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दास्तां कलमकसाइयों की (डायरी,3 अक्टूबर, 2021)  

कोई भी समाज कितना सभ्य और विकसित है, इसके कई पैमाने हैं। इनमें से एक पैमाना यह कि सबसे कमजोर तबके के लोगों के साथ शेष समाज किस तरह का व्यवहार करता है। और सबसे कमजोर कौन है, यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है। मैं भारत और खासतौर पर बिहार और उत्तर प्रदेश के संदर्भ में […]

कोई भी समाज कितना सभ्य और विकसित है, इसके कई पैमाने हैं। इनमें से एक पैमाना यह कि सबसे कमजोर तबके के लोगों के साथ शेष समाज किस तरह का व्यवहार करता है। और सबसे कमजोर कौन है, यह सवाल बेहद महत्वपूर्ण है। मैं भारत और खासतौर पर बिहार और उत्तर प्रदेश के संदर्भ में यदि बात करूं तो मेरा विचार है कि वे सबसे कमजोर हैं, जिनके पास जमीन नहीं हैं। वे भूमिहीन हैं। इन भूमिहीनों में सबसे अधिक हिस्सेदारी दलितों और अति पिछड़ा वर्ग की है। बिहार में तो एक बड़ी आबादी उनकी भी है जिनके पास बहुत कम जमीन है। इतनी कम कि वे अपने लिए भरपेट रोटियां भी नहीं उगा सकते। इसके बावजूद बिहार में जमीन को लेकर विवाद बहुत होते हैं। हालत तो यह है कि लोग एक-एक इंच जमीन के लिए मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं।

दरअसल, विवादों की जड़ में कलमकसाई होते हैं। सबसे पहले इस शब्द का उपयोग जोतीराव फुले ने 1873 में लिखित अपनी पुस्तक गुलामगीरी में किया था। इस शब्द के जरिए उन्होंने महाराष्ट्र के उन भटों (ब्राह्मणों) को संबोधित किया था जो ब्रिटिश हुक्मरान के दौर में भी सत्ता के विभिन्न प्रतिष्ठानों में शीर्ष पर काबिज थे। फिर चाहे वह कुलकर्णी हों या फिर जिला अदालतों में जज। कुलकर्णी वे होते थे जो जमीनों के दस्तावेजों का ध्यान रखते थे। बिहार में आजकल इन्हें राजस्व कर्मचारी कहा जाता है।

[bs-quote quote=”बिहार में तो एक बड़ी आबादी उनकी भी है जिनके पास बहुत कम जमीन है। इतनी कम कि वे अपने लिए भरपेट रोटियां भी नहीं उगा सकते। इसके बावजूद बिहार में जमीन को लेकर विवाद बहुत होते हैं। हालत तो यह है कि लोग एक-एक इंच जमीन के लिए मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

तो जोतीराव फुले के काल में होता यह था कि कुलकर्णी जमीन हड़पने में सबसे आगे रहते थे। गरीबों की जमीन हड़पने के लिए तमाम तिकड़म भी करते थे। आज भी ऐसे सरकारी कर्मचारियों और वकीलों की बहुतायत है जो अपनी कलम के सहारे लोगों की जमीनें हड़पने में आगे रहते हैं। वे अपने संज्ञान में आनेवाले विवादों का इंतजार बगुला के माफिक करते हैं।

कल ही मेरी चर्चा बिहार के एक अधिवक्ता साथी ने बताया कि बिहार में जितने मामले न्यायालयों में लंबित हैं, उनमें से 75 फीसदी मामले जमीन से जुड़े हैं। अनेकानेक मामले तो इसलिए लंबित हैं क्योंकि इनके पीछे कलमकसाइयों की करतूत है।

मेरे सामने दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता है। इसके दूसरे पृष्ठ पर एक खबर है। खबर ठाणे जिले के शाहपुर नामक इलाके की है। खबर के मुताबिक एक भट वकील विट्ठल देसले ने अपने भाई के साथ मिलकर दो आदिवासियों को दो महीने तक बंधक बनाकर रखा। दरअसल, इन दोनों आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण महाराष्ट्र सरकार ने बांध निर्माण के लिए किया है। अधिग्रहण के बाद मुआवजे की राशि में हिस्सा लेने के लिए वकील और उसके भाई ने दोनों आदिवासियों को बंधक बनाकर रखा।

बहरहाल, ठाणे जिले की यह खबर तो मिसाल मात्र है। बिहार और उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में असंख्य लोग हैं जो कलमकसाइयों के चंगुल में फंसे हैं।

 

 

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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