्रणाली पर भी लागू होती है। ज्यादातर समाज वैज्ञानिक व राजनीतिशास्त्र के जानकार स्वीकार करते हैं कि अब तक विश्व ने इससे बेहतर कोई शासन प्रणाली ईज़ाद नहीं की है। यह सच भी है। व्यक्तिगत और सामूहिक विकास की जो गुंजाइशें इस राजनीतिक व्यवस्था में उपलब्ध हैं, वे अन्य किसी भी प्रणाली में नहीं हैं। लोगों की लोगों के द्वारा लोगों के लिये’ कही जाने वाली यह बेहतरीन पद्धति दुनिया की तरक्की, सामाजिक सौहार्द्र, नागरिक आजादी, बन्धुत्व और विश्व शांति व एकजुटता के लिये सर्वाधिक अनुकूल है। शेष अन्य शासन पद्धतियां अपवाद स्वरूप कहीं-कहीं और वह भी थोड़े काल के लिये अच्छी साबित हुई होती हैं परन्तु व्यापक व समग्र रूप से देखें तो अन्य तरह की प्रणालियों ने लोगों का शोषण और उत्पीड़न ही किया है। शासन चलाने के ये तरीके कुछ ही लोगों के लिये फायदेमंद होते हैं। सामूहिक विकास इनसे बिलकुल सम्भव नहीं है। यही कारण है कि पूरी दुनिया ने अन्य पद्धतियों को छोड़कर लोकतंत्र को अंगीकार किया है।
यह सर्वे भारत के सन्दर्भों में भी प्रासंगिक है जहां एक खास मकसद से लोकतंत्र के खिलाफ स्वर उठवाए जाने लगे हैं। लोगों में एक नयी अभिरुचि परिलक्षित हो रही है जिसमें लोकतंत्र को अप्रत्यक्ष रूप से खारिज कर तानाशाही की बात की जाने लगी है। यहाँ तक बताया जाता है कि लोकतंत्र कुछ लोगों के तुष्टिकरण के लिये देश में लागू किया गया है। साथ ही लोकतंत्र को एक सामूहिक परिसम्पत्ति न मानकर उस पर बहुसंख्यक वर्ग व सम्प्रदाय का एकाधिकार जायज कहा जाने लगा है। यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है जिसके खिलाफ काम किये जाने की आवश्यकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकतंत्र को जीवित रखना सार्वजनिक हित में है तो यह जरूरी है कि समाज के प्रत्येक वर्ग को संविधान को बचाने के लिए काम करना चाहिए, न केवल बहुजनों को।
26 नवंबर को बहुजनों द्वारा संविधान दिवस पर जो हजारों प्रकार की यात्राएं, संविधान को घर घर बांटना, संविधान को बचाने के लिए बड़-बड़े सम्मेलन करना, संविधान बचाओ के नारे लगाना, संविधान बचाओ सरोकार समिति गठित करना, संविधान का ये, संविधान का वो क्या। किंतु इस पर तरह तरह से गहराई से कोई बात नहीं करना चाहता। संविधान बचाने का एक नया काम मिल गया है लोगों को। पैसा इकट्ठा करने का, अपने संगठन के अस्तित्व को बचाने के लिए कार्यक्रम लगाने का, अपनी नेतागिरी चमकाने की, चुनाव लड़्ने के अपने टिकट पक्का करने का, अपनी फोटो खिंचवाने का, संविधान के साथ अपना फोटो के साथ लगाने का, अपनी-अपनी करनी नाकरनी की चर्चा करने का, एक नया काम और मिल गया। कुछ दिन पहले तक यही लोग आरक्षण बचा रहे थे। अभी आरक्षण बचाने का जिक्र कोई नहीं करता। आरक्षण बचाओ, सरोकार समिति, आरक्षण बचाओ मेला, आरक्षण बचाओ अभियान, आरक्षण ऐसा, आरक्षण वैसा करना सब कुछ भूल गए।
अब संविधान को बचाने का नया काम आ गया। जो लोग पुराने हैं उन्हें याद होगा कि इससे पहले लोग अत्याचार/ उत्पीड़न बचाने के लिए उत्पीड़न विरोधी आंदोलन, उत्पीड़न विरोधी सम्मेलन, इकट्ठे होने का आह्वान करने तथा इसके लिए संगोष्ठियां सारे काम करते थे। आए रोज नेता नए नए मुद्दों को पकड़ लेते हैं। जैसे आरक्षण नहीं बचा, वैसे ही संविधान भी नहीं बचेगा अगर संविधान खतरे में है। तो पता कर लेना चाहिए कि संविधान खतरे में है या नहीं है? बचेगा तो कैसे बचेगा इस प्रकार की बात करते नजर आते है। भारत में इस बात के लिए जितने संगठन है आपस में बैठकर बात करने की वकालत भी नहीं करते। ना ही उनको बात करना पसंद है। वो आपस में एक दूसरे से उलझे रहते हैं: फलत: अधिकतर संगठन टूट जाते हैं।
यदि कोई ये कहे कि ऐसा नहीं है तो बताये की फिर टूट किस कारण से होती…कोई बताता नहीं। पर झगड़े के कारण कोई माने न माने तो पद प्राप्ति की लालसा, चंदे में प्राप्त पैसा, समाज में पोज़ीशन को बनाने मंशा और इसी प्रकार के कई ऐसे संगठनों में झगड़े के कारण होते हैं। अब इस मसलों को केंद्र में रखकर जो संगठन आपस में झगड़ के अलग अलग हुए हो, वे आपस में कैसे मिलेंगे? अगर उनके बीच किसी प्रकार के घमंड ना होते तो वो टूटते ही क्यों? वो ज्यादा ताकत एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगाते है । एक कहता है – देखो हमारी अधिवेशन में इतने लोग, दूसरा कहता है- देखो हमारे अधिवेशन में कितने लोग।
दिसंबर के महीने में हर साल ऐसे अधिवेशन लगते है। ऐसी गतिविधियों को देखकर क्या कोई कह सकता है कि ये जो जन जागृति आई है तो क्या बिना एकजुटता और बिना किसी कार्यक्रम के आई है? ये बात भी सही है की जो जन जागृति आयी है। लोगों ने अधिवेशन के माध्यम से जो भाषण सुने हैं या जो किताबें पढ़ी है या जो लोग चिल्लाए हैं, उनसे आई है, इसमें कोई इनकार नहीं है। अब सवाल उठता है कि जो-जो अधिकार गए हैं वो किसकी वजह से गएहैं? अगर इनमे जन जागृति आयी होती है और ये जन जागृति का सही इस्तेमाल किए होते और ये सच में जागृत होते तो आरक्षण तो बचता ही बचता, संविधान भी खतरे में ना आता । यहां तक कि नीतियां पॉलिसी बनाने में उनकी पूछ होती। इनको सारे लोग पूछते। बहुजनों में जागृति तो निश्वित रूप से आई है किंतु ये जनजागृति आपस में लड़ने की आई है। जनजागृति आपस में अपने संगठन तोड़ने की आई है। जन जागृति लोगों से गरीब लोगों से चंदा इकट्ठा करके अपना काम चलाने की आई है। इसमें किसी को शक हो, किसी को सुबा नही हो सकता। बहुत सारे संग बैठते हैं। मगर बड़ी-बड़ी अजीव बातें करते हैं। कोई कहता है कि उसका संगठन अच्छा है, वो क्रांति करेगा। तो कोई कहता है की सिर्फ उसका संगठन अच्छा है, वो क्रांति करेगा। कोई ये नहीं सोचता कि संगठन की नाकामयाबी पर लोग सवाल पूछेंगे, तो क्या जवाब देंगे? इसलिए अलग अलग पॉकेट बनी हुई है। अलग अलग धाराएं बने हुई हैं, अलग अलग गुट बने हुए हैं, अलग अलग गिरोह बने हुए हैं, ये तेरा बामसेफ, ये मेरा बामसेफ, ये तेरी भारतीय बौद्ध महासभा ये मेरी भारतीय बौद्ध महासभा, ये तेरी राजनीतिक पार्टी, ये मेरी राजनीतिक पार्टी, ये तेरा दल, ये मेरा दल, ये तेरी सेना, ये मेरी सेना इस प्रकार हर संगठन में लोग आपस में उलझे हुए हैं। एक दूसरे के कट्टर दुश्मन है। कट्टर आपस में मिलेंगे नहीं। समाज से इनके कोई सरोकार नहीं होते।
आप जिनके विरोध में नारे लगाते हो? क्या उनको पता नहीं है कि आप सोये हुए लोग हों। क्या उनको पता नहीं है कि आप टूटे हुए लोग हो, क्या उनको पता नहीं है कि आपमें आपसी झगड़े है? दुनिया भर के वॉट्सैप पे आपके झगड़े आते हैं, दुनिया भर के यूट्यूब पे आपके झगड़े आते हैं, दुनिया भर की पोस्टों में झगड़े आते हैं तो आप क्या करोगे? 26 नवंबर खूब रैली मेला लगा रहें, चंदा इकट्ठा कर रहे हैं तो कुछ उनके सहयोगी नेता बनने के लिए प्रयास कर रहे हैं। बस यह सब होता रहता है। संविधान क्या कहता है, संविधान क्या नहीं कहता है? संविधान कहता है कि मुझे कोई खतरा नहीं है। खतरा आपको हैं। मैं तो आपको खतरों से बचने के प्रावधान / समाधान बताता हूँ। बस! इतनी जरूरत है कि आप लोग मिल बैठें, मिलकर काम करें। आए रोज कोई धरना प्रदर्शन करने की आवश्यकता नहीं है। कोई चीखने- चिल्लाने की आवश्यकता नहीं है। उनको देखो जो इकट्ठे है क्या वो धरना करते हैं, उनके अलग-अलग संगठन भी किसी सामान्य मसले पर एक रहते हैं। मिलकर चुपचाप काम करते हैं। एकता में महती शक्ति है, इतनी सी बात समझ में नहीं आती। इतनी बात तो समझ में आती होगी कि संविधान में लिखा हुआ है कि जिसका बहुमत होगा। चाहे पार्लियामेंट में एमएलए एमपी हो या ना हो, चाहे पार्लियामेंट में जनप्रतिनिधि हो या ना हो, यदि आपके पास जनसंख्या तो सब आपकी बात मानेंगे। आपको इकट्ठा होना चाहिए। यदि इकट्ठे होने का दम ही नहीं है, जब इकट्ठे होने की बात ही नहीं है। बस! इस प्रकार सबके अपनेअपने सरोकार आपस में टकराकर जैसे बिखर जाते हैं।
26 नवंबेर को इतने सारे कार्यक्रम होते हैं। सबका एक ही मक़सद होता है कि संविधान को बचाना है। मुझे लगता है कि जैसे आरक्षण नहीं बचा, वैसे ही संविधान भी नहीं बचेगा। पता भी नहीं चलेगा कि कब संविधान गया जैसे कि आरक्षण इनडाइरेक्ट अथवा निजीकरण के कारण चुपके से चला गया। इसलिए अगर संविधान को मजबूत करना है, तो अपने आप को मजबूत करना होगा। क्या आपको ये नहीं लगता है कि बहुजनों के पैरोकार ही बाबा साहब का मिशन पूरा खत्म करने पर लगे हुए हैं, पूरे दलाल बन गए है दुनिया को जगाते हों, खुद सोये पड़े हो? ये उन लोगों की आवाज़ है जो बहुजनों के छुटभैया नेताओं से परेशान हैं, जो अकल का इस्तेमाल नहीं करते और कहते हैं कि हम जागरूक हैं। हम लोगों को जगा रहे हैं। अरे! पहले खुद जागो, उसके बाद लोगों को जगाना। अधिवेशन रैली, यह रैली, ये प्रदर्शन तो पिछ्ले 70 साल से लगातार चल रहे हैं। इनसे अधिकार जा रहे हैं, अधिकार आ नहीं रहे हैं। जो लोग इकट्ठे हो जाते है तो उन्हें रैली, धरना, प्रदर्शन करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। जो लोग शांति से इकट्ठे रहते हैं, उनके संवैधानिक अधिकार उनके घर पहुँच जाते हैं।
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इस मसले पर मेरी बात निरंतर एक तरफा चली जा रही है। यह विषय है ही ऐसा है जो समग्र भारत की शासन व्यवस्था को अपने आप में समोए हुए है। इस कड़ी में सिर्फ बैंक की श्रण व्यवस्था पर बात करके अपनी बात को अंजाम दूंगा। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में रोडवेज बस स्टैंड चौराहे पर एक ऐसी तस्वीर सामने आई है, जिसने हर किसी को चौंका दिया है। दरअसल, कर्ज में डूबे एक मजबूर पिता को अपने बेटे को 6 से 8 लाख रुपये में बेचने पर मजबूर होना पड़ रहा है। वह अपनी पत्नी और बेटी के साथ चौराहे पर बैठ गया और अपने बेटे की काठी उठा ली। उसके गले में एक बोर्ड लटका हुआ था और उस पर लिखा था – मेरा बेटा बिकाऊ है, मैं अपना बेटा बेचना चाहता हूं।
बैंकों का एक तरफ तो समाज के गरीब तबके के .प्रति ऐसा व्यवहार है कि एक छोटे से श्रण के लिए यथोक्त जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा। देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। दूसरी तरफ “कॉर्पोरेट” देश को लूट रहे हैं और उनके लाखों-करोड़ों रुपये के कर्ज माफ कर दिए गए हैं और साथ ही अनेक कार्पोरेट विदेश भाग जाते हैं। भारत के 25 सबसे बड़े विलफुल डिफॉल्टरों (Willful Defaulters) पर देश की विभिन्न बैंकों का करोड़ों रुपये बकाया हैं और सरकार की इनके कर्जों को वसूलने की मंशा सामने नहीं आ रही है। असल में सरकार और पूंजीपतियों के बीच एक साठगांठ वाला पूंजीवाद घर किए हुए लगता है, जो कुटिल राजनेता और व्यवसायी को धन उपलब्ध कराने की आवश्यकता के अनुरूप होता है। जिससे वह चुनाव लड़ सके। भ्रष्ट व्यवसायी को सार्वजनिक संसाधन और ठेके सस्ते में पाने के लिए कुटिल राजनेता की आवश्यकता होती है और राजनेता को गरीबों और वंचितों के वोट चाहिए। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र निर्भरता के चक्र में दूसरे से बंधा हुआ है, जो यह सुनिश्चित करता है कि यथास्थिति बनी रहे। आर्थिक व्यवस्था का ऐसा गठबंधन देश के लिए सर्वथा विनाशकारक है जिसमें आम आदमी की उपेक्षा होना लाजिम है। एक करोड़ चालीस लाख के देश में 81 करोड़ लोगों को सरकारी राशन पर जिंदा रहना इसका जिंदा प्रमाण है। जाहिर है कि पिछ्ले दशक में गरीबी के रेखा नीचे जीने वालों की संख्या में खासे बढ़ोत्तरी हुई है। सरकार का ऐसे रवैये को ‘क्रोनी कपीटेलिज्म ‘ की संज्ञा न दी जाए तो और क्या?