अट्ठाइस साल पहले किया था डाक विभाग में आवेदन, न्यायालय के दखल पर मिला नियुक्ति का आदेश
नई दिल्ली। कोर्ट द्वारा 28 साल बाद दिया गया निर्णय का यह कोई पहला केस नहीं है। ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें निर्णय आने में कई वर्ष लग गए। दस, बीस, तीस वर्षों में निर्णय आता और अनेक बार तथाकथित अपराधी बरी हो जाता है। जीवन का एक हिस्सा जेल में मुकदमा लड़ते हुए गुजर जाता है और जब निर्णय आता है तब उस निर्णय का कोई मायने नहीं रहता केवल इस बात के कि न्यायालय में देर है अंधेर नहीं।
जबकि देखा जाए तो देर से निर्णय आना उस व्यक्ति के जीवन में न्याय के प्रति भले आस्था पैदा करे लेकिन जीवन का एक महत्वपूर्ण समय यूं ही निकल जाता है, जब उसे अपने जीवन के सपने और काम पूरे करने होते हैं। अभी 2023 के शुरुआती दिनों में एक खबर आई कि लखीमपुर खीरी में हिंसा के मामले में ट्रायल होने में ही कम से कम 5 वर्ष का समय लग सकता है। इसके बाद मामला आगे उच्च और उच्चतम न्यायालय में जा सकता है। ऐसे में हिंसा में मारे गए परिवार को न्याय कब मिलेगा नहीं कहा जा सकता। इसी तरह 16 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय ने निठारी कांड मे मुख्य अभियुक्तों को 17 साल बाद बरी कर देती है। इस तरह के अनेक केस हैं। कुछ ऐसे मामले भी सामने आए हैं जिनमें विचारधीन कैदियों का पूरा जीवन या जीवन का एक बड़ा हिस्सा जेल में ही कट जाता है। आतंकवादी, नक्सली बताकर उन्हें जेल में डाल दिया जाता है और उनकी न जमानत होती है न ही कोई सुनवाई, बस इंतजार होता है।
भाषा द्वारा प्रकाशित एक खबर के मुताबिक कुछ इसी तरह का नौकरी में नियुक्ति को लेकर 28 वर्ष बाद एक निर्णय आज आया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने डाक विभाग में नौकरी के लिए आवेदन किये जाने के 28 साल बाद उत्तर प्रदेश के अंकुर गुप्ता को 50 वर्ष की उम्र में नियुक्ति का आदेश देते हुए कहा है कि उसे पद के लिए अयोग्य ठहराने की गलती हुई थी, इस बात को स्वीकार किया।
मामला कुछ इस प्रकार है कि 17 अप्रैल 1995 को उत्तर प्रदेश के खीरी जिले के रोजगार अधिकारी से 10 डाक सहायकों की भर्ती के लिए योग्य उम्मीदवारों की सूची मांगी। जिसमें अंकुर गुप्ता का नाम भी था। लिखित परीक्षा के साथ टाइपिंग और कंप्यूटर योग्यता को देखने के लिए परीक्षा हुई। उसके बाद इंटरव्यू लिया गया जिसमें अंकुर का मेरिट लिस्ट में नाम आया। सफल उम्मीदवारों के लिए पंद्रह दिन का प्री इंडक्शन प्रशिक्षण देने का कार्यक्रम आयोजित हुआ। लेकिन इसके बाद 1996, मार्च में मुख्य पोस्ट जनरल ने अलग-अलग पोस्टमास्टर जनरल को पत्र के माध्यम से सूचना दी कि उम्मेदवार को बारहवीं कक्षा व्यावसायिक स्ट्रीम से पास की होना चाहिए। लेकिन अंकुर ने यह नहीं किया था, इसी वजह से उन्हें आगे के प्रशिक्षण के लिए नहीं भेजा गया, जिसके बाद अंकुर द्वारा अन्य असफल उम्मीदवारों के साथ केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (कैट) में मुकदमा किया गया। 6 मई 1999 को केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने उसकी याचिका स्वीकार कर नियुक्ति का आदेश दिया। डाक विभाग ने न्यायाधिकरण के आदेश को चुनौती दी और 2000 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का रुख किया। उच्च न्यायालय ने 2017 में याचिका खारिज कर दी और कैट के आदेश को बरकरार रखा। उच्च न्यायालय में एक पुनर्विचार याचिका दायर की गयी। उसे भी 2021 में खारिज कर दिया गया। इसके बाद विभाग ने शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया।
शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी और न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की पीठ ने कहा कि शुरुआत में ही अभ्यर्थी की उम्मीदवारी को खारिज नहीं किया गया और चयन प्रक्रिया में शामिल होने दिया गया। न्यायालय ने कहा कि अंतत: उनका नाम वरीयता सूची में भी आया। उसने कहा कि इस तरह किसी उम्मीदवार को नियुक्ति का दावा करने का अपरिहार्य अधिकार नहीं है, लेकिन उसके पास निष्पक्ष और भेदभाव-रहित व्यवहार का सीमित अधिकार है।
पीठ ने कहा कि गुप्ता के साथ भेदभाव किया गया और मनमाने तरीके से उन्हें परिणाम के लाभ से वंचित रखा गया।
उच्चतम न्यायालय ने कहा काम नहीं करने के कारण यह न तो बकाया वेतन का अधिकारी होगा न ही 1995 में नियुक्त किए गए उम्मीदवारों की उनके जॉइन करने की तारीख से न ही वरिष्ठता मिलेगी।
इस मामले में अंकित गुप्ता को नियुक्ति तो मिल गई लेकिन मात्र दस वर्ष के लिए। उनके बीते हुए साल में यदि वे इस नौकरी में रहते तो पेंशन और अन्य सुविधा उन्हें ज्यादा मिलती। उन्हें उनके सेवनिवृत्ति लाभों की गणना दी गई सेवा के समय उन्हें मिलने वाले अंतिम वेतन के आधार पर की होगी।