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ग्राउंड रिपोर्ट

बुनियादी सुविधाओं के अभाव में रहते हैं स्लम बस्तियों के लोग

'सबका साथ सबका विकास' यह बात कहने सुनने में अच्छी लगती है लेकिन देश के अनेक हिस्से ऐसे हैं, जहाँ बुनियादी सुविधाओं का अभाव देखने को मिलता है, जिसमें ग्रामीण इलाके के साथ ही शहरों से लगी हुई स्लम बस्तियां भी हैं, जहाँ रहने वाली महिलायें और बच्चे लगातार स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतों का सामना कर रहे हैं। इसे देखते हुए लोगों का कहना है कि सामाजिक संस्थाएं और कार्यकर्ता अपने सामूहिक प्रयास से उन बस्तियों की बुनियादी समस्यायों से निजात दिलवा सकते हैं लेकिन सवाल यह उठता है कि सरकार की अनेक योजनायें यहाँ सफल क्यों नहीं हो पाती हैं।

देश के सभी नागरिकों को एक समान बुनियादी सुविधाओं का लाभ मिले इसके लिए केंद्र से लेकर सभी राज्यों की सरकारें प्रयासरत रहती हैं और योजनाएं संचालित करती हैं। लेकिन अभी भी देश के कई ऐसे इलाके हैं जहां लोगों को बुनियादी सुविधाएं प्राप्त करने के लिए भी संघर्ष करनी पड़ती है। यह कमियां केवल दूरदराज़ के ग्रामीण क्षेत्र ही नहीं होती हैं, बल्कि शहरी क्षेत्रों में आबाद स्लम बस्तियों की स्थिति भी ऐसी है। जहां रोज़गार का अभाव, बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच से दूर, पीने का साफ़ पानी और बेहतर सड़क सहित अन्य मूलभूत आवश्यकताओं की कमियां रहती हैं। राजस्थान की राजधानी जयपुर स्थित बाबा रामदेव नगर स्लम बस्ती उन्हीं वंचित वर्गों को दर्शाती है जो सामाजिक न्याय और बुनियादी सुविधाओं से लगातार वंचित हैं।

यहां रहने वाले परिवार मजदूर वर्ग और न्यूनतम आय की श्रेणी में आते हैं जो दिन में दो वक़्त की रोटी कमाने के लिए भी प्रतिदिन संघर्ष करते हैं। लेकिन उनके जीवन की मुश्किलें सिर्फ़ गरीबी तक सीमित नहीं है। झुग्गियों में रहने वाले लोग विशेषकर महिलाएं और किशोरियां अक्सर अपने अधिकारों के लिए भी संघर्ष करती हैं, उन्हें न तो बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ मिल पाता है और न ही आगे बढ़ने के अवसर उपलब्ध हो पाते हैं। इस बस्ती में रहने वाली 55 वर्षीय मालती बताती हैं कि यहां सभी परिवार बेहतर रोज़गार की तलाश में राजस्थान के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन करके आये हैं। कुछ परिवार झारखंड जैसे दूसरे राज्यों से भी यहां आकर आबाद हुआ है। इन सभी में एक समानता है और वह है महिलाओं के स्वास्थ्य और उनके अधिकारों का अभाव। यहां रहने वाली सभी महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं। न्यूनतम आय होने के कारण परिवार को पौष्टिक भोजन उपलब्ध नहीं हो पाता है। ऐसे में इसका सबसे अधिक प्रभाव गर्भवती महिलाओं और उनके नवजात बच्चों में देखने को मिलता है।

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वहीं 35 वर्षीय राधा बताती हैं कि महिलाओं में खून की कमी किशोरावस्था से शुरू हो जाती है। परिवार में खाने वाले सदस्यों की संख्या अधिक और कमाने वाले हाथ की संख्या कम होने की वजह से किसी को भी पौष्टिक आहार का उपलब्ध होना मुमकिन नहीं है। लोगों के पास पर्याप्त रोजगार नहीं होने के कारण उनकी आय सीमित है। जिससे बहुत मुश्किल से परिवार का भरण पोषण संभव हो पाता है। ऐसे में इसकी सबसे पहली शिकार घर की महिलाएं और किशोरियां होती हैं। रामदेव नगर में आंगनबाड़ी नहीं होने के कारण बच्चों को इसका लाभ नहीं मिल पाता है। हालांकि बस्ती के बाहरी क्षेत्र में संचालित आंगनबाड़ी की सेविका द्वारा किशोरियों के बीच समय समय पर सेनेटरी पैड और आयरन की गोलियां वितरित की जाती हैं लेकिन नियमित रूप से नहीं होने के कारण अधिकतर किशोरियां इसका लाभ उठाने से वंचित रह जाती हैं।

भारत दुनिया के उन देशों में एक है जहां लगभग 20 प्रतिशत किशोर आबादी निवास करती है। जिनकी आयु 10 से 19 वर्ष के बीच है। इनमें लगभग 12 करोड़ किशोरियां हैं। जिस में से 10 करोड़ से अधिक किशोरियां एनीमिया से पीड़ित हैं। भारत में किशोरियों और महिलाओं में खून की कमी (एनीमिया) का होना बहुत आम है। एनएफएचएस-5 डेटा के अनुसार भारत में प्रजनन आयु वर्ग की 52 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित होती हैं। उनमें विटामिन और आयरन की सबसे अधिक कमियां पाई जाती हैं। जो उनमें विकास की क्षमता को पूरी तरह से प्रभावित करता है।

बाबा रामदेव नगर स्लम बस्ती जयपुर शहर से करीब 10 किमी दूर गुर्जर की थड़ी इलाके में आबाद है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति बहुल इस बस्ती की जनसंख्या 500 से अधिक है। इसमें लोहार, मिरासी, रद्दी बेचने वाले, फ़कीर, शादी ब्याह में ढोल बजाने वाले, बांस से सामान बनाने वाले बागरिया समुदाय और दिहाड़ी मज़दूरी का काम करने वालों की संख्या अधिक है। इस बस्ती में साक्षरता की दर भी काफी कम है। विशेषकर किशोरी शिक्षा का स्तर काफी चिंताजनक है। जिसके पीछे कई सामाजिक और आर्थिक कारण मौजूद हैं। इस बस्ती में आबाद बागरिया समुदाय के लोग बांस से बने सामान तैयार कर उन्हें बाजार में बेचते हैं। वहीं कुछ परिवार के पुरुष रिक्शा और ठेला चलाने का काम करते हैं। इस काम में उन्हें बहुत कम आमदनी होती है। कौशल विकास की कमी के कारण यहां रहने वाले लोग रोजगार के अन्य साधनों से दूर हैं।

नई पीढ़ी का भी शिक्षा से दूरी का कारण बताते हुए 36 वर्षीय कल्पना कहती हैं कि रोजगार के बिल्कुल सीमित विकल्प होने के कारण घर के बच्चे भी पढ़ने की जगह काम सीखने लग जाते हैं। वह कहती हैं कि इस बस्ती का कोई भी किशोर स्नातक भी नहीं है। वहीं अधिकतर किशोरियां 12वीं भी पूरी नहीं कर पाती हैं और उनकी शादी कर दी जाती है। बस्ती में पीने का साफ़ पानी भी उपलब्ध नहीं है। एक नल है जिसमें सुबह और शाम केवल 2 घंटे के लिए पानी आता है। पूरी बस्ती के लिए इससे पानी भरना पर्याप्त नहीं होता है। इसलिए अक्सर लोग आपस में चंदा जमा कर सप्ताह में एक बार पानी का टैंकर मंगाते हैं। वहीं बस्ती में नाली की सुविधा नहीं होने से घरों का गंदा पानी रास्ते पर बहता रहता है।

छह साल पहले रोज़गार की तलाश में झारखंड के गिरिडीह से आये 44 वर्षीय रामजी कहते हैं ‘बस्ती में सुविधाओं की कमी से काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सूचनाओं की कमी और योजनाओं तक पहुंच का अभाव होने के कारण बस्ती के लोग सरकार की योजनाओं का समुचित लाभ नहीं उठा पाते हैं।’ वह कहते हैं कि झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को अक्सर सामाजिक भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है। उन्हें कमतर समझा जाता है और उनकी समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाता है। समाज का यह रवैया न सिर्फ उन्हें हतोत्साहित करता है, बल्कि उनके आत्मविश्वास पर भी नकारात्मक असर डालता है।

समाजसेवी अखिलेश मिश्रा कहते हैं कि शहरी क्षेत्रों में आबाद बाबा रामदेव नगर जैसी स्लम बस्तियों मेंएरिया बुनियादी सुविधाओं की कमी को दूर करने के लिए सरकारी एजेंसियों, एनजीओ और स्थानीय समुदाय के बीच साझेदारी आवश्यक है। सामुदायिक भागीदारी के बिना न तो विकास संभव है और न ही लोगों की जीवन गुणवत्ता को सुधारा जा सकता है। इसके लिए कई स्तरों में योजनाओं को संचालित करने की आवश्यकता है। जैसे बस्ती में जल शोधन इकाइयों का निर्माण और सामुदायिक जल वितरण केंद्रों की स्थापना कर पीने के पानी की समस्या को दूर किया जा सकता है।

वह सुझाव देते हैं कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाएं नियमित स्वास्थ्य शिविर का आयोजन कर महिलाओं, किशोरियों, बच्चों और बुज़ुर्गों के स्वास्थ्य को बेहतर बना सकती हैं। इसके अतिरिक्त सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से ऐसे क्षेत्रों में किशोर-किशोरियों के लिए मोबाइल स्कूल चलाए जाने चाहिए ताकि शिक्षित होकर वह अपने सपनों को पूरा कर सकें। साथ ही, स्वरोजगार के लिए बस्ती के अंदर ही प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। वहीं महिलाओं के लिए स्वयं सहायता समूह के माध्यम से रोज़गार सृजन को बढ़ावा देकर इनके जीवन में उजाला लाया जा सकता है। (चरखा फीचर्स)

मीना गुर्जर
मीना गुर्जर
लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जयपुर में रहती है ।

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