सिलक्यारा में हुई दुर्घटना के बाद सरकार को वहाँ बन रही चारधाम परियोजना पर फिर से विचार करना जरूरी है, क्योंकि भारत के पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे विशेषज्ञों ने हिमालय पर्वत के बारे में बताया है कि यह पर्वत दुनिया का सबसे तरुण और गाद मिट्टी से बना होने की वजह से इसमें निरंतर हलचल होती रहती है और इसका ज्यादातर इलाका भूकंप प्रभावित है।
इसी चारधाम परियोजना पर पुनर्विचार करने के लिए 2019 में बनाई गई रवि चोपड़ा समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि यदि इस परियोजना पर काम हुआ तो कौन-कौन से पर्यावरणीय नुकसान होंगे। बावजूद वर्तमान सरकार ने देश के लोगों की धार्मिक भावना को केंद्र में रखते हुए राममंदिर हो या चारधाम परियोजना, इस पर काम किया।
जबकि पर्यावरण मंत्रालय की यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि किसी भी तरह के निर्माण काम या स्थापना का पर्यावरण के साथ-साथ आम जनता पर क्या असर होगा, अध्ययन करते हुए अपनी सहमति या असहमति देना। लेकिन इन बातों को दरकिनार कर चारधाम मार्ग परियोजना पर काम शुरू रखा।
पर्यावरण संरक्षण की परवाह किए बिना तथाकथित विकास की पागल दौड़ में बौराए हुए हैं। मैदानी इलाकों के साथ-साथ हिमालयीन प्रदेशों में भी चौड़ी सड़कें, ओवरब्रिज, फ्लाईओवर, नुकसान की चिंता किए बैगर चारों धामों की यात्रा आसान करने के लिए बनाई जा रही है। यात्रा तो आसान हो जाएगी लेकिन किन बडे संकटों को मोल लेकर होगी, यह जान कर भी अनजान बने हुए हैं। सिल्क्यारा तथा जोशीमठ के हजारों मकान धँसने की घटना से सीखने की जगह हम इस परियोजना को पूरा करने जैसेआत्मघाती कदम बढ़ाए जा रहे हैं।
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उत्तरकाशी के सिल्क्यारा से बडकोट के बीच सुरंग बनाते समय जो हादसा हुआ, जिसमें 41 मजदूरों की जान आफत में आ गई थी। जिन्हें पारंपरिक मजदूरों ने (जो आहिस्ता-आहिस्ता मिट्टी को कुरेदते हुए छोटे-छोटे बिल बना कर) उनमें फंसे हुए मजदूरों तक रास्ता बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाए। जहां बड़ी मशीनों के इस्तेमाल से रास्ता बनना नामुमकिन था क्योंकि हिमालय पर्वत कच्चा पहाड़ होने के कारण धंसने की आशंका थी और होल करने वाली मशीन के कटर फंस जाने के कारण चूहों के जैसे बिल बनाने वाले पारंपरिक तकनीकों से सत्रह दिनों में 41 मजदूरों की जान बचाने में कामयाबी हासिल हुई। क्या यह घटना तथाकथित चारधाम परियोजना पर पुनर्विचार करने के लिए पर्याप्त नहीं है?
क्या सिल्क्यारा के टनल निर्माण में धँसने की घटना कुछ संकेत नहीं दे गई? परियोजना पूरी होने के बाद क्या सब कुछ ठीक ही रहेगा? क्योंकि पर्यावरण संबंधी आपत्तियों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया है। क्या जोशीमठ के हजारों मकान धँसने की घटना आँखें खोलने के लिए पर्याप्त नहीं है?
मैदानी इलाकों मे सड़कें बनाना व चौड़ा करना पहाड़ी इलाकों के बनिस्बत कम नुकसानदायक और काम कठिन होता है। हिमालय जैसे कच्चे पहाड़ के साथ वृक्षों को काटकर और मिट्टी के ढेर में सुरंगों का निर्माण करना साक्षात मृत्यु को निमंत्रण देने है। पहाड़ों में सुरंगों के निर्माण करने से पहाड़ कमजोर हो जाते हैं। पहड़ों पर भूस्खलन की घटना मैंने खुद अपनी आंखों से सितंबर 2022 के प्रथम सप्ताह में जम्मू से श्रीनगर जाते हुए के रास्ते पर देखी थी, जब हल्की बारिश हो रही थी और मैं गाड़ी में ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठा हुआ था। उधमपुर से थोड़ा आगे बढ़ने पर भूस्खलन होते देख, मैंने ड्राइवर को गाडी रोकने के लिए कहा। कुछ दूर सामने पर हमारी गाडी से भी बड़े आकार की चट्टान पहाड़ से फिसलकर गिरने के हादसे से हम लोग बाल-बाल बच गए। थोड़ा आगे बढ़े तो रामबन के पास एक और बड़ा भूस्खलन हुआ। सुबह दस बजे जम्मू स्टेशन से निकले हुए रात को दस बजे बड़ी मुश्किल से श्रीनगर पहुंछ पाए। जम्मू-कश्मीर हो या उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश या उत्तर-पूर्व, जहां-जहां पहाड़ी क्षेत्रों में सड़कें चौड़ीकारण के लिए पहाड़ों को काटकर सुरंग बनाने का काम हो रहा है, उन्हें अविलंब रोकने की आवश्यकता है।
क्योंकि हिमालय की टोपोग्राफी यह सब कुछ बर्दाश्त नहीं कर सकती, चौडी सड़कों के निर्माण होने के बाद वाहनों की आवाजाही बढ़ जाने से यह क्षेत्र इतना बोझ सहन नहीं कर सकता। इस बात को क्यों नजरंदाज किया जा रहा है। चारधाम महामार्ग परियोजना के तहत जो हर मौसम वाली सड़क (ऑल वेदर रोड) का निर्माण हो रहा है, वह भूकंप प्रभावित और कच्ची चट्टानों वाला क्षेत्र है। वहां पहाड़ टूटने का खतरा हमेशा मौजूद रहता है। यह क्षेत्र बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन (बीआरओ) तथा आईटीबीपी की निगरानी में है और जब-जब भूस्खलन होता है, तब-तब यहाँ का आवागमन रोक दिया जाता है और सड़कें साफ कर उसे चलने योग्य बनाते हैं।
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जो लोग गंगोत्री, जमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ की यात्रा करके आए हैं, वे जानते हैं कि वहां स्थिति कितनी खतरनाक है। प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा आत्मघाती हो सकता है। ग्लोबल वॉर्मिंग और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने से ही ग्लेशियर पिघलना शुरू हुआ है। हम लोगों ने 10 वर्ष पहले हुई केदारनाथ त्रासदी से भी सीख नहीं ली है। पर्यावरण संबंधी आशंकाओं और खतरों को क्यों नजरअंदाज किया जा रहा है?
टिहरी तथा हिमालय पर्वत की श्रेणी में बनाये जा रहे बांधों का विरोध सुंदरलाल बहुगुणा तथा प्रोफेसर अग्रवाल जिन्हें गंगापुत्र नाम से जाना जाता है ने किया। गंगापुत्र ने प्राण तक त्याग दिये लेकिन सरकार के कानों तक जूं तक नहीं रेंगी। तथाकथित कुशल तकनीक के सामने कुदरत का रौद्र रूप केदारनाथ, जोशीमठ और सिल्क्यारा की घटना के रूप में सामने आया। लेकिन हमने कोई भी सबक नहीं लिया।
सवाल आस्था है, उसके लिए समस्त हिमालय पर्वत ही क्यों न दांव पर लग जाए लेकिन यह देश के लिए एक भयावह भविष्य का संकेत है।