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प्रो. वीर भारत तलवार को पढ़ते हुए, (डायरी 25 अप्रैल, 2022)

प्रो. वीर भारत तलवार को पढ़ना मतलब एक साथ कई कालखंडों के लांग ड्राइव पर निकल जाना होता है। सामान्य तौर पर ज़िन्दगी  इतना अवसर कहां देती है कि आदमी काम-काज छोड़कर अतीत का चक्कर लगाता फिरे। खैर जब वीर भारत तलवार का लेख ‘मैंने जो लिखा है, उसे कोई पढ़ेगा भी?’ पढ़ रहा था […]

प्रो. वीर भारत तलवार को पढ़ना मतलब एक साथ कई कालखंडों के लांग ड्राइव पर निकल जाना होता है। सामान्य तौर पर ज़िन्दगी  इतना अवसर कहां देती है कि आदमी काम-काज छोड़कर अतीत का चक्कर लगाता फिरे।
खैर जब वीर भारत तलवार का लेख ‘मैंने जो लिखा है, उसे कोई पढ़ेगा भी?’ पढ़ रहा था तब एक दिलचस्प बात याद आयी बचपन की। इससे पहले कि बचपन की बातों का उल्लेख करूं, यह दर्ज करना अनिवार्य है कि वीर भारत तलवार का उपरोक्त लेख तद्भव के नवंबर, 2017 अंक में प्रकाशित है।
अब बात पहले अपने बचपन की। दरअसल बचपन में हम बच्चों की टोली कमाल की टोली थी। हम भाषा विज्ञानी भी हुआ करते थे। तरह-तरह के शब्दों की खोज करते थे हम। हम इन शब्दों का उपयोग गालियां देने के लिए करते। मां-बहन को लगाकर दी जाने वाली गालियां हमारे जेनरेशन में पुरानी पड़ चुकी थीं। हम इन गालियों का उपयोग करने में अपनी तौहीन समझते थे। उन दिनों एक साथी का रिश्तेदार गंगा के दूसरे पार से आया। दूसरे पार का मतलब दियारे से। हमलोग उसको दिराहा बोलते। उसकी बोली अलग थी। मगही और भोजपुरी मिक्स। खेल-खेल में हुए झगड़े के बीच उसने किसी को गाली दी – छिनरी के भतार के लैका बा हाकिम बा हाकिम।
अब हम जो गंगा के इस पार के बच्चे थे, लगे उसकी गाली का पोस्टमार्टम करने। ‘छिनरी’ का मतलब चालाक स्त्री। यह सकारात्मक अर्थ है। नकारात्मकता में जीने वाले तो इसमें भी नकारात्मकता खोज लेते हैं। ‘भतार’ का मतलब पति अथवा वह जो पालन करता है। ‘लैका’ मतलब बच्चे और ‘हाकिम’ मतलब अफसर कोई बड़ा अधिकारी।

[bs-quote quote=”पटना, कलकत्ता, दिल्ली में रहने के बावजूद डॉ. सिंह का सबसे गहरा लगाव झारखंड ओर वहां के आदिवासियों से रहा, खासकर मुंडाओं से। यह उनके जीवन का पहला प्रेम था जिसे वे आजीवन छोड़ नहीं पाए। कम लोग जानते हैं कि डॉ. सिंह को मुंडारी भाषा बहुत अच्छी तरह आती थी। मुंडारी में उनकी दो रचनाएं मिलती हैं जो वास्तव में मुंडारी में दिए गए उनके भाषणों का लिपिबद्ध रूप है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

अब ‘छिनरी के भतार के लैका बा, हाकिम बा हाकिम’  का मतलब यह कि – चालाक स्त्री के पति का बच्चा कितना अच्छा है, एकदम अफसर टाइप का है। अब इसे कोई गाली कैसे कह सकता है। फिर इसका उपयोग गाली के लिए क्यों किया गया? यह सवाल बचपन में दिमाग में आता था। समय के साथ ऐसे सवाल आने बंद हो गए। उन दिनों तो एक से बढ़कर एक शब्दों व शब्द समूहों की खोज करते थे हमसब। एक शब्द था – कपिला। जाने कहां से यह शब्द हमारे दिमाग में आ गया था तब। हम साथियों के लिए इस शब्द का उपयोग तब करते जब वह हमें खूब पकाता यानी इरिटेट करता था। हम झल्लाकर कहते – एकदम कपिला हें का रे। या फिर – कपिला हो गईले का। कपिला का मतलब पगला।
जब यह शब्द एक बार फिर जेहन में वापस आया तो सवाल भी लौट लाया। कपिला का मतलब क्या है? आज मुझे लगता है कि मेरे पास इसका एक जवाब है। वह यह कि बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु में हुआ था और संभवत: इसी कारण यह कपिला शब्द मगध में मौजूद रहा। हालांकि तब ब्राह्मणों ने इसका उपयोग बुद्ध को गाली देने के लिए किया होगा। कपिला मतलब घर से भागा हुआ आदमी, खुद में खोया हुआ आदमी।
असल में ये सारे शब्द वापस नहीं आते, यदि मैंने वीर भारत तलवार का लेख नहीं पढ़ा होता, जो उन्होंने विलक्षण विद्वान, प्रशासक व लेखक कुमार सुरेश सिंह को समर्पित किया है। वीर भारत तलवार की खासियत यही है कि वे स्वयं किसी दूसरे के सांचे में नहीं ढलते हैं, बल्कि स्वयं सांचा बन जाते हैं। फिर चाहे वह समालोचनात्मक आलेख हो, इतिहास पर उनकी गिद्ध दृष्टि हो या फिर संस्मरण लेखन। हर मामले में अद्वितीय।
इस लेख में वीर भारत तलवार ने रामदयाल मुंडा की एक कविता को शामिल किया है –
मेरे राजा
कैसी यह तुम्हारी नहर
पानी कम
और लंबाई हिसाब से बाहर
पटता है केवल एक छोर
और बाकी रह जाता है ऊसर। 
तलवार जी के मुताबिक, यह कविता रामदयाल मुंडा ने तब लिखी थी जब वह छात्र थे और इसका पाठ उन्होंने कुमार सुरेश सिंह के सामने तब किया था जब वे खूंटी में अनुमंडलाधिकारी थे। रामदयाल मुंडा ने कुमार सुरेश सिंह को अपनी यह कविता उन्हीं के द्वारा उद्घाटित एक नहर को उदृद्धत करते हुए सुनाई थी। यह प्रत्यक्ष विरोध था रामदयाल मुंडा का। लेकिन कुमार सुरेश सिंह भी दूसरी मिट्टी के बने थे।

[bs-quote quote=”फुले के मुताबिक देश में मुस्लिम विरोधी भावनायें फैलाने में भी इन्हीं का हाथ था। इन ब्राह्मण संतों ने ‘अपने उन ग्रंथों के द्वारा किसानों के मन इतने गुमराह कर दिये कि वे कुरान और मुहम्मदी लोगों को नीच मानने लगे हैं, उनसे नफरत करने लगे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी रामदयाल मुंडा

बात 1980 की है, जब बिहार सरकार ने कुमार सुरेश सिंह को करीब दो महीने की अल्पावधि के लिए रांची विश्वविद्यालय का उपकुलपति बनाया था। कुमार सुरेश सिंह ने इस दौरान एक जबरदस्त काम किया। असल में वे न केवल एक अच्छे प्रशासक थे, बल्कि बहुत सुंदर योजनाकर्ता भी थे। उन्होंने बिहार सरकार को प्रस्ताव भेजा कि यूनिवर्सिटी में आदिवासी विषयों पर पीजी कोर्स चलाए जाएं। सरकार ने उनके प्रस्ताव को मंजूर भी कर लिया।
वीर भारत तलवार को पढ़ते हुए मेरी नजर हर शब्द पर रहती है। आप इसे माने न माने लेकिन सच यही है कि इतने कसे हुए लेख आपको बहुत कम ही मिलेंगे। जैसे हर शब्द एकदम ठोंक-बजाकर वाक्य में शामिल किये गये हों। किसी भी एक शब्द को निकाल दें तो फिर भले आप वाक्य का मतलब समझ जाएं लेकिन उस शब्द की कमी आपको बेचैन कर सकती है।

[bs-quote quote=”फुले ने वरकारी के ब्राह्मण संतों द्वारा दलित शूद्रों को सिर्फ धर्म और भक्ति के क्षेत्र में स्थान देने (और बाकी समाज में वर्णाश्रमधर्म को जारी रखने) के प्रयत्न को इसके ऐतिहासिक संदर्भ में देखा तो उन्हें लगा कि इस उदारता के पीछे एक कारण इस्लाम है। फुले ने भागवतधर्म के आंदोलन में मुस्लिम विरोध को छुपा हुआ देखा और दलित शूद्रों के प्रति ब्राह्मण संतों की उदारता को उनकी धूर्तता बतलाया। इस ऐतिहासिक संदर्भ का जिक्र करते हुए उन्होंने पूछा कि जब देश में मुसलमान आये और इस्लाम फैलने लगा, सिर्फ तभी इन ब्राह्मण साधुओं को दलित शूद्रों की याद क्यों आयी? उससे पहले कभी क्यों नहीं आयी?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

नमूने के तौर पर यह देखिए जो कुमार सुरेश सिंह को समर्पित इस लेख एक हिस्से में तलवार जी ने लिखा है ‘पटना, कलकत्ता, दिल्ली में रहने के बावजूद डॉ. सिंह का सबसे गहरा लगाव झारखंड ओर वहां के आदिवासियों से रहा, खासकर मुंडाओं से। यह उनके जीवन का पहला प्रेम था जिसे वे आजीवन छोड़ नहीं पाए। कम लोग जानते हैं कि डॉ. सिंह को मुंडारी भाषा बहुत अच्छी तरह आती थी। मुंडारी में उनकी दो रचनाएं मिलती हैं जो वास्तव में मुंडारी में दिए गए उनके भाषणों का लिपिबद्ध रूप है। इनमें से एक मीअद जगर जो 1978 में खूंटी में सर्वे सेटलमेंट ऑपरेशन संबंधी उनका मुंडारी में दिया गया भाषण है। दूसरा भी 1978 में ही होड़ सेणां सइमिति में दिया गया भाषण है। मुंडारी के अलावा वे उरांव लोगों की कुडूख भाषा भी जानते थे। रांची के अशोक नगर में उन्होंने अपना जो मकान बनवाया था, उसका नाम भी उन्होंने मुंडारी में गिचि बुरू (पहाड़ के सामने) रखा था।’
खैर, वीर भारत तलवार का एक और लेख जिसे मैंने अभी-अभी पढ़ा है, उसका शीर्षक है –
महाराष्ट्र : ब्राह्मण-गौरक्षा की परंपरा बनाम बहुजन नवजागरण। यह लेख तद्भव के अक्टूबर, 2016 अंक में प्रकाशित है। इसमें जोतीराव फुले के योगदान पर तलवार जी ने लिखा है –
‘भागवतधर्म, वरकरी संतों और रामदास की भूमिका के बारे में प्रार्थना समाज के उदार ब्राह्मण सुधारकों और उनके विरोधी परंपरानिष्ठ ब्राह्मणों की परस्पर विरोधी व्याख्याओं और रवैये से अलग एक तीसरा रवैया गैरब्राह्मण सुधारकों का था। जिसके सबसे बड़े प्रतिनिधि जोतिराव गोविंदराव फुले थे। फुले प्रार्थना समाज के उदार सुधारकों के कड़े आलोचक और परंपरानिष्ठ ब्राह्मणों के विरोधी थे। उन्होंने संतों के आंदोलन की व्याख्या करते हुए और उससे अपना संबंध जोड़ते हुए उसके प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाया। दलितों–शूद्रों के प्रति वरकरी संप्रदाय के ब्राह्मण संतों की उदारता को फुले ने संदेह की नजरों से देखा। उनका संदेह इस बात को लेकर था कि वरकरी संतों ने भागवतधर्म के नाम पर असल में उस वैदिक धर्म को ही आदर दिया था, जो समाज में वर्णव्यवस्था को बनाये रखने का आग्रह करता है। फुले ने वरकारी के ब्राह्मण संतों द्वारा दलित शूद्रों को सिर्फ धर्म और भक्ति के क्षेत्र में स्थान देने (और बाकी समाज में वर्णाश्रमधर्म को जारी रखने) के प्रयत्न को इसके ऐतिहासिक संदर्भ में देखा तो उन्हें लगा कि इस उदारता के पीछे एक कारण इस्लाम है। फुले ने भागवतधर्म के आंदोलन में मुस्लिम विरोध को छुपा हुआ देखा और दलित शूद्रों के प्रति ब्राह्मण संतों की उदारता को उनकी धूर्तता बतलाया। इस ऐतिहासिक संदर्भ का जिक्र करते हुए उन्होंने पूछा कि जब देश में मुसलमान आये और इस्लाम फैलने लगा, सिर्फ तभी इन ब्राह्मण साधुओं को दलित शूद्रों की याद क्यों आयी? उससे पहले कभी क्यों नहीं आयी? फुले ने लिखा है कि मुसलमानों को शासन कायम हो जाने के बाद- ‘उस समय बहुत ही चतुर मुकुंदराज, ज्ञानेश्वर, रामदास आदि ब्राह्मण धूर्त संतों ने काल्पनिक भागवतग्रंथ के धोखेबाज अष्ट पहलू वाले कृष्ण ने कुतर्क से भरी गीता में पार्थ को जो उपदेश दिया था, उसी का विश्लेषण किया और उस उपदेश का समर्थन करने के लिए उन्होंने प्राकृत भाषा में विवेकसिंधु, ज्ञानेश्वरी, दासबोध आदि जैसे कई पाखंडी ग्रंथों की रचना की और सभी ग्रंथों की कारस्तानी के जाल में अनपढ़ शिवाजी जैसे महावीरों को फंसाकर उनको मुस्लिमों के पीछे लगने के लिए मजबूर किया। इसी की वजह से मुस्लिम लोगों को कभी महाधूर्त ब्राह्मणों के बारे में समझने सोचने का समय ही नहीं मिला। यदि ऐसा न कहा जाये तो मुस्लिम लोगों के इस देश में आने के संक्रातिकाल में धूर्त ब्राह्मण मुकुंदराज को शूद्रादि अतिशूद्रों पर दया क्यों आयी उसके लिए विवेकसिंधु नाम का ग्रंथ उसी समय क्यों लिखा? इसके पीछे… अनपढ़ शूद्रादि अतिशूद्रों के मुस्लिम हो जाने का डर था और तब धूर्त ब्राह्मणों के मतलबी धर्म की बेइज्जती होनी थी।’ (पृ.137, फुले रचनावली, खंड-2, सं. एल.जी. मेश्राम, विमलकीर्ति, राधाकृष्ण, प्र. दिल्ली, 1996)
फुले के मुताबिक देश में मुस्लिम विरोधी भावनायें फैलाने में भी इन्हीं का हाथ था। इन ब्राह्मण संतों ने ‘अपने उन ग्रंथों के द्वारा किसानों के मन इतने गुमराह कर दिये कि वे कुरान और मुहम्मदी लोगों को नीच मानने लगे हैं, उनसे नफरत करने लगे हैं।’ (वही)
इस तरह फुले ने नवजागरण में संतों के आंदोलन को लेकर चल रहे विमर्श का पूरा परिप्रेक्ष्य ही बदल दिया और उदार ब्राह्मण सुधारकों के बड़प्पन का आधार ही खिसका दिया। शूद्र दलितों की सामाजिक स्थिति के हिसाब से फुले का यह विवेचन बिल्कुल स्वाभाविक और अनिवार्य था। क्योंकि तत्कालीन महाराष्ट्रीय समाज में व्यापक समाज का मुख्य अंतर्विरोध ब्राह्मणों द्वारा कायम वर्णाश्रमधर्म से था न कि मुसलमान शासकों से।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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