हिन्दी में दलित साहित्य अस्सी के दशक में अपना आकार लेता हुआ प्रतीत होता है। इस दशक में ही हिन्दी दलित कवियों के काव्य संग्रह प्रकाशित होने प्रारम्भ हुए। कुछ कहानी संग्रह और उपन्यास भी प्रकाशित हुए। नब्बे के दशक में नाटक और आत्मकथाएँ ही नहीं, लघुकथाओं के संग्रह भी प्रकाशित हुए।
डाॅ. एन. सिंह ने सन 1980 से लेकर सन् 2020 तक प्रकाशित हुए दलित साहित्य से उत्कृष्ट रचनाओं का चयन कर अवरोध कितने-कितने नामक संकलन का सम्पादन किया है। इसमें वयोवृद्ध कवियों से लेकर नवोदित कवियों तक की कविताएँ शामिल हैं। कुछ कहानियों तथा कुछ आत्मकथाओं के अंश भी इसमें संकलित किए गए हैं। इस पुस्तक में दो भाषण तथा दो लेखों का भी संकलन किया गया है।
इस पुस्तक की भूमिका हिन्दी साहित्य के प्रमुख प्रतिष्ठित हस्ताक्षर डाॅ. प्रेमशंकर ने लिखी है, जो उप्र हिन्दी संस्थान, लखनऊ के उपाध्यक्ष तथा लाल बहादुर शास्त्री एडमिनिस्ट्रेटिव एकेडमी मंसूरी में हिन्दी के प्रोफेसर रहे हैं। उन्होंने दलित साहित्य की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विरासत को विस्तार से खांकित किया है। उनका मानना है कि – ‘हिन्दी दलित साहित्य दलितों द्वारा दलितों के दुःख-सुख, शोषण, विरोध, स्वातंत्रय एवं मानवीय गरिमा के विशाल वैचारिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियों पर लिखा गया अनुभूतिपरक ईमानदारी का ज्वलन्त विकास है….. दलित साहित्य मानव मुक्ति का साहित्य है। यह वह जीवंत साहित्य है जिसका प्रत्येक अक्षर रक्त और पसीने से अपनी अभिव्यक्ति को सार्थकता, सबलता और व्यावहारिकता प्रदान कर रहा है।
डाॅ.एन. सिंह ने प्राक्कथन, हिन्दी दलित साहित्य उद्भव, विकास और संभावनाएँ के अन्तर्गत दलित चेतना के विकास को वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक के समय सन्दर्भों में रखकर विवेचित करने का प्रयास किया है। उन्होंने 1980 से लेकर 2020 तक चालीस वर्षों के बीच में लिखी गई दलित कविता, दलित कहानी, दलित नाटक, दलित आत्मकथा, दलित आलोचना का विस्तृत विवरण दिया है। उनका निष्कर्ष
है कि – ‘हिन्दी दलित साहित्य की उपलब्धियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं तथा उसका भविष्य बहुत उज्ज्वल है, जिसमें अनेक सम्भावनाएँ विद्यमान हैं।’
इस पुस्तक में संकलित 44 कवियों में वयोवृद्ध कवि सोहनपाल ‘सुमनाक्षर’ डाॅ. दयानन्द बटोही से लेकर इस समय के चर्चित कवि डाॅ. कर्मानन्द आर्य तक लगभग सभी शामिल हैं। इस तरह इसमें हिन्दी दलित कविता का क्रमिक विकास भी देखने को मिलता है। इस संकलन में जहाँ मलखान सिंह अपनी प्रसिद्ध कविता सुनो ब्राह्मण में उद्घोष करते हैं कि – ‘हमारी दासता का सफर / तुम्हारे जन्म से शुरू होता है / और उसका अन्त भी तुम्हारे अन्त के साथ होगा।’ वही ओमप्रकाश वाल्मिकी आत्मा के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए कहते हैं कि –
चूहड़े या डोम की आत्मा
ब्रह्म का अंश क्यों नहीं है
मैं नहीं जानता
शायद आप जानते हों।
डाॅ. प्रेमशंकर ने हिन्दू सभ्यता के छद्म को अपनी कविता वे सभ्य हैं में कुछ इस प्रकार उकेरा है –
वे
सभ्य हैं
आदमी से हाथ मिलाने के बाद
वे
हाथ धोते मांजते हैं
और फिर
मुस्कुराकर कहते हैं
”हम एक हैं“
फिर हाथ धोते हैं
ताकि हाथ में आदमी की
‘जाति’ न छप गई हो।
इसीलिए डाॅ. एन. सिंह अपनी कविता ‘सतह से उठते हुए’ में इस समस्त हिन्दू धर्म व्यवस्था की नींव खोदने की बात कहते हैं –
इसलिए अब
मेरे हाथ की कुदाल
धरती पर कोई नींव खोदने से पहले
कब्र खोदेगी
उस व्यवस्था की
जिसके संविधान में लिखा है –
”तेरा अधिकार सिर्फ कर्म में है
श्रम में है
फल पर तेरा अधिकार नहीं।
इस पुस्तक में संकलित कथाकारों में हिन्दी दलित कहानी के सभी बड़े नाम शामिल हैं। जैसे ओमप्रकाश वाल्मीकि, बी.एल. नय्यर, दयानन्द बटोही, मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम, श्योराज सिंह बेचैन, रत्नकुमार सांभरिया, डाॅ. सी.वी. भारती, प्रेमशंकर, अजय नावरिया, सूरजपाल चौहान, रजनी दिसोदिया, प्रहलादचन्द्र दास, अर्जुन सावेदिया तथा ब्रजमोहन आदि। इनकी कहानियों में दलित सामज के लिए एक सन्देश निहित है जिसे दलित समाज तक पहुँचाना बहुत आवश्यक है।
डाॅ. एन. सिंह ने दलित कहानी को विश्लेषित कर सच ही लिखा है कि – ‘हिन्दी दलित कहानी में हो रहे परिवर्तनों की आहट बहुत साफ सुनाई दे रही है। चाहे वह व्यक्ति के भीतर हो रहे हों या बाहर। दलित कहानी का प्रभाव सच की बेखौफ अभिव्यक्ति में है, जिसके लिए बहुत साहस की आवष्यकता है। दलित कथाकारों में यह साहस है, यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है। दलित कहानी का भविष्य बहुत उज्ज्वल है, उसके क्षेत्र विस्तार की बहुत सम्भावनाएँ हैं। उसे पाठकों की कमी नहीं रहेगी, लेकिन उसके लिए दलित कथाकारों को अपने दायित्व को बखूबी निभाना होगा और अपने सामाजिक सरोकारों को समझना होगा। भविश्य में यही दलित कहानी के जीवन स्रोत होंगे।’
इस पुस्तक में कलित आत्मकथांशों में – ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’, सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’, मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’, श्योराज सिंह बेचैन की मेरा बचपन मेरे कंधों पर, माताप्रसाद की ‘झोंपड़ी से राजभवन’, सूरजपाल चैहान की ‘संतप्त’, कौशल्या बैसन्त्री की ‘दोहरा अभिशाप’, कौशल पंवार की ‘बवण्डरों के बीच’ तथा जयप्रकाश नवेन्दु ‘महर्षि’ की ‘मेरे मन की बाइबिल’ आत्मकथाओं के अंश शामिल हैं।
हिन्दी दलित साहित्य इन आत्मकथाओं के कारण की बहुचर्चित रहा है। इन आत्मकथाओं ने हिन्दू समाज का दोरंगा चरित्र पूरी दुनिया के सामने बेनकाब किया है।
श्योराज सिंह बेचैन ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि – ‘धन्य है मेरा देश यह भारत। किस स्वर्ग से बढ़कर है यह देश, जहाँ मेरी माँ-बहनों की तुलना पशुओं से की जाती है और उनसे पशु जैसा आचरण किया जाता है।‘बकरी’ और चमारी की (अश्लील अकथनीय शब्द) टांग उठाओ’ अथवा चमरिया को चाची कह दो तो चौके में चली आएगी।’ ‘करिया बामन, गोरा चमार, इनके संग न उतरो पार’, ‘जेठ की धूप और चमार की छाँव से दूर रहो’, ये लोक कहावतें किसकी देन हैं? ऐसे सम्बोधनों की भरमार है गैर दलितों के पास हमारे लिए। सदियों से ये पत्थर फेंके जाते रहे हैं हमारी ओर, हम कमेरे और सेवक जो ठहरे। तो आज मैं इन्हें वापस करता हूँ, स्वीकार हो हुजूर दलित लौटाना चाहता है आपकी भाषा आपका व्यवहार।’
चूँकि दलितों के साथ सवर्णों का जो व्यवहार रहा है और उसका जो परिणाम दलितों ने अपने आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक और नैतिक जीवन में भोगा है उसका चित्रण सवर्ण हिन्दुओं को कटघरे में खड़ा करके उन्हें अपराधी घोशित करता है। परिणामतः इन आत्मकथाओं ने एक बारगी तूफान खड़ा कर दिया है।
डाॅ. एन. सिंह ने इस पुस्तक में दो ऐतिहासिक भाषण तथा दो लेख भी समायोजित किए हैं। पहला है ओमप्रकाश वाल्मीकि का नागपुर में आयोजित पहले हिन्दी दलित लेखक सम्मेलन के अध्यक्षीय पद से दिया गया भाषण। जिसमें श्री वाल्मीकि ने प्रेमचन्द को प्रश्नांकित करते हुए कहा था कि – ‘प्रेमचन्द ने दलित चेतना की कई कहानियाँ लिखी हैं, ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘दूध का दाम’ आदि। अन्तिम दौर की कहानी ‘कफन’ तक आते-आते वे गांधीवादी आदर्शों, सामंती मूल्यों, वर्ण व्यवस्था के पक्षधर दिखाई पड़ते हैं। एक अंतर्द्वंद्व है। उनकी रचनाआं में एक ओर दलितों से सहानुभूति, दूसरी ओर वर्ण व्यवस्था में विश्वास।’ इस पर विवाद उठ खड़ा हुआ। जो वर्ष चलता रहा।
दूसरा है चण्डीगढ़ में आयोजित ‘प्रथम अंतर्राष्ट्रीय दलित सम्मेलन’ के दूसरे सत्र का डाॅ. एन. सिंह का अध्यक्षीय भाषण। जिसमें उन्होंने दलित लेखकों का आह्वान किया था कि वे ऐसा साहित्य लिखें जो बेजुबान लोगों की आवाज बन सके। उन्होंने दलित साहित्य को सरस और सरल बनाने की भी बात कही थी।
डाॅ. धर्मवीर का लेख ‘अभिशप्त चिन्तन से इतिहास चिन्तन की ओर’ हिन्दी दलित साहित्य का बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है। इस लेख में डाॅ. धर्मवीर ने दलित चिन्तकों से कहा है कि – ‘दलित चिन्तक को गुरू रैदास, सन्त कबीर, स्वामी अछूतानन्द, गुरू बख्शीदास, सन्त चोखामेला, ज्योतिबा फुले, श्री नारायण गुप्त, अयंकाली, नन्दयाल, पेरियार स्वामी और बाबा साहब अम्बेडकर आदि अपने सभी महापुरुषों के चिन्तन को सम्मान की दृष्टि से देखना है और इतिहास में उनका क्रम और योगदान निर्धारण करना है। मूल्यांकन यह किया जाना है कि इन दलित महापुरुषों को द्विजों ने अपनी खड़ी की हुई लम्बी बाधा दौड़ में कितनी दूर तक और तिकनी देर तक उलझाया है और ये चक्रव्यूह का कौन सा द्वार तक तोड़ पाए थे।’
डाॅ. सी.बी. भारती ने हिन्दी दलित साहित्य के सौन्दर्य शास्त्र पर पहला लेख लिखा था। जो ‘हंस’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में उन्होंने लिखा है कि – ‘दलित साहित्य का सौन्दर्य परम्परागत मिथकों को तोड़ने और नारी की पतिपरायणा छवि को मिटाकर सहभागिनी का दर्जा प्रदान करने में है। इसका मूलमंत्र है तथागत गौतम बुद्ध का वाक्य – ‘अप्प दीपो भव’ (अपना दीपक आप बनो) दलित चेतना पाप-पुण्य के भाग्यवादी सोच को नकार कर विवेक व तर्क को महत्ता प्रदान करती है।’
अवरोध कितने-कितने इस रूप में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है कि यह बहिष्कृत समाजों और दबाई गई आवाजों का संचयन है।
अवरोध कितने-कितने सम्पादक: डाॅ. एन. सिंह
प्रकाशक: एकैडमिक पब्लिकेशन, बी-578, गली नं. – 8, नियर शांति पैलेस, पहला पुस्ता, सोनिया विहार, दिल्ली – 110090, संस्करण : 2021, मूल्य : रुपए 1495/-, पृ. : 480, डिमाई आकार
Sarah Beth का कहना है कि “अगर हम दलित आत्मकथाओं को दलित समुदाय की जीवन कहानियों के प्रतिनिधि के रूप में समझते हैं, तो यहाँ दलित निर्णायक तौर पर एक निश्चित मर्दाना और पुरुषत्व की पहचान के रूप में सामने आते हैं। इन लेखनों में दलित स्त्री वास्तव में लगभग पूरी तरह अनुपस्थित है।”
( Hindi Dalit Autobiography : An Exploration of Identity )